इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.चुनावी दहलीज पर खड़े दर्पण
उपचुनावों का सत्ता पक्ष कितना निर्णायक होगा यह जुब्बल-कोटखाई के बागी तेवर बताएंगे या फतेहपुर से अर्की तक भाजपा की कतरब्यौंत काम आएगी। हिमाचल भाजपा अपने साहसिक अभियान के तहत चुनावी मजमून पढ़ रही है और इसके मुकाबले कांग्रेस दहलीज पर खड़ी आगमन की सूचना दे रही है। बावजूद इसके क्या ये उपचुनाव राजनीतिक गणित में पार्टियों के इर्द-गिर्द घूमेंगे या अपने कोणीय प्रभाव से किसी व्यक्तित्व का अलंकरण करेंगे। अगर ऐसा होता है तो जुब्बल-कोटखाई में भाजपा छोड़कर निर्दलीय हो गए चेतन बरागटा के हाथ में आया ‘सेब रूपी’ चुनाव चिन्ह का वजन महसूस किया जाएगा। जाहिर है इस विद्रोह की चर्चा और इसकी फांस में भाजपा की तैयारियों का क्षरण भी होगा। यहां मसला सेब की अस्मिता के साथ-साथ बरागटा परिवार से जुड़ी संवेदना को खुद में समाहित कर लेता है, तो कांग्रेस के समीकरण भी उलझ सकते हैं। यानी इस खींचतान में पार्टियों का नुकसान अप्रत्याशित नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि दोनों प्रमुख पार्टियों के सामने कोणीय मुकाबले का अर्थ किसी एक की संभावना बढ़ा रहा है या किसी को सीधे चोट पहुंचा रहा है, लेकिन मतदाता के रूठने से राजनीतिक परेशानियां बढ़ेंगी। पार्टियों से अलग मतदाता के सामने अपने गुस्से का इजहार करना सभी का अमन चैन लूट सकता है। फतेहपुर में डा.राजन सुशांत अगर कुछ हासिल करते हैं, तो किसकी चुनावी खेती को नुकसान होगा, कहा नहीं जा सकता, फिर भी उनकी मेहनत से चुनाव के हाल परेशान कर सकते हैं।
जुब्बल-कोटखाई में चेतन बरागटा बिलकुल भाजपा के सामने हैं, तो इसके मायने सत्ता के नकाबपोश उद्देश्यों के विपरीत भी जा सकते हैं, लेकिन इस विरोध में कांग्रेस के मन में फूट रहे लड्डुओं की मिठास बढ़ा देगा, कहा नहीं जा सकता। जाहिर तौर पर जुब्बल-कोटखाई का चुनाव अपने कद से बड़ा ही साबित होगा। भले ही विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव मुद्दाविहीन होते नजर आ रहे हों, लेकिन मंडी संसदीय क्षेत्र अपने परिणाम के लिए मुद्दों की तपिश महसूस कर रहा है। यहां वर्तमान सत्ता का विकास सीधे वीरभद्र सिंह के विकास से मुकाबला करेगा। यहां भाजपा का भविष्य मंडी से अरदास करेगा। यहां वर्तमान मुख्यमंत्री का मुकाबला पूर्व मुख्यमंत्री के प्रति जनसंवेदना से है, तो हार- जीत के आंकड़े प्रदेश की सियासत बदल देंगे। यहां मुख्यमंत्री स्वयं एक मौखिक मुद्दा हंै और अगर वह इसे भुना पाए तो सरकार की परिपक्वता का श्रेय स्वयं जयराम ठाकुर को मिलेगा। दूसरा श्रेय मंडी बनाम शिमला व कबायली क्षेत्रों के लिए जीत पर निर्भर करेगा। तीसरा चुनावी जीत का रणनीतिक लाभ जयराम सरकार के वरिष्ठ मंत्री महेंद्र सिंह के करिश्मे को बढ़ा देगा। जीवन की सबसे बड़ी बाजी चेतन बरागटा व डा. राजन सुशांत लगा रहे हैं, क्योंकि अबकि बार खारिज हुए या पूरी तरह ठुकरा दिए गए, तो ऐसी परिस्थितियों से आने वाले समय में कोई भी नेता जुर्रत नहीं करेगा। इन चुनावों में ‘गुदड़ी के लाल’ को खोजना आसान इसलिए भी नहीं कि अगर सारा माहौल कांग्रेस बनाम भाजपा हो जाता है, तो सत्तारूढ़ की चुनावी शक्ति हर हथियार को भांजने की स्थिति में पूरी तरह सक्षम है।
मतदाता किसी उपचुनाव में अपने मत को गटर में फेंकने के बजाय सीधी बाजी में लगाना चाहती है, तो सवाल यही कि निर्दलीय प्रत्याशियों के लिए ये सीधी चुनौती बनेंगे। उपचुनावी सट्टे का सबसे बड़ा प्रश्न यही होगा कि क्या भाजपा छोड़ कर चेतन बरागटा अपना कद बता पाएंगे। राजनीतिक सट्टे का सबसे खोटा सवाल फतेहपुर में डा. राजन सुशांत से पूछ रहा है कि क्या वह अपना वजूद दिखा पाएंगे। उपचुनावों का अचंभित करने वाला भ्रम यही कि कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनावों का करिश्मा इस बार ही पूरी तरह दिखा पाएगी। उपचुनाव का सबसे आत्मविश्वासी व आत्मनिर्भर प्रश्न यह हो सकता है कि वर्तमान सरकार से पूरी तरह संतुष्ट मतदाता अपना सारा प्यार उंडेल देगा। जो भी हो, उपचुनाव का तराजू जिस नीले आसमान से लटका हुआ दिखाई दे रहा है, वहां किसी भी अनुमान की शून्यता स्पष्ट है और इसलिए चुनावी माहौल की शुरुआत हांफने से हो रही है। उपचुनावों की घोषणा से ऐन पहले जो प्रदेश अपने पूर्ण राज्यत्व के स्वर्णिम महोत्सव में शरीक था या जहां दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच अपने-अपने विकास के रथों का राजनीतिक जमीन पर दौड़ाने का प्रयास हो रहा था, वे मुद्दे कितने और कहां तक चल पाते हैं, यह भी देखा जाएगा।
2.बीएसएफ का ऑपरेशन क्षेत्र
अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे राज्यों में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) का अधिकार-क्षेत्र बढ़ाया गया है। अब पूर्वोत्तर राज्यों-मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड, मेघालय-के साथ जम्मू-कश्मीर और लद्दाख सरीखे संघशासित क्षेत्रों में बीएसएफ का ऑपरेशन क्षेत्र पूरे राज्य में होगा। यानी सीमा के भीतर पूरी तरह अंदर जाकर बीएसएफ कार्रवाई कर सकता है, जबकि पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल और असम में सीमा से 50 किलोमीटर राज्य के भीतर जाकर बीएसएफ तलाशी और गिरफ्तारी को अंजाम दे सकेगा। उन कार्रवाइयों के लिए अब उसे राज्य पुलिस, प्रशासन और अदालत के साथ समन्वय और अनुमति की बाध्यता नहीं होगी। विपक्ष की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है, लिहाजा पंजाब और बंगाल में भाजपा-विरोधी दलों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के इस निर्णय को संघीय ढांचे के खिलाफ करार दिया है। पंजाब कांग्रेस की आशंका है कि मोदी सरकार इस निर्णय के जरिए राष्ट्रपति शासन थोपना चाहती है। इस निर्णय के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की सलाह भी मानी जा रही है। आकलन यह भी सामने आया है कि आधे पंजाब पर पुलिस के बजाय बीएसएफ का नियंत्रण होगा, लिहाजा इस तरह राज्य सरकार के अधिकार क्षीण होंगे। इसे संवैधानिक तौर पर उचित नहीं माना जा रहा है, क्योंकि संविधान में कानून-व्यवस्था को राज्य सरकार के अधीन का मामला तय किया गया है। संविधान केंद्र सरकार को भी ऐसे संशोधन करने और सुरक्षा बल का अधिकार क्षेत्र बढ़ाने की शक्तियां देता है। अलबत्ता उसे संसद से पारित कराना भी लाजिमी है। मोदी सरकार ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला माना है। पंजाब में हालात बेहद असुरक्षित हैं। वहां ड्रोन से हथियारों की आपूर्ति और नशीले पदार्थों की तस्करी की जाती रही है। संभव है कि पूर्व मुख्यमंत्री ने मुलाकात के दौरान गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को पूरी तरह ब्रीफ किया होगा।
सरहदी इलाकों में आतंकी घुसपैठ और हमलों की संभावना भी बनी रहती है। कश्मीर में तो अपराधी, तस्कर और आतंकी सीमा पार कर आम जनता में घुल-मिल जाते हैं, लिहाजा उनकी पहचान और धरपकड़ पेचीदा हो जाती है। चूंकि बीएसएफ राज्यों में 15 किलोमीटर भीतर तक ही छानबीन, तलाशी और जांच आदि की कार्रवाई कर सकता था, लिहाजा अब उसे विस्तार देकर 50 किलोमीटर तक किया गया है। गुजरात में 80 किलोमीटर से घटाकर 50 किलोमीटर तक ऑपरेशन-क्षेत्र तय किया गया है। बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल में भी तस्करी बढ़ती जा रही है और आतंकी भी घुसपैठ कर रहे हैं। नए संदर्भों में बंगाल आतंकवाद का नया अड्डा बनता जा रहा है। बीते दिनों अलकायदा के आतंकी बंगाल के कुछ सरहदी इलाकों से पकड़े गए थे। इससे महत्त्वपूर्ण और ठोस साक्ष्य और क्या हो सकता है? राष्ट्रीय सुरक्षा केंद्र सरकार का अहम सरोकार है। यदि उसी में छिद्र और दरारें होंगी, तो भी विपक्ष चिल्ल-पौं करेगा। हमारा संघीय ढांचा और संघीय विशेषाधिकार इतने कमज़ोर नहीं हैं कि अंततः केंद्र ‘तानाशाह’ बन सके। अलबत्ता देश की सुरक्षा और संप्रभुता को बरकरार और स्थिर रखना हमारा दायित्व है। फिर सरकार में राजनीतिक दल कोई भी हो! तैनाती के अधिकार बीएसएफ के बढ़ाए गए हैं, न कि भाजपा अनधिकार चेष्टा कर सकेगी। बीएसएफ 12 राज्यों में तैनात है, लेकिन सिर्फ दो राज्यों-पंजाब और बंगाल-को ही महसूस हो रहा है कि यह संघीय अतिक्रमण की कोशिश है। यदि उनके पास ठोस दलीलें हैं, तो वे सर्वोच्च अदालत में याचिका लगा सकते हैं। बीएसएफ का ऑपरेशन क्षेत्र बढ़ाने से कुछ शुरुआती दिक्कतें झेलनी पड़ सकती हैं, लेकिन बीएसएफ को विस्तार दिया गया है, तो केंद्र सरकार और विशेषज्ञों ने कुछ मंथन किया होगा। हमें और चिल्लाते राज्यों को कुछ अंतराल तक प्रतीक्षा करनी चाहिए कि नए अधिकारों के फलितार्थ क्या रहते हैं।
3.आंदोलन में हिंसा
लखीमपुर में उड़ी हिंसा की धूल पूरी तरह जमीन पर आई भी नहीं है कि सिंघु बॉर्डर पर किसानों के प्रदर्शन स्थल के निकट एक युवक की निर्मम हत्या ने झकझोर कर रख दिया है। यह हत्या ऐसी है, जिससे संयुक्त किसान मोर्चा ने भी पल्ला झाड़ लिया है और इसे एक बड़ी साजिश करार दिया है। हत्यारों ने जिस तरह से शव को अपमानित किया है, उसे हल्के से नहीं लिया जा सकता। यह घटना ऐसी नहीं है, जिससे संयुक्त किसान मोर्चा आसानी से दामन छुड़ा ले। कोई भी आंदोलन जिम्मेदारी भरा काम है, इस जिम्मेदारी को उठाने वालों के लिए यह जरूरी है कि वे संविधान और मानवीयता के तहत अपना नैतिक बल बनाए रखें। इस हत्या से आंदोलन पर भले कोई सीधा असर न पडे़, लेकिन एक दुखद अध्याय तो उसके साथ जुड़ ही गया है। किसान मोर्चा पूरा जोर लगा देगा कि वह मरने वालों के साथ-साथ मारने वालों से भी दूरी बना ले, लेकिन क्या वह हाथ झाड़कर खड़ा हो सकता है?
यह बहुत दुख की बात है कि इस आंदोलन के साथ एक संप्रदाय विशेष का धार्मिक जुड़ाव किसी से छिपा नहीं है। इस धार्मिक संप्रदाय के झंडावाहकों के दामन पर इस निर्मम हत्या के दाग लगे हैं। यह संजीदगी के साथ विचार करने का समय है। मारने वालों को सोचना चाहिए कि इस हत्या से किसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है? क्या इस हत्या से आंदोलन को मजबूती मिली है? कायदे से आंदोलन में तो उन्हीं लोगों को होना चाहिए, जिनका आचरण संविधान की रोशनी में जिम्मेदारी भरा हो। किसान आंदोलन के नाम पर एक तांडव देश ने 26 जनवरी को दिल्ली की सीमा से लाल किले तक देखा था, लेकिन तब भी देश ने हुड़दंग करने वालों को माफ कर दिया था। आज उस बवाल की कोई चर्चा नहीं करता। किस तरह से तलवारबाजी हुई थी, किस तरह से लोगों को आतंकित किया गया था, लोग भूले नहीं हैं। इसके बावजूद किसान आंदोलन चल रहा है और ऐसा लगता है कि अराजक तत्वों की संख्या आंदोलन में फिर बढ़ रही है।
अब किसान आंदोलन के कर्ताधर्ताओं को सचेत हो जाना चाहिए। लखीमपुर में किसानों के साथ सहानुभूति के बावजूद एक दुखद तथ्य यह भी है कि वहां हिंसा को हिंसा से जवाब दिया गया। किसान आंदोलन के नेताओं को एक बार गिरेबान में झांकना चाहिए। क्या ऐसी हिंसा के कारण उनके प्रति सहानुभूति में कमी नहीं आ रही है? ऐसी हिंसा से क्या समाज में हमेशा के लिए एक ऐसा वर्ग नहीं खड़ा हो रहा है, जिसकी यादों में किसान आंदोलन एक दु:स्वप्न होगा? क्या किसानों की कोई जवाबदेही नहीं है? किसी भी आंदोलन को अंदर से साफ करना और रखना आंदोलनकारियों का स्वयं का काम है। अगर आंदोलन में हिंसक या साजिश करने वाले शामिल होने लगे हैं, तो यह किसान नेताओं की सबसे बड़ी जवाबदेही है। जो नकली किसान समर्थक आंदोलन में घुस आए हैं, उन्हें पहचानकर निकाल बाहर करना भी आंदोलनकारी किसानों का ही कर्तव्य है। हजारों किसान दिल्ली सीमा पर डटे हैं, लेकिन क्या किसी में हिम्मत नहीं थी कि ऐसी निर्मम हत्या को रोकता? मृतक पंजाब का एक मजदूर बताया जा रहा है, उसे न्याय मिलना चाहिए। ध्यान रहे, इस देश में सजा देने का अधिकार केवल अदालत को है और किसी को नहीं।