इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.बिखरने लगी कांगड़ा की मिट्टी
राजनीतिक असंतुलन, क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा, कमजोर नेतृत्व और भितरघात के दलदल में फंसे कांगड़ा से फिर दम घुटने की आवाजें और नई मुरादें सामने आ रही हैं। यह दीगर है कि पहले ही विधायक रमेश धवाला को अनसुना किया गया और बतौर मंत्री सरवीण चौधरी सत्ता की सबसे कमजोर कड़ी बनी दिखाई देती हैं। अपने संघर्ष के सारथी पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे डा. राजन सुशांत ने फतेहपुर उपचुनाव में पुन: कांगड़ा का आक्रोश आकर्षित किया है। नूरपुर में भले ही बतौर मंत्री राकेश पठानिया ने खुद को बुलंद करने के फार्मूले ईजाद किए हैं, लेकिन रणवीर सिंह ‘निक्का की हुंकार सारे संदर्भों की सूरत बिगाडऩे के लिए काफी है। चुनाव के आगमन से पूर्व पुन: विजय सिंह मनकोटिया राजनीतिक घास काटते हुए नजर न आएं, यह असंभव है और वह अपने अरमानों की दीवार पर कांगड़ा का आक्रोश लटका कर घंटी बजा रहे हैं। वह कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार, धर्मशाला को दूसरी राजधानी का दर्जा तथा तपोवन विधानसभा में सत्र का दो हफ्ते का विस्तार चाहते हुए, अपनी सियासी मिलकीयत खड़ी करना चाहते हैं।
पंजाब पुनर्गठन के बाद हिमाचल को विशालता देने वाले कांगड़ा को सत्ता की नाराजगी झेलनी पड़ी है या यह कहें कि इस क्षेत्र ने तमाम नालायक नेता पैदा किए या आपसी द्वंद्व में नेताओं की हस्ती मिटती रही, जब-जब अवसर दस्तक देता रहा। स्व. पंडित सालिग राम के पक्ष में इतने आंकड़े थे कि वह स्व. वाईएस परमार के मुकाबले मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन सत महाजन के सियासी आखेट के शिकार हो गए। दो बार भाजपा के मुख्यमंत्री बनकर भी शांता कुमार अगर पूरी यात्रा न कर पाए, तो उन्हें गिराने में ऐसा ही तंत्र सक्रिय रहा जिसने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से भी नीचे पटक दिया था। क्या शांता कुमार की सियासत से कांगड़ा की राजनीतिक उर्वरता बढ़ी या यह जिला मुख्यमंत्री की दावेदारी की क्षमता ही क्षीण करने के कगार पर पहुंच गया है। क्या स्व. जीएस बाली अपनी दावेदारी में मुख्यमंत्री पद के भरोसेमंद पात्र बने या वह भी स्व. संतराम की तरह यह नहीं चाहते थे कि कांगड़ा से कोई और नेता दिग्गज बन जाए।
कांगड़ा की राजनीति का खुद ही कांगड़ा इसलिए भी दुश्मन बनता रहा क्योंकि जातीय और वर्गों से ऊपर कोई नेता नहीं उठा। बेशक जीएस बाली ने ओबीसी बहुल इलाके का दिल जीता या सत महाजन ने राजपूत क्षेत्र में पैठ बनाई, वरना यह अवसर किसी गद्दी या ओबीसी नेता को भी पारंगत कर सकता था। ओबीसी नेता केवल चौधरी बने रहे, तो गद्दी नेताओं ने भी अपने समुदाय को ही सिंचित किया। सबसे अधिक अवसर किशन कपूर को मिले, लेकिन उन्होंने भी अपना दायरा संकुचित या सियासी संकीर्णता का ही परिचय दिया। इस बार उनकी सियासत को राजनीति के पिंजरे में बंद करने के पीछे जो खेला हुआ, उसकी वजह से कांगड़ा तो अब मुखौटा विहीन भी हो गया। विपिन सिंह परमार अपने व्यक्तित्व के संतुलन और राजनीति की सौम्यता ओढ़ते हुए दिखाई दिए, लेकिन इस सफर की भी कतरब्योंत हो गई।
जाहिर है कांगड़ा की राजनीतिक अक्षमता के कारण दूर-दूर तक मुख्यमंत्री का पद हासिल होता नहीं दिखाई देता। इस दोष के लिए विजय सिंह मनकोटिया भी आत्मचिंतन करें कि उनकी राजनीति के ध्रुव किस तरह अनिश्चय पैदा करते रहे। दलबदल की पराकाष्ठा में मनकोटिया ने तमाम संभावनाओं की होली जलाई, तो अब फसल काटने की उम्मीद में फिर से बिन पैंदे के लोटा ही साबित होंगे। उनका एक ही लक्ष्य सार्थक हो सकता है और अगर शाहपुर की जनता फिर मोहित होती है, तो वह भाजपा के उम्मीदवार को जिता कर खुश हो सकते हैं। यह दीगर है कि मनकोटिया तीसरे मोर्चे का चेहरा बनने का प्रयास करते रहे हैं। कभी तिरंगिनी टोपी पहनकर या कभी मायावती का हाथ पकड़ कर, लेकिन जमीनी यथार्थ को नहीं बदल पाए। कांगड़ा की सियासत का दूसरा भूकंप डा. सुशांत ने पैदा किया और वह भी तीसरे मोर्चे की फितरत में पहुंच कर बनते-बिगड़ते रहे, लेकिन इस बार उनका कौशल फतेहपुर में भाजपा को रुला गया।
वह इस उम्मीद में कांगड़ा की कितनी मिट्टी बटोर पाते हैं और अगर उनके पीछे तीसरे मोर्चे की क्षमता चल पड़ती है, तो इस बार वह पंडित सुखराम की तर्ज पर कांगड़ा का सियासी सामथ्र्य खड़ा कर सकते हैं। रणवीर सिंह ‘निक्का जैसे प्रभावशाली उम्मीदवार निश्चित रूप से तीसरे मोर्चे की जीत का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। कांगड़ा को जिस नई सियासत की जरूरत है, उसे भाजपा का डिजाइन निराश कर रहा है, जबकि वीरभद्र सिंह की मौत के बाद कांग्रेस के सबसे अधिक सन्नाटे व प्रश्न कांगड़ा में ही उभर रहे हैं।
2.किसान आंदोलन पटाक्षेप!
भारत सरकार और आंदोलित किसानों के बीच गतिरोध टूटने के आसार हैं। करीब 11 माह के बाद सरकार ने एक लिखित प्रस्ताव किसानों को भेजा है, जिसमें सभी मांगों पर सैद्धांतिक सहमति है। सरकार का प्रस्ताव सकारात्मक है, तो किसान आंदोलन पर भी वैसी ही सोच होनी चाहिए। पंजाब के अधिकतर किसान अब आंदोलन खत्म करने के पक्ष में हैं। कुछ किसान नेताओं ने इस संदर्भ में बयान भी दिए हैं, लेकिन टिकैत जैसे किसान नेता आंदोलन को जारी रखने के पक्षधर हैं। संयुक्त किसान मोर्चा की अभी कुछ आशंकाएं हैं और आग्रह भी हैं।
सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) गारंटी कानून पर विमर्श के लिए कमेटी बनाने की पेशकश की है। उसमें केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि, कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री तथा किसान संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। मोर्चे को इस व्यवस्था में कोई बुनियादी आपत्ति नहीं है, लेकिन उसकी जिद्दी शर्त है कि कमेटी में मोर्चे के ही प्रतिनिधि हों। एमएसपी-विरोधी, विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के पैरोकार और रद्द किए गए तीनों कानूनों के समर्थक कथित किसान संगठन कमेटी का हिस्सा नहीं होने चाहिए। इसके अलावा, किसानों के खिलाफ आम आपराधिक केस या ईडी, आयकर, सीबीआई, पुलिस और एनआईए आदि के तहत दर्ज सभी मामलों को वापस लेने की घोषणा सरकार करे, उसके बाद ही आंदोलन उठाया जाएगा। आंदोलित मोर्चा मृत किसानों के परिजनों के लिए 5 लाख रुपए मुआवजे और एक पारिवारिक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा पर भी अड़ा है।
सरकार समय-सीमा भी स्पष्ट करे। किसान नेताओं की शर्त है कि 26 जनवरी वाले हिंसक कांड के संदर्भ में भी सभी आपराधिक मुकदमे वापस लिए जाएं। केस वापसी के मद्देनजर किसान नेताओं का साफ कहना है कि उनके बिना आंदोलन समाप्त करने का सवाल ही नहीं उठता। किसानों का पिछला अनुभव रहा है कि आंदोलन वापस ले लिए जाते हैं, किसानों को मुआवजा भी मिल जाता है, लेकिन विभिन्न राज्यों के पुलिस थानों में दर्ज और अदालतों में लंबित केस लंबे समय तक जारी रहते हैं, नतीजतन किसानों को परेशान होकर धक्के खाने पड़ते हैं। गौरतलब है कि अब किसान नेताओं ने भारत सरकार के साथ यह जिद छोड़ दी है कि पहले एमएसपी कानून बनाओ, उसके बाद आंदोलन खत्म किया जाएगा। अब किसान कमेटी के प्रस्ताव पर ही संतुष्ट हैं। बेशक सरकार बिजली संशोधन बिल और पराली संबंधी कानून पर किसानों को आश्वस्त कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि बिजली बिल संसद सत्र में सूचीबद्ध है और पराली कानून की आपराधिक धाराएं भी यथावत हैं। किसान उन पर भी स्पष्टीकरण मांग रहे हैं। किसान आंदोलन के पटाक्षेप में यही शर्तें पेंच की तरह फंसी हैं।
अलबत्ता औसत किसान अब घर लौटना चाहता है। बेशक सरकार सैद्धांतिक तौर पर मृत किसानों के परिवारों को मुआवजा देने को तैयार है, लेकिन इसे ‘शहादत नाम न दिया जाए। सरहदों पर जो सैनिक देश के लिए कुर्बानी देकर अपनी जान गंवा देते हैं, वे ही कानून और संविधान की स्थापित परिभाषा में ‘शहीद हैं। यहां तक कि सीआरपीएफ, बीएसएफ सरीखे अद्र्धसैन्य बलों के जो जवान किसी ऑपरेशन में प्राणों की आहुति देते हैं, कानूनन वे ‘शहीद नहीं हैं और न ही उस वर्ग का मुआवजा उनके परिवारों को दिया जाता है। यकीनन सरकार आर्थिक मदद जरूर करती है। करीब 4 लाख किसान आत्महत्याएं भी कर चुके हैं और यह सिलसिला कई राज्यों में अब भी जारी है, लेकिन किसान आंदोलन ने उन्हें कभी भी ‘शहीद नहीं माना। अब यही देशहित में है कि किसान आंदोलन खत्म हो।
3.मिले जो सबक
कुन्नूर में हुए हेलीकॉप्टर हादसे में पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत, उनकी पत्नी और सैन्य अधिकारियों की मौत बेहद दुखद है। पर्याप्त सावधानी और तैयारी के बावजूद हुआ यह हादसा विस्तृत जांच की मांग करता है। सेना इसकी विस्तार से जांच करेगी और इसके कारण भले ही बहुत स्पष्ट रूप से देश के सामने न आएं, लेकिन सेना को इतना तो सुनिश्चित करना ही होगा कि ऐसे हादसे की नौबत फिर न आए। अफसोस, उतरने से कुछ ही देर पहले बीच जंगल में यह हादसा हुआ है, जिसमें पांच से अधिक सैन्य अधिकारियों की जान चली गई है। यह एक ऐसा हादसा है, जिसकी चर्चा आने वाले कई दशकों तक होती रहेगी। ऐसे हादसे न केवल इतिहास को नया मोड़ देते हैं, जरूरी सुधार के लिए विवश भी करते हैं। यह देखने वाली बात है कि क्या एमआई-17 देश का सबसे सुरक्षित हेलीकॉप्टर है? क्या यह सच है कि इस ब्रांड के हेलीकॉप्टर छह से अधिक बार परेशानी का कारण बन चुके हैं या दुर्घटनाग्रस्त हो चुके हैं? क्या यह सही है कि चालीस से ज्यादा लोगों की मौत इससे जुड़े हादसों में पहले हो चुकी है? अब विश्वसनीय माने जाने वाले इस हेलीकॉप्टर की गुणवत्ता को नए सिरे से जांच लेना चाहिए। क्या यह हवाई वाहन सेवा के लिए मुफीद है?
भारत की गणना दुनिया में सक्षम अर्थव्यवस्थाओं में होने लगी है, हम सैन्य मामलों में भी कतई अभावग्रस्त नहीं हैं। अत: देश में विशेष रूप से विशिष्ट लोगों की सुरक्षा और संसाधनों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए। हवाई उड़ानों या कहीं पहुंचने की जल्दी से ज्यादा जरूरी है सवारियों की सुरक्षा। हवाई यात्राओं को दुनिया में सबसे सुरक्षित यात्राओं में गिना जाता है, क्योंकि इन यात्राओं की सुरक्षा को सोलह आना सुनिश्चित करने का प्रावधान तय है! क्या इस हादसे में सुरक्षा संबंधी किसी प्रावधान से समझौता किया गया था? मामला सेना का है, तो उसे अपने ही स्तर पर जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। सेना की कमियों पर गोपनीयता की यथोचित चादर स्वाभाविक है, लेकिन सेना अपनी सुरक्षा ऐसी रखे कि किसी के लिए उंगली उठाने की गुंजाइश न रहे। समय के साथ एकाधिक पुराने या खटारा होते विमानों को विदा किया गया है और नए विमानों को बेड़े में शामिल किया गया है। अब जरूरी है कि उन विमानों या हेलीकॉप्टरों को भी परखा जाए, जिनका उपयोग सेना अपने आवागमन के लिए करती है। भारत विशाल देश है और तरह-तरह की सीमाओं से घिरा है। कहीं बर्फ की चादर है, तो कहीं ठोस पहाड़ियां, तो कहीं घने जंगल, तो कहीं विशाल सागर। ऐसे तमाम मोर्चों पर सैन्य अधिकारियों को जाना पड़ता है और उनकी यात्राओं में पहले की तुलना में ज्यादा इजाफा हुआ है। सेना की सक्रियता इसलिए भी बढ़ी हुई है, क्योंकि भारत एकाधिक सीमाओं पर सीधे तनाव के रूबरू है।
अब समय आ गया है, जब कोताही की रत्ती भर गुंजाइश न छोड़ी जाए। एक-एक भारतीय का जीवन बहुमूल्य है और उसमें भी एक-एक जवान का जीवन तो अनमोल है। सरकार को पूरी तैयारी के साथ सामने आना चाहिए और देश को आश्वस्त करना चाहिए कि ऐसे हादसे फिर नहीं होंगे। जिन अधिकारियों की मौत हुई है, उन्हें हम तभी सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे, जब हम इस हादसे से जरूरी सबक लेंगे और अपने आपको को पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत करेंगे।
4.परिवर्तन की दावेदारी
सपा-आरएलडी की जुगलबंदी
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल में गठबंधन के बाद मंगलवार को मेरठ में हुई परिवर्तन रैली में जुटी भीड़ को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मिजाज में बदलाव को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं। किसान आंदोलन के बाद उर्वरा हुई राजनीतिक जमीन से उत्साहित चौ. चरण सिंह व चौ. अजीत सिंह की विरासत संभाल रहे राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी जयंत, समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद भाजपा को चुनौती देने के मूड में हैं। ‘मेरठ चलो, यूपी बदलो’ के उद्घोष के साथ कार्यकर्ताओं को मेरठ की दबथुआ रैली में पहुंचने के जयंत के आह्वान को सकारात्मक प्रतिसाद भी मिला। इस रैली को परिवर्तन रैली नाम दिया गया था और एकता दिखाने को अखिलेश यादव व जयंत एक ही हेलिकॉप्टर से रैली में पहुंचे। पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनावों में इस जाट बहुल इलाके से भाजपा को अच्छा प्रतिसाद मिला था। यहां तक चौ. अजीत सिंह व जयंत अपना लोकसभा चुनाव तक हार गये थे। लेकिन अब किसान आंदोलन के बाद फि़ज़ा बदली हुई नजर आ रही है। लगता है अब भाजपा ने भी मान लिया कि उसका मुकाबला सपा व आरएलडी के गठबंधन से ही है। यही वजह है कि मंगलवार को मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र गोरखपुर में कई विकास योजनाओं के समर्पण के बीच प्रधानमंत्री ने सपा मुखिया पर अपरोक्ष हमला बोला और कहा कि लाल टोपी वालों से सावधान। ये लाल बत्ती के लिये आ रहे हैं। सपा द्वारा आतंकवादियों पर कृपा करने के भी आरोप लगाये। और कहा की लाल टोपी यूपी के रेड अलर्ट यानी खतरे की घंटी है। प्रधानमंत्री के इस बयान के एक मायने भाजपा कार्यकर्ताओं को एकजुट करना भी कहा जा रहा है। बहरहाल, सपा व आरएलडी के बीच सीटों के बंटवारे व अन्य वजह से असहमति के आरोपों को नकारते हुए सपा-आरएलडी की मंगलवार रैली के जरिये यह बताने की कोशिश हुई कि गठबंधन को जमीन पर उतारने की कवायद शुरू हो चुकी है।
दरअसल, तीन कृषि कानूनों को लेकर पश्चिमी उ.प्र. में जाट बहुल इलाके में जो असंतोष व्याप्त था उसे सपा-आरएलडी वोटों में बदलने की कोशिश में है। यह कहना कठिन है कि कृषि कानूनों की वापसी तथा बाकी मुद्दों का समाधान के बाद भाजपा को क्या हासिल होता है। वहीं दूसरी ओर रालोद चौ. चरण सिंह के जनाधार जाट-मुस्लिम एकता को फिर से स्थापित करने के लिये भाईचारा एकता सम्मेलन इलाके में आयोजित करता रहा है। दरअसल, मुजफ्फरनगर दंगों के बाद इलाके में दोनों समुदायों में जो बिखराव आया, उसे जोड़ने की कोशिश हुई है। दरअसल, इलाके में जाट व मुस्लिम आर्थिक रूप से भी आपस में जुड़े हैं। इसी मकसद से आरएलडी ने करीब साठ जनपदों में ऐसे सम्मेलन आयोजित किये। दरअसल, राज्य की सत्ता में निर्णायक भूमिका निभाने वाले पश्चिमी उ.प्र. में किसान आंदोलन से उपजे हालात आरएलडी के लिये प्राणवायु बने हैं। जाट समुदाय भी चौ. अजीत सिंह के बाद खुद को राष्ट्रीय राजनीति में असुरक्षित महसूस करता है। वह चाहता है कि चौ. चरण सिंह की विरासत को आगे बढ़ाया जाये। निस्संदेह, कोरोना संक्रमण से चौ. अजीत सिंह की मृत्यु की सहानुभूति भी जयंत सिंह को मिलेगी। दरअसल, पश्चिमी उ.प्र. में 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 51 सीटें जीतीं थी, जिसमें तेरह जाट विधायक भी शामिल थे। ऐसे में पश्चिमी उ.प्र. में जाट व मुस्लिम वोट बैंक में से बड़ा हिस्सा यदि सपा-रालोद गठबंधन को मिलता है तो स्थिति बदल भी सकती है, जिसके बूते अखिलेश सिंह व जयंत ‘यूपी बदलो’ का नारा दे रहे हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि भाजपा के लिये पश्चिम उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014, 2017 तथा 2019 जैसी कामयाबी को दोहराना मुश्किल होगा। हालांकि इस इलाके में भाजपा व संघ का मजबूत संगठन है और चुनाव आते-आते स्थितियों में और बदलाव होगा। भाजपा को लेकर जाट मतदाताओं का मिजाज इस बात पर निर्भर करेगा कि तीन कृषि सुधार कानूनों की वापसी के बाद एमएसपी, मुकदमे वापस लेने व मृत किसानों के लिये मुआवजे की मांग पर कैसा समझौता हो पाता है।