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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.सामाजिक आईने की दुरुस्ती

सामाजिक आईने की दुरुस्ती में राज्य सरकार के सरोकार पुनः धर्मशाला में आकर खिलखिला उठे, तो बाहें फैलाए विभिन्न कल्याण बोर्डों की आरजू में तसदीक होता मकसद भी गुनगुना देता है। एक ही दिन में तीन बैठकों का आलम यह रहा कि कई सीढि़यां उभर आती हैं। पिछड़ा वर्ग हो या गद्दी-गुजर समुदाय की बेडि़यांे का मसला, वार्षिक बैठकों के आलम में कई आधारभूत जरूरतांे की आपूर्ति का यह मंजर खुशनुमा हो जाता है, लेकिन इस सफर की कहानी आखिर भेड़चाल क्यों चलती है। समाज के आर्थिक आईने में कई सुराख हो सकते हैं, लेकिन आरक्षित वर्ग की सामाजिक सुरक्षा में हिमाचल के आदर्श रंग ला रहे हैं। समाज के भीतर तरक्की के अक्स किसी जाति या वर्ग के भेद में विभक्त नहीं हैं, फिर भी राजनीतिक शक्ति में बेहतर प्रदर्शन की जरूरत है। आरक्षण अधिकार की ताजपोशी में बैठकों के दौर ऐसी कंदराओं को खोज पाते हैं, जहां खुशहाली की खबर के लिए नए इंतजाम चाहिएं। मसलन ओबीसी प्रमाण पत्र की कसरतों को सरल व सहज बनाने के साथ इसकी समयावधि को तीन साल करने की पेशकश अगर पूरी होती है, तो यह सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।

 गद्दी समुदाय के आर्थिक अभिप्राय काफी मजबूती से सामने आते है और यह तारीफ करनी होगी कि यहां बोर्ड की कलगी से कहीं आगे निकल कर सदस्य शोधपरक फैसलों की दिशा तय करते हैं। बैठक को इवेंट से कहीं आगे वार्षिक पीड़ा, अनुभव तथा प्रगति को बांटने की बेहतरीन कोशिश इस बार भी हुई। खासतौर पर गद्दी समुदाय के लिए अलग बजट की मांग उठी है। त्रिलोक कपूर का यह सुझाव व्यावहारिक है कि जिन गैरजातीय क्षेत्रों में गद्दी आबादी की खासी तादाद है, वहां तीन प्रतिशत अलग से बजट दिया जाए। नूरपुर, शाहपुर, नगरोटा, जवाली, धर्मशाला व पालमपुर का जिक्र करते हुए वह एक सियासी साम्राज्य का चित्रण तो करते ही हैं, साथ में क्षेत्रीय विकास के साथ जनजातीय समृद्धि जोड़ देते हैं। यह अनुपम आइडिया है और इसकी आपूर्ति के तर्क सारी योजनाओं-परियोजनाओं का नक्शा बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रदेश के दो नगर निगमों यानी धर्मशाला की दो व पालमपुर की एक सीट जनजातीय समुदाय के लिए आरक्षित हैं, तो इनकी वित्तीय पैरवी का पूरा इंतजाम होना चाहिए। अतीत से अब तक विभिन्न वर्गों और जातियों के साथ कई प्रोफेशन, आर्थिक विषय, सांस्कृतिक ऊर्जा तथा सामाजिक रिश्ते जुड़े रहे हैं, लेकिन आरक्षण की व्यक्तिगत सुविधा ने उस सारी परिपाटी का संरक्षण नहीं किया जो पीढ़ी दर पीढ़ी व्यावसायिक रोजगार बन रही है। मसलन गद्दी समुदाय के मार्फत व्यापार, दस्तकारी, गीत-संगीत, ट्राइबल वैल्यू और लोक जीवन की जो मिट्टी रही है, उसकी तरफदारी नहीं हुई। भरमौर क्षेत्र में विद्युत ऊर्जा उत्पादन ने बेशक स्थानीय समृद्धि को पंख लगा दिए, लेकिन उसके सामने लोक जीवनका उजड़ा पक्ष कौन देखेगा। भरमौर की आर्थिक गतिविधियों ने जनजातीय जीवन की महक ही उजाड़ दी, तो ‘संरक्षण’ किस तहजीब का नाम है।

 इसी तरह ओबीसी दायरे की 52 जातियों का मूलस्वरूप अगर खेतीबाड़ी की उन्नत तस्वीर में नहीं रहता या खेत बेचकर आजीविका या समृद्धि का सौदा होता है, तो गुणात्मक परिवर्तन कैसे आएगा। हैरानी यह कि ग्रामीण आर्थिकी के संदर्भ निजी उपलब्धियों ने छीन लिए। लैंड सीलिंग एक्ट के जरिए सामाजिक पिछडे़पन को जो संबल दिया गया था, उसके संरक्षण का इंतजाम होता तो आज कृषि आर्थिकी सामने आती, लेकिन जिस भूमि की मिलकीयत से ओबीसी वर्ग की तरक्की सुनिश्चित होनी थी, उसकी बिक्री होकर एक बड़ी शून्यता पैदा हो गई। ऐसे में सवाल यही है कि मकसद का निजी दोहन पूरे वर्ग की खुशहाली नहीं हो सकता, लिहाजा समग्रता में देखते हुए इन आरक्षित वर्गों के आर्थिक आधार को भी संरक्षण की जरूरत है। गुज्जर समुदाय को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आर्थिक आधार पर तोला जाए, तो दुग्ध क्रांति के उद्घोष और वैज्ञानिक तरक्की के कई संदर्भ जीवंत हो जाने चाहिएं, लेकिन हिमाचल की डेयरी तो फिसल कर वेरका, वीटा, मदर डेयरी या अमूल की शरण में चली गई। धर्मशाला में आयोजित गद्दी-गुज्जर व ओबीसी बैठकों ने बेशक कुछ समीक्षा की है, लेकिन इनके मूल सुधारों व बेहतरी के लिए कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर व बागबानी विश्वविद्यालय को नवाचार, शोध व प्रसार को समुदाय से जोड़ना होगा। बैठकों के आयोजन की परख तब होगी, अगर हर साल समाज के इन वर्गों के वास्तविक हालात व तरक्की पर आधारित सर्वेक्षण, शोध व अध्ययन भी सामने आएं।

2.मास्क अब भी जरूरी

भारत सरकार ने मास्क को लेकर एक चेतावनी दी है। यह चेतावनी कोरोना वायरस के ‘ओमिक्रॉन’ स्वरूप के वैश्विक विस्तार और संक्रमण के मद्देनजर खतरे की घंटी के तौर पर सुनी जाए। ‘ओमिक्रॉन’ के लक्षण फिलहाल अनिश्चित हैं। नए स्वरूप का असर कितना गंभीर और व्यापक है, उसका शोध और साक्ष्य अभी सामने आने हैं। नए वायरस के कारण मृत्यु-दर फिलहाल कम है। भारत में भी 38 मामलों की पुष्टि मात्र 10 दिनों में हो चुकी है। जाहिर है कि संक्रमण ने फैलाव शुरू कर दिया है। ऐसे में नाक और मुंह को ढकने वाला मास्क आपको 70-80 फीसदी तक संक्रमण से बचा सकता है। यह आकलन देश के विशेषज्ञ चिकित्सकों का है। वे टीवी चैनलों और अन्य मीडिया के जरिए बार-बार आग्रह कर रहे हैं कि मास्क जरूर पहनें और कोरोना संक्रमण को दूर रखें। चिंताजनक यह है कि कोरोना की दूसरी लहर के नगण्य होने से पहले ही औसत भारतीय ने मास्क पहनना बेहद कम कर दिया है अथवा मास्क उतार कर जेब में रख लिया है। एक प्रमुख स्वास्थ्य संस्थान और सरकार का आकलन है कि अप्रैल-मई, 2021 की दूसरी लहर के दौरान 80 फीसदी से ज्यादा लोग मास्क पहनते थे, लेकिन अब यह औसत 59 फीसदी तक लुढ़क गया है। भारत को जापान और दक्षिण कोरिया सरीखे देशों से सबक सीखना चाहिए, जहां 92 फीसदी से ज्यादा लोग आज भी मास्क पहनते हैं। नतीजतन वहां कोरोना वायरस के किसी भी स्वरूप का संक्रमण सीमित है। गौरतलब यह है कि जब दुनिया में कोरोना वायरस का वैश्विक महामारी के तौर पर विस्फोट हुआ था, तब मास्क बेहद महंगे बेचे गए। सामान्य मास्क, प्रदूषण रोकने वाले मास्क और कोरोना को काबू करने वाले मास्क में अंतर है, लेकिन आज तो घर-घर में मास्क का उत्पादन किया जाता है। मास्क मात्र 1-2 रुपए में भी मिल जाता है, तो 10-50 रुपए भी कीमत है। कपड़े की एक परत वाला मास्क भी पहनेंगे, तो वह 30-40 फीसदी तक संक्रमण को रोकेगा। सर्जिकल मास्क तो 70-80 फीसदी तक संक्रमण से बचा सकते हैं।

 मकसद है कि वायरस हमारी सांस के साथ नाक और मुंह के रास्ते हमारे शरीर के भीतर प्रवेश न कर सके। अभी तो यह शोधात्मक निष्कर्ष भी सामने आना है कि कौन से टीके कोरोना के नए स्वरूप के संदर्भ में भी प्रभावी हैं। हमें सुरक्षा की संजीवनी प्रदान करने में सक्षम हैं। औसतन टीके 60-70 फीसदी ही संक्रमण से बचाव कर पाते हैं। तो कोरोना संक्रमण के नए दौर में भी मास्क का लगातार इस्तेमाल क्यों न किया जाए? ध्यान रहे कि छुट्टियों का मौसम करीब है। देश के पांच राज्यों में चुनाव हैं। सबसे ज्यादा आबादी वाले उप्र में भीड़ और संक्रमण की उपजाऊ स्थितियां बन रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी लगातार जनसभाओं को संबोधित कर रहे हैं। भीड़ के जमावड़े होंगे, पार्टियां भी होंगी, सामाजिक जमावड़े भी हो रहे हैं। न मास्क की परवाह है और आपसी दूरी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बाज़ार सजने लगे हैं, तो आम उपभोक्ता भी जा रहा है। उस भीड़ को रोकना भी असंभव है। ‘ओमिक्रॉन’ की तो शुरुआत है। संक्रमण के जो मामले पकड़ में आ रहे हैं, उनमें से बेहद कम ही ‘ओमिक्रॉन’ के हैं, लेकिन उन लोगों में भी संक्रमण पाया जा रहा है, जिनका विदेश-यात्रा का इतिहास नहीं है। टीकाकरण ही एकमात्र उपाय नहीं है और फिर भारत में टीकाकरण को अभी बहुत लंबे फासले तय करने हैं। अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में लगभग पूरा टीकाकरण होने के बावजूद क्रमशः 1.2 लाख संक्रमित केस हररोज़ आ रहे हैं। जर्मनी और ब्रिटेन में संक्रमण का औसत करीब 50,000 रोज़ाना का है। भारत में बीते कई सप्ताह से संक्रमित केस 10,000 से कम आ रहे हैं। ढील आम आदमी के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन के स्तर पर भी है। हालांकि कई राज्य सरकारों ने मास्क न पहनने पर जुर्माने भी लगाए हैं, लेकिन अब ऐसे अभियान समाप्त हो चुके हैं। इस पहलू पर गंभीरता से सोचना चाहिए।

3.सुधार का दीपक

भारत में धर्मस्थलों और तीर्थों के विकास की किसी भी पहल की प्रशंसा होनी ही चाहिए। काशी में विश्वनाथ धाम का जो विकास हुआ है, उसके लिए भगवान शिव की नगरी काशी के सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए। धीरे-धीरे अतिक्रमण और व्यावसायिक दबाव की वजह से जिस तरह से विश्वनाथ धाम की उपेक्षा बढ़ती जा रही थी, जैसे-जैसे वहां पहुंचने की गलियां संकरी होती जा रही थीं, वैसे-वैसे काशी का आकर्षण भी कहीं न कहीं प्रभावित हो रहा था। धाम की ओर जाने वाली गलियों का चौड़ीकरण नामुमकिन लगता था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहां से सांसद बनने से यह काम आसान हुआ। उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि यदि सोच लिया जाए, तो असंभव कुछ भी नहीं है। प्रधानमंत्री की इस परियोजना के मार्ग में कतई कम अड़चनें नहीं थीं, दुकानों, लोगों को विस्थापित किया गया, दृढ़ता के साथ कुछ धर्मस्थल भी हटाए गए, चंद लोग तो आज भी राजनीतिक कारणों से विरोध जता रहे हैं, लेकिन एक भव्य मंदिर परिसर के रूप में परिणाम दुनिया के सामने है। काशी विश्वनाथ के परिसर में श्रद्धालुओं के लिए बहुत बड़ी जगह निकल आई है, जिससे इस धाम के आकर्षण में चार चांद लगना तय है। 
काशी से प्रधानमंत्री ने जो संदेश दिया है, उसे केवल चुनावी नफा-नुकसान के नजरिये से नहीं देखना चाहिए। प्रधानमंत्री का यह कहना खास मायने रखता है कि सदियों की गुलामी के चलते भारत को जिस हीन भावना से भर दिया गया था, आज का भारत उससे बाहर निकल रहा है। वाकई यहां अब कोई संदेह शेष नहीं है कि यह सरकार देश व समाज को बदल रही है। प्रधानमंत्री अपने आलोचकों को खूब जानते हैं, अत: उन्होंने उचित ही कहा है कि आज का भारत सिर्फ सोमनाथ के मंदिर का सौंदर्यीकरण ही नहीं कर रहा, समुंदर में हजारों किलोमीटर ऑप्टिकल फाइबर भी बिछा रहा है। आज का भारत सिर्फ बाबा केदारनाथ धाम का जीर्णोद्धार ही नहीं कर रहा, आज का भारत सिर्फ अयोध्या में प्रभु श्रीराम का मंदिर ही नहीं बना रहा, हर जिले में मेडिकल कॉलेज भी बना रहा है। आज का भारत सिर्फ बाबा विश्वनाथ धाम को भव्य रूप ही नहीं दे रहा है, गरीबों को पक्के मकान भी बनाकर दे रहा है। 
मतलब एक ही साथ विरासत और विकास की चिंता है। हिंदुत्व की चिंता है, तो विकास की भी पूरी फिक्र है। प्रधानमंत्री ने काशी से पूरा लेखा-जोखा दिया है कि कैसे धर्मक्षेत्रों और नगरों में सुधार के लिए काम हो रहे हैं। कुल मिलाकर, पूरे देश में गौरवशाली धार्मिक प्रतीकों का पुनरोद्धार ऐसे किया जा रहा है, जैसे पहले कभी नहीं किया गया था। इन सुधारों से न केवल आध्यात्मिक, बल्कि सामाजिक और आर्थिक लाभ के भी रास्ते खुल सकते हैं। हालांकि, भारत में अब भी अनेक तीर्थ ऐसे हैं, जो गंदगी का अड्डा बने हुए हैं। जहां खाद्य में मिलावट, ठगी, छीनाझपटी, चोरी की घटनाएं खूब होती हैं। नैना देवी का हादसा हो या जोधपुर की चामुंडा माता मंदिर के पास का हादसा, संकरी गलियों में भगदड़ कितनी जानलेवा साबित हुई है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है। देश में बढ़ती आबादी और जीविका की तलाश में कोने-कोने में बाजार सजाने-लगाने की परिपाटी दुखद है। अब काशी में अगर सुधार का दीपक जल उठा है, तो उसकी रोशनी तमाम तीर्थों में भी सुधार के प्रति समर्पण बढ़ाएगी।  

4.महंगाई पर महारैली

राजनीतिक संवेदनशीलता का प्रश्न

निस्संदेह, महंगाई मध्यम व निम्न वर्ग की कमर तोड़ रही है, जिसके चलते इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की संवेदनशीलता भी सवालिया घेरे में रही है। सत्तापक्ष तो महंगाई को लेकर तमाम तर्क देता रहा है, लेकिन आम धारणा है कि विपक्ष ने एकजुट होकर महंगाई के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। शायद इसी सोच को लेकर जयपुर में रविवार को आयोजित ‘महंगाई पर महारैली’ के जरिये कांग्रेस ने जनता की नब्ज पर हाथ रखने का प्रयास किया। पूरा गांधी परिवार पीएम मोदी व केंद्र सरकार पर महंगाई के मुद्दे पर जमकर बरसा। रैली में सोनिया गांधी की चुप्पी भी राहुल व प्रियंका के समर्थन में थी। लेकिन विडंबना ही है कि महंगाई हटाओ महारैली के जरिये राहुल गांधी का हिंदू बनाम हिंदुत्ववादी का उद्घोष पूरे देश में विमर्श का नया मुद्दा बन गया और महंगाई का मुद्दा हाशिये पर चला गया। जयपुर के विद्याधर नगर स्टेडियम में आयोजित इस रैली में राहुल गांधी ने अपने भाषण में बताते हैं कि महंगाई शब्द का प्रयोग सिर्फ एक बार किया जबकि 35 बार हिंदू और 26 बार हिंदुत्ववादी शब्द का प्रयोग किया। लेकिन कांग्रेस की इस रैली से कई साफ संदेश सामने आये। ऐसे वक्त में जब केंद्र सरकार ने येन-केन-प्रकारेण किसान आंदोलन का पटाक्षेप कर दिया है तो आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस समेत विपक्ष महंगाई के मुद्दे से ही चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करेगा। जयपुर रैली से महंगाई के खिलाफ बिगुल बजाकर कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वह पांच राज्यों के आसन्न चुनावों में महंगाई के मुद्दे को लेकर ही जनता के बीच जायेगी। वहीं सोनिया गांधी ने रैली में भाषण न देकर राहुल को आगे लाने का संदेश दे दिया। यदि सोनिया बोलती तो निस्संदेह राहुल के भाषण को कम तरजीह मिलती। अगले साल होने वाले पार्टी संगठन के चुनाव में राहुल को कमान मिलना लगभग तय नजर आ रहा है। प्रियंका गांधी ने भी महंगाई के मुद्दे पर लड़ने के लिये राहुल गांधी को आगे किया।

कोरोना संकट से उबर रहे देश में आम आदमी के आय के स्रोतों का संकुचन अभी तक सामान्य नहीं हो पाया है। कई उद्योगों व सेवा क्षेत्र में करोड़ों लोगों ने रोजगार खोये या उनकी आय कम हुई। ऐसे में आये दिन बढ़ती महंगाई बेहद कष्टदायक है। गरीब आदमी की थाली से सब्जी गायब होने लगी है। आम आदमी के घर में आम जरूरतों के लिये प्रयोग होने वाला सरसों का तेल दो सौ रुपये लीटर से अधिक होना बेहद चौंकाने वाला है। हाल ही के दिनों में टमाटर का सौ रुपये तक बिकना बेहद परेशान करने वाला रहा। इतना ही नहीं, जाड़ों के मौसम में लोकप्रिय सब्जियां मसलन गोभी व मटर के दाम भी सामान्य नहीं रहे हैं। प्याज के भाव भी चढ़ते-उतरते रहते हैं। वहीं पेट्रोल-डीजल के दाम कई स्थानों पर सौ को पार करने का भी महंगाई पर खासा असर पड़ा है। जाहिर-सी बात है पेट्रोलियम पदार्थों के भाव में तेजी आने से मालभाड़ा महंगा होकर हर चीज के दाम को बढ़ा देता है। हालांकि, सरकार ने तेल के दामों में कुछ कमी की और कुछ राज्यों ने वैट घटाकर खरीदारों को राहत भी दी, लेकिन यह राहत दीर्घकालीन व बड़ी नहीं है। टमाटर को लेकर कहा जा रहा है कि मानसूनी बारिश के देर तक चलने व खेतों में ज्यादा पानी भरे रहने से टमाटर की अधिकांश फसल बर्बाद होने से इसके दामों में अप्रत्याशित तेजी आई। भारत में जहां टमाटर का उत्पादन ज्यादा है तो खपत भी ज्यादा है। भारत दुनिया में चीन के बाद टमाटरों का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है। लेकिन हाल के वर्षों में बड़ी मात्रा में टमाटर का उपयोग खाद्य प्रसंस्करण उद्योग द्वारा किया जा रहा है, जिसकी आपूर्ति से बाजार में टमाटर की सप्लाई प्रभावित होती है। साथ ही यहां यह भी विचारणीय है कि क्या टमाटर उत्पादकों को उनकी मेहनत के अनुरूप दाम मिल रहा है? बहरहाल, महंगाई पर राजनीतिक दलों की उदासीनता आम आदमी को परेशान जरूर करती है। 

 

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