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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.कर्मचारी सियासत में सदन

क्या हिमाचल कर्मचारी राजनीति के बाहुपाश में फंस गया है या अब चुनाव का यही दस्तूर चलेगा। यह सवाल इसलिए भी कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दल इसी आईने के सामने चेहरा साफ कर रहे हैं। शीतकालीन सत्र से पहले जेसीसी बैठक के बहाने सरकार ने दिल खोलकर आजमाइश की तो, सदन के बहाने विपक्षी कांग्रेस ने भी अपने अरमान पूरे किए। सदन के भीतर रोष स्वरूप कांग्रेस की हरकतें उस कालीन पर बिछ गईं, जहां राजनीति के सपने भी कर्मचारी चाटुकारिता में तल्लीन देखे गए। एक असामान्य घटनाक्रम में सोमवार का सत्र, विपक्ष को अकल्पनीय मुद्रा में अपनी नाटकीय सरकार की दरी बिछाते हुए देखता है। आक्रोश की भूमिका में विपक्षी साज अगर बजे, तो वहां प्रदेश के अहम मुद्दों में सिर्फ कर्मचारी ही रहे यानी काल्पनिक प्रस्तावों में ओल्ड पेंशन स्कीम, आउटसोर्स कर्मियों को अनुबंध, पुलिस कर्मियों को नियमित पे बैंड व एसएमसी कर्मियों के नियमितिकरण को कांग्रेस अपना औजार मान रही है। आक्रोश की गलियों में कांगे्रस की आंखें सिर्फ कर्मचारी ही देख रही हैं, तो गुस्से की लाली भी फरेबी है। झूठमूठ की सरकार बनाकर कांग्रेस नौटंकी कर सकती है, लेकिन इस नाटक का विधवा विलाप केवल कर्मचारी मसले ही रहेंगे। क्या राजनीति की यही अवधारणा प्रदेश को आत्मनिर्भर बना सकती है। क्या हिमाचल के सारे मसले केवल कर्मचारी हित ही रहेंगे या बारह लाख बेरोजगारों के लिए भी कोई पार्टी सामने आएगी। हम कांग्रेस को विधानसभा से सड़क तक संघर्ष में देखना चाहेंगे और यह भी कि पार्टी अपने मंतव्य के ग्रॉफ में जितना उठना चाहे, मीडिया के लिए यह संतोष की बात होगी, लेकिन प्रदेश के भविष्य को केवल कर्मचारी सियासत में गूंथना सही नहीं होगा। हिमाचल के अस्तित्व और भविष्य के लिए कई गम हैं। रोजगार के अवसरों को लेकर चिल्ल पौं हो सकती हैं, लेकिन इसके पैमाने में सिर्फ सरकारी नौकरी ही क्यों। हिमाचल का सबसे अधिक रोजगार निजी क्षेत्र में उद्योग, व्यापार, पर्यटन, परिवहन, शिक्षा-चिकित्सा और स्वरोजगार के जरिए फल फूल रहा है।

 आज प्रदेश के आर्थिक संसाधन जिस तरह बंट रहे हैं या सामाजिक व आर्थिक असमानता इसलिए पैदा हो रही है, क्योंकि राजनीति का दस्तूर केवल सरकारी क्षेत्र की अमानत में पलते समुदायों के विशेषाधिकारों से सुसज्जित करके चल रही है। कर्मचारी हितों में प्रदेश का पच्चास फीसदी बजट पहले ही कुर्बान हो चुका है, श्रीमन कांग्रेस यह बताए कि उसकी कर्मचारी कल्पनाशीलता या उदारता की दरगाह पर बजट का और कितना हिस्सा चढ़ाया जाए। ओपीएस ही अगर लागू करना है, तो अतिरिक्त धन किस जेब से आएगा। आश्चर्य यह कि हिमाचल के लगभग सभी निजी विश्वविद्यालय व इंजीनियरिंग कालेज इसलिए अपनी क्षमता को लुटा हुआ पा रहे हैं, क्योंकि प्रदेश के बच्चे उच्च व प्रोफेशनल शिक्षा के लिए बाहर देश-विदेश में प्रस्थान कर रहे हैं। आज अगर इंजीनियर बेकार हो रहे हैं, तो कल प्रदेश से हर साल निकलने वाले साढ़े आठ सौ के करीब नए डाक्टरों का भविष्य क्या होगा। आज तकनीकी विश्वविद्यालय के तहत इंजीनियरिंग की 2100 सीटें खाली हैं, सारे आईटीआई खाली हो रहे हैं, तो शिक्षा को नौकरी से जोड़ेंगे या रोजगार के नए अवसर खोजने होंगे। आज क्यों वर्षों बाद भी प्रदेश अगर एक अदद आईटी पार्क स्थापित नहीं कर पा रहा या नए निवेश के लिए उत्तम माहौल नहीं दे पा रहा, तो सुशिक्षित होना अभिशाप ही होगा। सरकारी नौकरी की जीत अलग बात है, लेकिन यहां तो कर्मचारी सियासत की पूजा में बंटता प्रसाद ही युवाओं का शोषण कर रहा है। कर्मचारी अधिकारों में कूदी कांग्रेस यह स्पष्ट करे कि उसकी आर्थिक व रोजगार नीति क्या है। इस प्रदेश के युवा वैसे भी 45 साल तक सरकारी नौकरी की आस में अपनी क्षमता को चोटिल कर ही रहे हैं, तो सरकारी कर्मचारियों के ताज इन्हें और अभिशप्त करेंगे।

2.बेअसर ‘संजीवनी’!

भारत में कोरोना वायरस कार्यबल के अध्यक्ष डॉ. वीके पॉल का आकलन है कि नया ‘ओमिक्रॉन’ स्वरूप के मद्देनजर हमारे कोरोना टीके ‘अप्रभावी’ साबित हो सकते हैं। कोरोना टीकों में जरूरी सुधार का ऐसा प्लेटफॉर्म होना चाहिए, जो वायरस के बदलते स्वरूप के साथ नया टीका तैयार कर सके। टीके में सुधार और संवर्द्धन हर तीन माह में नहीं किया जा सकता, लेकिन साल भर में टीकों को संशोधित किया जाना चाहिए, ताकि वे कोरोना के किसी भी प्रकार के खिलाफ कारगर साबित हो सकें। देश के ही विख्यात चिकित्सकों का मानना है कि ‘ओमिक्रॉन’ पर भी हमारे टीके एक सीमा तक ‘प्रभावी’ रहेंगे। उन्हें बिल्कुल खारिज नहीं किया जा सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या  स्वामीनाथन भी वायरस के किसी भी वेरिएंट पर मौजूदा टीकों को ‘असरदार’ मानती रही हैं। भारत में कोविशील्ड, कोवैक्सीन, स्पूतनिक-वी टीके ही अभी लगाए जा रहे हैं। जायड्स कैडिला के टीके को आपात मंजूरी दिए काफी वक़्त हो गया है, लेकिन वह आम आदमी के लिए कब उपलब्ध होगा, ऐसी किसी तारीख की घोषणा नहीं की गई है। तीन खुराक वाले टीके के परीक्षण भी लगभग संपन्न हो चुके हैं।

 उसे मंजूरी देने और उसकी उपलब्धता में भी समय लगेगा। कोरोना राष्ट्रीय तकनीकी सलाहकार समूह के विशेषज्ञों ने मौजूदा टीकों की ही तीसरी खुराक को ‘बूस्टर डोज़’ मानने से इंकार कर दिया है। वैसे भी भारत सरकार ने अदालत में हलफनामा दिया है कि ‘बूस्टर डोज़’ पर विशेषज्ञ अभी विचार-विमर्श कर रहे हैं। फिलहाल उसके लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। सलाहकार समूह ने भी शोध और प्रयोग के अध्ययनों और निष्कर्ष तक पहुंचने में गुंज़ाइश की बात कही है। साफ है कि अभी भारत में ‘बूस्टर डोज़’ दूर की कौड़ी है। देश के आधा दर्जन राज्यों में 12-13 दिन में ही ‘ओमिक्रॉन’ के  61 संक्रमित मामलों की पुष्टि हो चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी खौफ जताया है कि 20 दिन में ही यह स्वरूप 77 देशों में फैल चुका है। अब मौत और अस्पताल में भर्ती होने के सिलसिले भी बढ़ेंगे, लेकिन यह स्वरूप कितना जानलेवा है, यह दावा करना अभी जल्दबाजी होगी। सारांश यह है कि ‘ओमिक्रॉन’ के संदर्भ में फिलहाल सभी टीकों की प्रभावशीलता सवालिया है। विशेषज्ञों में भी विरोधाभास हैं, जबकि अभी इस प्रकार के लक्षण और संक्रामकता और प्रभावों की अंतिम पुष्टि नहीं हुई है। कोई साक्ष्य और डाटा दुनिया के सामने नहीं है। अभी वैज्ञानिक अनुसंधानों में जुटे हैं। फिलहाल ये लक्षण स्पष्ट हुए हैं कि यह स्वरूप डेल्टा वेरिएंट के प्रभावों को पीछे छोड़ देगा। भारत में कोविशील्ड और कोवैक्सीन के साथ व्यापक टीकाकरण का अभियान जारी है। कोविशील्ड अलग ब्रांड के नाम से, मूल कंपनी के साथ, ब्रिटेन में बेचा और लोगों को दिया जा रहा है। वहां ‘अप्रभावी’ की बात नहीं कही गई है।

 कोवैक्सीन को भी विश्व स्वास्थ्य संगठन मान्यता दे चुका है और कई देशों में वह टीका लोगों को दिया जा रहा है। भारत में करीब 135 करोड़ खुराकें दी जा चुकी हैं। इनमें से 52 करोड़ से अधिक दोनों खुराकें लगाई जा चुकी हैं। यह वयस्क आबादी का करीब 41 फीसदी है। प्रधानमंत्री मोदी और विशेषज्ञ चिकित्सक अब भी टीकाकरण को लेकर आह्वान कर रहे हैं। घर-घर टीकाकरण के सर्वे किए जा रहे हैं और खासकर 60 साल की उम्र से ऊपरवालों को घरों में ही खुराकें दी जा रही हैं। यदि कोरोना के संदर्भ में ‘संजीवनी’ माने गए टीके ही बेअसर करार दिए जा सकते हैं, तो पूरा टीकाकरण ही बेमानी है। यह टीकों का भी प्रभाव हो सकता है कि हमारे देश में लाखों संक्रमित केस रोज़ाना दर्ज किए जाते थे, जो अब 5784 केस हररोज़ तक सिमट गए हैं। सक्रिय मरीज भी अस्पतालों में करीब 89,000 रह गए हैं। कोरोना लगातार नगण्य होता जा रहा है। टीकाकरण पर जो भी आकलन सामने रखा जाए, वह निर्णायक और पुष्ट होना चाहिए, क्योंकि यह लोगों की जि़ंदगी से जुड़ा मामला है। यदि मौजूदा स्थिति में टीके बेअसर घोषित किए जाते हैं, तो उनका विकल्प क्या होगा? नया टीका बनने में कमोबेश एक साल लग सकता है। यदि अनुमानों के मुताबिक, जनवरी-फरवरी में ‘ओमिक्रॉन’ के केस बढ़ते हैं, तो भारत के लोगों का क्या होगा? जाहिर है हमें कोरोना प्रोटोकॉल का निष्ठा के साथ पालन करना है। भीड़भाड़ से बचें, मास्क पहनें और हाथों को बार-बार साबुन से धोएं अथवा सेनेटाइज करें। ऐसा करके भी हम कोरोना के फैलाव को रोक सकते हैं।

3.आरक्षण के आंकड़े

अन्य पिछड़ा वर्ग को स्थानीय एवं पंचायत चुनावों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की महाराष्ट्र सरकार की कोशिश पर यदि सुप्रीम कोर्ट ने लगाम लगा दी है, तो कोई आश्चर्य नहीं। दरअसल, कुछ राज्य सरकारों का जो काम करने का रवैया है, उसमें यदा-कदा सुप्रीम कोर्ट के प्रति एक उदासीनता का भाव दिखता है। मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट को अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी को स्थानीय या पंचायत चुनावों में आरक्षण देने पर कोई आपत्ति नहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बडे़ राज्यों सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पहले से ही ओबीसी को यह आरक्षण कमोबेश हासिल है। महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने फैसले को बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन कोर्ट ने उचित ही अतिरिक्त उदारता दिखाने से इनकार कर दिया। इसी महीने 6 दिसंबर को कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर रोक लगा दी थी और अब राज्य सरकार को ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षित सीटों को जिला परिषद एवं पंचायत समितियों के लिए सामान्य श्रेणी में बदलने व नई अधिसूचना जारी करने का आदेश दिया है। अब राज्य सरकार या तो बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव कराएगी या हो सकता है कि कुछ समय के लिए चुनावों को टाल देगी। 
इन दिनों स्थानीय चुनावों में ओबीसी को आरक्षण एक अहम विषय बना हुआ है, लेकिन इससे जुड़े दो-तीन कमजोर पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। अव्वल तो आरक्षण देने के प्रति सरकारों को राजनीतिक वजहों से बहुत जल्दी रहती है। इस जल्दी की वजह से वे विधि-सम्मत समावेशी प्रक्रियाओं का पालन करने के बजाय अध्यादेश का सहारा लेती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने भी अध्यादेश का ही सहारा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे यथोचित आंकड़े जुटाने के लिए आयोग गठित करने को कहा था। आयोग का गठन तो किया गया, पर उसके लिए कोई बजट पारित नहीं किया गया। इसी वजह से सर्वोच्च अदालत की नाराजगी सामने आई है। इस मामले में दूसरा कमजोर पहलू यह है कि हमारी सरकारों का आंकड़ों से लगाव निरंतर कम हो रहा है। सरकारें इस पक्ष को नजरअंदाज करने लगी हैं कि किसी भी कानून या नीति निर्माण के लिए पुख्ता आंकड़े सबसे जरूरी हैं। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से आंकड़ों की उपयोगिता फिर उजागर हुई है।  
तमाम सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी वर्ग के लिए पर्याप्त आंकड़ों के बगैर आरक्षण का प्रावधान न हो। ऐसा लगता है कि यह बाध्यता अब हर राज्य में स्थानीय चुनावों पर लागू होगी। हर राज्य को जातिगत आंकड़े रखने पड़ेंगे। सिर्फ अनुमान के आधार पर आरक्षण निर्धारित करने का दौर खत्म होने वाला है। अगर भविष्य के सभी चुनावों पर यह आदेश लागू हुआ, तो जिस वर्ग को जितनी जरूरत है, उतना आरक्षण देने की ओर हम बढ़ चलेंगे। अपने देश में आर्थिक-सामाजिक न्याय केवल चुनावी राजनीति के बूते नहीं हो सकता, इसके लिए तंत्र की अपनी पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए। केंद्र सरकार को इस बाबत एक संविधान सम्मत फॉर्मूला तय करना चाहिए। अलग-अलग राज्य के अलग-अलग जातिगत हालात के हिसाब से जरूरतमंदों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। आरक्षण व्यवस्था किसी का अधिकार या संसाधन छीनने का माध्यम न बने, बल्कि इसमें अधिकार व संसाधन जरूरत के हिसाब से साझा करने की शालीनता सुनिश्चित होनी चाहिए। 

4.हमले के सबक

सुरक्षा बलों की चौकसी में न हो चूक

हाल ही की अन्य आतंकी घटनाओं के क्रम में बीते सोमवार को श्रीनगर के बाहरी इलाके में एक पुलिस बस पर हुआ आतंकी हमला चिंता बढ़ाने वाला है। सवाल इस हमले की टाइमिंग को लेकर भी है क्योंकि आतंकवादियों ने वह दिन चुना जिस दिन बीस साल पहले पाक पोषित आतंकवादियों ने देश के लोकतंत्र के मंदिर पर हमला बोला था। इस हमले ने पूरे देश के सुरक्षा तंत्र को हिला कर रख दिया था। हमले के लिये इसी दिन को चुनने से आतंकवादियों के दुस्साहस का भी पता चलता है। हमलावरों के छोटे समूह ने पच्चीस पुलिसकर्मियों को ले जा रही बस पर फायरिंग की। विडंबना है कि दो-तीन आतंकवादी बस पर हमला करने के बाद अंधेरे का लाभ उठाकर भागने में सफल रहे। बिना बुलेटप्रूफ व्यवस्था के इतनी बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों का ले जाना सबक देता है कि सुरक्षा बलों की सुरक्षा में चूक कदापि स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। बताया जाता है कि जैश-ए-मोहम्मद की एक शाखा माने जाने वाले अल्पज्ञात संगठन कश्मीर टाइगर्स द्वारा घात लगाकर यह हमला किया गया, जिसमें एक सहायक उप-निरीक्षक और दो कांस्टेबलों की जान चली गई। उल्लेखनीय ही है कि जैश-ए-मोहम्मद द्वारा फरवरी, 2019 में किये गये पुलवामा हमले में सुरक्षाबलों ने बड़ी क्षति उठायी थी और घटना में 40 सीआरपीएफ जवानों की जान चली गई थी। बहरहाल, सोमवार को श्रीनगर के बाहर पुलिसकर्मियों पर हुआ हमला बांदीपोरा जिले में आतंकवादियों द्वारा दो पुलिसकर्मियों की हत्या किये जाने के कुछ दिन बाद सामने आया जो बताता है कि आतंकवादी सुनियोजित साजिश के तहत पुलिसकर्मियों को निशाना बना रहे हैं ताकि आतंकवादियों से निपटने में सुरक्षाबलों को स्थानीय पुलिस व लोगों का सहयोग न मिल सके। बहरहाल, आतंकवादी हमलों की ये घटनाएं यह भी बताती हैं कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 के निरस्त होने के दो साल से अधिक समय बीतने के बावजूद केंद्रशासित प्रदेश में सामान्य स्थिति बनने में कुछ और वक्त जरूर लगेगा।

दरअसल, ऐसे वक्त में जब सीमा पर सेना व सुरक्षाबलों की चौकसी कड़ी हुई है, सीमापार बैठे आतंकवादियों के आका लगातार रणनीति बदलकर घाटी में शांति के प्रयासों को बाधित करने का प्रयास कर रहे हैं। विगत अक्तूबर में भी गैर-मुस्लिम स्थानीय निवासियों व प्रवासी श्रमिकों की लक्षित हत्याएं की गई थीं। मकसद यही था कि घाटी में सामाजिक समरसता के प्रयासों को पलीता लगाया जाये। कुछ उसी अंदाज में, जिसमें बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़ा गया था। जिसके बाद आतंकवादियों के खात्मे के लिये सुरक्षा बलों को कई अभियान चलाने पड़े। वहीं, दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार पिछले तीन वर्षों यानी 2019-21 में घाटी में नागरिकों की मौतों की संख्या चालीस के आसपास प्रतिवर्ष रही है। वहीं सुरक्षाकर्मियों की मृत्यु दर में गिरावट दर्ज की गई है। बहरहाल, सोमवार को पुलिस की बस पर हमले से यह साफ हो जाता है कि सुरक्षा बल अपनी सुरक्षा को लेकर किसी भी तरह का जोखिम नहीं उठा सकते। भाजपा के नेतृत्व वाली राजग की केंद्र सरकार लगातार कहती रही है कि वह जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली के प्रति प्रतिबद्ध है। साथ ही अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने के संकेत दे रही है। ऐसे में पाक समर्थित विघटनकारी तत्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डालने के लिये हिंसा का सहारा ले सकते हैं। ऐसे में केंद्र सरकार की दोहरी जिम्मेदारी बन जाती है कि वह एक ओर जहां सीमा पर घुसपैठ पर अंकुश लगाये, वहीं दूसरी ओर आतंकवादियों को स्थानीय समर्थन से वंचित करने के लिये विश्वास बहाली के लिये सार्थक पहल करे। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनयिक प्रयासों से आतंकवाद का पोषण करने वाले देशों पर नकेल डालने का भी प्रयास करना चाहिए। भारत की मान्यता रही है कि सीमा पार के आतंकवाद से निपटने के लिये राष्ट्रों के बीच अधिक सहयोग होना चाहिए। ऐसे में प्रयासों के क्रम में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

 

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