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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.शिक्षा की नई मंजिल

हिमाचल में उच्च शिक्षा की नई मंजिल के रूप में मंडी विश्वविद्यालय का उदय अपने साथ सत्ता का प्रभाव, सरकार का स्वभाव और शैक्षणिक विस्तार लिख रहा है। रूसा के कलस्टर से निकलकर स्वतंत्र विश्वविद्यालय अपने आप में शिक्षा की नई रेस है, जो इससे पहले स्कूलों व कालेजों के नाम पर हुई। विधानसभा की बहस में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री व विधायक राकेश सिंघा की आपत्तियों के बावजूद शिक्षा के नए सफर की निशानियां खारिज नहीं होंगी और हो सकता है आने वाले समय में राज्य की मेहरबानी से कुछ और विश्वविद्यालय पैदा हो जाएं। वैसे संस्कृत विश्वविद्यालय, आयुर्वेद विश्वविद्यालय व खेल विश्वविद्यालय बनाने का औचित्य राजनीति बना सकती है। यह दीगर है कि धूमल सरकार के दौरान निजी विश्वविद्यालयों व इंजीनियरिंग कालेजों की जो भारी खेप उतरी थी, वह आज अप्रासंगिक हो गई है। जिस शिद्दत से तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, उसी तेजी से हिमाचल में इंजीनियरिंग व एमबीए की उपाधियों का अवमूल्यन भी हो गया। कभी शिमला विश्वविद्यालय के तहत एमबीए व कुछ अन्य विषयों में अध्ययन के मानदंड इस काबिल थे कि छात्र समुदाय रोजगार की संभावना में पुरस्कृत होते थे। बेशक शिमला विश्वविद्यालय अपनी हरकतों के कारण शैक्षणिक स्तर से फिसल गया और अब इस हकीकत में एक नया अफसाना बनकर मंडी विश्वविद्यालय का श्रीगणेश हो रहा है, लेकिन सवाल यहां पहुंच कर भी खत्म नहीं होंगे।

 तीन दशक से धर्मशाला में चल रहे विश्वविद्यालय अध्ययन केंद्र को क्या शिमला से ही जोड़ा जाएगा या अपने स्तर से कहीं नीचे जन्म ले रही यूनिवर्सिटी से जोड़ा जाएगा। क्या तीन दशक से उच्च शिक्षा का दायित्व संभाले धर्मशाला अध्ययन केंद्र को स्वायत्त संस्था या विश्वविद्यालय का दर्जा देना सही नहीं होगा। दरअसल शिमला विश्वविद्यालय के तहत धर्मशाला के अलावा मंडी व ऊना में भी अध्ययन केंद्र की प्रस्तावना हुई थी, लेकिन अब राजनीतिक चीरफाड़ ने जिस बच्चे को जन्म दिया है, उसका इंतजार करना होगा। हिमाचल में शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक सक्रियता हमेशा बुलंद रही है और इसके सार्थक परिणाम भी आए, लेकिन अब राज्य का ऐसा बंटवारा हो रहा है जिससे मूल भावना, औचित्य व लक्ष्य पूरे नहीं हो रहे। हमें मेडिकल यूनिवर्सिटी भी चाहिए, तो आगे चलकर आयुर्वेद विश्वविद्यालय भी पांव जमाएगा। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर जो सियासत हुई, उससे अधिक दुर्दशा उच्च शिक्षा की नहीं हो सकती, फिर भी हमें ऐसे मजाक में भी मजा आता है। दूसरी ओर स्कूल शिक्षा बोर्ड की आमदनी में निजी स्कूलों का योगदान बढ़ रहा है। एक समय था जब हमीरपुर के एक निजी संस्थान ‘हिम अकादमी’ ने हिमाचली बच्चों को व्यावसायिक कालेजों के प्रवेश तक पहुंचाया। आज कालेजों-स्कूलों से कहीं अधिक बच्चे निजी अकादमियों के जरिए अपनी मंजिल बना रहे हैं। हमीरपुर, धर्मशाला, सोलन, शिमला के अलावा अन्य अनेक शहरों में अकादमियों के कारण शिक्षा के हब दिखाई देते हैं। ऐसे में निजी निवेश का हुंकारा भरते हुए भी क्या प्रदेश सरकार ने यह प्रयास किया कि शिक्षा की जरूरतों में क्या नया किया जाए। आज भी स्तरीय स्कूल ढूंढते हुए अभिभावक हिमाचल के निजी स्कूलों या प्रदेश के बाहर निकलकर समाधान पाते हैं। पिछले कुछ सालों से प्रदेश की बच्चियों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने की प्रतिस्पर्धा पैदा हुई है, तो यह उस पाठ्यक्रम की जीत है। अब बच्चे इंजीनियर या डाक्टर नहीं बनना चाहते, लिहाजा चंडीगढ़, दिल्ली या दक्षिण व पश्चिम भारत के प्रतिष्ठित कालेजों व विश्वविद्यालयों से ऐसे विषय चुन रहे हैं, जिनका संबंध विज्ञान से नहीं है।

 आश्चर्य यह कि प्रदेश में भले ही शिक्षा की होड़ विश्वविद्यालयों तक पहुंच गई, लेकिन हिमाचल में डिफेंस स्टडीज, फिशरीज, खेल, आर्ट या ट्राइबल स्टडीज पर केंद्रित एक भी कालेज स्थापित नहीं हुआ। अगर प्रयास किए होते तो प्रदेश के कम से कम दस-बारह प्रमुख महाविद्यालय किसी न किसी विषय के राज्य स्तरीय अध्ययन केंद्र बन सकते थे। बहरहाल मंडी व शिमला विश्वविद्यालय के बंटवारे के बीच कितने विषय, कितनी राजनीति या कितना रोजगार बंटता है, यह देखना होगा। बेहतर होगा शिमला व मंडी परिसर की दीवारें आपस में न उलझें, बल्कि एक को यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड कामर्स बना देना चाहिए, जबकि दूसरी को ह्यूमैनिटी तथा हिमाचल स्टडीज का स्वरूप देना चाहिए। इसी तरह केंद्रीय विश्वविद्यालय की बंदरबांट रोकने के लिए देहरा परिसर को राष्ट्रीय खेल प्रतिष्ठान, जबकि धर्मशाला में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए। ऐसे में जबकि अब हिमाचल लैंड ऑफ यूनिवर्सिटीज बनने जा रहा है, शिक्षा के आका हमीरपुर के एनआईटी व मंडी के आईआईटी से यह ज्ञान धारण करें कि इन संस्थानों की कशिश में पैदा हो रहा रोजगार किस तरह एक से पांच करोड़ के पैकेज लिख रहा है। बेहतर होगा हिमाचल अपने शिक्षा व चिकित्सा संस्थानों के नक्शे बनाने के बजाय, लक्ष्यों की प्रासंगिकता पैदा करे।

2.अजय मिश्रा का इस्तीफा कब

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी का पत्रकारों के प्रति ऐसा अभद्र और अश्लील व्यवहार होगा, इसकी न तो अपेक्षा और न ही कल्पना की जा सकती है। पत्रकार अपना पेशेवर धर्म निभा रहे थे। मंत्री जी से सवाल पूछकर उन्होंने कोई अतिक्रमण नहीं किया था। मंत्री जवाब दें या चुपचाप वहां से चले जाएं, यह उनका विवेकाधिकार है, लेकिन पत्रकारों से गाली-गलौज करना, धक्के देना, पत्रकार का कॉलर पकड़ लेना, जबरन मोबाइल बंद कराना अथवा छीन लेना, धमकी देना आदि मंत्री का संवैधानिक व्यवहार नहीं, बल्कि गुंडई है। कमोबेश भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा ऐसा नहीं माना जाता। मंत्री के व्यवहार की कई संवैधानिक परिधियां हैं। वह तानाशाह या अभद्र नहीं हो सकता। ऐसा व्यवहार स्वीकार्य नहीं है। मंत्री ने किन अपशब्दों का इस्तेमाल किया था, हम उन्हें लिख नहीं सकते। हमारी नैतिकता ऐसा नहीं करने देती। सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर उस वक़्त का वीडियो मौजूद है।

ं केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने अपनी सामाजिक और सार्वजनिक सीमाएं लांघी हैं, लिहाजा हमारा आग्रह है कि उनसे इस्तीफा लिया जाए। वह शख्स गृह मंत्रालय में देश की जन-व्यवस्था के गुरुत्तर पद पर आसीन होने योग्य नहीं है, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी को विशेषाधिकार के तहत उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए अथवा राजनीतिक संरक्षण की मजबूरी है, तो इस्तीफे के लिए बाध्य करना चाहिए। अजय मिश्रा टेनी को जब केंद्रीय कैबिनेट में शामिल किया गया था, तब भी उन पर अपराध की गंभीर धाराओं के तहत केस थे। एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि हत्या के केस में, उच्च न्यायालय में, 2018 में सुनवाई खत्म हो चुकी है, लेकिन न्यायाधीश का फैसला आज तक लंबित है।

 यह न्यायिक इतिहास का दुर्लभ उदाहरण हो सकता है। हमें केस पर सम्यक विश्लेषण की जरूरत नहीं है, लेकिन मंत्री पद का निर्वाह लोकलाज और संवैधानिक मर्यादाओं के दायरे में किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में मंत्री की जिम्मेदारी और उसका चरित्र दोनों ही ‘आदर्श’ प्रस्तुत कर सकते हैं, लेकिन गृह राज्यमंत्री ने पूरी केंद्र सरकार की छवि और काशी-अयोध्या में आस्था की आराधनाओं पर पलीता लगा दिया है। संदर्भ उप्र में लखीमपुर कांड का है, जिसमें चार किसानों की गाड़ी से कुचल कर हत्या कर दी गई थी। केंद्रीय मंत्री का बेटा मुख्य आरोपी है और बीती 9 अक्तूबर से जेल में है। उसी संदर्भ में विशेष जांच दल (सिट) ने सर्वोच्च न्यायालय में रपट दी है कि वे हत्याएं गैर-इरादतन या दुर्घटनावश नहीं थीं, बल्कि सुनियोजित साजि़श का हिस्सा थीं। किसानों को साजि़शन कुचला गया और उसके लिए बाकायदा षड्यंत्र रचा गया। उस अपराध में कई लोग शामिल थे। गौरतलब यह है कि उप्र में चुनाव हैं। ब्राह्मण समुदाय भाजपा से कुछ खिन्न है और मंत्री भी इसी समुदाय के नेता हैं। प्रधानमंत्री के लिए असमंजस की स्थिति हो सकती है, लेकिन केंद्र सरकार की छवि का भी सवाल है। संभव है कि किसी भी दिन गृह राज्यमंत्री की ‘कुर्सी’ छीनी जा सकती है। यह व्यवहार संविधान पर भी सवाल है। हालांकि लखीमपुर खीरी कांड में जो प्राथमिकी दर्ज की गई थी, उसमें गृह राज्यमंत्री का नाम नहीं है।

3.विवाह की उम्र

भारत में महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 18 से बढ़कर 21 होने वाली है, इस फैसले पर बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लग गई। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में इशारा कर दिया था। प्रधानमंत्री ने तब कहा था, ‘सरकार बेटियों और बहनों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है। बेटियों को कुपोषण से बचाने के लिए जरूरी है कि उनकी सही उम्र में शादी हो।’ इसके लिए एक टास्क फोर्स की स्थापना हुई थी, जिसमें स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, कानून मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी शामिल थे। टास्क फोर्स ने पुरजोर तरीके से कहा था कि पहली गर्भावस्था के समय किसी महिला की आयु कम से  कम 21 साल होनी चाहिए। देर से विवाह होने पर परिवारों की वित्तीय, सामाजिक और स्वास्थ्य की स्थिति मजबूत होती है। देर से शादी होने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ने और आजीविका चुनने का मौका मिलता है। जगजाहिर है कि बड़ी संख्या में लड़कियों की पढ़ाई शादी की वजह से बाधित होती है।
मंत्रिमंडल से मंजूरी के बाद भी लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र को 21 करने की प्रक्रिया में वक्त लग सकता है, क्योंकि इसके लिए अनेक बदलाव करने पड़ेंगे। बाल विवाह निषेध अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम और हिंदू विवाह अधिनियम में बदलाव जरूरी हैं। कानून में बदलाव के बाद सरकारों को महिलाओं की स्थिति सुधारने पर और ध्यान देना होगा। बेशक, विगत दशकों में बाल विवाह पर काफी हद तक रोक लगी है। लड़कियों की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और स्वास्थ्य की स्थिति में काफी सुधार आया है, लेकिन अभी भी समाज में एक बड़ा तबका है, जो 18 साल की न्यूनतम विवाह उम्र को नहीं मान रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2020 के आंकड़ों के अनुसार, बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत कुल 785 मामले दर्ज किए गए थे। ध्यान रहे, ये दर्ज मामले हैं, वास्तविक बाल विवाह के मामलों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। जो राज्य विकास के मामले में कुछ आगे निकल रहे हैं, वहां लड़कियां स्वयं भी बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाने लगी हैं। 
यदि विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष होती है, तो सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि लड़कियों का मनोबल बढ़ेगा। वे बाल विवाह जैसे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का साहस करेंगी। परिवार व समाज को बेटी के 21 साल की होने का इंतजार करना पड़ेगा। यहां यह भी जरूर कहना चाहिए कि कानून बनाने से ज्यादा जरूरी है, उसे संपूर्णता में लागू करना। परिवार व समाज को बेटियों के व्यापक विकास के लिए ज्यादा ईमानदारी से सोचना चाहिए। अब भारत में पुरुष और महिला, दोनों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु सीमा 21 हो जाएगी। यहां तक कि अमेरिका में भी ऐसी उच्च सीमा नहीं है। वहां साल 2000 से 2015 के बीच अवयस्कों के दो लाख से ज्यादा वैध विवाह दर्ज हुए थे। लेकिन वह अलग तरह के सामाजिक ढांचे वाला अमीर शिक्षित देश है, जबकि भारत में सामाजिक ढांचा दूसरी तरह का है, यहां कानून बनाकर और उसे ढंग से लागू करके ही आदर्श समानता व समावेशी विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है। 

4.नैतिकता का तकाजा

एसआईटी रिपोर्ट के बाद इस्तीफे का दबाव

ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव करीब आ रहे हैं लखीमपुर खीरी प्रकरण में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को हटाने को लेकर राजनीतिक दबाव बढ़ता ही जा रहा है। संसद में इस मुद्दे पर विपक्ष के शोर-शराबे से लेकर उत्तर प्रदेश तक इस मुद्दे पर राजनीति गर्मा रही है। उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव से लेकर तमाम राजनीतिक दल अजय मिश्रा को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं, जिसको लेकर भाजपा नेतृत्व असहज स्थिति में है। दरअसल, तीन अक्तूबर को लखीमपुर खीरी में तीन कृषि सुधार कानूनों के विरोध में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर गाड़ी चढ़ाने के प्रकरण में हाल ही में एसआईटी की रिपोर्ट सामने आई। उल्लेखनीय है कि इस घटना में चार किसानों व एक पत्रकार की मौत हो गई थी तथा वाहनों में सवार तीन लोगों को उग्र आंदोलनकारियों ने पीट-पीटकर मार डाला था। हाल में आई रिपोर्ट में एसआईटी ने कहा है कि मामले में गिरफ्तार मंत्री मिश्रा के पुत्र आशीष मिश्रा आदि ने साजिशन किसानों पर गाड़ी चढ़ाई थी, जिसके बाद जेल में बंद आशीष मिश्रा व अन्य आरोपियांे पर आपराधिक साजिश व हत्या के प्रयास आदि की धाराएं बदली गईं। इसके उपरांत अजय मिश्रा को मंत्रिमंडल से हटाये जाने को लेकर राजनीतिक दबाव बढ़ने लगा है। यहां तक कि लखीमपुर खीरी के किसान भी कार्रवाई हेतु दबाव बनाने के लिये आंदोलन की चेतावनी दे रहे हैं। हाल ही में एक पत्रकार द्वारा आशीष मिश्रा पर सख्त धाराएं लगाये जाने के बाबत पूछे जाने पर अजय मिश्रा ने उसके साथ जिस तरह का दुर्व्यवहार किया, उसकी भी कड़ी आलोचना हुई। बताते हैं कि हाईकमान से इस मामले पर उन्हें डांट तो पड़ी, लेकिन उनके भविष्य के बारे में कोई निर्णायक फैसला अभी तक नहीं हुआ। लेकिन इस प्रकरण ने भाजपा की किरकिरी जरूर की है, जो उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिये जी-जान से जुटी है।

दरअसल, मंत्रिमंडल से मिश्रा को हटाने में भाजपा का संकोच इस राजनीतिक कारण से है कि जिन ब्राह्मण मतों के लिये यूपी में मारमारी मची है और जिस मकसद से अजय मिश्रा को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, वह मकसद उनके हटाने से विफल होता नजर आ रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कई कुख्यात अपराधियों को मारे जाने के बाद यह राजनीतिक विमर्श बनाने का प्रचार बसपा व अन्य दलों की तरफ से किया गया कि योगी सरकार ब्राह्मणों का दमन कर रही है, जिसके बाद बसपा ने कई ब्राह्मण सम्मेलनों के जरिये उ.प्र. में निर्णायक ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास किया। इसी माहौल में दागदार छवि के बावजूद अजय मिश्रा को मंत्रिपद मिला। बहरहाल, अब भाजपा की स्थिति सांप-छछूंदर की सी हो गई है, जो न उगलते बन रही है और न निगलते ही। लेकिन आसन्न विधानसभा चुनाव के दौर में गर्माते मुद्दे को देखकर लगता है कि नैतिक दबाव में भाजपा को कोई फैसला तो लेना ही पड़ेगा। खासकर एसआईटी की इस रिपोर्ट के बाद कि यह हमला पूर्व नियोजित साजिश थी। फिर पहले दर्ज हल्की धाराओं को आपराधिक साजिश, हत्या के प्रयास, दंगा व घातक हथियारों से चोट पहुंचाने जैसे गंभीर धाराओं में बदला है, जिसके बाद क्षेत्र के किसान नेता मंत्री मिश्रा को उनका वह बयान याद दिला रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि उनके बेटे का नाम किसी तरह से साबित हो जाता है या साजिश में आता है तो वे खुद ही इस्तीफा दे देंगे। अब भाजपा भी इस प्रकरण को निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा मानवाधिकारों की ‘चुनींदा व्याख्या’ की दलील से खारिज नहीं कर सकती। उधर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में स्वात: संज्ञान लेते हुए समय-समय पर सख्त टिप्पणियां की, जिसके चलते एसआईटी की जांच निर्णायक मोड़ तक पहुंच सकी है। निस्संदेह, इस मुद्दे से जुड़े राजनीतिक निहितार्थ हैं इसके बावजूद न्याय के तकाजे और नैतिकता के चलते भाजपा को कोई फैसला लेना ही होगा। अन्यथा संदेश जायेगा कि केंद्र सरकार अजय मिश्रा के कृत्यों पर पर्दा डाल रही है।

 

 

 

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