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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.पर्यटन को ‘तौबा’ से बचाएं

वर्षांत पर्यटन के मूड में हिमाचल खुद की आजमाइश देख सकता है। फिर भीड़ के आगोश में पर्यटक स्थल और जश्न की बारात में झूमते खरे खोटे अनुभव। सबसे बड़ा उदाहरण अब अटल टनल सुरंग के आसपास हिमाचल की तस्वीर में पर्यटन का मक्का खोजता है, तो भीड़ की तमाम पेरशानियांे से जूझने की नौबत का आलिंगन करता पूरा परिदृश्य बेजार है। गाडि़यों के समुद्र का पर्वत की ऊंचाई से अनूठा मुकाबला और यहां पर्यटन के नाम पर जोश की दीवानगी यह कि हर दिन झूमते हुए छह हजार वाहन सीधी सुरंग को भी टेढ़ा कर देते हैं और दूरियों को मिटाने के संकल्प में लाहुल-स्पीति का जन जीवन यहां आकर भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। सुरंग ने पर्यटक खींचे, लेकिन भीड़ ने पर्यटन के ही कान खींच लिए। मनाली से अटल टनल तक पर्यटन का चर्मोत्कर्ष अगर ऐसा हो सकता है, तो पूरे प्रदेश की तस्वीर में अफरातफरी का आलम क्रिसमस से नववर्ष के आगमन तक देखा जा सकता है। हर पर्यटक स्थल पर ट्रैफिक जाम में रेंगते वाहन समूचे उद्योग को शर्मिंदा करते हैं। अगर पर्यटकों से उनके अनुभव का पूछा जाए, तो हिमाचल से तौबा करने वालों का दर्द पढ़ा जा सकता है वरना इसी आलम पर हम खुश होते केवल सैलानियों की शुमारी का लेखा-जोखा कर सकते हैं। अगर हर दिन तकरीबन छह हजार गाडि़यां अटल टनल पहुंच रही हैं, तो क्या वहां के बंदोबस्त हिमाचल के समूचे पर्यटन को चार चांद लगाते हैं या पर्यटन की कटुता में विषाद पैदा होता है। क्या वहां पर्यटन अपना शिष्टाचार पैदा कर पाया है। आखिर हम पर्यटक को दिखा क्या रहे हैं।

 घंटों डलहौजी, शिमला या मकलोडगंज के टै्रफिक जाम में फंसे पर्यटक के लिए नव वर्ष आगमन का जश्न मनाना केवल मुसीबतों भरा कब तक जारी रहेगा। ऐसे में क्या महापर्यटन के लिए हिमाचल ने अपना कोई रोड मैप तैयार किया। अगर आज पर्यटक नए साल के स्वागत के लिए धार्मिक स्थलों, पर्यटन डेस्टिनेशन या अटल टनल का रुख करने को और गति देते हैं, तो हमारे प्रबंध क्या हंै। एक दो जगह ‘विंटर क्वीन’ जैसी प्रतियोगिताएं वर्षांत पर्यटन का महत्त्वपूर्ण आकर्षण नहीं हो सकतीं, बल्कि हर प्रमुख मंदिर परिसर को गीत-संगीत के समारोहों के साथ अगले साल का सूर्योदय करना चाहिए। ऐसे में भाषा-संस्कृति विभाग के साथ मिलकर लोक संस्कृति महोत्सवों का आयोजन पूरे प्रदेश के पर्यटक स्थलों के मिजाज को रंगीन बना सकते हैं। वर्षांत पर्यटन को हिमाचली फूड फेस्टिवल के साथ जोड़कर शिमला, मनाली व धर्मशाला जैसे स्थलों में हिमाचली व्यंजनों के अलावा ऐसी अनेक प्रतियोगिताओं में राष्ट्रीय पकवानों की प्रयोगाशाला बनाई जा सकती है, जहां फूड इंडस्ट्री के उत्पाद भी पर्यटकांे के लिए खरीददारी का बहाना बन सकते हैं। हिमाचल के ऊनी वस्त्रों व ग्रामीण एवं दस्तकारी से जुड़े उत्पादों के मेले भी शुरू किए जा सकते हैं। अटल टनल जा रहे पर्यटकों के लिए अगर मंडी में एक बड़े व्यापारिक, सांस्कृतिक व फूड मेले का आयोजन किया जाए, तो पर्यटक की राहें बदलेंगी और उनके रुकने का प्रायोजन भी बढ़ेगा।

 प्रदेश में पर्यटक सीजन यानी गर्मियों के बाद वर्षांत पर्यटन की बहार निरंतर बढ़ रही है, जबकि धार्मिक पर्यटन का उत्साह कभी कम नहीं होता अन्यथा सप्ताहांत पर्यटन ही एकमात्र सहारा बना हुआ है। ऐसे में पर्यटन को भीड़ बनने से बचाने के लिए प्रवेश स्थानों से पंजीकरण करते हुए तमाम व्यवस्थाओं की मानिटरिंग ऐप के जरिए शुरू करनी होगी ताकि कोई भी डेस्टिनेशन ओवर क्राउडिंग का शिकार न हो। हिमाचल में पर्यटन को उत्पाद की तरह देखें, तो इसके साथ मनोरंजन, आधारभूत सुविधाओं, परिवहन, पार्किंग और आवश्यक सूचनाओं को जोड़ना होगा। दूसरी ओर बढ़ते पर्यटन ने बेशक होटलों की छतरियां तान दी हों, रेस्तरां को भर दिया हो, व्यापार में निखार आ गया हो, परिवहन क्षेत्र को लबालब कर दिया हो या इससे राज्य की जीडीपी में निखार आ रहा हो, लेकिन इसके प्रतिकूल प्रभाव से आम नागरिक शिकार हो रहा है। होटल व्यवसायी या पर्यटन आधारित व्यापार से कमाई बढ़ गई है, लेकिन पर्यटक के भीड़ बनतेे ही हिमाचल का नागरिक समुदाय अपनी सुविधाओं से वंचित तथा जीवनशैली पर प्रतिकूल दबाव झेलता है। अतः हर तरह के पर्यटक सैलाब से हिमाचली नागरिक को बचाते हुए पूरे उद्योग को इस मामले में सहभागिता निभानी होगी।

2.कोरोना महामारी का साझापन

सूर्यास्त होता है, तो सूर्योदय भी तय है। सूर्योदय नई गति, नए स्पंदन, नए उजालों और नई ऊर्जा-आशा का प्रतीक है। सूर्यास्त वह है, जो बीत गया, अतीत हो गया। हम उसे इतिहास भी कह सकते हैं, लेकिन 2021 के सूर्यास्त और नववर्ष 2022 के सूर्योदय में एक साझापन है-कोरोना महामारी। बीता साल इसकी गिरफ्त में बीता। बेहद  तकलीफदेह रहा। कई यंत्रणाओं से आम आदमी को गुज़रना पड़ा। सड़कों पर लाशें देखीं। नदी-नालों में अनजले शव देखे। अस्पताल में प्राण-वायु नसीब नहीं हुई, तो तड़प-तड़प कर कइयों ने जान दे दी। यह देश की राजधानी दिल्ली के बड़े अस्पतालों का विदू्रप यथार्थ था। शायद महामारी होती ही ऐसी है! हमने तो जीवन में पहली बार देखी और महसूस की। उसके शिकार भी हुए। करीब एक सदी पहले प्लेग फैला था। तब ऐसी बीमारियों के इलाज नहीं थे। लोग उसे प्रकृति का कोप मानते थे। प्लेग महामारी में करोड़ों ने अपने प्राण गंवाए। वह दौर आज इतिहास है। उसके यथार्थ का दंश आज नहीं चुभता, लेकिन कोरोना वायरस अब भी हमारे बीच है। चौतरफा प्रहार किए हैं इसने। इनसान के घर और भोजन छीने हैं। करोड़ों नौकरियां और रोज़गार गए हैं।

 अब भी औसत बेरोज़गारी दर 7 फीसदी से ज्यादा है। आठ राज्यों में तो 10 फीसदी से अधिक है। देश की करीब 97 फीसदी आबादी की आय घटी है। मध्यवर्ग गरीब होता गया है और गरीब गरीबी-रेखा के नीचे सरकने को विवश है। देश में करीब 35 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो गरीबी-रेखा के नीचे हैं। कल्पना करें कि यदि भारत सरकार 80 करोड़ से अधिक लोगों को लगातार मुफ़्त अनाज नहीं बांटती, तो हम भुखमरी की गिरफ्त में आ सकते थे। देश की औसत अर्थव्यवस्था ऐसी बिगड़ी कि अभी उबरना शुरू ही किया था कि कोरोना संक्रमण ने फिर आक्रमण कर दिया है। अब वायरस के दो स्वरूपों का एक साथ हमला हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘संक्रमण की सुनामी’ की आशंका जताते हुए दुनिया को सचेत करने का प्रयास किया है। हम निराशावादी नहीं हैं, लेकिन सामने अंधेरे और अंधड़ हैं, तो उनसे आंख भी नहीं मींच सकते। ओमिक्रॉन स्वरूप अभी उतना प्राणघातक नहीं है, बेशक 23 राज्यों तक फैल चुका है और संक्रमण के आंकड़े 1000 को छू रहे हैं। मृत्यु-दर फिलहाल चिंताजनक नहीं है। जिस कोरोना को हमने ‘पीक’ के बाद समाप्त मान लिया था, उसी डेल्टा के 13,000 से ज्यादा संक्रमित केस एक ही दिन में दर्ज किए गए हैं।

 यह बीते दिन से 44 फीसदी ज्यादा की बढ़ोतरी है। बीती 27 दिसंबर को 6242 केस थे, लेकिन बुधवार 29 दिसंबर की देर रात तक 13,155 केस दर्ज किए गए। यह बढ़ोतरी वैश्विक महामारी के अभी तक के पूरे दौर में पहले कभी नहीं देखी गई। सबसे अधिक करीब 3900 केस महाराष्ट्र में हैं, फिर 2846 केस केरल और 1089 केस पश्चिम बंगाल में सामने आए हैं। जो आंकड़े दर्ज नहीं किए जा सके, उनकी संक्रामकता का अनुमान ही लगाया जा सकता है। राजधानी दिल्ली में कोरोना के एक ही दिन में 923 केस दर्ज किए गए हैं। 30 मई के बाद एक ही दिन में इतनी बढ़ोतरी पहली बार देखी गई है। ओमिक्रॉन संक्रमण भी साथ-साथ जारी है। नए साल के लिए महामारी का स्पष्ट संदेश है। फिर भी हम हौसला रखे हैं कि यह लड़ाई भी जीत लेंगे। महामारी के दौरान ही हमारे खिलाडि़यों ने अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक स्तर पर नई उपलब्धियां हासिल की और पदक जीते हैं। नीरज चोपड़ा का ओलंपिक में भाला फेंक मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीतना ऐतिहासिक पल था। हाल ही में किदांबी श्रीकांत का बैडमिंटन वर्ल्ड चैंपियनशिप में रजत पदक हासिल करना भी बेहद गौरवपूर्ण क्षण था। महिलाओं में पीवी सिंधु इस प्रतियोगिता तक विश्व चैंपियन रहीं। ऐसी तमाम उपलब्धियां कोरोना महामारी के बावजूद बटोरी गईं। हमने बहुत कुछ खोया भी है, लेकिन नए साल में जोश के साथ प्रवेश करना होगा। सभी को मंगल कामनाएं।

 

3.मंडी रैली से निकला आत्मबल

मंडी रैली से निकला सत्ता पक्ष का आत्मबल ‘मिशन रिपीट’ का कारवां कैसे बनता है, इस उत्सुकता में हिमाचल की परिवर्तनशीलता, सुशासन की कर्मठता और दायित्व की वर्तमान पारी को मुकम्मल होते हर कोई देखना चाहेगा। जाहिर है सारी करवटों में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के इरादे, रणनीतिक कौशल तथा सियासी व प्रशासनिक फर्ज की अदायगी की स्वीकार्यता अब पल्लवित होंगे, इसीलिए वह इम्तिहान की लकीरों को तोड़ते हुए यह कहते हैं कि सरकारें बदलने का क्रम टूटेगा। यह एहसास जीना और इस सफर की परीक्षा को कबूल करना कम से कम मंडी रैली की उपादेयता सरीखा है। रैली के मंतव्य में लिखी गई सियासत की चौड़ी छाती पर यह सुखद अनुभूति हो सकती है, लेकिन इसके साथ कमोबेश पिछली सरकारों के लिए पांचवां साल हानिकारक क्यों रहा, इस पर विवेचन करना होगा। सरकारों का पांचवां साल अपनी निपुणता में कोई कसर नहीं छोड़ता, लेकिन सत्ता का नजरिया और आत्मपरीक्षण की विफलता के कारण सूचनाएं भ्रमित करती हैं या चुगलखोर शलाघा व सत्ता के लाभार्थियों के कारण सरकार के लाभांश पर जो चोट रहती है, उसका पटाक्षेप चुनावों में होता रहा है। इस बार परिस्थितियां भिन्न हैं या हो सकती हैं, इसके कुछ तर्क ‘डबल इंजन’ सरकार, कुछ पार्टी की तैयारी और कुछ विपक्ष की बीमारी से निकल सकते हैं, लेकिन असली दारोमदार केंद्र की लंबित योजनाओं-परियोजनाओं की हकीकत पर रहेगा या हिमाचल की रहस्यमयी और अति महत्त्वाकांक्षी जनता पर भी रहेगा।

 हिमाचल की सत्ता के लिए पांचवां साल भले ही प्रदर्शन के लिहाज से चामत्कारिक रहता है, लेकिन सामाजिक परिदृश्य में लोकतांत्रिक अधिकारों की असीमित उम्मीदें हर बार टकराती हैं। हिमाचल में केवल विपक्षी पार्टी ही विपक्ष नहीं, बल्कि एक संगठित नागरिक विपक्ष है जो हर सरकार से फिरौती मांगता है। यह फिरौती सरकारी धन के प्रति असंवेदनशीलता हो सकती है। सरकारी नौकरी की फरियाद हो सकती है या नौकरी में रहते हुए बेहतर वेतनमानों से मनमाफिक स्थानांतरण तक की भी हो सकती है। इसी तरह सत्ता तक पहुंचते ही राजनीतिक कॉडर का चारित्रिक क्षरण शुरू होता है। कार्यकर्ताओं का नेताओं की भूमिका में परिपक्व होने के लिए, सत्ता की मलाई अकसर कड़वी हो जाती है। इस तरह सत्ता के भीतर आंतरिक विपक्ष तथा टूटन से बरतन इतने खनकते हैं कि पांचवां साल कई बार ‘सैल्फ गोल’ करने पर उतारू हो जाता है। हिमाचल में सत्ता के सामने कर्मचारी व नौकरशाह दो ऐसे वर्ग हैं जो या तो असंतुष्ट मिट्टी पर खड़े होते हैं या सचिवालय को सड़क से मिलने नहीं देते। हिमाचल में सत्ता की सीट ऐसी जगह है जहां नौकरशाही खुद को टूरिस्ट समझती है या नेताओं की फितरत  में फिसलते-फिसलते सत्ता के लम्हों को चकनाचूर कर देती है। शिमला से प्रदेश को देखना भौगोलिक दृष्टि से कठिन है, ऊपर से सत्ता की राजनीतिक आंख पर पर्दा गिराने का काम वहां स्थापित हो चुकी कार्यसंस्कृति करती है। एक बार धूमल सरकार ने सचिवालय के पेंच कसने शुरू किए थे, लेकिन पांचवें साल की मजबूरियों ने कदम पीछे ले लिए। राजनीतिक गणित में सरकारों के लिए कठिन फैसले लेने मुश्किल हो रहे हैं। हिमाचल अपनी सत्ता के फेर में ऐसे समाज का गठन कर चुका है जो पांचवें साल में कुंडली बदलने में माहिर हो जाता है।

 कर्मचारी राजनीति कमोबेश हर सरकार को नाको चने चबाने को मजबूर करती है। इस बार भी जयराम सरकार के सबसे कोमल दस्तखत कर्मचारी मसलों पर हो रहे हैं या राज्य का खजाना पूरी तरह न्योछावर हो रहा है, लेकिन यह वर्ग अपने भीतर ‘विपक्षी कौम’ की तरह पूर्वाग्रह पाल कर राजनीतिक माहौल को अभिशप्त नहीं करेगा, इसकी गारंटी लेना कठिन है। आश्चर्य यह कि जेसीसी के हमाम में हर बार राज्य का खजाना नंगा होता है, लेकिन इस सौदे में राजनीति बदनाम होती है। यह दीगर है कि पांचवें साल में सरकारें वास्तविक मुद्दों और विकास को तरजीह देती हुईं, क्षेत्रीय संतुलन सुधारती हैं। मंडी रैली की तरह कम से कम तीन और रैलियां अगर प्रधानमंत्री स्वयं शिमला, कांगड़ा व हमीरपुर संसदीय क्षेत्रों में करते हैं और इसी तर्ज पर सरकार अपने आभामंडल का विस्तार पूरे राज्य में कर पाती है, तो निश्चित रूप से मिशन रिपीट के उद्घोष सामने आएंगे। सरकार में मंत्रियों को भी मुख्यमंत्री की तरह अगर मिशन रिपीट को संभव बनाना है, तो हर विभाग की हर फाइल और विकास की हर परियोजना को धरती पर उतारना होगा। हर मंत्री अगर अपने क्षेत्र के अलावा कम से कम दस विधानसभा क्षेत्रों को विकास का इनसाफ दिला सके या पूरे हिमाचल में मुख्यमंत्री का सौहार्द दिखाई दे तो सरकार को कौन रिपीट नहीं करना चाहेगा। यह दीगर है कि पांचवें साल में हिमाचल का विपक्ष भी हाथी-घोड़ों पर सवार होता है और उसकी बात मीडिया से समाज तक सुनी जाती है।

4.जीवनदाता या आंदोलनजीवी!

युवा डॉक्टरों का सेवा-बहिष्कार का उद्घोष औसत मरीज और देशहित में नहीं है। यह पेशेवर नैतिकता भी नहीं है। दूसरी तरफ सरकार और मेडिकल काउंसिलिंग कमेटी को भी कोरोना-योद्धाओं के खिलाफ इतना संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। यह डॉक्टरों की हड़ताल की आदर्श स्थिति नहीं है। देश में अब भी कोरोना-काल है। प्रधानमंत्री मोदी ने ही इस जमात की सेवाओं और प्रतिबद्धता के मद्देनजर हेलीकॉप्टर से फूलों की बरसात कराई थी। देश को ताली-थाली बजाकर उनका सम्मान करने का आह्वान किया था। यदि रेजिडेंट डॉक्टर नीट-पीजी काउंसिलिंग के मुद्दे पर अड़े हैं, तो उसका समाधान ढूंढा जा सकता है। बेशक कोरोना-काल में कई परीक्षाएं स्थगित करनी पड़ी थीं, लेकिन यह सर्वथा भिन्न विषय है, जो डॉक्टरांे के पेशेवर हुनर और कौशल से जुड़ा है। अंततः ये कौशल ही आम आदमी की जि़ंदगी बचा सकते हैं। नीट-पीजी काउंसिलिंग में पहले ही करीब 8 माह का विलंब हो चुका है। नतीजतन मेडिकल कॉलेज और पीजी संस्थानों में करीब 60,000 जूनियर डॉक्टरों की कमी है। ये डॉक्टर ही भारतीय अस्पताल और चिकित्सा ढांचे की बुनियादी ताकत हैं। इसके कारण ही गंभीर मरीजों के इलाज और ऑपरेशन भी प्रभावित हो रहे हैं। मरीजों के परिजन एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक धक्के खाने को विवश हैं, लेकिन सुनना पड़ता है कि डॉक्टर हड़ताल पर हैं। क्या जीवनदाता को भी जनता और मरीज से विमुख होकर अनुपस्थित होना चाहिए? देश के 542 मेडिकल कॉलेज और विभिन्न पीजी संस्थान ही इतने डॉक्टर पैदा करते हैं कि वे 6 लाख से अधिक बिस्तरों का प्रबंधन कर सकते हैं। इन्हीं के तहत अस्पतालों के सबसे बड़े समूह हैं, जिनमें अधिकतर आईसीयू बिस्तर उपलब्ध हैं। वे ही अत्यंत गंभीर मरीजों का इलाज करने में सक्षम हैं। इन्हीं अस्पतालों में 2 लाख से ज्यादा युवा डॉक्टर विभिन्न विशेषज्ञताओं में इंटर्नशिप या पीजी टे्रनिंग कर रहे हैं।

आईसीयू में कोरोना के गंभीर मरीजों की ज्यादातर देखभाल युवा डॉक्टर और नर्सें ही करते हैं। बेहद महत्त्वपूर्ण सवाल है कि वही युवा डॉक्टर आज सड़कों पर आंदोलित है। पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा है। सर्द, कंपकंपाते मौसम की रात में उन्हें हिरासत में रखा जाता है। ऐसी नौबत क्यों आई है? सरकार प्राथमिकता के स्तर पर मंथन करे कि वे जीवनदाता हैं या महज आंदोलनकारी अथवा उससे भी बढ़कर आंदोलनजीवी हैं? क्या तब तक सरकार निष्क्रिय रहेगी, जब तक कोरोना की नई, तीसरी लहर में 1.5-2 लाख संक्रमित केस रोज़ाना न आने लगें? जिस तीव्रता के साथ ओमिक्रॉन स्वरूप का संक्रमण भारत में फैल रहा है, उसके मद्देनजर महामारी विशेषज्ञों की आशंकाएं पुख्ता होती जा रही हैं कि जनवरी, 2022 के अंतिम सप्ताह तक कोरोना की तीसरी लहर देश में स्पष्ट होगी। ‘पीक’ के बारे में सोचना फिलहाल जरूरी नहीं है, क्योंकि मौजूदा संक्रमण एक लहर में तबदील होने लगता है, तो अस्पतालों पर बोझ बढ़ना स्वाभाविक है। बेशक ओमिक्रॉन अपेक्षाकृत हल्के लक्षणों का वायरस है, लेकिन जब संक्रमित केस धड़ाधड़ दर्ज होने लगते हैं, तो अस्पतालों में भर्ती होकर इलाज कराने वालों की दर भी बढ़ने लगती है। उस स्थिति में अस्पतालों में डॉक्टर नहीं होंगे, तो महामारी नई करवट भी ले सकती है। देश जानता है और उसने कोरोना के ‘चरम’ के दौरान देखा भी है कि हमारे सरकारी अस्पताल और डॉक्टरों को बेहद दबाव में काम करना पड़ा था। सरकार को भी नरम रुख से सोचना पड़ेगा।

5.पेट्रोल पर रियायत

झारखंड सरकार अगर दोपहिया चालकों को 25 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल की रियायत देने जा रही है, तो यह फैसला न केवल ऐतिहासिक, बल्कि दूसरे राज्यों के लिए अनुकरणीय भी है। इस वर्ष पेट्रोल, डीजल के भाव में जिस तरह बढ़ोतरी हो रही थी, उसकी जरूरत सरकारों को भले हो, लेकिन इसकी निंदा भी खूब हो रही है। केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्यों ने नंवबर की शुरुआत के बाद से ही वैट या उत्पाद शुल्क में कमी करके ग्राहकों को राहत देने की कोशिश की है। मई से लगातार हो रही वृद्धि के बाद एक समय तो ऐसा भी आया था, जब प्रति लीटर पेट्रोल पर महज उत्पाद शुल्क ही 40 रुपये के करीब और डीजल पर 30 रुपये के करीब पहुंचने लगा था। एक समय ऐसा लगने लगा था कि पेट्रोल की कीमत अब सौ रुपये से नीचे नहीं आएगी, लेकिन नवंबर में लोगों को राहत देने की कोशिश शुरू हुई। अब यदि लोगों को ज्यादा से ज्यादा राहत देने की होड़ शुरू हो जाए, तो आश्चर्य नहीं। अक्सर चर्चा होती रहती है कि गरीबों व जरूरतमंदों को ज्यादा राहत मिलनी चाहिए, पर इस दिशा में झारखंड सरकार की ताजा कोशिश एक मिसाल है।  
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा किए गए एलान के बाद राज्य में मोटरसाइकिल और स्कूटर चालकों में खुशी की लहर है, और दूसरे राज्यों में भी लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। पेट्रोल की कीमत अगर एकमुश्त 25 रुपये प्रति लीटर कम होती है, तो झारखंड में पेट्रोल की कीमत करीब 74 रुपये प्रति लीटर हो जाएगी। लगभग साढे़ तीन साल पहले देश में पेट्रोल की कीमत यही थी। झारखंड में अभी पेट्रोल की कीमत दूसरे राज्यों से तुलनात्मक रूप से ज्यादा ही है। अत: स्वाभाविक ही राज्य सरकार पर कुछ दबाव भी होगा। वैसे झारखंड में दोपहिया चालकों को 26 जनवरी से यह लाभ मिलना शुरू होगा। हेमंत सोरेन की सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर यह राज्य के नागरिकों को एक तोहफा ही है, लेकिन इसे जन-जन तक पहुंचाने  का काम आसान नहीं होगा।  
क्या यह रियायत देने के लिए हर पेट्रोल पंप पर दोपहिया वाहनों के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ेगी? बड़़े पेट्रोल पंप पर इसे लागू करना आसान होगा, लेकिन दूरदराज के इलाकों में छोटे पेट्रोल पंपों पर इसे लागू करने में मुश्किल आ सकती है। इसके अलावा क्या यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इस रियायत का दुरुपयोग नहीं होगा? अगर इसी कीमत पर चौपहिया वाहनों में भी पिछले दरवाजे से पेट्रोल भरने लगे, तो लगाम कैसे लगेगी? पेट्रोल पंपों की ईमानदारी वैसे भी संदेहास्पद ही रही है, तो रियायत की नई व्यवस्था से पारदर्शिता और प्रभावित होगी। गरीबों या जरूरतमंदों तक मदद पहुंचाने की कोई भी कोशिश स्वागतयोग्य है, लेकिन उनके लिए दी जा रही रियायत के रिसाव को कैसे रोका जाएगा? दिलचस्प यह है कि अब बाकी राज्य भी झारखंड की नई रियायत व्यवस्था के क्रियान्वयन को देखना चाहेंगे। इस अपेक्षाकृत नए राज्य के पास एक मौका है कि इस रियायत का यथोचित व्यावहारिक ढांचा विकसित हो, ताकि ईंधन के भाव बढ़ने पर कम आय वाले लोगों पर असर न पड़े। हम यह देख पा रहे हैं कि पेट्रोल के भाव बढ़ने से देश भर में सड़कों पर साइकिलों की संख्या बढ़ रही है। अत: इस देश में ईंधन संबंधी किसी भी रियायत या सब्सिडी को सही हाथों तक पहुंचाने की व्यवस्था चाक-चौबंद होनी चाहिए।  

6.बीमार राज्य

स्वास्थ्य सेवा को प्राथमिकता देने का वक्त

देश के राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति के बाबत नीति आयोग के चौथे सर्वे में जहां दक्षिण भारतीय राज्यों ने बेहतर स्थिति को बनाये रखा है, वहीं उत्तर भारत के राज्य पिछड़ते नजर आते हैं। कुल 24 मानकों के आधार पर तैयार सूचकांकों में केरल पहले की तरह एक नंबर पर रहा, वहीं तमिलनाडु और तेलंगाना दूसरे-तीसरे स्थान पर रहे। उत्तर भारत के बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश इस सूची में सबसे नीचे 19वें स्थान पर रहा है। लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश ने मानकों में सुधार की दृष्टि से नंबर एक स्थान पाया है। वहीं राजस्थान, मध्य प्रदेश व बिहार, यू.पी. से ऊपर हैं। दरअसल, ये आंकड़े वर्ष 2019-20 के हैं, जिसे पूरी तरह कोविड काल नहीं कहा जा सकता। राज्यों की स्वास्थ्य सेवाओं का असली मूल्यांकन इस बात पर निर्भर करेगा कि कोरोना काल में ये राज्य अपने नागरिकों की जान बचाने में कितने कामयाब हुए। हालांकि, दक्षिण राज्यों में रोगियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के तहत बेहतर सेवाएं प्रदान की गईं। निस्संदेह, केरल स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतर स्थिति में है, लेकिन बीस करोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश की तुलना 3.3 करोड़ आबादी वाले केरल से नहीं की जा सकती। बड़ी आबादी के चलते पिछड़े राज्यों में प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति जीडीपी और मानव विकास सूचकांक निचले स्तर पर हैं। लेकिन ओडिशा इस मामले में अपवाद है कि दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से बेहतर प्रशासन व जन भागीदारी से स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है। यदि उत्तर भारत के पिछड़े राज्य स्थिति में बदलाव को कटिबद्ध हों तो उन्हें ओडिशा मॉडल का अध्ययन करना चाहिए। कमोबेश देश की राजधानी दिल्ली में भी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी पिछड़ी होना चिंता की बात है। हालांकि, ये दोनों ही प्रदर्शन सुधार की दृष्टि से अग्रणी क्षेत्रों में शुमार हैं। बहरहाल, कुल मिलाकर देश की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति संतोषप्रद नहीं कही जा सकती है।

दरअसल, नीति आयोग का हालिया सर्वे स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को गंभीरता से लेने को कहता है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उत्तर भारत के राज्यों में शिशु मृत्यु दर व प्रसूति माताओं की मौत का आंकड़ा आज भी ज्यादा क्यों है? यह भी कि अस्पतालों में उपचार की विशेषज्ञता का अभाव क्यों है। चिंता की बात यह है कि कई राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च में कटौती की गई है। जाहिरा तौर पर इसका असर स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर पड़ता है। इस कमी को दूर करने के गंभीर प्रयासों की जरूरत है। वैसे राज्यों की स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता की असली कसौटी कोरोना महामारी होगी, तब पता लगेगा कि राज्यों का प्रशासन अपने नागरिकों को किस हद तक सुरक्षा कवच दे पाया। लब्बोलुआब यही है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता दिये जाने की जरूरत है। यहां यह सवाल भी स्वाभाविक है कि सभी राज्यों को स्वशासन एक ही समय मिला। देश के उत्तर व दक्षिण राज्यों की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक विरासत एक जैसी है, फिर स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में इतना अंतर क्यों है? जिस उ.प्र. समेत उत्तर क्षेत्र ने देश को सर्वाधिक प्रधानमंत्री दिये, ये इलाके राजनीतिक रूप से जागरूक भी हैं, ज्यादा आबादी के चलते इनका राजनीतिक दबदबा भी कायम रहा तो स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति इतनी बदतर क्यों? क्या ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ का फार्मूला छोटे-बड़े राज्यों पर लागू होता है? क्या उत्तर भारत में विकास के मुद्दों के बजाय भावनात्मक मुद्दों व संकीर्णता की राजनीति की सजा इन राज्यों की स्वास्थ्य सेवाएं भुगत रही हैं? निस्संदेह जिन राज्यों में वैचारिक व धार्मिक सहिष्णुता की स्थिति संतोषजनक रही है, वहां विकास को नये आयाम भी मिले हैं। ऐसे में उत्तर भारत के बीमारू राज्यों को रचनात्मक विकास को तरजीह देते हुए स्वास्थ्य सेवाओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा। हाल ही के कोरोना संकट ने इसकी कमी का अच्छी तरह अहसास कराया, जब दवाओं, बेड व आक्सीजन के अभाव में लोग तिल-तिल कर मरते रहे।

  1. सियासी संतुलन

मनोहर मंत्रिमंडल विस्तार के निहितार्थ

हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी तथा जननायक जनता पार्टी की साझा सरकार का 26 माह बाद मंगलवार को मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया, जिसमें दो नये चेहरे शामिल किये गये। चंडीगढ़ स्थित राजभवन में आयोजित इस शपथ ग्रहण कार्यक्रम में राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने मंत्री पद और गोपनीयता की शपथ दिलायी। नववर्ष से पहले जिन दो विधायकों को मंत्रिपद का तोहफा मिला, उनमें हिसार से भाजपा के विधायक डॉ. कमल गुप्ता और टोहाना से जजपा विधायक देवेंद्र बबली शामिल हैं। यूं तो कई अन्य विधायक भी मंत्री पद के लिए भागदौड़ कर रहे थे, लेकिन लाटरी इन दोनों की ही खुली। इस बीच कुछ विधायक दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेताओं से भी मिले थे। वैसे भी लंबे समय से कयास लगाये जा रहे थे कि मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। दरअसल, बीते माह उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने भी मंत्रिमंडल विस्तार की उम्मीद जतायी थी। बताते हैं इस मंत्रिमंडल विस्तार के मूल में जजपा के टोहाना से पार्टी विधायक देवेंद्र बबली को मंत्रिमंडल में शामिल करने का दबाव भी था। ऐसा माना जा रहा है कि हरियाणा के किसान आंदोलन से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य होने के चलते भी शायद मंत्रिमंडल विस्तार में देरी हुई। डॉ. कमल गुप्ता की हाईकमान के नेताओं से मुलाकात के बाद मंत्रिमंडल विस्तार के कयास लगाये जा रहे थे। उनके समर्थकों में भी गुप्ता के मंत्री बनाये जाने की खासी सुगबुगाहट थी। डॉ. कमल गुप्ता संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। दरअसल, कमल गुप्ता न केवल संघ बल्कि भाजपा प्रदेश नेतृत्व की भी पसंद रहे हैं। उनकी वैश्य समाज में खासी प्रतिष्ठा रही है। उन्हें एक मुखर वक्ता के रूप में जाना जाता है। वैसे भी वैश्य समाज में फिक्र रही है कि मनोहर मंत्रिमंडल में अभी तक वैश्व समुदाय को प्रतिनिधित्व नहीं मिला। ऐसे में मंत्रिमंडल विस्तार से पार्टी में वैश्य समाज से आठ विधायक होने के बावजूद किसी को मंत्री न बनाये जाने से समाज की शिकायत को दूर करने का भी प्रयास हुआ है।

दरअसल, राजनीतिक पंडित कमल गुप्ता व देवेंद्र बबली को मंत्री बनाये जाने के पीछे सरकार की जाट व वैश्य समुदाय को साधने की कवायद के रूप में भी देख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि नब्बे सदस्यीय विधानसभा में चौदह मंत्री बनाये जा सकते हैं। लेकिन इससे पहले मुख्यमंत्री मनोहर लाल समेत कैबिनेट में 12 मंत्री ही थे। वहीं यह मंत्रिमंडल विस्तार ऐसे समय में हुआ है जब मुख्यमंत्री मनोहर लाल की पार्ट- टू पारी को ढाई साल होने जा रहे हैं। वैसे इस मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर कई अन्य तरह के कयास भी लगाये जाते रहे हैं, जिसमें विधानसभा स्पीकर ज्ञानचंद गुप्ता को मंत्रिमंडल में वैश्य समाज के प्रतिनिधि के रूप शामिल करने की चर्चा रही है। वहीं सियासी गलियारों में यह भी चर्चा रही है कि मुख्यमंत्री कामकाज के आधार पर कई मंत्रियों के कार्यक्षेत्र में कुछ बदलाव ला सकते हैं। कुछ चेहरे बदले भी जा सकते हैं। वैसे इस मंत्रिमंडल विस्तार के साथ ही बोर्ड व निगमों के चेयरमैन पदों को भरने का भी जननायक जनता पार्टी की ओर से दबाव रहेगा। बताते हैं कि भाजपा व जजपा गठबंधन के तहत जजपा को एक दर्जन के करीब बोर्ड व निगमों के पद मिले हैं, जिसके क्रम में सरकार द्वारा की गई कतिपय कार्यवाही से भी इन चर्चाओं को बल मिला है। कह सकते हैं कि गठबंधन की जरूरतों के चलते देर-सवेर मनोहर सरकार को इन पदों पर नियुक्तियों को हरी झंडी देनी ही पड़ेगी। अप्रैल में मंत्रिमंडल में बड़े फेर-बदल की चर्चाओं को मुख्यमंत्री ने फिलहाल खारिज कर दिया है, पर राजनीति में कुछ भी अंतिम कहां होता है। फिलहाल सरकार बड़े किसान आंदोलन के संकट से तो निकल आई है लेकिन कोरोना संकट की तीसरी लहर की दस्तक उसके सामने नई चुनौती खड़ी कर रही है। ऐसे में मनोहर सरकार को एक बार फिर नई चुनौती के मुकाबले को तैयार रहना होगा।

 

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