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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

  1. सरकारी धमनियों में मवाद

यह पहला अवसर नहीं है जब हिमाचल प्रदेश के किसी मंत्री को अपने दायित्व की मजबूरियों में नौकरशाही या अफसरशाही के बंद दरवाजों पर दस्तक देनी पड़ रही है। शिकायत कितनी वाजिब है, इससे पहले यह विचार करना होगा कि हमारे मंत्री कितने योग्य व जुझारू हैं।  उनकी ज्ञान की गंगा में हिमाचल की सरकारी कार्य संस्कृति कितनी धुलती है। यहां दुखड़ा भले ही ऊर्जा मंत्री का है और जिक्र मुख्यमंत्री के सामने हतप्रभ और हाथ जोड़े खड़ा है। मंत्री बताते हैं कि फाइलों के मजमून को अफसरशाही मुजरिम बना रही है। काम आगे बढ़ नहीं रहा, क्योंकि कार्यसंस्कृति ने अपने भीतर सांपनाथ और नागनाथ पाल रखे हैं। हो सकता यह शिकायत कुछ अफसरों के पैरों के नीचे से पद की जमीन निकाल दे या इतनी सजा मिले कि वे शिथिल पेस्टिंग के नए चरित्र बन जाएं, लेकिन यह सही है कि हिमाचल में सरकारी क्षेत्र एक मौज-मस्ती है। आश्चर्य यह कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की धमनियों में बहते मवाद को सही नहीं कर पाती, लेकिन फसाद यह है कि निजी क्षेत्र खामख्वाह की जी हुजूरी करे। इसका एक बड़ा उदाहरण निजी स्कूलों की फीस को लेकर सामने आया है जहां सरकार के ही दो शिक्षा मंत्रियों ने खामख्वाह फट्टे में टांग फंसाई है। हम पूर्व शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज के बयानों की माला पहनकर भी यह पता नहीं लगा सकते हैं कि ऐसे मसले में वह किसे हड़का रहे हैं।

 आश्चर्य यह है कि सरकारी स्कूल के प्रत्येक छात्र पर करीब दो हजार रुपए खर्च करने वाले मंत्री महोदय यह चाहते हैं कि निजी स्कूल बिना आवश्यक शुल्क लिए उधार की टाफियां बांटें। निजी स्कूलों के खिलाफ अपने अभियान में अदालती हार के बावजूद तुर्रा यह है कि डंडा दिखाया जाए। इतना ही नहीं सरकार यह अनुमान लगाने की कोशिश भी नहीं कर रही कि निजी स्कूलों के करीब सत्तर हजार शिक्षकों के वेतन पर इसका क्या असर होगा। पूरा पर्यटन या होटल व ट्रैवल व्यवसाय चौपट है, लेकिन राज्य को तो अपने होटलों और बसों पर घाटे का कोई दबाव नहीं। बेचारे ऊर्जा मंत्री नए हैं, इसलिए विभागीय फाइल पर चढ़ी पपड़ी हटा रहे हैं, वरना कमोबेश हर विभाग की अंधी में जो चाट रहे हैं उनका जिक्र भर शर्मिंदा करता है। उदाहरण के लिए धर्मशाला में एक राष्ट्रीय खेल छात्रावास के लिए आई छब्बीस करोड़ की बजटीय राशि लौटने को तैयार है, लेकिन कहीं उफ तक नहीं। बागबानी के कितने प्रोजेक्ट धूमिल हुए या ठंडे बस्ते में जा चुके लक्ष्य का कौन पीछा करेगा। यहां नीयत और नीति का भी सवाल है। जब सरकारें अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं-परियोजनाओं को अछूत बनाती हों, तो यही ठोकरें तो सामने आएंगी। अब तक हर विधानसभा क्षेत्र में हुए शिलान्यासों का सच ही जान लें, तो पता चल जाएगा कि इनमें से कितनों की जान गई।

 हिमाचली व्यवहार में फाइल को टरकाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, इसका उल्लेख भी परोक्ष में ऊर्जा मंत्री ने किया है। यहां सरकारों का गणित महज तीन साल का रह गया है, जबकि शेष दो साल टाइट रोप पर चलने जैसा है या संतुलन बनाते-बनाते न ओर पकड़ा जाता और न ही छोर। नौकरशाही हो या अफसरशाही इसे ट्रांसफर से पीटा तो जा सकता है, लेकिन जवाबदेह बनाने के लिए सरकार के मंत्रियों को अपनी मंशा, मकसद, नीयत व नीति का सशक्त निर्धारण करना होगा। बहुत सारे मंत्री या तो विधायक जैसे आचरण में यह चाहते हैं कि विभाग का सारा खर्च उन्हीं के विधानसभा क्षेत्र में हो जाए या फाइल के अर्थ को पढ़े बिना साइन की गुंजाइश की आपूर्ति करते हैं। मंत्रियों के ज्ञान, अध्ययन व विभागीय कौशल में प्रासंगिक होने  की वजह नहीं होगी, तो प्रदेश के विषयों का औचित्य भी कहां ठहरेगा। मसला एक मंत्री की फाइल का नहीं, बल्कि उन तमाम फाइलों का है जो प्रदेश सचिवालय या समस्त विभागीय मुख्यालयों के साथ मिलकर सरकार की कथनी को करनी से मिला सकती हैं। जब छोटे-छोटे कार्यों के लिए मंत्री या विधायक ढूंढने पड़ें या जब सरकार केवल शिमला की राहों पर ही मिले, तो सामान्य जनता का क्या होगा। जरा सोचें कि अगर मंत्री को ही नौकरशाही-अफसरशाही से शिकायत है तो आम आदमी के लिए जनमंच भी क्या करेंगे और उस व्यापारी का क्या होगा जिसके लिए अनुमति और निरीक्षण-परीक्षण की अनिवार्यता हर बार सजा देती है

2.क्या कृषि कानून वैकल्पिक

प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में स्पष्ट किया है कि कृषि और किसानों के नए कानून बाध्यकारी नहीं, बल्कि वैकल्पिक हैं। किसान चाहें तो पुरानी व्यवस्था में ही काम कर सकते हैं। यदि उन्हें नए विकल्प पसंद हैं, तो वे नए कानूनों को ग्रहण कर सकते हैं। कानून कृषि में व्यापक सुधार और किसानों की आमदनी बढ़ाने को आश्वस्त करते हैं। यदि किसानों को कानून उचित नहीं लगते, तो वे इतना जरूर बताएं कि कानूनों में गलत क्या है? प्रधानमंत्री ने कहा कि संसद में कृषि कानूनों के ‘रंग’ पर तो चर्चा हुई है, लेकिन उनकी विषय-वस्तु पर विमर्श नहीं किया गया। प्रधानमंत्री ने सवाल किया कि नए कानूनों के बाद कितनी एपीएमसी मंडियां बंद हुईं और किसानों से क्या छीन लिया गया? सवाल तथ्यात्मक होने चाहिए, क्योंकि संसद में प्रधानमंत्री ने संबोधित किया है। बीते कुछ दिनों में मप्र से ख़बरें आ रही हैं कि वहां 269 में से 47 मंडियां बंद हो चुकी हैं और 143 मंडियों में अनाज की आवक या खरीदी 50 फीसदी से भी कम हुई है। मप्र में मंडी एक्ट बेहतरीन माना जाता रहा है, क्योंकि वहां कृषि उपज की पहली बोली न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ही शुरू होती रही है।

 उच्च न्यायालय का भी ऐसा ही आदेश था। लिहाजा गंभीर सवाल है कि मप्र में मंडियां क्यों बंद करनी पड़ीं? क्या यह किसान आंदोलन का प्रभाव है या नए कानून के  विकल्पों और खुले बाज़ार ने मंडियों को ठप कर दिया है? दरअसल हम मंडियां बंद होने की ख़बरों की पुष्टि नहीं कर सकते, क्योंकि अभी तक कांग्रेस प्रवक्ता ऐसे आरोप लगाते रहे हैं। हमने इस घटनाक्रम को न तो कवर किया है और न ही राष्ट्रीय मीडिया में वैसी सुर्खियां देखी-पढ़ी हैं। संसद में प्रधानमंत्री के कथन पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे विरोधाभास के बीच गंभीर और विधिक सवाल उठा है कि क्या संसद में पारित और राष्ट्रपति की मुहर वाले केंद्रीय कानून भी वैकल्पिक हो सकते हैं? हमारी जानकारी के मुताबिक, केंद्रीय कानून देश के सभी राज्यों के लिए बाध्यकारी होते हैं। नए कथित विवादास्पद कानूनों में किसान की खेती वाली ज़मीन को न तो लीज पर देने, न बेचने और न ही गिरवी रखने के प्रावधान हैं। तो किसान की ज़मीन पर पूंजीपति कब्जा कैसे कर सकते हैं?  कानूनों में एमएसपी का उल्लेख ही नहीं है। वह बिल्कुल अलग और बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। प्रधानमंत्री ने लोकसभा में कॉन्टै्रक्ट फार्मिंग की बात ही नहीं की, जबकि पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार ने 24 निजी बाज़ार तय करने और मंडियों को खत्म करने वाले सुधार की प्रासंगिकता पर, अपने मंत्री-काल के दौरान, फैसला लिया था। प्रधानमंत्री ने भी पवार के संदर्भ का जिक्र किया है। बहसतलब बात यह है कि नए कानून बरकरार रहेंगे। उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री ने लोकसभा में भी इसे दोहराया है। यदि किसान पुरानी व्यवस्था को ही अनुकूल मानते हैं, तो अपनी फसल उसी के तहत बेच सकते हैं। जो किसान निजी क्षेत्र के साथ व्यापार करना चाहते हैं, उन्हें खुला बाज़ार उपलब्ध है।

 नए कानूनों में किसानों के लिए कानूनी सजा का कोई प्रावधान नहीं है। अलबत्ता प्रधानमंत्री या कृषि मंत्री को अब यह जरूर स्पष्ट करना चाहिए  कि सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी देने से हिचक क्यों रही है? उसके संवैधानिक और आर्थिक दुष्प्रभाव क्या होंगे? प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने एमएसपी के यथावत बरकरार रहने का आश्वासन, संसद में और उसके बाहर भी, कई बार दिया है। तो फिर उसकी कानूनी गारंटी देने में क्या दिक्कत और पेंच हैं? सिर्फ  इसी गारंटी पर किसान आंदोलन खत्म हो सकता है। हम भी मानते हैं कि नए कानून शायद ही किसी किसान ने पढ़े होंगे! पूरा आंदोलन भ्रम, अफवाहों और आशंकाओं पर जारी है। किसान बड़े व्यापारियों और कंपनियों के साथ कारोबार के मोल-भाव कैसे करेगा? अंततः पूंजीपति उसकी ज़मीन हड़प लेंगे और वह मजदूर बनकर रह जाएगा। आज भी एमएसपी पर खरीद तो करीब 10 फीसदी फसल की होती है, लिहाजा तय है कि शेष 90 फीसदी किसान निजी क्षेत्र में अपनी उपज बेचते होंगे। आज का किसान मध्यकालीन और अनपढ़ नहीं है। वह इंटरनेट भी जानता है और ऑनलाइन कारोबार भी करने में सक्षम है। उसकी संतति साक्षर और आधुनिक है। ये दावे किसान भी करते रहे हैं। तो एक बार क्यों न नए कानूनों के मुताबिक फसल का कारोबार करके देखा जाए? देश में इस सोच के किसान भी करोड़ों हैं।

  1. स्थाई हो समाधान

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद समाधान की दिशा में सकारात्मक  प्रगति सुखद और स्वागत के योग्य है। पिछले साल मई में शुरू हुआ तनाव 15-16 जून को गलवान में झड़प के साथ चरम पर पहुंच गया था। झड़प की कीमत न केवल भारतीय जवानों, बल्कि चीनी जवानों को भी चुकानी पड़ी थी। उसके बाद से पहली बार ऐसा लग रहा है कि चीन तनाव घटाना चाहता है। दोनों देशों के बीच अनेक दौर की औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं के बाद कहीं न कहीं यह आशा थी कि समाधान निकलेगा। चीन अगर चाहता, तो न झड़प की स्थिति बनती और न ही विवाद इतना लंबा खिंचता। चीन के भाव में कोई अफसोस नहीं था, उसने तो यहां तक नहीं बताया कि उसके कितने सैनिक सीमा पर हताहत हुए। लेकिन गलवान में भारत को जो घाव मिले हैं, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। फिर भी सबसे अच्छी बात यह रही कि गलवान की घटना के बाद दोनों देशों ने अपेक्षाकृत संयम का परिचय दिया। दो विशाल देशों को ऐसे ही संयम का परिचय देते हुए, निरंतर संवाद करते हुए अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं, चीन के व्यवहार ने मोटे तौर पर भारतीयों को निराश ही किया है और इसी निराशा की वजह से भारत सरकार को कई प्रतिकूल निर्णय लेने पड़े। कुछ आर्थिक पाबंदियों के सहारे संकेत देकर भारत सरकार की कोशिश रही कि चीन संभल जाए। कहना न होगा कि सीमा पर चीन की आक्रामकता का जवाब भारत ने कमोबेश अपनी आर्थिक आक्रामकता से दिया। भारत अगर ऐसा नहीं करता, तो चीन अपनी गलती और भारत की नाराजगी को समझ नहीं पाता। चीन को यह समझने में वक्त लगा है। हालांकि, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि विभिन्न विश्व मंचों पर वह भारत के खिलाफ आक्रामक रहा है। चाहे पाकिस्तान की कारगुजारियों का समर्थन हो या सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की चर्चा। चीन तो भारत विरोधी आतंकियों के समर्थन में भी खड़ा दिखता रहा है। चीन के व्यवहार की तुलना करें, तो पता चलेगा कि भारत ने कितने संयम का परिचय दिया है। यह अवसर है, जब चीन व्यापकता में भारत की उपयोगिता समझे और यह भी माने कि भारत की जमीन कुतरने के जमाने लद गए। आज विश्व में भारत की आर्थिक, कूटनीतिक और राजनीतिक स्थिति बहुत सशक्त है। चीन के लिए भारत एक विशाल और करीबी बाजार साबित हो सकता है, पर इसके लिए जरूरी है कि वह सीमा विवादों का स्थाई व व्यावहारिक समाधान करे। गौरतलब है, चीन ने अपने विशाल पड़ोसी रूस के साथ जब अपने सीमा विवादों का समाधान किया, तभी दोनों देशों के बीच संबंध नई ऊंचाइयों पर पहुंचे, ठीक उसी तरह की ऊंचाई भारत-चीन संबंधों को भी हासिल हो सकती है। अच्छे संबंधों को संजोने और सशक्त करने की जिम्मेदारी चीन पर ज्यादा है, क्योंकि उससे भारतीयों का विश्वास हिल गया है। कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक सीमाओं पर शांति और शालीनता बहाल होनी चाहिए। तभी दोनों देश ईमानदारी से एक-दूसरे के साथ खड़े हो सकेंगे। दोनों बडे़ देश अगर मिलकर चलें, तो न केवल एशिया, बल्कि दुनिया में न्याय, शांति और समृद्धि को बल मिलेगा। चीन की मंशा अगर सही है, तो यह मौका है, दोनों देश अपनी-अपनी हदों-सरहदों को ठीक से पहचान लें। 

  1. जांच को आंच

डब्ल्यूएचओ की जवाबदेही

यह विडंबना ही है कि जब दुनिया में कोविड महामारी की दस्तक को एक साल बीत चुका है और महामारी अर्थव्यवस्थाओं को तहस-नहस करके 23 लाख से अधिक लोगों को लील चुकी है, हम इसके मूल स्रोत तक नहीं पहुंच पाये हैं। चीन की तमाम ना-नुुुकुर के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों को कोरोना वायरस के स्रोत वुहान पहुंचने दिया गया। फिर टीम को चौदह दिन के लिये क्वारंटीन किया गया। अब विशेषज्ञों की टीम के वुहान की चार सप्ताह की यात्रा के बाद इस बयान ने विश्व में प्रचलित इस धारणा को खारिज किया कि वायरस चीनी प्रयोगशाला से निकला था। टीम का कहना है कि संभावना है कि वायरस किसी जानवर से इनसान में फैला हो। हालांकि, यह निष्कर्ष साधारणत: गले नहीं उतरता है। कहीं न कहीं यह चीन के खिलाफ उपजे विश्वव्यापी विरोध को दबाने का प्रयास जान पड़ता है। अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देश चीन पर समय रहते वायरस से जुड़ी जानकारी साझा न करने के आरोप लगाते रहे हैं। इसके विपरीत चीन अपनी धरती से वायरस फैलने के तथ्य को सिरे से खारिज करता रहा है। वह आरोप लगाता रहा है कि वायरस की उत्पत्ति अमेरिका व यूरोप में हुई होगी। उसकी मंशा पर इस बात से भी संदेह उत्पन्न होता है कि वह लंबे समय तक अपने यहां अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ दल को जांच करने में सहयोग देने को तैयार नहीं था। कई महीनों की बातचीत के बाद चीन ने पिछले महीने डब्ल्यूएचओ की टीम को चीनी वैज्ञानिकों के साथ जांच के लिये वुहान आने की अनुमति दी जो कि उसकी मंशा पर सवालिया निशान लगाता है। सही तरह से जांच होने में हुई देरी ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शंका को बढ़ाया ही है। यही वजह है कि कोरोना महामारी से बुरी तरह प्रभावित अमेरिका ने डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट की जांच करने की बात कही है। बहरहाल, कहना जल्दबाजी होगी कि चीन ने जांच दल को पूर्ण सहयोग दिया कि नहीं।

निस्संदेह, कोरोना के चीन से पूरी दुनिया में फैलने के मामले की जांच में पारदर्शिता अनिवार्य शर्त है क्योंकि मानवता ने संक्रमण के बारे में समय रहते सूचना न मिलने के कारण बड़ी कीमत चुकाई है। लाखों लोगों के मरने और करोड़ों लोगों के संक्रमित होने के अलावा पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हुई है। इस आर्थिक तबाही से उबरने में वर्षों लग जायेंगे। ऐसे में पूरी दुनिया डब्ल्यूएचओ की ओर विश्वास से देख रही है कि संगठन इसके मुखिया की चीन के प्रति झुकाव के आरोपों से मुक्त होकर मानवता के विरुद्ध अपराध करने वालों की जवाबदेही तय करेगा। महामारी को लेकर चीन की भूमिका कई मायनों में संदिग्ध रही है। जब दुनिया कोरोना संकट से उबरने की जद्दोजहद में लगी थी तो चीन अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को अंजाम दे रहा था। अपने पड़ोसियों की संप्रभुता को रौंदकर अपने विस्तारवादी इरादों को विस्तार दे रहा था। इस दौरान उसने अपने कूटनीतिक अभियानों व चिकित्सा उपकरणों के कारोबार को खूब विस्तार दिया। जहां एक ओर दुनिया की तमाम छोटी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएं कोरोना संकट से चरमरा गईं, वहीं चीन की ही अर्थव्यवस्था ने तेजी से विकास किया। भारत ने पिछले दशकों की सबसे बड़ी आर्थिक गिरावट दर्ज की और अपने डेढ़ लाख से अधिक नागरिकों को खोया। वहीं चीन कोरोना से बचाव के उपकरणों और वैक्सीन कूटनीति में जुटा रहा। वहीं भारत को घटिया पीपीई किट और कोरोना की जांच करने वाली किटों की आपूर्ति भी चीनी मंसूबों को उजागर करती है। निस्संदेह विश्व बिरादरी चाहती है कि कोरोना संकट फैलाने में चीन की संदिग्ध भूमिका का सच जल्द से जल्द सामने आये। मानव जाति को भविष्य के खतरों से बचाने के लिये इस मामले की तह तक पहुंचना जरूरी है ताकि मानव जाति की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश की जा सके। साथ ही भविष्य में ऐसी जैविक तबाही को समय रहते फैलने से रोका जा सके। चीन से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि सबसे पहले दिसंबर, 2019 में इस नयी बीमारी की सबसे पहले सूचना देने वाले डॉ. वेनलियांग को क्यों प्रताड़ित किया गया और उसकी मौत किन परिस्थितियों में हुई।

 

 

 

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

  1. सरकारी धमनियों में मवाद

यह पहला अवसर नहीं है जब हिमाचल प्रदेश के किसी मंत्री को अपने दायित्व की मजबूरियों में नौकरशाही या अफसरशाही के बंद दरवाजों पर दस्तक देनी पड़ रही है। शिकायत कितनी वाजिब है, इससे पहले यह विचार करना होगा कि हमारे मंत्री कितने योग्य व जुझारू हैं।  उनकी ज्ञान की गंगा में हिमाचल की सरकारी कार्य संस्कृति कितनी धुलती है। यहां दुखड़ा भले ही ऊर्जा मंत्री का है और जिक्र मुख्यमंत्री के सामने हतप्रभ और हाथ जोड़े खड़ा है। मंत्री बताते हैं कि फाइलों के मजमून को अफसरशाही मुजरिम बना रही है। काम आगे बढ़ नहीं रहा, क्योंकि कार्यसंस्कृति ने अपने भीतर सांपनाथ और नागनाथ पाल रखे हैं। हो सकता यह शिकायत कुछ अफसरों के पैरों के नीचे से पद की जमीन निकाल दे या इतनी सजा मिले कि वे शिथिल पेस्टिंग के नए चरित्र बन जाएं, लेकिन यह सही है कि हिमाचल में सरकारी क्षेत्र एक मौज-मस्ती है। आश्चर्य यह कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की धमनियों में बहते मवाद को सही नहीं कर पाती, लेकिन फसाद यह है कि निजी क्षेत्र खामख्वाह की जी हुजूरी करे। इसका एक बड़ा उदाहरण निजी स्कूलों की फीस को लेकर सामने आया है जहां सरकार के ही दो शिक्षा मंत्रियों ने खामख्वाह फट्टे में टांग फंसाई है। हम पूर्व शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज के बयानों की माला पहनकर भी यह पता नहीं लगा सकते हैं कि ऐसे मसले में वह किसे हड़का रहे हैं।

 आश्चर्य यह है कि सरकारी स्कूल के प्रत्येक छात्र पर करीब दो हजार रुपए खर्च करने वाले मंत्री महोदय यह चाहते हैं कि निजी स्कूल बिना आवश्यक शुल्क लिए उधार की टाफियां बांटें। निजी स्कूलों के खिलाफ अपने अभियान में अदालती हार के बावजूद तुर्रा यह है कि डंडा दिखाया जाए। इतना ही नहीं सरकार यह अनुमान लगाने की कोशिश भी नहीं कर रही कि निजी स्कूलों के करीब सत्तर हजार शिक्षकों के वेतन पर इसका क्या असर होगा। पूरा पर्यटन या होटल व ट्रैवल व्यवसाय चौपट है, लेकिन राज्य को तो अपने होटलों और बसों पर घाटे का कोई दबाव नहीं। बेचारे ऊर्जा मंत्री नए हैं, इसलिए विभागीय फाइल पर चढ़ी पपड़ी हटा रहे हैं, वरना कमोबेश हर विभाग की अंधी में जो चाट रहे हैं उनका जिक्र भर शर्मिंदा करता है। उदाहरण के लिए धर्मशाला में एक राष्ट्रीय खेल छात्रावास के लिए आई छब्बीस करोड़ की बजटीय राशि लौटने को तैयार है, लेकिन कहीं उफ तक नहीं। बागबानी के कितने प्रोजेक्ट धूमिल हुए या ठंडे बस्ते में जा चुके लक्ष्य का कौन पीछा करेगा। यहां नीयत और नीति का भी सवाल है। जब सरकारें अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं-परियोजनाओं को अछूत बनाती हों, तो यही ठोकरें तो सामने आएंगी। अब तक हर विधानसभा क्षेत्र में हुए शिलान्यासों का सच ही जान लें, तो पता चल जाएगा कि इनमें से कितनों की जान गई।

 हिमाचली व्यवहार में फाइल को टरकाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, इसका उल्लेख भी परोक्ष में ऊर्जा मंत्री ने किया है। यहां सरकारों का गणित महज तीन साल का रह गया है, जबकि शेष दो साल टाइट रोप पर चलने जैसा है या संतुलन बनाते-बनाते न ओर पकड़ा जाता और न ही छोर। नौकरशाही हो या अफसरशाही इसे ट्रांसफर से पीटा तो जा सकता है, लेकिन जवाबदेह बनाने के लिए सरकार के मंत्रियों को अपनी मंशा, मकसद, नीयत व नीति का सशक्त निर्धारण करना होगा। बहुत सारे मंत्री या तो विधायक जैसे आचरण में यह चाहते हैं कि विभाग का सारा खर्च उन्हीं के विधानसभा क्षेत्र में हो जाए या फाइल के अर्थ को पढ़े बिना साइन की गुंजाइश की आपूर्ति करते हैं। मंत्रियों के ज्ञान, अध्ययन व विभागीय कौशल में प्रासंगिक होने  की वजह नहीं होगी, तो प्रदेश के विषयों का औचित्य भी कहां ठहरेगा। मसला एक मंत्री की फाइल का नहीं, बल्कि उन तमाम फाइलों का है जो प्रदेश सचिवालय या समस्त विभागीय मुख्यालयों के साथ मिलकर सरकार की कथनी को करनी से मिला सकती हैं। जब छोटे-छोटे कार्यों के लिए मंत्री या विधायक ढूंढने पड़ें या जब सरकार केवल शिमला की राहों पर ही मिले, तो सामान्य जनता का क्या होगा। जरा सोचें कि अगर मंत्री को ही नौकरशाही-अफसरशाही से शिकायत है तो आम आदमी के लिए जनमंच भी क्या करेंगे और उस व्यापारी का क्या होगा जिसके लिए अनुमति और निरीक्षण-परीक्षण की अनिवार्यता हर बार सजा देती है

2.क्या कृषि कानून वैकल्पिक

प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में स्पष्ट किया है कि कृषि और किसानों के नए कानून बाध्यकारी नहीं, बल्कि वैकल्पिक हैं। किसान चाहें तो पुरानी व्यवस्था में ही काम कर सकते हैं। यदि उन्हें नए विकल्प पसंद हैं, तो वे नए कानूनों को ग्रहण कर सकते हैं। कानून कृषि में व्यापक सुधार और किसानों की आमदनी बढ़ाने को आश्वस्त करते हैं। यदि किसानों को कानून उचित नहीं लगते, तो वे इतना जरूर बताएं कि कानूनों में गलत क्या है? प्रधानमंत्री ने कहा कि संसद में कृषि कानूनों के ‘रंग’ पर तो चर्चा हुई है, लेकिन उनकी विषय-वस्तु पर विमर्श नहीं किया गया। प्रधानमंत्री ने सवाल किया कि नए कानूनों के बाद कितनी एपीएमसी मंडियां बंद हुईं और किसानों से क्या छीन लिया गया? सवाल तथ्यात्मक होने चाहिए, क्योंकि संसद में प्रधानमंत्री ने संबोधित किया है। बीते कुछ दिनों में मप्र से ख़बरें आ रही हैं कि वहां 269 में से 47 मंडियां बंद हो चुकी हैं और 143 मंडियों में अनाज की आवक या खरीदी 50 फीसदी से भी कम हुई है। मप्र में मंडी एक्ट बेहतरीन माना जाता रहा है, क्योंकि वहां कृषि उपज की पहली बोली न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ही शुरू होती रही है।

 उच्च न्यायालय का भी ऐसा ही आदेश था। लिहाजा गंभीर सवाल है कि मप्र में मंडियां क्यों बंद करनी पड़ीं? क्या यह किसान आंदोलन का प्रभाव है या नए कानून के  विकल्पों और खुले बाज़ार ने मंडियों को ठप कर दिया है? दरअसल हम मंडियां बंद होने की ख़बरों की पुष्टि नहीं कर सकते, क्योंकि अभी तक कांग्रेस प्रवक्ता ऐसे आरोप लगाते रहे हैं। हमने इस घटनाक्रम को न तो कवर किया है और न ही राष्ट्रीय मीडिया में वैसी सुर्खियां देखी-पढ़ी हैं। संसद में प्रधानमंत्री के कथन पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे विरोधाभास के बीच गंभीर और विधिक सवाल उठा है कि क्या संसद में पारित और राष्ट्रपति की मुहर वाले केंद्रीय कानून भी वैकल्पिक हो सकते हैं? हमारी जानकारी के मुताबिक, केंद्रीय कानून देश के सभी राज्यों के लिए बाध्यकारी होते हैं। नए कथित विवादास्पद कानूनों में किसान की खेती वाली ज़मीन को न तो लीज पर देने, न बेचने और न ही गिरवी रखने के प्रावधान हैं। तो किसान की ज़मीन पर पूंजीपति कब्जा कैसे कर सकते हैं?  कानूनों में एमएसपी का उल्लेख ही नहीं है। वह बिल्कुल अलग और बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। प्रधानमंत्री ने लोकसभा में कॉन्टै्रक्ट फार्मिंग की बात ही नहीं की, जबकि पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार ने 24 निजी बाज़ार तय करने और मंडियों को खत्म करने वाले सुधार की प्रासंगिकता पर, अपने मंत्री-काल के दौरान, फैसला लिया था। प्रधानमंत्री ने भी पवार के संदर्भ का जिक्र किया है। बहसतलब बात यह है कि नए कानून बरकरार रहेंगे। उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री ने लोकसभा में भी इसे दोहराया है। यदि किसान पुरानी व्यवस्था को ही अनुकूल मानते हैं, तो अपनी फसल उसी के तहत बेच सकते हैं। जो किसान निजी क्षेत्र के साथ व्यापार करना चाहते हैं, उन्हें खुला बाज़ार उपलब्ध है।

 नए कानूनों में किसानों के लिए कानूनी सजा का कोई प्रावधान नहीं है। अलबत्ता प्रधानमंत्री या कृषि मंत्री को अब यह जरूर स्पष्ट करना चाहिए  कि सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी देने से हिचक क्यों रही है? उसके संवैधानिक और आर्थिक दुष्प्रभाव क्या होंगे? प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने एमएसपी के यथावत बरकरार रहने का आश्वासन, संसद में और उसके बाहर भी, कई बार दिया है। तो फिर उसकी कानूनी गारंटी देने में क्या दिक्कत और पेंच हैं? सिर्फ  इसी गारंटी पर किसान आंदोलन खत्म हो सकता है। हम भी मानते हैं कि नए कानून शायद ही किसी किसान ने पढ़े होंगे! पूरा आंदोलन भ्रम, अफवाहों और आशंकाओं पर जारी है। किसान बड़े व्यापारियों और कंपनियों के साथ कारोबार के मोल-भाव कैसे करेगा? अंततः पूंजीपति उसकी ज़मीन हड़प लेंगे और वह मजदूर बनकर रह जाएगा। आज भी एमएसपी पर खरीद तो करीब 10 फीसदी फसल की होती है, लिहाजा तय है कि शेष 90 फीसदी किसान निजी क्षेत्र में अपनी उपज बेचते होंगे। आज का किसान मध्यकालीन और अनपढ़ नहीं है। वह इंटरनेट भी जानता है और ऑनलाइन कारोबार भी करने में सक्षम है। उसकी संतति साक्षर और आधुनिक है। ये दावे किसान भी करते रहे हैं। तो एक बार क्यों न नए कानूनों के मुताबिक फसल का कारोबार करके देखा जाए? देश में इस सोच के किसान भी करोड़ों हैं।

  1. स्थाई हो समाधान

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद समाधान की दिशा में सकारात्मक  प्रगति सुखद और स्वागत के योग्य है। पिछले साल मई में शुरू हुआ तनाव 15-16 जून को गलवान में झड़प के साथ चरम पर पहुंच गया था। झड़प की कीमत न केवल भारतीय जवानों, बल्कि चीनी जवानों को भी चुकानी पड़ी थी। उसके बाद से पहली बार ऐसा लग रहा है कि चीन तनाव घटाना चाहता है। दोनों देशों के बीच अनेक दौर की औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं के बाद कहीं न कहीं यह आशा थी कि समाधान निकलेगा। चीन अगर चाहता, तो न झड़प की स्थिति बनती और न ही विवाद इतना लंबा खिंचता। चीन के भाव में कोई अफसोस नहीं था, उसने तो यहां तक नहीं बताया कि उसके कितने सैनिक सीमा पर हताहत हुए। लेकिन गलवान में भारत को जो घाव मिले हैं, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। फिर भी सबसे अच्छी बात यह रही कि गलवान की घटना के बाद दोनों देशों ने अपेक्षाकृत संयम का परिचय दिया। दो विशाल देशों को ऐसे ही संयम का परिचय देते हुए, निरंतर संवाद करते हुए अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं, चीन के व्यवहार ने मोटे तौर पर भारतीयों को निराश ही किया है और इसी निराशा की वजह से भारत सरकार को कई प्रतिकूल निर्णय लेने पड़े। कुछ आर्थिक पाबंदियों के सहारे संकेत देकर भारत सरकार की कोशिश रही कि चीन संभल जाए। कहना न होगा कि सीमा पर चीन की आक्रामकता का जवाब भारत ने कमोबेश अपनी आर्थिक आक्रामकता से दिया। भारत अगर ऐसा नहीं करता, तो चीन अपनी गलती और भारत की नाराजगी को समझ नहीं पाता। चीन को यह समझने में वक्त लगा है। हालांकि, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि विभिन्न विश्व मंचों पर वह भारत के खिलाफ आक्रामक रहा है। चाहे पाकिस्तान की कारगुजारियों का समर्थन हो या सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की चर्चा। चीन तो भारत विरोधी आतंकियों के समर्थन में भी खड़ा दिखता रहा है। चीन के व्यवहार की तुलना करें, तो पता चलेगा कि भारत ने कितने संयम का परिचय दिया है। यह अवसर है, जब चीन व्यापकता में भारत की उपयोगिता समझे और यह भी माने कि भारत की जमीन कुतरने के जमाने लद गए। आज विश्व में भारत की आर्थिक, कूटनीतिक और राजनीतिक स्थिति बहुत सशक्त है। चीन के लिए भारत एक विशाल और करीबी बाजार साबित हो सकता है, पर इसके लिए जरूरी है कि वह सीमा विवादों का स्थाई व व्यावहारिक समाधान करे। गौरतलब है, चीन ने अपने विशाल पड़ोसी रूस के साथ जब अपने सीमा विवादों का समाधान किया, तभी दोनों देशों के बीच संबंध नई ऊंचाइयों पर पहुंचे, ठीक उसी तरह की ऊंचाई भारत-चीन संबंधों को भी हासिल हो सकती है। अच्छे संबंधों को संजोने और सशक्त करने की जिम्मेदारी चीन पर ज्यादा है, क्योंकि उससे भारतीयों का विश्वास हिल गया है। कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक सीमाओं पर शांति और शालीनता बहाल होनी चाहिए। तभी दोनों देश ईमानदारी से एक-दूसरे के साथ खड़े हो सकेंगे। दोनों बडे़ देश अगर मिलकर चलें, तो न केवल एशिया, बल्कि दुनिया में न्याय, शांति और समृद्धि को बल मिलेगा। चीन की मंशा अगर सही है, तो यह मौका है, दोनों देश अपनी-अपनी हदों-सरहदों को ठीक से पहचान लें। 

  1. जांच को आंच

डब्ल्यूएचओ की जवाबदेही

यह विडंबना ही है कि जब दुनिया में कोविड महामारी की दस्तक को एक साल बीत चुका है और महामारी अर्थव्यवस्थाओं को तहस-नहस करके 23 लाख से अधिक लोगों को लील चुकी है, हम इसके मूल स्रोत तक नहीं पहुंच पाये हैं। चीन की तमाम ना-नुुुकुर के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों को कोरोना वायरस के स्रोत वुहान पहुंचने दिया गया। फिर टीम को चौदह दिन के लिये क्वारंटीन किया गया। अब विशेषज्ञों की टीम के वुहान की चार सप्ताह की यात्रा के बाद इस बयान ने विश्व में प्रचलित इस धारणा को खारिज किया कि वायरस चीनी प्रयोगशाला से निकला था। टीम का कहना है कि संभावना है कि वायरस किसी जानवर से इनसान में फैला हो। हालांकि, यह निष्कर्ष साधारणत: गले नहीं उतरता है। कहीं न कहीं यह चीन के खिलाफ उपजे विश्वव्यापी विरोध को दबाने का प्रयास जान पड़ता है। अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देश चीन पर समय रहते वायरस से जुड़ी जानकारी साझा न करने के आरोप लगाते रहे हैं। इसके विपरीत चीन अपनी धरती से वायरस फैलने के तथ्य को सिरे से खारिज करता रहा है। वह आरोप लगाता रहा है कि वायरस की उत्पत्ति अमेरिका व यूरोप में हुई होगी। उसकी मंशा पर इस बात से भी संदेह उत्पन्न होता है कि वह लंबे समय तक अपने यहां अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ दल को जांच करने में सहयोग देने को तैयार नहीं था। कई महीनों की बातचीत के बाद चीन ने पिछले महीने डब्ल्यूएचओ की टीम को चीनी वैज्ञानिकों के साथ जांच के लिये वुहान आने की अनुमति दी जो कि उसकी मंशा पर सवालिया निशान लगाता है। सही तरह से जांच होने में हुई देरी ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शंका को बढ़ाया ही है। यही वजह है कि कोरोना महामारी से बुरी तरह प्रभावित अमेरिका ने डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट की जांच करने की बात कही है। बहरहाल, कहना जल्दबाजी होगी कि चीन ने जांच दल को पूर्ण सहयोग दिया कि नहीं।

निस्संदेह, कोरोना के चीन से पूरी दुनिया में फैलने के मामले की जांच में पारदर्शिता अनिवार्य शर्त है क्योंकि मानवता ने संक्रमण के बारे में समय रहते सूचना न मिलने के कारण बड़ी कीमत चुकाई है। लाखों लोगों के मरने और करोड़ों लोगों के संक्रमित होने के अलावा पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हुई है। इस आर्थिक तबाही से उबरने में वर्षों लग जायेंगे। ऐसे में पूरी दुनिया डब्ल्यूएचओ की ओर विश्वास से देख रही है कि संगठन इसके मुखिया की चीन के प्रति झुकाव के आरोपों से मुक्त होकर मानवता के विरुद्ध अपराध करने वालों की जवाबदेही तय करेगा। महामारी को लेकर चीन की भूमिका कई मायनों में संदिग्ध रही है। जब दुनिया कोरोना संकट से उबरने की जद्दोजहद में लगी थी तो चीन अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को अंजाम दे रहा था। अपने पड़ोसियों की संप्रभुता को रौंदकर अपने विस्तारवादी इरादों को विस्तार दे रहा था। इस दौरान उसने अपने कूटनीतिक अभियानों व चिकित्सा उपकरणों के कारोबार को खूब विस्तार दिया। जहां एक ओर दुनिया की तमाम छोटी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएं कोरोना संकट से चरमरा गईं, वहीं चीन की ही अर्थव्यवस्था ने तेजी से विकास किया। भारत ने पिछले दशकों की सबसे बड़ी आर्थिक गिरावट दर्ज की और अपने डेढ़ लाख से अधिक नागरिकों को खोया। वहीं चीन कोरोना से बचाव के उपकरणों और वैक्सीन कूटनीति में जुटा रहा। वहीं भारत को घटिया पीपीई किट और कोरोना की जांच करने वाली किटों की आपूर्ति भी चीनी मंसूबों को उजागर करती है। निस्संदेह विश्व बिरादरी चाहती है कि कोरोना संकट फैलाने में चीन की संदिग्ध भूमिका का सच जल्द से जल्द सामने आये। मानव जाति को भविष्य के खतरों से बचाने के लिये इस मामले की तह तक पहुंचना जरूरी है ताकि मानव जाति की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश की जा सके। साथ ही भविष्य में ऐसी जैविक तबाही को समय रहते फैलने से रोका जा सके। चीन से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि सबसे पहले दिसंबर, 2019 में इस नयी बीमारी की सबसे पहले सूचना देने वाले डॉ. वेनलियांग को क्यों प्रताड़ित किया गया और उसकी मौत किन परिस्थितियों में हुई।

 

 

 

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