इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हमारे आसपास चन्नी
चुनाव के अंत्य परीक्षण से गुजरने से पहले पंजाब ने अपने माहौल में जो उधेड़बुन देखी, तो अब चुनावी कायदे में सारे घटनाक्रम की तासीर में रहस्य छुपा है। यहां जिक्र पंजाब के बहाने हिमाचल को समझने का है, तो पांच राज्यों के चुनाव चक्र में सियासत के महाकुंभ में नहाते समीकरणों को निहारने का भी है। पंजाब अगर हमारे नजदीक या हमारे आसपास चलता है, तो उत्तराखंड के साथ भी नदी गोत्र साथ चलता है। सांस्कृतिक कदमों की झंकार में दूर कहीं घुंघरू बजने या टूटने की आवाज को राजनीतिक सरहद नहीं रोकती। इसलिए हमारे आसपास राजनीतिक चरित्र बनकर उभरे पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के इर्द-गिर्द ऐसी सियासत खड़ी हो रही है, जो भाजपा की क्षेत्रीय मुद्राओं को विभक्त करती है। बेशक पंजाब में राजनीतिक विभाजन विषैला व विस्मयकारी है, लेकिन कांग्रेस के परिप्रेक्ष्य में राजनीति के मुहावरे बदले हैं तो यह हिमाचल में भी पार्टी की चाल-ढाल दुरुस्त कर सकते हैं। चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का पद जिन परिस्थितियों में नवाजा गया, वे न तो सामान्य थीं और न ही व्यक्तिगत तौर पर चन्नी को सशक्त विकल्प बना रही थीं, बल्कि नवजोत सिंह सिद्धू व पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं ने पार्टी को अनिर्णय की स्थिति में धकेलने की हरसंभव कोशिश की है। वह बतौर मुख्यमंत्री सुलझते गए और अपने आसपास के मंतव्यों को सुलझाते हुए आज इस स्थिति में हैं कि आलाकमान का काम आसान हो गया है।
चुनाव घोषित होने से ठीक पूर्व प्रधानमंत्री दौरे में सुरक्षा की चूक का सारा दोषारोपण कंधे पर उठाते हुए चन्नी ने राजनीतिक इबादत और इबारत बदलते हुए सारा मुकाबला मोदी बनाम चन्नी कर दिया, तो पंजाब और पंजाबियत के कर्णधार बनकर वह लाभ की स्थिति में हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह का तिलिस्म तोड़ने के कारण चन्नी कांग्रेस को एक अलग मैदान पर खड़ा कर देते हैं। हिमाचल में कांग्रेस भी वर्षों तक स्व. वीरभद्र सिंह के तिलिस्म के नीचे अपने कई युवा नेताओं को नहीं संवार पाई। शरण या छत्रछाया में जो नेता उभरे, उनके ऊपर वीरभद्र सिंह की छाप रही और जो बिदके, उनके लिए राहें मुश्किल होती गईं। यह दीगर है कि जब सुखविंद्र सिंह सुक्खू हिमाचल कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो पहली बार वीरभद्र सिंह के तिलिस्म को चुनौती मिली, लेकिन वर्तमान मुखिया ने पुनः मध्यम मार्ग के जरिए पार्टी का रास्ता बनाया है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि अब शांति से अगले नेतृत्व का अवतरण हो जाएगा। भले ही चार उपचुनाव फतह करके कांग्रेस सुखद स्थिति में है, लेकिन तिलिस्म की विरासत पर गौर करते कुछ नेता देखे जा सकते हैं। खास तौर पर मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव परिणाम ने मात्र संवेदना की पोशाक नहीं पहनी, बल्कि पुराने तिलिस्म की पटकथा में वीरभद्र सिंह परिवार को आगे रखने की कोशिशें परवान चढ़ती हुई देखी जा सकती हैं। एक अनूठा लोहड़ी पर्व अगर धर्मशाला में खिचड़ी पका रहा था, तो पंजाब पर आया विधायक विक्रमादित्य का बयान चुगली करता हुआ सुना गया।
ऐसे में हिमाचल कांग्रेस को अपने मुगालते से बाहर निकल कर यह गौर करना होगा कि इस बार भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव को इतना आसान नहीं रहने देगी कि सत्ता के परिवार में कांग्रेस के कुछ घराने शिरकत कर पाएं। पहली बार अदला-बदली सरकारों की परंपरा का विच्छेदन करती हुई भाजपा दिखाई देगी, तो सामने कांगे्रस का चन्नी कौन होगा। क्या हिमाचल कांग्रेस अपने भीतर से चन्नी खोज पाएगी या अपने-अपने दांव खेल रहे चंद नेता या वीरभद्र सिंह का करिश्मा ओढ़ते हुए एक खास विरासत के आश्रय में रहेंगे या इसके अलावा स्वच्छ हवा का झोंका बनकर कोई कठिन इम्तिहान के लिए तैयार होगा। फिलहाल एक ही नेता सीधे मुख्यमंत्री के खिलाफ खड़ा रहता है, तो मुकेश अग्निहोत्री ने विपक्ष का कद बरकरार रखा है, वरना अधिकांश अन्य नेता सिर्फ समय के भरोसे सरकार परिवर्तन की मूक शैली पर भरोसा रखते हैं। जयराम ठाकुर बनाम मुकेश अग्निहोत्री के परिदृश्य में कांग्रेस अपने भीतर के संगठन को आगे चलकर कितना मजबूत करेगी या अन्य नेताओं की धार से पिघलता विपक्षी आक्रोश खुद को किस तरह नए अनुभव की पराकाष्ठा तक ले जाता है, देखना होगा।
2.कौन रोकेगा कोरोना का कहर
देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट आदि अतिविशिष्ट चेहरे कोरोना वायरस के शिकार हो गए हैं। संक्रमित होने के बाद सभी पृथकवास में हैं। ख़बर यहीं तक सीमित होती, तो अपेक्षाकृत चिंताजनक नहीं होती, लेकिन संसद के 400 से अधिक कर्मचारी संक्रमित पाए गए हैं। शुक्र है कि संसद का सत्र अभी जारी नहीं है, लेकिन बजट सत्र भी बहुत दूर नहीं है। राजधानी दिल्ली के आधा दर्जन प्रमुख अस्पतालों में करीब 800 डॉक्टर, नर्सें आदि संक्रमित दर्ज किए गए हैं। एम्स में तो कोरोना का मानो महाविस्फोट हो गया है! वहां 350 रेजिडेंट डॉक्टर संक्रमित होकर पृथकवास में थे। अब कुछ स्वस्थ होकर लौटे हैं। ओपीडी लगभग बंद करनी पड़ी है। चिंता का सवाल यह है कि मरीजों का इलाज कौन करेगा? यदि कोरोना संक्रमण का सैलाब आता है, तो अस्पताल में, आईसीयू के भीतर, वेंटिलेटर पर मरीजों की देखभाल कौन करेगा? सर्वोच्च न्यायालय तक संक्रमण का विस्तार हो गया है और 7 न्यायाधीशों समेत करीब 250 कर्मचारी कोरोना के कहर की चपेट में हैं।
करीब 1000 पुलिसकर्मी भी संक्रमित हो गए हैं। उनमें आईपीएस अधिकारी भी शामिल हैं। इनके अलावा रेल मंत्रालय के 127 कर्मचारी संक्रमित हैं। चेन्नई रेलवे ने फैसला लिया है कि टीके की दोनों खुराक लेने वाला ही रेल-यात्रा कर सकेगा। जाहिर है कि कोरोना के डेल्टा और ओमिक्रॉन स्वरूपों ने चिकित्सा, संसद, न्यायपालिका से लेकर पुलिस और प्रशासन तक के अमले पर आक्रमण किया है। ये तमाम चिंताजनक आंकड़े और तथ्य हैं। पंजाब में न केवल मुख्य चुनाव अधिकारी संक्रमित हो गए हैं, बल्कि सार्वजनिक तौर पर बीते दो सप्ताह में करीब 78 फीसदी संक्रमित मामले बढ़े हैं। पंजाब में टीकाकरण की गति अपेक्षाकृत धीमी है। अभी तक एक करोड़ लोगों में ही पूर्ण टीकाकरण हुआ है, जबकि शेष दो करोड़ से अधिक आबादी टीकारहित है। पंजाब सरहदी राज्य है। वहां इंटरनेट सेवाएं भी बाधित रहती हैं। रैली और जश्न के बिना वहां चुनाव बेमानी है, लिहाजा अकाली दल ने निर्वाचन आयोग से आग्रह किया है कि वह सर्वदलीय बैठक बुलाए और चुनावी पाबंदियों पर पुनर्विचार करे। बहरहाल इतने चिंताजनक आंकड़ों और तथ्यों के बावजूद कोरोना के रोज़ाना संक्रमित मामले करीब 7.5 घटे हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि टेस्टिंग में करीब 14 फीसदी की कमी आई है। अलबत्ता दो सप्ताह में कोरोना के 28 गुना मामले बढ़े हैं। अभी आने वाले दिनों में संक्रमण के मामलों का विश्लेषण करना जरूरी होगा।
उसी के बाद किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है कि कोरोना का ‘चरम’ कब होगा? अथवा क्या ओमिक्रॉन संक्रमण का प्रभाव घटने लगा है, लिहाजा मरीज भी कम होने लगे हैं? ओमिक्रॉन के संदर्भ में यह विरोधाभास बेहद महत्त्वपूर्ण है कि संक्रमित मामलों में मौत के आंकड़े करीब 66 फीसदी बढ़े हैं, लेकिन अभी तक अस्पताल जाने की नौबत का औसत 5-10 फीसदी के बीच ही रहा है, जबकि दूसरी लहर में अप्रैल-मई के दौरान यही औसत 20-23 फीसदी के बीच था। विशेषज्ञों के आकलन सामने आए हैं कि ‘चरम’ के दौर में अस्पतालों में देश भर में 1.5 लाख बिस्तरों की जरूरत पड़ेगी। दिल्ली में यह औसत 12,000 बिस्तरों का होगा। राजधानी दिल्ली में हररोज़ 50-60 हजार संक्रमित मामले दर्ज किए जा सकते हैं, जबकि मुंबई में यह संख्या करीब 30,000 हो सकती है। फिलहाल आंकड़े बहुत कम हैं। विशेषज्ञों में अब भी कोरोना के ‘चरम’ को लेकर सहमति नहीं है। आईआईटी कानपुर के विशेषज्ञ प्रोफेसर मणीन्द्र अग्रवाल का नया आकलन आया है कि दिल्ली में ‘चरम’ 15 जनवरी के आसपास आ सकता है, जबकि डॉक्टर फरवरी के पहले या दूसरे सप्ताह तक मान रहे हैं और मार्च के अंत तक हालात सामान्य हो सकते हैं। लेकिन देश-विदेश के चिकित्सकों ने आगाह करना जारी रखा है कि ओमिक्रॉन को हल्के में न लिया जाए। उसके हल्के लक्षणों को लेकर दुष्प्रचार न किया जाए।
3.पाबंदियों का असर
पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक के मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। न्यायालय ने पूर्व जज की अध्यक्षता में समिति बनाई है। इस मामले में यह दूसरी सुनवाई है, पहली सुनवाई के समय ही यह लग गया था कि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं जांच में हस्तक्षेप करना चाहता है, और यह उचित भी है। पंजाब में सुरक्षा में चूक के मुद्दे पर केंद्र सरकार और पंजाब सरकार के बीच जिस तरह से खींचतान बढ़ी, उसे देखकर किसी को भी चिंता होना स्वाभाविक है। राजनीतिक बयानबाजी को अगर हम देखें, तो भी यह बात साफ हो जाती है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के मामले में राजनीति दो खेमों में बंट गई। जांच के लिए पंजाब सरकार ने भी समिति गठित की थी और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी, तो ऐसे में उत्तरोतर खींचतान बढ़ने की ही आशंका थी। दोनों समितियां एक-दूसरे के विपरीत भी काम कर सकती थीं। फिर जिस तरह से समितियों का गठन किया गया और जिनको कमान सौंपी जा रही थी, उससे भी निष्पक्षता की उम्मीद नहीं जाग रही थी। अत: यह हर लिहाज से उचित हो गया था कि सर्वोच्च न्यायालय मामले को अपने हाथ में ले।
वास्तव में, अभी किसी भी समिति ने जांच नहीं शुरू की थी। यह भी एक चिंताजनक बात है। इतनी उच्च स्तरीय चूक के बावजूद जांच का अभी तक शुरू न होना हमारी व्यवस्था पर अपने आप में एक प्रतिकूल टिप्पणी है। सुरक्षा में उच्च स्तरीय चूक जब होती है, तब जिम्मेदार लोगों को स्वयं ही आगे आकर बताना चाहिए कि चूक कहां हुई और कौन जिम्मेदार है। कार्यपालिका का जो कार्य निर्धारित है, उसे हर हाल में बिना दबाव अंजाम देना चाहिए। पंजाब की सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी हो या केंद्र सरकार की सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी, दोनों को मिलकर समग्रता में कमियों-खामियों की समीक्षा करनी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर एजेंसियों को राजनीति या राजनेताओं से बिल्कुल अप्रभावित रहना चाहिए, सुरक्षा में किसी भी चूक या नुकसान के बाद सुरक्षा एजेंसियों के दामन पर ही दाग लगते हैं। सुरक्षा के मामले में राज्य और केंद्र का भेद मिट ही जाना चाहिए। भेद कायम है, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को आगे आकर जांच को अपने हाथों में लेना पड़ा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि सुरक्षा में चूक की जांच न्यायालय का काम नहीं है, पर अगर ऐसी जरूरत पड़ रही है, तो स्वाभाविक ही चिंता बढ़ जाती है।
प्रधान न्यायाधीश की पीठ ने साफ कर दिया है कि घटना की जांच के लिए पंजाब और केंद्र सरकार की ओर से गठित समितियों पर रोक जारी रहेगी। अदालत ने कहा कि पूर्व जज की अध्यक्षता में बनने वाली समिति में चंडीगढ़ के पुलिस प्रमुख, एनआईए के आईजी, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल भी शामिल हो सकते हैं। कुल मिलाकर, जल्दी जांच हो और दूध का दूध और पानी का पानी हो, ताकि सुरक्षा एजेंसियों को भी आगे के लिए सबक मिले। यह संभव है कि जांच के नतीजे सार्वजनिक न हों, लेकिन देश कम से कम ऐसी चूक भविष्य में कभी न देखे, यह सुनिश्चित करना चाहिए। अब सरकारों या राजनेताओं को इस गंभीर मामले में टिप्पणी या अपनी राय देने से बाज आना चाहिए। जो जिम्मेदार अधिकारी हैं, उन पर जल्द से जल्द आंच आए, तो बात बने।
4.श्री विहीन लंका
कर्ज जाल में फंसकर आर्थिकी चौपट
महंगाई के चरम और खाली होते विदेशी मुद्रा भंडार के बीच श्रीलंका की हालात इतनी खराब हो गई है कि उसके पास आज विदेशी कर्ज चुकाने तक के लिये संसाधन नहीं हैं। महंगाई का यह आलम है कि लोग सौ-सौ ग्राम दूध खरीद रहे हैं। सौ ग्राम हरी मिर्च 70 रुपये की है और आलू दो सौ रुपये किलो तक मुश्किल से मिल रहा है। पिछले दिनों खबर आई कि श्रीलंका ईरान को कच्चे तेल का विदेशी मुद्रा में भुगतान न कर पाने पर बदले में चायपत्ती भेजेगा। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने वित्तीय स्थिति खराब होने पर श्रीलंका की रेटिंग इतनी गिरा दी है, जो दिवालिया होने से पहले की अवस्था है। दरअसल, श्रीलंका की हालत खस्ता होने की तात्कालिक वजह तो कोरोना संकट से उपजी परिस्थितियां हैं। मुख्यत: पर्यटन पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले श्रीलंका में कोरोना संकट के चलते पर्यटन उद्योग ठप है। अर्थव्यवस्था में गिरावट की एक बड़ी वजह सत्ताधीशों का कुप्रबंधन भी है और लंबा चला गृहयुद्ध भी। लेकिन जब से चीन से दोस्ती करने वाले सत्ताधीशों ने कर्ज लेना शुरू किया तो फिर देश निरंतर कर्ज के जाल में उलझता गया। चीन के सहयोग से कई भारी-भरकम विकास परियोजनाएं श्रीलंका में शुरू की गईं। उनसे आय तो नहीं हो पायी, लेकिन श्रीलंका चीन के कर्ज-जाल में फंसता चला गया। पश्चिमी अर्थशास्त्री कहते भी हैं कि चीन कर्ज-जाल का प्रयोग दूसरे देशों पर बढ़त बनाने के लिये करता आया है। जब छोटे देश कर्ज नहीं चुका पाते तो चीन उनकी संपत्तियों पर अधिकार कर लेता है। श्रीलंका में हम्बनटोटा में एक बड़े बंदरगाह के निर्माण की योजना चीनी ऋण व निर्माण कंपनियों के जरिये की गई। अरबों डाॅलर की यह परियोजना आर्थिक संकट के चलते अधर में लटक गई। बाद में नया ऋण देकर चीनी सरकारी कंपनियों ने इस बंदरगाह को 99 साल की लीज पर सत्तर फीसदी हिस्सेदारी के साथ अधिगृहीत कर लिया।
यूं तो बांग्लादेश को छोड़कर दक्षिण एशिया के तमाम मुल्क ऐसे ही आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। भले ही देश के भीतर अर्थव्यवस्था किसी तरह चल रही हो, मगर विदेशी कर्ज चुकाने का संकट बना हुआ है। पिछले दिनों पाकिस्तान के फेडरल ब्यूरो ऑफ रेवेन्यू के पूर्व चेयरमैन सैयद शब्बर जैदी ने कहा था ‘पाक के चालू खाते और राजकोषीय घाटे को देखें तो यह दिवालिया होने से जुड़ने जैसी स्थिति है। सरकार का यह दावा झूठ है कि सब कुछ ठीकठाक है।’ दरअसल, जब कोई देश विदेशी कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं होता तो डिफॉल्टर घोषित हो जाता है जो कालांतर दिवालिया होने की तरफ बढ़ने वाली स्थितियां पैदा करता है। बताते हैं कि बीते साल नवंबर में श्रीलंका के पास विदेशी भुगतान के लिये महज तीन हफ्ते के लिये डॉलर बचे थे। ऐसे संकट से भारत भी वर्ष 1991 में गुजरा था तब विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से कम बचा था। तब देश ने सोना गिरवी रखकर स्थिति को संभाला था। दरअसल, श्रीलंका को इस साल साढ़े चार अरब डॉलर का कर्ज चुकाना है। यदि वह नहीं चुका पाता है तो उसे डिफॉल्टर घोषित कर दिया जायेगा। श्रीलंका का रुपया बेहद दबाव में है और उसकी क्रेडिट रेटिंग लगातर गिर रही है, जिसके चलते उसे नया कर्ज मिलना मुश्किल हो जायेगा। यूं तो दुनिया के तमाम देशों पर कर्ज होता है, लेकिन सवाल है कि आप की साख कैसी है और आप कर्ज लौटाने की स्थिति में किस हद तक हैं। वैसे श्रीलंका के सामने विदेशी कर्ज का संकट तो है, लेकिन उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था ऊंची महंगाई दर के बावजूद दिवालिया नहीं है। उसे घरेलू राजस्व मिल रहा है और लोगों का देशीय मुद्रा पर विश्वास बना हुआ है। उसकी जीडीपी में टैक्स से मिलने वाले राजस्व की भूमिका नौ फीसदी बनी हुई है। यद्यपि यह अब तक सबसे न्यूनतम दर है। लेकिन विदेशी मुद्रा के संकट से श्रीलंका का विदेशी कारोबार थम चुका है, जिसकी एक वजह श्रीलंका में डॉलर की कीमत दो सौ रुपये से अधिक होना है जो कि आज भी ब्लैक में मिल रहा है।