इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.जिलावार प्राथमिकताएं तय हों
विधायक प्राथमिकताओं के खाके में हिमाचल का अवलोकन करती शिमला की बैठक, अपने भीतर राजनीति के पुरोधा भी चुनती है। विकास के मायनों में जनापेक्षाओं का सृजन जिस बजट से होता है, वहां राजनीतिक विजन का मूल्यांकन भी होना चाहिए। इस तरह विधायक प्राथमिकताओं से निकला नजरिया पूरे प्रदेश के मानचित्र पर कैसे अंकित होता है, यह विवेचन भी जरूरी है क्योंकि अधिकांश जनप्रतिनिधि आज भी आधारभूत जरूरतों के संघर्ष को ही अपना दायित्व मानते हैं। इसलिए विजन से कहीं अधिक फरमाइशें आमादा हंै और राजनीतिक रुतबों की मांग पर चंद कार्यालय, शिक्षा या चिकित्सा संस्थान, सड़कें, पेय जलापूर्ति या विद्युत सप्लाई को लेकर गंभीरता रही है। कहीं विधायकों ने आक्सीजन प्लांट, बस स्टैंड, सब्जी मंडी, पार्किंग, कालेज या अग्नि शमन केंद्र की मांग भी रखी है। आश्चर्य है कि सब्जी मंडियों, बस अड्डों, पार्किंग के निर्माण या बाइपास जैसी जरूरतों के लिए हमारी राज्य स्तरीय या विधानसभा क्षेत्र की योजनाएं आज भी अधूरी हैं। आश्चर्य यह कि विधायक प्राथमिकताएं हर साल गिड़गिड़ाती हुई कभी स्कूल या कभी चिकित्सा स्टाफ की मांग करती हैं, फिर राजनीतिक मंच और सत्ता के मदीना में यह अंतर क्यों।
हमारा मानना है कि जिस तरह विधायक प्राथमिकताओं की वार्षिक गणना होती है, उसी तर्ज पर मंत्री प्राथमिक योजनाओं का जिला स्तरीय अवलोकन हो ताकि सभी मंत्री अपने विधानसभा क्षेत्रों के बाहर भी देख सकें। मुख्यमंत्री से लेकर हर मंत्री तक और तमाम सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष अगर जिलावार अपनी प्राथमिकताएं सार्वजनिक करेंगे, तो सरकार के कामकाज में सही मायनों में पारदर्शिता आएगी और लक्ष्य भी तय होंगे। बहरहाल विधायक प्राथमिकताओं के आलोक में नए विजन की आशा लिए कुछ विधायक अपनी सोच का दायरा बड़ा कर रहे हैं, जबकि विकास कैवनास में भी नए रंगों से भरने की उम्मीद जगाते हैं। अर्की के विधायक संजय अवस्थी नए पर्यटन गंतव्य के रूप में अपने विधानसभा क्षेत्र को आगे करते हुए कोल बांध जैसे स्थान की जल क्रीड़ाओं के लिए वकालत कर देते हैं। वह सुरंग मार्ग से सड़कों का भविष्य देखते हुए ट्रक यार्ड बनाने की मांग करते हैं। झंडूता के विधायक जीत राम कटवाल भी अपने क्षेत्र में भाखड़ा बांध के भीतर आय के संसाधन ढूंढने के लिए जल क्रीड़ाओं का विकल्प खोजते हैं। इसी तरह के संकल्प में बंधी पच्छाद की विधायक रीना कश्यप, शिरगुल देवता मंदिर को धार्मिक पर्यटन से जोड़ना चाहती हैं। बड़सर से इंद्रदत और कुल्लू से विधायक सुंदर सिंह ठाकुर रज्जु मार्गों का नक्शा बनाना चाहते हैं, तो बिलासपुर सदर के विधायक सुभाष ठाकुर अपने क्षेत्र में रज्जु मार्ग ही नहीं, पैरा ग्लाइडिंग के लिए बंदला धार को प्रमुख केंद्र में विकसित करने की उम्मीद रखते हैं।
श्री रेणुका जी के विधायक विनय कुमार चिडि़या घर में बाघों का जोड़ा लाने की फरमाइश करते हुए वन्य प्राणियों की महफिल में भी सैलानियों का आकर्षण खोजते हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से हरोली के विधायक मुकेश अग्निहोत्री अवैध खनन रोकने की अर्जी देते हैं, तो नयना देवी के विधायक राम लाल ठाकुर ने अली खड्ड के तटीकरण करने के माध्यम से प्रकृति की सेवा का बीड़ा उठाया है। पालमपुर के विधायक आशीष बुटेल को खंड विकास अधिकारी का कार्यालय खोलने के लिए गिड़गिड़ाना पड़े, तो यह सुशासन की समरूपता में एक कलंक सरीखा है। हर विधानसभा क्षेत्र में खंड विकास अधिकारी व उपमंडल अधिकारी (नागरिक) के कार्यालय सुनिश्चित करने ही होंगे। शिमला ग्रामीण के विधायक विक्रमादित्य सिंह शूटिंग रेंज की मांग करके खेलों में ढांचागत उत्थान चाहते हैं। कुल मिलाकर विधायक प्राथमिकता बैठकों के बहाने हम जनापेक्षाओं के नए मॉडल का विकास होते देख सकते हैं, लेकिन इनसे प्रदेश की प्राथमिकताएं निकलें तो हर विभाग अपने मूल स्वभाव में प्रदेश के समग्र विकास को चित्रित कर सकता है। प्रश्न अगर प्राथमिकताओं के दायरे में भी मामूली दिखाई दें, तो कब हम पुस्तकालयों, सांस्कृतिक सदनों, आडिटोरियम, ग्रामीण पर्यटन या नए निवेश की अधोसंरचना को लेकर गंभीर होंगे।
2.‘आप’ का सीएम चेहरा
एक विकराल आर्थिक विरोधाभास सामने आया है कि 57 लाख करोड़ रुपए से अधिक देश के सिर्फ 98 लोगों के पास हैं। इतना धन 55 करोड़ से अधिक आबादी के पास भी नहीं है। कितनी गहरी आर्थिक असमानता है देश में? जितना धन मुट्ठी भर लोगों के पास है, वह देश के बजट, 35 लाख करोड़ रुपए, से भी अधिक है। जिन पांच राज्यों में चुनावों का माहौल है, वहां स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौतियां की गई हैं। बेरोज़गारी दर बहुत है। महंगाई दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। औसतन एक-तिहाई नागरिकों को रोज़गार हासिल है। पंजाब में तो हालात और भी बदतर हैं। मात्र 3.4 फीसदी ही स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। पंजाब कोरोना टीकाकरण अभियान को लेकर फिसड्डी राज्यों की जमात में है। पंजाब पर 3 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज़ है। पंजाब के किसानों पर औसतन कर्ज़ 2 लाख रुपए से अधिक प्रति किसान परिवार है। पंजाब अब साधन-सम्पन्न पंजाब नहीं रहा। हर तीसरी दुकान पर बोर्ड लगा है-कनाडा, न्यूज़ीलैंड, सिंगापुर जाने के लिए मिलें। ऐसा लगता है कि पंजाबियों के लिए पंजाब में ही नौकरी या रोज़गार नहीं है।
सरकार अपने नौजवानों को विदेश भगाने पर आमादा है! आम आदमी पार्टी इस संस्कृति के खिलाफ दिख रही है। पंजाब में व्यापक बदलाव और सुधार करने की गुंज़ाइश है, जो किसी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए एक गंभीर चुनौती है। आर्थिक विरोधाभास और असमानता देश के स्तर पर है, लेकिन आज पंजाब भी उसका शिकार है और हमारा आज का विवेच्य विषय भी पंजाब ही है। इन हालात के बीच आम आदमी पार्टी ने अपने लोकसभा सांसद सरदार भगवंत मान को मुख्यमंत्री उम्मीदवार चुना है। सर्वेक्षण के जरिए जनमत को परखा गया। पार्टी का दावा है कि 93.3 फीसदी लोगों की पसंद भगवंत मान थे, लिहाजा उन्हें यह दायित्व दिया गया है। लोकतंत्र में जन-भागीदारी का यह आयाम भी नायाब है, हालांकि यह तरीका भी सवालिया रहा है। भगवंत पंजाब में ‘आप’ के सबसे बड़े नेता रहे हैं और लगातार दूसरी बार लोकसभा में आए हैं। यह उनकी व्यापक स्वीकार्यता को प्रमाणित करता है। भगवंत पेशेवर तरीके से एक लोकप्रिय विदूषक भी रहे हैं, लेकिन विपक्ष उनके ‘शराबी’ होने का दुष्प्रचार बहुत करता रहा है। बहरहाल मान ‘आप’ के मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं। उन्होंने गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई, नशे और रेत खनन के माफिया और कृषि आदि बेहद संवेदनशील मुद्दों के प्रति अपना और पार्टी का सरोकार जताया है, लिहाजा हमने भी आर्थिक यथार्थ का प्रासंगिक उल्लेख किया है।
पंजाब में इस बार ‘आप’ की राजनीतिक भूमिका की खूब चर्चा है और खासकर शहरी, कस्बाई, युवा वर्ग एक बार उसे भी जनादेश देने के पक्ष में हैं। असल जनादेश 10 मार्च को सार्वजनिक होगा, लेकिन ‘आप’ ने अपने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया है। भगवंत पंजाब के मालवा क्षेत्र से आते हैं। वह सबसे ताकतवर इलाका है, क्योंकि राज्य के 117 विधायकों में से 69 विधायक मालवा से ही चुनकर आते हैं।ं ‘आप’ की 2017 में चुनावी शुरुआत भी मालवा से ही हुई थी, लेकिन मालवा में अकाली दल के बुजुर्ग नेता एवं पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके सरदार प्रकाश सिंह बादल का भी लोग बेहद सम्मान करते हैं। किसान आंदोलन से जुड़े रहे बलबीर सिंह राजेवाल सरीखे जिन चेहरों ने अब चुनाव मैदान में उतरने का निर्णय लिया है, वे भी मालवा में सक्रिय रहे हैं और किसानों के बीच उनका भावनात्मक समर्थन है। ‘आप’ के साथ उनके गठबंधन की भी खूब चर्चाएं चलीं, लेकिन अब सभी अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह मालवा की सरज़मीं सबसे गंभीर और पेचीदा चुनावी चुनौती पेश करेगी। यह भगवंत मान की पहली राजनीतिक अग्नि-परीक्षा भी होगी, क्योंकि अब उन पर एक पार्टी का नेतृत्व करते हुए चुनाव जिताने की भारी जिम्मेदारी भी होगी। पंजाब का चुनाव जातिगत आधारों पर नहीं होता। फिर भी जातियां मायने रखती हैं। मान जटसिख हैं। बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू सरीखे प्रमुख नेता भी जटसिख समुदाय से हैं। इसका वोट बैंक करीब 19 फीसदी है, जबकि दलित सर्वाधिक 32 फीसदी के करीब हैं।
3.मुआवजे की अनदेखी
ऐसा नहीं है कि भगवंत मान का चयन आसान रहा हो। उनके नाम का विरोध भी हो रहा था। इसके लिए बाकायदा सर्वेक्षण कराया गया है, जिसमें 93 प्रतिशत लोगों ने भगवंत मान को आप का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने की बात कही है। उम्मीदवार के चयन के लिए सर्वेक्षण की सराहना करनी चाहिए। हालांकि, आप के विरोधी यह कहेंगे कि आप ने सर्वेक्षण का दिखावा किया है और उसके पास भगवंत मान से सशक्त कोई नाम पंजाब में नहीं था, लेकिन तब भी पार्टी द्वारा ऐसे किसी सर्वेक्षण की घोषणा मायने रखती है। विवाद की स्थिति में पार्टियों को ऐसे सर्वेक्षण का सहारा लेने में हिचकना नहीं चाहिए। चयन में हाईकमान की मर्जी से बहुत श्रेष्ठ है सार्वजनिक सर्वेक्षण। वास्तव में, अगर पार्टियों के अंदर संगठन के चुनाव होते, तो हाईकमान की मर्जी या ऐसे सर्वेक्षणों की नौबत ही नहीं आती, लेकिन हमारे यहां राजनीति में जो सामंती व्यवस्था है, उसमें संगठन चुनाव के पक्षधर कितने होंगे, कहना मुश्किल है। यह अच्छी बात है कि मान राजनीति में नए नहीं हैं। साल 2011 से ही वह राजनीति में कमोबेश सक्रिय हैं। साल 2014 और 2019 में संगरूर से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। उनके राजनीतिक वजन को नकारा नहीं जा सकता।
48 साल के भगवंत मान ऐसी हस्ती हैं, जिनकी छवि विदूषक की है, लेकिन उनमें पर्याप्त गंभीरता भी रही है और उनके क्षेत्र में लोग उन्हें बहुत पसंद करते हैं। राजनीति में आने के बाद वह कॉमेडी से दूर हैं। वैसे तो वह साल 1992 से ही कॉमेडी कर रहे हैं, पर उन्हें देशव्यापी ख्याति ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज से 2008 में मिली थी। पंजाबी कॉमेडियन से वह भारतीय कॉमेडियन में तब्दील हुए थे। यह देश किसी कॉमेडियन को ऊंचे पदों पर देखने का आदी नहीं है। तमिलनाडु को अगर छोड़ दें, तो बाकी भारत में बड़े अभिनेताओं को भी लोग नेता के रूप में आसानी से स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे में, मुख्यमंत्री पद के लिए भगवंत मान की उम्मीदवारी एक कामयाबी है। चुनावी मैदान में उन्हें पूरे दमखम और मजबूत चरित्र के साथ सामने आना होगा। राजनीति कतई कॉमेडी नहीं है, यह बात पंजाब में दूसरी पार्टियां अब बेहतर समझ रही होंगी।
4.निवेश का न्यौता
अमीर-गरीब की खाई पाटना हो प्राथमिकता
विश्व आर्थिक मंच की दावोस में आयोजित बैठक में दुनिया के संपन्न देशों के निवेशकों को भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती की झलक दिखाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें निवेश के लिये आमंत्रित किया है। उन्होंने दुनिया को भरोसा दिलाया कि देश कोरोना संकट से उबरकर तेज गति वाली आर्थिक व्यवस्था में कदम रख रहा है। उन्होंने कहा कि भारत ने आर्थिक सुधारों के जरिये वैश्विक कारोबार का संरचनात्मक ढांचा मजबूत बनाया है। साथ ही स्वीकारा कि कोरोना संक्रमण जरूर बढ़ा है लेकिन देश का मिजाज सकारात्मक है, जो सही मायनों में निवेश का बेहतर समय है। प्रधानमंत्री ने बताया कि सरकार व्यापार व उद्योग के अनुकूल माहौल बनाने की दिशा में काफी आगे बढ़ी है जिसमें औद्योगिक विवादों को खत्म करके कानूनों को कारोबार के अनुकूल बनाया गया है। कॉरपोरेट कर में कमी की गई है। ये स्थितियां भारत में विश्व आपूर्ति शृंखला का विकल्प मुहैया कराती हैं। दरअसल, राजग सरकार की कोशिश है कि वैश्विक संकट व चीन से कूटनीतिक व कारोबारी टकराव से उत्पन्न हालात में जो कंपनियां चीन छोड़कर जा रही हैं, उन्हें भारत आमंत्रित किया जाये। भारत का लोकतांत्रिक स्वरूप व सस्ता श्रम इसके लिये आकर्षण का काम कर सकता है। इसके अलावा भारतीय मेधा दुनिया के तमाम देशों में अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ रही है। दरअसल, विगत में सरकार कई विकसित देशों की कंपनियों के साथ समझौते करके इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद मसलन सेमीकंडक्टर आदि क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित करती रही है, जिससे कोरोना संकट के चलते बाधित वैश्विक आपूर्ति शृंखला को मजबूती दी जा सके। सरकार आगामी दशकों के लिये दूरगामी रणनीति बना रही है जिसके लिये वह आर्थिक सुधारों को भी गति देने की मंशा रखती है। निस्संदेह, विदेशी निवेश हासिल करने के लिये यह अनिवार्य शर्त भी है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ जरूरी है कि देश में कारोबार के लिये अनुकूल परिस्थितियां बनंे। नौकरशाही का दखल कम हो तथा नये उद्योगों को लगाने में लालफीताशाही आड़े न आये।
निस्संदेह, कोरोना संकट के बाद अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिये नया निवेश व रोजगार के अवसर बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन उससे बड़ी चुनौती देश में बढ़ती आर्थिक असमानता है। यूं तो यह वैश्विक प्रवृत्ति है लेकिन भारत का संकट बड़ा है। विश्व आर्थिक मंच में ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 2020 में कोरोना महामारी के बाद से बीते साल नवंबर तक देश के साढ़े चार करोड़ लोग गरीबी की दलदल में धंस गये। लेकिन विडंबना यह है कि देश में अमीर और अमीर हुए हैं। इस दौरान देश में अरबपतियों की संख्या में चालीस का इजाफा हुआ। अब भारत पूरी दुनिया में अरबपतियों की संख्या की दृष्टि से तीसरे नंबर पर है। यही नहीं, उनकी कुल संपत्ति दुगुनी से ज्यादा हो गई। विदेशों में अरबपति अधिक हैं लेकिन वहां गरीबी की दलदल इतनी गहरी नहीं है। विषमता का स्तर इतना अधिक नहीं है। यह आर्थिक असमानता कालांतर सामाजिक असंतोष के चलते कानून-व्यवस्था का संकट भी पैदा कर सकती है। यह चिंताजनक ही है कि देश की आधी से अधिक राष्ट्रीय आय सिर्फ दस फीसदी लोगों के हाथों में है। विसंगति यह कि शेष पचास फीसदी आबादी के हिस्से में सिर्फ तेरह फीसदी राष्ट्रीय आय है। विडंबना यह है कि देश के मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग की आय का भी संकुचन हुआ है। वहीं रोज कमाकर खाने वाले वर्ग की स्थितियां तो और विकट हुई हैं। तमाम छोटे उद्योग-धंधे बंद हुए हैं। करोड़ों की संख्या में लोगों की नौकरियां कोरोना संकट में गई हैं और बड़ी संख्या में लोगों के वेतन में कटौती की गई है। पहली बात तो यह कि देश की आर्थिक स्थिति को कोरोना से पहले वाली स्थिति में लाये जाने की चुनौती है। ताकि देश में व्याप्त आर्थिक विषमता को दूर किया जा सके। कहा जा सकता है कि देश में आर्थिक सुधारों का ढांचा समतामूलक समाज की स्थापना में सहायक नहीं है जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से आर्थिक सुधारों से समाज के प्रत्येक वर्ग को लाभ मिलना चाहिए। कोशिश हो कि बेरोजगारी व महंगाई को दूर करके गरीबों को राहत दी जा सके।