इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.केंद्र से चाहिए इंजन
जाहिर है डबल इंजन सरकार से इंजन की बात तो होगी ही, इसलिए भानुपल्ली-बिलासपुर रेल लाइन से आगे निकलकर ऊना-हमीरपुर तक पटरी बिछाने की एक कवायद फिर से शुरू हुई है। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का केंद्रीय बजट पेश होने से पूर्व देश के वित्त, स्वास्थ्य और रेलमंत्री से मुलाकात का दौर, उनकी प्राथमिकताओं को रेखांकित करता है। ये बैठकें केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के सान्निध्य में कितनी उज्जवल होंगी, इसे लेकर पहली बार कुछ सार्थक संकेत मिल रहे हैं। केंद्र से कितना, क्या और कब मांगा जाए, इसे लेकर हर बार हिमाचली अपेक्षाएं दिल्ली दरबार में बौणी होती रही हैं, फिर भी केंद्र की निगाहों में यह प्रदेश अपनी रिपोर्ट हमेशा सभ्य और शालीन तरीके से रखने में कामयाब ही रहा। पूर्ण राज्य का दर्जा हो, वित्तीय मदद या औद्योगिक पैकेज की झंकार रही हो, हिमाचल की प्रगति को हमेशा केंद्र का संबल मिला। इसी परिपे्रक्ष्य में जयराम-अनुराग द्वय किस तरह, क्या हासिल कर पाते हैं, इसका विवरण आगामी विधानसभा चुनाव में होगा।
फिलहाल अनुराग ठाकुर के लिए अगर ऊना-हमीरपुर रेल परियोजना या भानुपल्ली-बिलासपुर से लेह को जोड़ती रेल परिकल्पना महत्त्वपूर्ण है, तो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए मंडी का हवाई अड्डा उनकी वैयक्तिक रुचि का सबसे बड़ा विकास खाका है। हिमाचल के दोनों नेता अगर अपनी महत्त्वाकांक्षा को नक्शे पर उतार पाते हैं, तो यह दूरगामी प्रभाव रखती है, लेकिन सारा हिमाचल केवल दो या तीन परियोजनाओं के सिंहासन पर सत्ता का सुख बरकरार नहीं रख सकता। अगर हिमाचल की कनेक्टिविटी के लिए दो रेल व एक हवाई अड्डे का प्रस्ताव ही सर्वोपरि बना रहेगा, तो प्रदेश समग्रता से अपने विकास की कहानी को पूरा नहीं कर सकता। हमें यह स्पष्ट करना होगा कि हम रेल मार्गों या हवाई अड्डों के विस्तार के लिए आखिर करना क्या चाहते हैं। क्या ऊना-हमीरपुर या भानुपल्ली-बिलासपुर के अलावा प्रदेश के लिए रेलवे विस्तार अब प्राथमिकता नहीं रही या मंडी के प्रस्तावित हवाई अड्डे का नक्शा बनाते-बनाते हम यह भूल जाएं कि भूंतर, शिमला तथा कांगड़ा हवाई अड्डों को वर्तमान स्थिति में छोड़ देने से राजनीतिक नुक्सान होगा। विडंबना यह भी है कि कभी हिमाचल केंद्र से अपने अधिकारों की मांग करता था और इसी भावना से अब तक आर्थिक संबल भी मिला, लेकिन अब वित्तीय पोषण की शर्तों में 50:50 प्रतिशत योगदान में केंद्र कहीं पीछे हट गया है। आज भी भाखड़ा व पौंग बांध के उजड़े अपने अधिकारों की जंग में कहीं उपेक्षित महसूस करते हैं। सैन्य शौर्य के तमाम तमगे हिमाचल या हिमालय रेजिमेंट का इंतजार कर रहे हैं। सैन्य भर्ती कोटे की शर्तों ने हमारी पृष्ठभूमि के साथ जो नाइंसाफी की है, क्या वह कभी दुरुस्त होगी। पंजाब पुनर्गठन से निकले हिमाचली हक आज भी वित्तीय हानि उठा रहे हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से प्रदेश का 70 फीसदी हिस्सा वन संपत्ति होने का साधुवाद अर्जित करके भी अपने आर्थिक अधिकारों का मुजरिम बना हुआ है।
इसकी भरपाई कब होगी। कब केंद्र जलसंसाधनों को कच्चे माल की तरह देखते हुए हिमाचल के पर्वतीय परिवेश को राहत देगा। इसी तरह हिमाचल की तरक्की, विकास व रोजगार के नए अवसरों के लिए अब यह जरूरी है कि वनाच्छित सीमा घटाते हुए हिमाचल के मात्र 50 प्रतिशत भाग को ही वन क्षेत्र माना जाए। इस तरह उपलब्ध जमीन पर आसानी से हवाई अड्डे, फोरलेन, रेललाइन तथा औद्योगिक क्षेत्र विकसित होंगे, वरना तीस फीसदी गैर वन जमीन को विकास के लिए कितना काटते रहेंगे। केंद्र से हिमाचल को नीतिगत सुधारों की अपेक्षा सदा रही है और यह राजनीतिक कद से हटकर भौगोलिक विषमताओं के आधार पर होना चाहिए। पर्वतीय राज्यों के लिए विकास का अलग मॉडल तथा तकनीकी सुदृढ़ीकरण जरूरी है। एक ही मानदंड पर मैदानी और पर्वतीय इलाकों में विकास का वित्तीय पोषण नहीं हो सकता। फिजीविलिटी रिपोर्ट के आधार पर कब तक हिमाचल से उसके अधिकार छीने जाते रहेंगे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने जिस तरह औद्योगिक पैकेज दिया था, उसी आधार पर अगर पर्वतीय कनेक्टिविटी पैकेज हिमाचल को मिले तो रेल किसी दिन हमीरपुर और लेह को छू पाएगी, सड़कें सुरंग मार्ग से निकल कर गंतव्य की दूरी घटा पाएंगी और एयरपोर्ट अपने विकास से कम से कम देश के कोने-कोने तक उड़ान शुरू कर पाएंगे। बहरहाल दिल्ली में जयराम व अनुराग का एक साथ अनुनय-विनय कुछ तो करामात करेगा और अगर केंद्रीय खेल मंत्री इसकी शुरुआत अपने तौर पर ही कर दें तो हिमाचल अगले कुछ सालों में खेल राज्य बन सकता है।
2.आगाह के साथ चरम!
हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों को पत्र लिखकर आगाह किया है कि अब भी 407 जिलों में कोरोना वायरस की संक्रमण-दर 10 फीसदी या उससे अधिक है। करीब 141 जिलों में, 26 जनवरी को समाप्त सप्ताह के दौरान, संक्रमण-दर 5-10 फीसदी के बीच रही है। साफ है कि कोरोना अभी नियंत्रित नहीं है। ओमिक्रॉन स्वरूप के प्रति भी सचेत किया गया है। जनवरी में ही ओमिक्रॉन के 9672 मामले दर्ज किए गए हैं। इस स्थिति को चिंताजनक माना गया है, हालांकि कोरोना के संक्रमित मामले बीते 10 दिनों में सबसे कम दर्ज किए गए हैं। यह आंकड़ा 2.5 लाख रोज़ाना से भी कम हो गया है। देश में संक्रमित मामलों की कुल संख्या 4 करोड़ को पार कर चुकी है। दूसरी ओर विशेेषज्ञों का मानना है कि तीसरी लहर का ‘चरमÓ गुजऱ चुका है। आगामी 2-3 सप्ताह में अस्पतालों में भर्ती कोरोना मरीजों की संख्या भी 90 फीसदी तक कम हो सकती है। महानगरों के साथ-साथ कस्बों में भी कमोबेश यही रुझान है।
विशेषज्ञ कोरोना संक्रमण की स्थिति को ‘स्थिरभी आंक रहे हैं। उनका आकलन है कि कोरोना वायरस किसी अन्य विषाणु और रोग की तरह बदल चुका है। अब हमें अपनी रणनीति भी बदलनी चाहिए और कोरोना के बचे-खुचे संक्रमण के साथ जीने की आदत डालनी चाहिए। किसी भी वायरस की परिणति ऐसी ही होती है। हालांकि कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्रप्रदेश और राजस्थान में संक्रमण के मामले बढ़े हैं, जबकि महाराष्ट्र, दिल्ली, उप्र, हरियाणा, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में संक्रमित मामले लगातार कम हुए हैं। राजधानी दिल्ली में तो सप्ताहांत कफ्र्यू और बाज़ार पर लगी पाबंदियों को हटा लिया गया है अथवा उनमें ढील दी गई है। एक और महत्त्वपूर्ण रुझान देश के स्तर पर सामने आया है कि पहली बार उपचाराधीन सक्रिय मरीजों की संख्या 22.43 लाख से घटकर 21.95 लाख तक लुढ़क आई है। यह गिरावट कम है, लेकिन महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कोरोना के मरीज अस्पताल छोड़ रहे हैं अथवा घरों पर ही स्वस्थ होकर अपने काम-धंधों में सक्रिय होने लगे हैं। सवाल है कि क्या कोरोना वायरस का मौजूदा दौर भी समापन की ओर है? अथवा आगाह के साथ तीसरी लहर के ‘चरम को भी ग्रहण किया जाए? प्रख्यात चिकित्सक, हृदय रोग सर्जन एवं नारायणा हेल्थ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. देवी शेट्टी इसकी व्याख्या यूं करते हैं। उनका मानना है कि स्पेनिश फ्लू को 18 माह के संक्रमण के बाद समाप्त मान लिया गया था। हालांकि आज भी वह ‘मौसमी फ्लू के रूप में सक्रिय है, लेकिन अब उसके लिए प्रयोगशाला में टेस्ट नहीं किए जाते। जिस तरह डेंगू, मलेरिया, एचआईवी के लिए सामूहिक टेस्ट कराए जाते हैं, उसी तरह अब कोरोना के लिए नहीं कराए जाने चाहिए। हम कोरोना मरीजों के टेस्ट तब करें, जब डॉक्टर इसकी सलाह दें। भारत ने एक देश के तौर पर कोरोना वैश्विक महामारी का मुकाबला किया है और पश्चिमी देशों से बेहतर किया है। अब करीब 2 साल की महामारी और तालाबंदी-सी स्थितियों के बाद हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशें की जाएं। अब लॉकडाउन या बाज़ार पर तरह-तरह की पाबंदियां थोपने से रहा-बचा कोरोना काबू नहीं होगा। बहरहाल विशेषज्ञ इस पक्ष में भी नहीं हैं कि पश्चिम की तरह सब कुछ निरंकुश किया जाए। वे मास्क और दो गज की दूरी, भीड़ से बचने की कोरोना व्यवस्थाओं के पक्ष में हैं। उनसे वायरस निष्प्रभावी होगा। इसी संदर्भ में टीकाकरण सबसे महत्त्वपूर्ण और कारगर हथियार है। यह मौत के खिलाफ टीकाकरण है। यह हमारा सौभाग्य है कि सशक्त और व्यापक, नवोन्मेषी फार्मा और टीका निर्माता कंपनियां हमारे देश में हैं।
3.आरक्षण के आंकड़े जरूरी
देश की सर्वोच्च अदालत ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए तय मानदंडों में किसी तरह की रियायत देने से मना करते हुए साफ संदेश दे दिया है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने शुक्रवार को साफ कर दिया कि सरकारें पदोन्नति में आरक्षण देते हुए मनमानी नहीं कर सकतीं। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि एम नागराज (2006) और जरनैल सिंह (2018) मामलों में अदालत ने जो व्यवस्था दी थी, उसी पर वह अभी भी कायम है। पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकारों को दरअसल तथ्य और आंकड़ों के साथ काम करना चाहिए, पर सरकारें ऐसा नहीं कर रही हैं। ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, राज्य मात्रात्मक डाटा जुटाने के लिए बाध्य हैं। मोटे तौर पर आरक्षण के आंकडे़ बताने से काम नहीं चलेगा, प्रत्येक पद या श्रेणी के हिसाब से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को देखना होगा। एक तरह से पीठ ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि केंद्र सरकार को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के पदों के प्रतिशत का पता लगाने के बाद आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने के लिए एक समय-सीमा तय करनी चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए किसी भी सेवा या वर्ग में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की समीक्षा लंबे समय से वांछित रही है। हरेक श्रेणी के पदों में यह देखना जरूरी है कि किस जाति या जनजाति को न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। जिस जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, उसके बारे में सर्वोच्च अदालत का रुख भी स्पष्ट है। देश का मानस और विधान भी इसी पक्ष में है कि वंचितों को न केवल आरक्षण, बल्कि पदोन्नति में भी आरक्षण मिलना चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है। यह बहुत ही अच्छी बात है कि सर्वोच्च अदालत ने अपनी ओर से कोई सीमा तय नहीं की है और हर जगह के लिए एक जैसी सीमा या पैमाना तय करना अनुचित भी है। हरेक राज्य में पिछड़ेपन या पिछड़ों की स्थिति में फर्क है और इस फर्क को देखना सरकारों का काम है। इस फर्क के अनुरूप ही यह देखना है कि कोई भी जाति या जनजाति अवसर से वंचित न रहे। देश के लिए यह समझना भी जरूरी है कि किन-किन जातियों को किन नौकरियों या पदोन्नतियों में सर्वाधिक लाभ मिला है।
यह भी स्वागतयोग्य है कि सर्वोच्च अदालत ने समीक्षा या आंकडे़ जुटाने के लिए किसी समय-सीमा का निर्धारण नहीं किया है, लेकिन सरकारों को इस काम में पूरी मुस्तैदी से जुट जाना चाहिए। आरक्षण का न्यायपूर्ण होना और दिखना, दोनों जरूरी है। क्रीमी लेयर को देखना भी कहीं न कहीं जरूरी होता जा रहा है। अफसोस! सरकारें अभी क्रीमी लेयर को छेड़ना नहीं चाहतीं और आरक्षण के जरिये समाज में समता पैदा करने की बजाय आरक्षण की राजनीति पर ज्यादा जोर है। देश की आजादी के 75 साल बाद भी वंचित समुदायों को अगडे़ वर्गों के समान प्रतिभा के स्तर पर अगर नहीं लाया जा सका है, तो यह सरकारों के स्तर पर बड़ी कमी है। अब समय आ गया है कि आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को सियासी नजरिये से नहीं, बल्कि जरूरत के नजरिये से देखते हुए सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जाए।
4.टला नहीं संकट
सावधानी के साथ ही बंदिशों में छूट
यह अच्छी बात है कि कई राज्यों में कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर की तीव्रता कम होने के बाद कई तरह के प्रतिबंधों में ढील दी गई है। कुछ राज्यों में स्कूल खोलने की तैयारी की जा रही है। कोरोना संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र में राजनीतिक विरोध के बावजूद स्कूल खोल दिये गये हैं। हालांकि, दिल्ली में सम-विषम के आधार पर दुकानों की बंदी और सप्ताहांत का कर्फ्यू हटाने के साथ कुछ अन्य छूट दी गई हैं लेकिन स्कूलों को खोलने पर अभी अंतिम फैसला नहीं लिया गया। दिल्ली सरकार का मानना है कि किशोरों का टीकाकरण हो जाने के बाद स्कूल खोलने का उचित माहौल बन पायेगा। यह अच्छी बात है कि कुछ राज्यों में कोरोना के मामलों में गिरावट के बाद प्रतिबंधों का दायरा सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी क्रम में स्कूलों को खोलने की प्रक्रिया आरंभ हुई है। दरअसल, विशेषज्ञों का मानना है कि लंबे समय तक कोरोना संकट के चलते स्कूल बंद होने का बच्चों के मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वहीं कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों में प्राकृतिक तौर पर रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। लेकिन बच्चों से अधिक भावनात्मक लगाव के कारण अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। तभी सरकारों ने तय किया है कि विद्यार्थी अभिभावकों की सहमति से स्कूल जा सकेंगे। स्कूलों को भी कोरोना से बचाव के उपायों पर सख्ती बरतने को कहा गया है। कोरोना संक्रमण रोकने को लगी बंदिशों का दायरा घटाने की खबरें ऐसे समय में आ रही हैं जब इंडियन सार्स-कोव-2 जीनोम कंसोर्शियम के अनुसार, कोविड-19 भारत में कम्युनिटी ट्रांसमिशन की स्थिति में पहुंच गया है, जिससे अस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ी है। इसके बावजूद ओमीक्रोन के ज्यादा मामले हल्के-बिना लक्षण वाले हैं, जिसमें यह पता लगाना कठिन होता है कि व्यक्ति किसके संपर्क में आने से संक्रमित हुआ।
बहरहाल, ऐसी स्थिति में समाज के बीच मौजूद वायरस के संक्रमण की चेन तोड़ना कठिन होता है। यह तेजी से प्रसार करता है। तभी स्वास्थ्य मंत्रालय टेस्टिंग-टीकाकरण के साथ ही टेली कंसल्टेशन पर जोर दे रहा है, ताकि अस्पतालों में ज्यादा भीड़ संक्रमण की वाहक न बने। इसके बावजूद कई राज्यों में बंदिशों में ढील देकर जान के साथ जहान बचाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। दरअसल, पहली कोरोना लहर में सख्त बंदिशों के चलते अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया और करोड़ों लोग बेरोजगारी की कगार पर जा पहुंचे थे। अब संकट के बीच जीवन जीने को न्यू नॉर्मल बनाने की कोशिश हो रही है। हरियाणा में भी दसवीं से बारहवीं तक के स्कूल एक फरवरी से खोले जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ठंड व कोरोना प्रकोप के चलते स्कूलों को 31 जनवरी के बाद भी 15 फरवरी तक के लिये बंद कर दिया गया है। वहीं उत्तराखंड में नौवीं तक के स्कूल जनवरी के अंत तक बंद रहेंगे। झारखंड में फरवरी से स्कूल खोले जायेंगे। इसके बावजूद सामुदायिक संक्रमण की खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। इसके शहरों के बाद ग्रामीण इलाकों में पांव पसारने की आशंका बनी हुई है। लेकिन राहत की बात यह है कि जनवरी के तीसरे सप्ताह में संक्रमण की आर वैल्यू में गिरावट आई है जो अभी डेढ़ के करीब है और उसके एक से कम होने पर महामारी के खत्म होने का संकेत माना जायेगा। वहीं आईआईटी मद्रास के प्रारंभिक विश्लेषण के अनुसार, अगले पखवाड़े में महामारी की तीसरी लहर अपने पीक पर पहुंच सकती है। वहीं इसी बीच केंद्र सरकार ने कोविशील्ड और कोवैक्सीन को कुछ शर्तों के साथ बाजार में बेचने की अनुमति दे दी है। ये टीके अस्पताल व क्लीनिक में उपलब्ध रहेंगे और 18 वर्ष या उससे अधिक का व्यक्ति कोविन पोर्टल पर जानकारी देकर व पंजीयन करवाकर टीके खरीद सकता है। इसके बावजूद जब देश में संक्रमितों का आंकड़ा प्रतिदिन ढाई लाख से अधिक है और चार सौ जिलों में संक्रमण की दर दस फीसदी से अधिक है तो हर स्तर पर सावधानी जरूरी है। यही वजह है कि केंद्र ने कोरोना प्रतिबंधों को 28 फरवरी तक बढ़ाया है।