Career Pathway

+91-98052 91450

info@thecareerspath.com

EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.एनजीटी के दबाव में शहरीकरण

शिमला की विकास यात्रा का इतिहास अपने गौरव को भविष्य में कैसे सहेज पाएगा, इसकी चर्चा में आई शहर की विकास योजना को गहरे तक समझना होगा। यह उसी टीसीपी कानून की शाखा में लिखी गई योजना है जो पिछले करीब चार दशकों से नजरअंदाज हो रहा है। सवाल अब और गंभीर हो गए हैं, क्योंकि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के सख्त पहरे के बीच हमें राजधानी होने का सुख और भविष्य की जरूरतों की अधोसंरचना चाहिए। विकास योजना इसी पहरे के बीच खुद को रेखांकित करते हुए यह तहजीब सिखा रही है कि किस तरह कोर एरिया, नॉन कोर एरिया और ग्रीन बेल्ट में बंटे शहर के बीच सीमित विकल्पों के तहत शिमला और शिमला के बाशिंदों को गुजारा करना पड़ेगा। आश्चर्य यह है कि 43 साल पहले अमल में आए नगर एवं ग्राम योजना कानून के बावजूद हम राजधानी शिमला को नहीं संवार सके। शिमला के वजूद से इतनी छेड़छाड़ तो हो ही चुकी है कि आइंदा एनजीटी की शर्तों के तंबू के नीचे रहना पड़ेगा। शिमला की तरह ही कसौली, डलहौजी, सोलन, मकलोडगंज व मनाली जैसे शहरों के निर्बाध निर्माण पर एनजीटी ने आंखें तरेरी हैं।

हिमाचल का कमोबेश हर शहर, धार्मिक कस्बा और प्रगतिशील हर गांव अपने आंचल में बारूद लेकर विकास कर रहा है, लेकिन न बढ़ती जरूरतों पर गौर हुआ और न ही सुविधाओं को लेकर कोई राज्यव्यापी योजना बनीं। नयना देवी, दियोटसिद्ध और चिंतपूर्णी जैसे धार्मिक स्थलों को बचाने के लिए धार्मिक शहरों के विकास का एक स्पष्ट खाका चाहिए। इसी तरह नदी, नालों या जलस्रोतों के साथ विकसित होती बस्तियों या शहरों की योजनाएं बनाते हुए खास तरह की चुनौतियों का विवरण और समाधान होना चाहिए। शिमला की विडंबना यह रही कि इस शहर का दोहन तो हुआ, लेकिन कभी यह विचार नहीं हुआ कि इसे राज्य राजधानी क्षेत्र यानी स्टेट कैपिटल रीजन (एससीआर) के तहत कैसे विकसित किया जाए। राजधानी में सत्ता और सरकार का प्रभाव ही इसके दुश्मन साबित हुए हंै। शिमला में राजनेताओं, नौकरशाहों, सरकारी कर्मचारियों के अलावा सत्ता के लाभार्थियों का दबाव इस कद्र रहा कि न्यू शिमला भी अब गटर लगता है। बस्तियों के आंगन में अगर कोई उजड़ा, तो वह पहले शिमला ही था, लेकिन राजधानी ने अपनी महत्त्वाकांक्षा में सोलन को भी लपेट लिया। चंडीगढ़ से शिमला अगर पर्यटक आगमन की पहली फरमाइश है, तो इसके भौतिक, भौगोलिक व व्यापारिक चिन्हों ने परवाणू से शिमला तक के पहाड़ ही नहीं खोदे, बल्कि दृश्यावलियां भी छीन लीं।

 ऐसे में शिमला विकास योजना को सार्थक करने के लिए योजना का प्रारूप केवल एक जमीन का टुकड़ा या राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की हिदायतें नहीं, बल्कि अगले सौ साल का सफर होना चाहिए और जो परवाणू-सोलन से होता हुआ शिमला पहुंचता है। हमारा मानना है कि शिमला के घनत्व को छांटते हुए इसके इर्द-गिर्द उपग्रह शहरों की परिकल्पना को स्थान देना होगा। इसी के साथ परवाणू-सोलन-शिमला विकास प्राधिकरण का गठन करते हुए परिदृश्य को बचाने, सुविधाएं जुटाने और राजधानी क्षेत्र का विस्तृत प्रारूप बनाने की जरूरत है। शिमला के बगल में कर्मचारी नगर विकसित करते हुए वहां सरकारी आवासीय व्यवस्था के साथ-साथ कार्यालय भी स्थानांतरित करने होंगे। शिमला को जोड़ने वाले प्रमुख मार्गों पर शहर से बीस किलोमीटर पहले ही सोलन, बिलासपुर व ठियोग मार्गों पर नए बस स्टैंड व महापार्किंग बनाई जाएं और इसके आगे एरियल ट्रांसपोर्ट नेटवर्क स्थापित किया जाए, ताकि पर्यटक वाहन इसके आगे न जा सकें। इसी तरह हिमाचल के कुछ चुनिंदा शहरों, पर्यटक व धार्मिक स्थलों को बचाने के लिए ट्रैफिक योजनाओं पर काम करते हुए ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि नगर सीमा से पहले ही यात्रियों के वाहन पार्क करवाकर आगे का सफर रज्जु मार्गों से सुनिश्चित किया जाए। अब वक्त आ गया है कि पूरे प्रदेश को ही टीसीपी कानून के तहत लाकर ऐसी प्लानिंग की जाए कि जब शहर बसें, तो गांव न उजडंे़।

2.सवाल औचित्य, प्रासंगिकता का

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 15 अगस्त, 1955 को लालकिले की प्राचीर से देशवासियों को संबोधित करते हुए क्या बोला था, वह आज क्यों प्रासंगिक है? उसका उल्लेख आज क्यों होना चाहिए? भारत की स्वतंत्रता के 75 साल हम मना रहे हैं। देश के राज्य गोवा को पुर्तगाल की गुलामी से आज़ाद हुए भी 60 लंबे साल गुज़र चुके हैं। प्रथम प्रधानमंत्री ने गोवा के तत्कालीन सत्याग्रहियों की मदद के लिए सेना न भेजने का निर्णय लिया था। वह देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री का निर्णय था। उनके शब्दों की व्याख्या और व्यंजना आज के प्रधानमंत्री नहीं कर सकते। अलग-अलग प्रधानमंत्रियों ने अपने विवेक से फैसले लिए हैं। देश को फैसले उचित नहीं लगे, तो उस प्रधानमंत्री की सत्ता बदल दी गई। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा करके संविधान और लोकतंत्र को बंधक बनाने का तानाशाही फैसला लिया था। 1977 में न केवल उनकी सरकार बदल दी गई, बल्कि खुद इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर राजनेता को चुनाव भी हारना पड़ा। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी प्रहार और पाबंदी को महत्त्वपूर्ण मुद्दा माना जाए और उसे संविधान की भावना और व्यवस्था का उल्लंघन करार दिया जाए, तो मौजूदा सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर पत्रकारों की मान्यता रद्द करने की घुड़की दी है। यदि कोई पत्रकार देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सरकार के किसी निर्णय के खिलाफ विश्लेषण करता है और उसे ‘राजद्रोह’ की श्रेणी में आंका जाए, तो ऐसे पत्रकार की मान्यता खारिज की जा सकती है। जेल जाने की संभावनाएं भी खुली हैं। आखिर यह कौन तय करेगा कि पत्रकार का लेखन ‘देशद्रोही’ किस्म का है? जाहिर है कि वह आकलन सरकार ही करेगी। क्या इस आदेश में आपातकाल की गंध और मंसूबे नहीं हैं?

बहरहाल पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद का दौर खत्म हुए तीन दशक से अधिक का समय बीत चुका है। सिखों के खिलाफ दंगे और नरसंहार 31 अक्तूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के थे। उनके बाद भी पंजाब और देश में कांग्रेस की सरकारें चुनी गई हैं। सिखों ने भी वोट दिए होंगे! कई मामले आज भी अदालत के विचाराधीन हैं। कांग्रेस के ही लोकसभा सांसद रहे सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुना कर, 75 साल से ज्यादा की उम्र में भी, जेल की सलाखों के पीछे बंद किया गया है। सिख नरसंहार का मुद्दा गाहे-बगाहे या चुनावों के दौरान उठाया जाता रहा है, लेकिन हम संसद के भीतर प्रधानमंत्री मोदी के जवाब के संदर्भ में औचित्य और प्रासंगिकता का विश्लेषण कर रहे हैं। राजनीति में परिवारवाद, वंशवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद के कलंक कई नेताओं और दलों पर चस्पा किए जा सकते हैं। उप्र का पूरा चुनाव जातियों या हिंदू-मुसलमान पर लड़ा जा रहा है। चूंकि कांग्रेस देश की सबसे प्राचीन पार्टी है और उसे देश पर शासन करने के सर्वाधिक साल हासिल हुए हैं, लिहाजा उसे ज्यादा दोषी और जिम्मेदार करार दिया जा सकता है। ये सर्वकालिक मुद्दे हैं, लिहाजा आज देश अपेक्षा नहीं करता कि राष्ट्रपति अभिभाषण पर राज्यसभा में जवाब देते हुए प्रधानमंत्री का फोकस सिर्फ इसी वाक्य पर रहना चाहिए था-‘अगर कांग्रेस न होती, तो….।’

 देश किसी एक दल या नेता का मोहताज नहीं है। प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के संदर्भ में ही भ्रष्टाचार, घर-बिजली-पानी और शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए लंबे इंतज़ार का ठीकरा कांग्रेस पर ही फोड़ा है। कुछ और मुद्दे प्रधानमंत्री ने उठाए हैं, जो पूरी तरह अप्रासंगिक हैं, लेकिन वे अपने कालखंड के दौरान ज्वलंत रहे हैं। दरअसल सवाल औचित्य और प्रासंगिकता का है। बेशक देश ने वैश्विक महामारी कोरोना का दो साल लंबा संक्रमण-काल झेला है। उसका असर सरकार की कार्य-प्रणाली और आर्थिक संसाधनों पर भी पड़ा है। करोड़ों लोगों ने नौकरियां खोई हैं, रोज़गार छिने हैं, लघु-सूक्ष्म उद्योग असंख्य मात्रा में बंद हुए हैं या जर्जर अवस्था में हैं, लेकिन सरकार ने कमोबेश भुखमरी के हालात पैदा नहीं होने दिए। प्रधानमंत्री को उन्हीं परिप्रेक्ष्यों में बात करनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति अभिभाषण में बयान किए गए मुद्दों पर ही बात करनी थी, लेकिन वह संसद के दोनों सदनों में चुनावी रहे। पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, लिहाजा पुराने मुद्दे भी प्रधानमंत्री ने बुलंदी के साथ उठाए। इसे संसदीय मर्यादा नहीं कहा जा सकता।

3.हिजाब पर हंगामा

बेवजह के विवादों का दावानल बन जाना इन दिनों नई बात नहीं है। ऐसा ही एक विवाद बुधवार को कर्नाटक उच्च न्यायालय के सामने था। राज्य के स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर लगी पाबंदी का मुद्दा पिछले कुछ दिनों से देश की बहुत सारी ऊर्जा सोख रहा है। आंदोलन हो रहे हैं, नफरत फैल या फैलाई जा रही है, समाज में तनाव बढ़ रहा है और इसकी आग अब देश भर में फैलती हुई दिख रही है। देश के दूसरे हिस्सों से भी विरोध प्रदर्शन की खबरें आ रही हैं। इस बीच महिलाओं के अधिकार से लेकर समाज सुधार जैसे कई तर्क इससे जोड़ दिए गए हैं। इसलिए जब यह मामला उच्च न्यायालय के सामने आया, तो अदालत ने उन जटिलताओं को भी समझा, जो इससे जोड़ दी गई हैं और इसकी संवेदनशीलता को भी ध्यान में रखा। न्यायालय को यह एहसास था कि इस मामले में उसके फैसले के परिणाम बहुत दूरगामी हो सकते हैं। इसलिए मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने कहा कि इस मुद्दे की सुनवाई अदालत की बड़ी पीठ द्वारा की जानी चाहिए। राज्य के उडुपी जिले की लड़कियों ने अदालत में यह याचिका दायर की थी कि इस मामले में उन्हें अंतरिम राहत दी जाए, लेकिन न्यायाधीश ने अंतरिम राहत का फैसला भी बड़ी पीठ के ऊपर ही छोड़ दिया। 
पिछले कुछ दिनों में यह विवाद इतना बड़ा हो गया है कि कर्नाटक सरकार को पूरे प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी घोषित करनी पड़ी है। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जब स्कूल-कॉलेज दोबारा खुलेंगे, तब तनाव फिर से न दिखाई दे। पूरे मामले को जिस तरह से सांप्रदायिक रंग दिया गया है और जिस तरह से इस बहाने एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, उसमें बात सतही फैसलों से बनने वाली भी नहीं है। अब मामला यह नहीं है कि बात कहां से शुरू हुई थी, अब समस्या इसे लेकर शुरू हुई राजनीति है, जो समाज की पुरानी जटिलताओं के बारे में फैसला सड़कों पर कर लेना चाहती है।
हिजाब या परदे को लेकर हमारे देश में कई समाज सुधारकों ने बहुत से गंभीर प्रयास किए हैं, इसके लिए लंबी लड़ाइयां भी लड़ी गई हैं। इनमें बहुत सारी लड़ाइयों में सफलताएं भी मिली हैं, बहुसंख्यकों में भी और अल्पसंख्यकों में भी। सच तो यह है कि ऐसे ही प्रयासों के कारण लड़कियां और महिलाएं घर की दहलीज से बाहर निकली हैं और अब वे पढ़ाई ही नहीं कर रहीं, बल्कि जीवन के तकरीबन सभी क्षेत्रों में सक्रिय दिखाई देती हैं। यह भी कहा जाता है कि वे घर से निकली हैं, इसीलिए परदा भी खत्म हुआ और उसके तर्क भी। यह ठीक है कि परदा अभी भी कई रूपों में मौजूद है, अधिकतर परंपराओं के कारण है और कुछ जगहों पर कट्टरता के कारण भी। जैसे-जैसे लड़कियां घरों से निकलेंगी, ये आग्रह भी खत्म होंगे ही। वैसे भी, परदा प्रथा को खत्म करने का मामला समाज सुधार का मामला है, राजनीति का नहीं। अगर किसी को जबरदस्ती परदा थोपने की इजाजत नहीं दी जा सकती, तो किसी को जबरन परदा हटाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती। अच्छा होगा, हम लड़कियों को खूब पढ़ाएं और अपने परदे का फैसला उनके विवेक पर ही छोड़ दें। लेकिन अभी तो जो हो रहा है, वह उनमें से कुछ के पढ़ने के रास्ते ही बंद कर सकता है।  

4.अन्न की बर्बादी

वैज्ञानिक भंडारण से टालें मौसमी नुकसान

किसानों के खून-पसीने से उगाये और करदाताओं की मेहनत की कमाई से खरीदे गए अनाज के बड़ी मात्रा में उचित भंडारण के अभाव में बर्बाद होने की खबरें हर साल आती हैं। इसके बावजूद बारिश में भीगने तथा पक्षियों व अन्य जीवों द्वारा अनाज के ढेरों की बर्बादी की खबरें हर साल अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। लेकिन प्रबंधन से जुड़ा तंत्र व निगरानी करने वाला प्रशासन इस मुद्दे पर संवेदनहीन बना रहता है। इसी तरह की आपराधिक लापरवाही की नवीनतम घटना करनाल में नजर आई जहां खुले में पड़े अनाज से भरी बोरियों के ढेर बारिश में खराब होते देखे गये। जाहिर है यह अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित होना होगा। बहुत संभव है कि अनाज की बर्बादी की जवाबदेही से बचने के लिये खराब अनाज भी गुपचुप तरीके से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये भेजी जाने वाली अनाज की खेप में खपा दिया जाये। यह विडंबना ही है कि गुणवत्ता से भरपूर अनाज उत्पादन के लिये अग्रणी पंजाब और हरियाणा में ऐसे तमाम मामले प्रकाश में आ रहे हैं। जबकि जवाबदेही तय करके और रखरखाव की उचित व्यवस्था करके इस मौसमी परिवर्तन से होने वाले नुकसान को टाला भी जा सकता है। यह विडंबना ही है कि कई राज्य खाद्यान्न संकट से जूझ रहे हैं और वहीं दूसरी ओर हजारों टन अनाज बारिश व धूप में पड़ा हुआ सड़ता रहता है। इन राज्यों में गुणवत्ता निरीक्षण के दौरान कई ऐसे मामले प्रकाश में आते रहे हैं। निस्संदेह, यह आपराधिक लापरवाही से होने वाली राष्ट्रीय क्षति भी है। इस अनाज को उगाने में कृषक के श्रम के अलावा बिजली-पानी व भूमि की उर्वरता की लागत भी शामिल होती है। अनाज के बर्बाद होने ये घटक भी व्यर्थ चले जाते हैं जो सही मायनों में राष्ट्रीय संसाधनों की क्षति ही है, जिसे भंडारण की क्षमता के विस्तार और जवाबदेही तय करके टाला भी जा सकता है।

यह विडंबना ही है कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा देश अब तक अपने नागरिकों के खाद्यान्न का उचित भंडारण नहीं कर पाया है। दशकों से मंत्री व अधिकारी लंबे-चौड़े दावे करते आये हैं कि अनाज भंडारण की फुलप्रूफ व्यवस्था की जायेगी। देश में पर्याप्त गोदामों के अभाव में बेशकीमती अन्न की यूं ही बर्बादी होती रहे, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। इस बाबत देश की शीर्ष अदालत भी कई बार सख्त टिप्पणी कर चुकी है। प्रबंधन से जुड़ी नियामक संस्थाओं को फटकार लगा चुकी है कि यदि गोदामों में जगह नहीं है और कीमती अनाज को सड़ने व बर्बाद होने से नहीं बचाया जा सकता तो इस अनाज को गरीबों में बांट दीजिए। लेकिन अधिकारी हैं कि फटकार सुनकर भी चिकने घड़े बने हुए हैं। जिस देश में कुपोषण व भुखमरी के आंकड़े पड़ोस के गरीब मुल्कों से अधिक हों, वहां लाखों टन अनाज यूं ही जाया चला जाये, इससे ज्यादा दुखद स्थिति कुछ और नहीं हो सकती। जटिल परिस्थितियों के बीच लाखों बोरी अनाज को बारिश में भीगने देना, चूहों, पक्षियों तथा कीड़ों द्वारा अखाद्य बनाना देश के नीति-नियंताओं पर सवालिया निशान लगाता है। यह विडंबना ही है कि जो देश आजादी से पहले सदियों तक अकाल व सूखे की वजह से खाद्यान्न संकट से जूझता रहा हो, वहां अन्न की शर्मनाक तरीके से बर्बादी जारी है। आजादी के बाद भी ऐसे संकट आये कि हमें आयातित गेहूं के लिये अमेरिका का मुंह ताकना पड़ा था। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्रदान की। लेकिन हमें इस उपलब्धि को यूं ही नहीं गंवाना चाहिए। हमें इस अनाज को भुखमरी व कुपोषण के खिलाफ सशक्त हथियार बनाना चाहिए। गत वर्ष मई में जब गेहूं की खरीद एक सार्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई थी तो केंद्र सरकार ने जुलाई के अंत तक दो प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्यों पंजाब व हरियाणा में सौ फीसदी वैज्ञानिक भंडारण का आश्वासन दिया था, लेकिन करनाल का मामला बताता है कि दावे हकीकत नहीं बने हैं। इस मामले में उच्चतम स्तर पर दोषियों की जवाबदेही तय करते हुए सख्त कार्रवाई की जाए।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top