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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है  

1.शिक्षा को खूंटे से खोलें

उजालो में दीये की लौ कितनी दूर तक देखेगी, यह दिन की ठोकरों में आंख पर चढ़ा चश्मा क्या बताएगा। प्रशासन जब मिलकीयत बन जाए तो हर विभाग एक मिट्टी का टीला है। इसे देखना है तो हिमाचल की करवटों में कई विभागों के कामकाज पर नजर दौड़ाएं, लेकिन इसी बीच शिक्षा विभाग के आंचल में प्रदेश के नसीब को जगा कर देखें कि फैसलों के बीच किस तरह के आंदोलन हो रहे हैं। जिनके बच्चे सुबह साढ़े सात बजे स्कूल में जाकर आंख खोलें या गर्मी से मुकाबला करते हुए साढ़े बारह बजे लौटें, उनसे पूछिए कि फैसलों में क्रांतियों के उद्घोष यूं ही सिरफिरे नहीं होते। शिक्षा को हम शिक्षकों की वजह, विभागीय मंत्री के अनमने अवचेतन और स्कूलों में रंग रोगन की रोशनी में देखने लगे हैं। स्कूल अपने आप में राजनीति की घोषणा ही तो है, जहां शिक्षा की जादूगरी देखते-देखते बच्चे बेरोजगारी की शाखाओं पर सवार हो गए और फिर किसी कनस्तर की तरह खाली दिमाग में पाठ्यक्रम को भरने के लिए पढ़ाई के घंटे गिने जाते हैं। गर्मियों में आए पसीने को पोंछते हुए विभाग के शिमला मुख्यालय ने सोच लिया कि स्कूलों को जलते सूरज से कैसे बचाया जाए। यानी हर प्रकोप और प्राकृतिक आलोप में मुद्दे को ही गायब करने का समार्थ्य हमारे विभागीय कौशल में है। बाकी विभागों की तरह शिक्षा विभाग भी अब आंकड़ा ही तो है।

 कुछ सुखद आंकड़ों का वितरण और कुछ राजनीतिक उत्कंठा का सम्मिश्रण ही तो शिक्षा हो गई। ऐसा नहीं है कि विभाग के भीतर सोच-समझ या सरोकारों की कमी है, फिर भी संसाधनों की फिजूलखर्ची में शिक्षा को अपने लक्ष्य के बजाय सत्ता की छवि की चिंता है। इन पंक्तियों के लेखक के पास हिमाचल के एक शिक्षविद के तीन संदेश आते हैं, तो मालूम होता है कि हम संसाधनों की कब्रगाह में शिक्षा के दीये की लौ जला रहे हैं। गोपनीयता के कारण हम उपर्युक्त शिक्षाविद का नाम नहीं दे रहे, लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि शिक्षण संस्थानों के भीतर कहीं न कहीं शिक्षक के मन की पवित्रता घुटन महसूस कर रही है। भले ही स्कूलों से बोरियां भर-भर कर हम आंकड़े निकाल लें, लेकिन उस अध्यापक को भी बोरी बना रहे हैं, जो छात्रों के व्यक्तित्व में खुद की पहचान देखता है। हमारे पास तीन शिकायतों में से पहली सरकारी यूनिफार्म के आबंटन को लेकर आई है। भले ही प्लस टू के बच्चे वार्षिक परीक्षाओं को देकर रुखस्त हो गए, लेकिन शिक्षा विभाग उन्हें वर्दी पहनाने पर तुला है। यह शिक्षा विभाग का तुला दान है जो जमा दो के छात्रोें को इसलिए मिल के रहेगा, क्योंकि सरकारी वर्दी सिलने के बजाय विभाग की अपनी सलवटें सामने न आ जाएं। हैरानी यह कि मुफ्त वर्दी का मोह पैदा करने की कला में शिक्षा विभाग इतना पारंगत हो चुका है कि स्कूल छोड़ने पर भी आबंटन के आंकड़े दुरुस्त हो रहे हैं। सुझावों की रद्दी में शिक्षा निदेशालय की गोपनीयता को ढूंढना इतना भी मुश्किल नहीं, फिर भी आलम यह है कि हर बार दाखिलों की तारीख बढ़ा कर पूरे शिक्षा सत्र की बखियां उधेड़ी जा रही हैं।

 दाखिले की तारीख बढ़ने  से एक तो शिक्षा में अनुशासन की धज्जियां उड़ती हैं, दूसरे जो बच्चे आरंभ में प्रवेश नहीं लेते हैं, उनके लिए पाठ्यक्रम की सूई कम से कम एक महीने तक अटकी रहती है। क्या एक महीना गंवाने की रिवायत में, दाखिले की तारीख बढ़ा कर शिक्षा विभाग अति सक्षम होता है या यह अनुशासन सिखाने की जरूरत है कि इस तरह की परंपराएं सख्ती से रोकी जाएं। शिक्षा विभाग के ही अधिकारी के तीसरे संदेश में शिक्षा की आत्मा का हरण होने का दर्द है। उक्त प्राचार्य के स्कूल की तीन गर्भवती शिक्षिकाएं छह माह की छुट्टी पर जा रही हैं और यह कमोबेश हर शिक्षण संस्थान की व्यथा है कि सत्र के बीच मानवीय पहलुओं की अनिवार्यता के कारण रिक्तता पैदा होती है। प्रदेश के पूरे स्कूलों में हर साल मातृत्व अवकाश की अनिवार्यता के कारण पाठ्यक्रम भी किसी बच्चे की तरह रोता-बिलखता है, तो साथ ही साथ यह इंतजाम क्यों नहीं कि विभाग अपने औचित्य की भरपाई में विद्यार्थियों के लिए अवकाश पर गए शिक्षकों का विकल्प रखे। मातृत्व अवकाश की अनुमति के साथ ही ऐसी व्यवस्था की शुरुआत को स्थानांतरण नीति से जोड़ देना चाहिए। शिक्षा को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शिक्षकों की व्यथा को इस दृष्टि से देखा जाए कि हर स्कूल में इसका सही उत्पादन हो। अंत में इस शिक्षावाद का आभार प्रकट करते हम हर विभाग के ऐसे अधिकारियों से निवेदन करेंगे कि व्यवस्था के ढांचे को मजबूत करने के लिए आगे आएं।

2.बंद करो सर्वे की सियासत

अब विश्व के आश्चर्य ताजमहल का नंबर है। ऐतिहासिक कुतुबमीनार पर भी विवाद छिड़ चुका है और अदालत के विचाराधीन है। भारत की स्वतंत्रता के प्रतीक ‘लालकिला’ में भी खुदाई और सर्वे की मांग उभर सकती है। आगरा की खूबसूरत इमारत ‘फतेहपुर सीकरी’ पर भी अतिवादी सवाल कर सकते हैं। देश की सबसे प्राचीन और भव्य ‘मक्का मस्जिद’ तेलंगाना के हैदराबाद में है। उसके संपूर्ण सर्वेक्षण की मांग जोर पकड़ सकती है। दरअसल जिस कालखंड के किस्से हमारे सामने आ रहे हैं, वह मध्यकालीन मुग़ल सल्तनत का दौर था। मुहम्मद गौरी, गज़नवी, सुल्तान शाह, शाहजहां और औरंगज़ेब सरीखे बादशाह आक्रांताओं ने हमारे असंख्य मंदिरों को ध्वस्त किया, उन्हें लूटा, मंदिरों के पुनर्निर्माण कराने वाले राजा-महाराजा भी इतिहास ने देखे हैं अथवा मुस्जिदों को चिनवाया गया। वह हिंदू संस्कृति और मुग़ल आतताइयों के दरमियान अस्तित्व के टकराव का भी दौर था। आगरा का ‘ताजमहल’ विश्व के अद्भुत आश्चर्यों में एक है। वह आज भारत की सांस्कृतिक पहचान और विश्व-धरोहर है। उसे मुग़ल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था अथवा उसकी मूल पहचान ‘तेजोमहालय’, आदि शिवलिंग के मंदिर, की है, इस पर इतिहासकार ढेरों किताबें लिख चुके हैं। सर्वमान्य तथ्य शाहजहां से जुड़ा है। फिल्में भी बनाई गई हैं। किताबों के निष्कर्ष परस्पर विरोधाभासी भी हैं। मौजूदा सच यह है कि ‘ताजमहल’ भारत की पहचान और उसका पर्याय है। दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष भारत के प्रवास पर आते हैं, तो ‘ताजमहल’ का सौंदर्य देखने जरूर जाते हैं। वह बेपनाह मुहब्बत की मिसाल भी है। यदि हम भारतीय ही ‘ताजमहल’ का सच कुरेदते रहेंगे और सवाल, सर्वे का शोर मचाते रहेंगे, तो दुनिया हमारी खिल्ली उड़ाएगी।

 हम ‘सांस्कृतिक भस्मासुर’ करार दिए जा सकते हैं। हम मान लेते हैं कि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने और ताजमहल के बंद 22 कमरों में ‘आदि शिवलिंग’ मौजूद हो सकते हैं। उन्हें ‘ज्योतिर्लिंग’ भी माना जा रहा है। कुतुबमीनार के परिसर में भी महादेव, गणेश आदि हिंदू देवताओं के खंडित भित्ति-चित्र और प्रतिमाएं मिली हैं। ऐसा दावा किया जा रहा है। यदि ऐतिहासिक अतीत को कुरेदा जाएगा, तो जख्म ही मिलेंगे। अवशेषों को देखकर आक्रोश भी भड़क सकता है और अवसाद भी महसूस कर सकते हैं। अतीत को इतिहास के हवाले क्यों नहीं छोड़ा जा सकता? अतीत याद दिलाया जाता रहेगा, तो प्रतिशोध की भावना भी पैदा होती रहेगी।

 उससे क्या हासिल किया जा सकता है? ताजमहल के सौंदर्य को निहारने हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और यहूदी तक जाते रहे हैं, फिर उसे मुग़ल आक्रांताओं की लूटपाट, खून-खराबे से जोड़ कर क्यों देखा जा रहा है? आज ज्ञानवापी, मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि, ताजमहल, कुतुबमीनार से लेकर हज़रतबल दरगाह तक कोई भी ऐतिहासिक स्मारक स्वरूपा इमारत ‘विशुद्ध भारतीय’ है। उसका अतीत कुछ भी रहा हो। इस मुद्दे को सिर्फ एक कट्टरपंथी सोच का तबका ही ‘हवा’ देता रहा है और मंदिर-मस्जिद के विभाजनकारी हालात बनते रहे हैं। ऐसी इमारतों का सम्मान करना चाहिए और विश्व के पर्यटकों के लिए उन्हें सार्वजनिक कर देना चाहिए। देश को राजस्व भी मिलेगा। दरअसल यह हमारी नियति है कि मंदिर-मस्जिद वालों को साथ-साथ ही रहना है। यही विविधता भारतीय है। यह देश भी सभी का है। देश की गली-गली, मुहल्ले-दर-मुहल्ले में मंदिर मौजूद हैं। सनातनी हिंदू उन्हें ही आस्थामय, श्रद्धेय और सुंदर बनाएं। दरअसल अयोध्या का विवाद कुछ भिन्न था। सर्वोच्च अदालत ने उसका समाधान निकाल दिया। तनाव समाप्त हुआ। इसी तरह काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के जरिए ‘महादेव की नगरी’ का परिसंस्कार किया जा चुका है। अब मज़हबी टकराव यहीं समाप्त हो जाने चाहिए। सर्वे की सियासत भी बंद हो।

3.मर्ज़ से अंजान

उच्च रक्तचाप की घातकता के प्रति रहें सचेत

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च व नेशनल सेंटर फॉर डिजीज इन्फॉर्मेटिक्स एंड रिसर्च का वह हालिया अध्ययन आंख खोलने वाला है, जिसमें कहा गया है कि 72 फीसदी हाइपरटेंशन पीड़ित अपनी बीमारी के प्रति अंजान रहे। यह बात भी कम चौंकाने वाली नहीं है कि देश में 28 फीसदी भारतीय वयस्क उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं। रिपोर्ट इस मायने में भी सचेतक है कि दिल के रोगों की बड़ी वजह उच्च रक्तचाप है। बेहद चिंता की बात यह भी कि देश में 28 फीसदी मौतें हृदय रोगों के कारण होती हैं। ऐसे में 2025 तक इस बीमारी से निपटने के लक्ष्य को पाना एक बड़ी चुनौती होगी। निस्संदेह आईसीएमआर-एनसीडीआईआर, बेंगलुरू का यह अध्ययन आंख खोलने वाला है और आधुनिक जीवनशैली की विसंगतियों के कारण महामारी का रूप धारण करते उच्च रक्तचाप पर काबू पाने की जरूरत पर बल देता है। अध्ययन में इस घातक रोग के प्रति महज 27 फीसदी लोगों का जागरूक होना बताता है कि हम स्वास्थ्य की इस चुनौती को गंभीरता से नहीं लेते। हम तब जागते हैं जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगता है। अध्ययन में शामिल लोगों में से महज चौदह फीसदी का इलाज करवाना बताता है कि इस गंभीर चुनौती को लेकर समाज में जागरूकता बढ़ाना वक्त की जरूरत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि उच्च रक्तचाप महानगरीय जीवन शैली की ही देन है क्योंकि रोग का असर ग्रामीण इलाकों में शहरों के 34 फीसदी के मुकाबले 25 फीसदी है। वहीं पीड़ित लोगों का भारतीय चिकित्सा पद्धति व वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर विश्वास नहीं जग पाया है क्योंकि 99.6 फीसदी पीड़ित एलोपैथिक दवाएं ले रहे हैं। साथ ही सरकारी चिकित्सा पद्धति पर भी भरोसा नहीं जम पाया क्योंकि उच्च रक्तचाप से पीड़ित 80 फीसदी मरीज प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करवा रहे हैं। अच्छी बात यह भी है कि महिलाओं में उच्च रक्तचाप का रोग पुरुषों के मुकाबले कम पाया गया। कमोबेश ऐसी ही स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में भी है।

वहीं भौगोलिक आधार पर देखें तो मध्य भारत में रोग कम प्रभावी है, जबकि उत्तर व दक्षिण भारत में वयस्कों के पीड़ित होने की दर ज्यादा है, जो बताता है कि तापमान व परिवेश केंद्रित जीवनशैली की भी इसमें भूमिका है। चिंताजनक यह है कि उच्च रक्तचाप के पीड़ित रोग के प्रति गंभीर नहीं होते। देखिए कि 47 फीसदी लोगों ने कभी अपने रक्तचाप की जांच ही नहीं करवायी। जबकि पचास से सत्तर आयु वर्ग के लोग जांच के साथ उपचार का सहारा भी ले रहे हैं। सर्वमान्य निष्कर्ष के क्रम में महिलाएं जांच करवाने के मामले में यहां भी पीछे हैं। टकसाली सत्य है कि उच्च रक्तचाप हमारी जीवन शैली की विसंगतियों की देन है। निस्संदेह, वक्त के साथ कार्य परिस्थितियां जटिल हुई हैं। खासकर निजी क्षेत्र में युवा कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं। काम की अवधि और कम समय में अधिक हासिल करने की होड़ युवाओं को उच्च रक्तचाप की दलदल में धकेल रही है। वहीं हमारे जीवन में फास्टफूड व तली-भूनी चीजों की प्रचुरता, तीक्ष्ण खानपान-पेय तथा पर्याप्त नींद न लेना भी उच्च रक्तचाप की वजह है। हमारे परिवेश में बहुत कुछ ऐसा है जो हमें आवेश व आवेग की लय में ले जाता है। इंटरनेट व मोबाइल पर देर रात तक लगे रहना हमारी प्राकृतिक नींद में बाधक है। हमारे पूर्वज जो गुणवत्ता का भोजन, समय पर भोजन, समय पर सोने और सूर्योदय से पहले जागने की नसीहत देते थे, उसका सीधा संबंध हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य से था। हमारी अनियंत्रित इच्छाएं और विलासिता का जीवन भी कालांतर हाइपरटेंशन की वजह बनता है। महत्वपूर्ण यह भी कि हम जीवन में सहजता व सरलता को खोते जा रहे हैं। कृत्रिम व्यवहार हमें कई तरह के तनाव देता है। जो कालांतर उच्च रक्तचाप की वजह बनता है। जीवन में शारीरिक श्रम का विलोपन भी हमारे अस्वस्थ होने की बड़ी वजह है। ऐसे में प्राकृतिक चिकित्सा व नियमित योग से हम उच्च रक्तचाप को नियंत्रित कर सकते हैं। खासकर ध्यान व प्राणायाम इसमें रामबाण औषधि है।

 

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