Career Pathway

+91-98052 91450

info@thecareerspath.com

EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है

1.बहुत याद आएंगे पंडित जी

पंडित सुखराम अपनी जिंदगी को लिखते-लिखते अंततः एक कहानी बन कर लिख गए। जीवन के हर संघर्ष में जिस व्यक्ति ने अपने कर्म को सदैव रूपांतरित किया, वह अंत में एक रूपक की तरह अलविदा कह गए। पंडित सुखराम के बिना हिमाचल की राजनीति को समझना मुश्किल है, क्योंकि उनकी मौजूदगी हर अच्छे-बुरे लम्हे में दर्ज रहेगी। वह एक ऐसा ग्रॉफ छोड़ गए, जिसे न कांग्रेस और न ही भाजपा नकार सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि जीवन के 95वें वर्ष में भी यह शख्स राजनीति के मोर्चे पर प्रासंगिक रहा, भले ही अक्स टूटते रहे या अस्तित्व के कई प्रतीक ढहते गए। आश्चर्य यह कि जो व्यक्ति चाहकर या अपनी वरिष्ठता के आधार पर कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाया, लेकिन उसका मुकाबला वाईएस परमार, राम लाल ठाकुर,वीरभद्र सिंह, शांता कुमार या प्रेम कुमार धूमल जैसे दिग्गजों से होता रहा। ऐसे में हम मंडी की सियासत को जयराम ठाकुर के उदय से, भले ही अलग परिप्रेक्ष्य में देखें, लेकिन इन फिजाओं में भी पंडित सुखराम के नारे कभी कुंद नहीं हुए। यह इसलिए भी कि पंडित सुखराम अपने दायित्व के हर मंच पर कामयाब शासक और प्रशासक सिद्ध हुए और इसीलिए इन्हें राजनीति का शिल्पकार भी माना जाता रहा है। मंडी में इंदिरा मार्केट की परिकल्पना आधुनिक हिमाचल की अनूठी मिसाल है। वह संचार क्रांति लाते हुए पूरे प्रदेश से न्याय करते हैं। संचार की प्राथमिकता में पूरे हिमाचल को रखते हुए वह पहली बार यह साबित कर सके कि कोई ऐसा राजनेता भी हो सकता है, जो क्षेत्रवाद से ऊपर उठ कर नए अध्याय लिख सकता है। देश में जब दो अति आधुनिक टेलिफोन एक्सचेंज आए, तो सुखराम ने उनमें से एक की स्थापना धर्मशाला में करवाई थी। क्या आज की राजनीति में यह संभव है कि कोई अदना सा मंत्री भी अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर अपने दायित्व की ईमानदारी दिखाए।

 आज जिस गति से पूरे हिमाचल में मोबाइल व इंटरनेट पहुंचा है, उसकी बुनियाद के लिए पंडित बहुत याद आएंगे। इसमें दो राय नहीं कि इनकी बदौलत कई सरकारें बनीं, लेकिन यह उतना कड़वा सच है कि सुखराम को मुख्यमंत्री न बनने देने की भी एक गंदी सियासत इस प्रदेश में हुई है। सुखराम का चातुर्य, उनके भीतर का चाणक्य, सियासी रणनीतिकार एवं शिल्पकार मंडी के परिप्रेक्ष्य में अभेद्य दुर्ग बना रहा और इसीलिए ठाकुर कर्म सिंह से लेकर वीरभद्र सिंह तक लिखी गई इबारतें बार-बार पढ़ी जाएंगी। वह वाईएस परमार को शीर्ष पुरुष बनाते हुए हिमाचल की सियासत के केंद्र में आते हैं, तो वीरभद्र सिंह से हिसाब चुकता करते हुए प्रेम कुमार धूमल की सरकार को शक्तिशाली बनाते हैं। वह हिमाचल में तीसरे मोर्चे के गणित को उकेरते रहे, तो ब्राह्मण राजनीति को एकजुटता के साथ प्रमाणित भी करते रहे। पंडित सुखराम को केवल सियासत में ही पढ़ा जाए, तो यह उनके व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी होगी। वह स्वयं में सफलता के नायक बनकर सिखाते रहे कि इसे हासिल करने के लिए कितनी मेहनत, कितनी तपस्या और कितनी चुनौती से तमाम संकटों को पार करना पड़ता है, वरना एक साधारण सा व्यक्ति दिल्ली की सत्ता के गलियारों में इतनी चमक नहीं छोड़ता। यह दीगर है कि सुखराम के उभरते अक्स को बींधा गया और उनकी छवि को मलिन करने के पीछे कांग्रेस के काले साए रहे, लेकिन यह शख्स जननेता होने की खूबियों में हमेशा रहा। मंडी ने इस समय सियासत का सबसे बड़ा ताज पहना है, फिर भी सुखराम की हस्ती कभी मिटेगी नहीं। वीरभद्र सिंह की तरह सुखराम भी अपनी मौत के बाद, अपनी विरासत को शून्य नहीं होने देंगे। कुछ तो राजनीतिक असर रहेगा, जहां 1962 से एक शख्स अपनी हथेली पर मंडी का दीया जलाता रहा।

2.‘देशद्रोह’ कानून क्यों चाहिए

राजद्रोहके औपनिवेशिक कानून पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार का आग्रह स्वीकार नहीं किया। कानून की धारा 124-ए की समीक्षा और संवैधानिक वैधता जारी है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सर्वोच्च अदालत की न्यायिक पीठ ने केंद्र सरकार से सवाल किए थे कि जिन पर यह धारा थोप दी गई और जो जेल में कैद हैं, उनका क्या होगा? क्या सरकार सुनिश्चित करेगी कि समीक्षा की प्रक्रिया पूरी होने तक किसी पर भी राजद्रोह कानून की धारा नहीं लगाई जाएगी? क्या केंद्र सरकार राज्यों को भी निर्देश देगी कि धारा 124-ए का फिलहाल इस्तेमाल न किया जाए? जब मोदी सरकार करीब 1500 पुराने कानूनों को खारिज कर सकती है, तो वह राजद्रोह कानून को क्यों रखना चाहती है? यह सवाल प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एन.वी.रमना ने उठाया था। बहरहाल तय कार्यक्रम के अनुसार, भारत सरकार ने सर्वोच्च अदालत में अपने हलफनामे के जरिए न्यायाधीशों के सवालों के जवाब दे दिए हैं। सरकार के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में पक्ष रखा था कि प्रधानमंत्री मोदी की ‘दृष्टि’ के संदर्भ में देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार किया जाएगा। सरकार धारा 124-ए के दुरुपयोगी प्रावधानों और सरकारों की प्रतिशोधात्मक मानसिकता की समीक्षा करेगी, लिहाजा सुप्रीम अदालत में फिलहाल सुनवाई स्थगित कर दी जाए।

 भारत सरकार के अनुरोध पर न्यायिक पीठ ने समय तो दिया, लेकिन सवालों के साथ हलफनामा भी बुधवार 11.30 बजे तक मांग लिया। ब्रिटिश सरकार के इस उपनिवेशवादी कानून की वैधता और ज़रूरत पर कोई निर्णय लेने से पहले न्यायाधीश भारत सरकार का अद्यतन रुख जानना चाहते हैं। अंग्रेजों ने 1860 में यह कानून बनाया और 1870 में इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) से जोड़ा। भारत तब ब्रिटिश साम्राज्य का गुलाम था। उस कालखंड में ऐसे कानून की प्रासंगिकता समझ में आती है, क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के रणबांकुरों पर यह कानून चस्पा कर संपूर्ण क्रांति को ही कुचल देना चाहती थी। 1897 में और उसके बाद बाल गंगाधर तिलक पर 3 बार और 1922 में महात्मा गांधी पर यह ‘अमानवीय कानून’ थोपा गया। उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन आज हम एक स्वतंत्र गणतंत्र हैं और कोई भी नागरिक, अपने देश के खिलाफ, ‘देशद्रोह’ क्यों भड़काएगा? बेशक ऐसी ‘काली भेड़ें’ हरेक घर, समाज, देश में होती हैं, लेकिन उनके लिए दूसरी कानूनी धाराएं पर्याप्त हैं। दरअसल आज़ाद भारत में भी इस कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया है। राजनीतिक या पेशेवर विरोधियों का खूब उत्पीड़न किया गया है। हास्यास्पद है कि पत्रकारों, लेखकों, कॉर्टूनिस्टों, बौद्धिक आलोचकों और पूर्व राज्यपाल तथा मौजूदा सांसदों को ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता रहा है, लेकिन ऐसे मामले अदालतों में टिक नहीं पाते, क्योंकि देशद्रोह के आरोपित आधार बहुत कमजोर होते हैं। 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद राजद्रोह के दर्ज मामलों में करीब 65 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। 2010 से 2022 के बीच इस धारा का इस्तेमाल कर 13,306 गिरफ्तारियां की गई हैं। 2019 में इसके तहत सजा की औसत दर मात्र 3 फीसदी रही है।

 इस कानून के लागू होने के मद्देनजर जो आधार तय किए गए थे, वे ब्रिटिश काल में भी लगभग वही थे। हमारा संविधान बोलने, लिखने, कहने, आलोचना करने का अधिकार देता है, तो सरकारें उन्हें राजद्रोह करार क्यों देती रही हैं? सर्वोच्च अदालत के सामने कई याचिकाएं हैं। उनमें सम्मानित नागरिक भी हैं और पूर्व सैन्य अधिकारी भी हैं। वे औपनिवेशिक कानून हटाने के पक्षधर हैं, क्योंकि ब्रिटेन ने भी 2009 में राजद्रोह का कानून समाप्त कर दिया था। अमरीका में भी ऐसा कानून नहीं है। संभव है कि आतंकवाद सरीखी गतिविधियों के मद्देनजर संप्रभु सरकारें यह कानून चाहती हैं। फिर भी समीक्षा की शुरुआत हुई है, तो सर्वोच्च अदालत को अब निर्णायक निष्कर्ष देना चाहिए। संवैधानिक वैधता तो 1962 के चर्चित ‘केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार’ वाले मामले में भी तय कर दी गई थी। वह निर्णय 5 न्यायाधीशों की पीठ का था। अब यह भी तय किया जाना है कि क्या उससे बड़ी पीठ को इस मामले की समीक्षा सौंपी जाए? यह आलेख लिखने के दौरान ही सर्वोच्च अदालत का अंतरिम आदेश आया है कि धारा 124-ए के  तहत कोई भी नया केस दर्ज नहीं किया जाएगा। पुराने लंबित केस भी स्थगित रखे जाएंगे। सरकार नया मसविदा पेश करे। अदालत जुलाई के तीसरे सप्ताह में फिर सुनवाई करेगी। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि सच बोलना देशभक्ति है।

3.राजद्रोह का दायरा

लोकतांत्रिक अधिकारों का संरक्षण जरूरी

 

पिछले कुछ वर्षों में जैसे राजनीतिक लक्ष्यों व विरोध के स्वरों को दबाने के लिये ब्रिटिशकालीन राजद्रोह कानून का इस्तेमाल हो रहा था, उसने कानून के दुरुपयोग को लेकर देशव्यापी आक्रोश को जन्म दिया। इस कानून की संवैधानिकता पर सुनवाई कर रही शीर्ष अदालत ने कानून की समीक्षा का आग्रह केंद्र सरकार से किया था। कालांतर केंद्र सरकार इस कानून की समीक्षा के लिये तैयार हुई है। वास्तव में कई सरकारों ने भारत-पाक मैच में नारे लगाने, हनुमान चालीसा पाठ, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने तथा कार्टून बनाने जैसी अभिव्यक्ति पर अंकुश हेतु कानून का बेजा इस्तेमाल किया है। आखिर जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाने के लिये इस्तेमाल होने वाले कानून का अस्तित्व में रहना क्यों जरूरी है। बहरहाल, केंद्र सरकार देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिये तो तैयार हुई, लेकिन कहना कठिन है कि यह कब तक होगी। वहीं बुधवार को शीर्ष अदालत ने उम्मीद जगायी कि इस दिशा में कुछ सकारात्मक होगा। कोर्ट ने कहा कि जब तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगी, तब तक इसके तहत कोई नयी प्राथमिकी दर्ज न हो। वहीं जो मामले इस कानून के तहत चल रहे हैं उनमें भी अब कार्रवाई न हो। साथ ही जो लोग इस कानून के तहत जेल में हैं, वे अपनी जमानत के लिये अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। राजद्रोह कानून की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के क्रम में इस बाबत सुनवाई अब जुलाई के तीसरे सप्ताह में होगी। बहरहाल, केंद्र सरकार ने कानून की समीक्षा का वादा करके अपने पिछले रवैये में बदलाव किया है। इससे पहले शीर्ष अदालत में दिये गये हलफनामे में केंद्र सरकार वर्ष 1962 के बहुचर्चित केदारनाथ बनाम बिहार राज्य मामले में दिये गये फैसले को पर्याप्त बता रही थी, जिसमें इस राजद्रोह कानून के दायरे को कम किया गया था। लेकिन इसके बावजूद पुलिस-प्रशासन के व्यवहार में कोई विशेष बदलाव नजर नहीं आया।

दरअसल, इस कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर लोगों का मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत राजनीतिक संवाद में आलोचना होना आम बात है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हर नागरिक की अभिव्यक्ति व गरिमा की भी रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे में औपनिवेशिक शासन में नागरिकों को दंडित करने वाले कानून का आजादी के सात दशक बाद भी अस्तित्व में रहना विडंबना ही है। कहना कठिन है कि केंद्र सरकार इस कानून के कुछ प्रावधानों की समीक्षा करेगी या इसे समाप्त करेगी। बहरहाल, इस कवायद के कुछ सकारात्मक परिणाम जरूर सामने आएंगे। दरअसल, इस कानून में दंड के प्रावधान काफी सख्त हैं। इसके अंतर्गत तीन साल से लेकर आजीवन कारावास का प्रावधान है। जो भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत मौखिक अभिव्यक्ति, लिखित बयान या दृश्य रूप में सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने, घृणा फैलाने या अवमानना के प्रयास में लागू किया जा सकता है। इसे गैर जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया है। वैसे शीर्ष अदालत ने 1962 के बहुचर्चित केदारनाथ प्रकरण में कहा था कि अव्यवस्था पैदा करने या ऐसे इरादे, कानून-व्यवस्था में व्यवधान व हिंसा को बढ़ावा देने वाले मामले में ही इस कानून का इस्तेमाल हो सकता है। मगर सत्ता मद में चूर सरकारें कानून का जमकर दुरुपयोग करती रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2016 से 2019 के बीच इस कानून के तहत दर्ज मामलों में 160 फीसदी की वृद्धि हुई मगर दोष सिद्धि महज तीन फीसदी ही थी। सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब गिरफ्तारियां मामले को गंभीर बताते हुए इतनी बड़ी संख्या में हुई तो सजा इतने कम लोगों को क्यों मिल पाई? जाहिर है मामलों को राजनीतिक दुराग्रह के चलते तूल दिया गया। नागरिक स्वतंत्रता के मामले में अंतर्राष्ट्रीय जगत में इसका अच्छा संदेश नहीं जाता। इस मामले में पुलिस-प्रशासन को संवेदनशील व जवाबदेह बनाने की जरूरत है, जो अक्सर राजनीतिक नेतृत्व के दबाव में कानून का दुरुपयोग करते हैं। हालांकि, बाह्य खतरों से देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के लिये प्रभावी कानून जरूरी हैं।

 

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top