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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.नगर निगमों का चुनावी मंच

हिमाचल में नगर निगम चुनाव राजनीति के अहम प्रश्नों पर अपनी टिप्पणी देंगे और यह पहली बार प्रदेश के मत विभाजन में बुद्धिजीवी होेने की नागरिक जवाबदेही की भी परख लेंगे। यह हिमाचल की जनता को तय करना है कि चुनावों में कौन से उम्मीदवार आंदोलनजीवी हैं या सत्ता बनाम विपक्ष के वर्तमान दौर में कांगे्रस अपने तेवरों में आंदोलनजीवी के अभिप्राय में सत्ता पक्ष को चुनौती देने का मंच कैसे ऊंचा करती है। कांग्रेसी नेताओं की जमात बहुत कुछ कर या कह सकती है और इसी सक्रियता में जीएस बाली, सुखविंदर  सुक्खू, चंद्र कुमार, कौल सिंह ठाकुर और राजिंद्र राणा जैसे कद्दावर आगे बढ़ाए जा रहे हैं। जाहिर है कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर और नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री इस अभियान के हर मंच को धार देंगे, लेकिन पार्टी का आंदोलन किस तरह भूमि को मापता है, इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा। वर्तमान सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव में अपने प्रबंधन की बदौलत विपक्ष को चकमा दिया, फिर भी कांग्रेस की चुनावी फसल में जनता का आक्रोश सामने आया है। राजनीतिक गणित में भले ही सत्ता का फलक अविचलित है, लेकिन नगर निगमों के चार पांवों पर खड़ा मंच सारी करवटें बदल सकता है।

 यह मुकाबला उस जनमंच से भारी हो सकता है, जिसे हमने हमीरपुर के झगडियानी में झगड़ते हुए देखा। एक बुजुर्ग लगातार जनमंच में आकर खलल डाल रहा है या जनमंच के सामने आक्रोश ठंडा नहीं हो रहा है। अगर चार नगर निगमों के चुनाव भी जनमंच की तरह सत्ता से शिकायत करने निकल आए, तो उन इश्तिहारों का क्या होगा जिन पर इन्हें उकेरा गया। शहरी महत्त्वाकांक्षा में चुनाव एक दर्पण की तरह हो सकते हैं, लेकिन पार्टी के चिन्ह पर बहस का विषय व्यापक होगा। चार शहरों की आबादी में प्रदेश को ढूंढना शायद कठिन हो, लेकिन ये चार दिशाओं के संकेत तो पढ़ ही सकते हैं। यह दीगर है कि कांगड़ा अपने वजूद में दो शहरों को लेकर भविष्य पढ़ रहा है, तो यह सत्ता के फैसलों का मजमून भी तो देखेगा। धर्मशाला शहर ने अपनी राजनीतिक हस्ती में किशन कपूर सरीखे वरिष्ठ नेता को हाशिए पर देखा है, तो सरवीण चौधरी से शहरी विकास मंत्रालय छीनते हुए भी वर्तमान सरकार के पक्ष को देखा है। आश्चर्य यह कि धर्मशाला स्मार्ट सिटी के विरोध का बीड़ा उठा कर माननीय उच्च न्यायालय में जो शख्स पहुंचा था, वही सुरेश भारद्वाज शहरी विकास मंत्री बनाए गए। धर्मशाला स्मार्ट सिटी के खाते में आए करीब चार सौ करोड़ में प्रदेश ने आज तक अपनी हिस्सेदारी का अंश पूरा नहीं किया, तो चुनावी मुद्दों का आक्रोश खड़ा है। दूसरी ओर पालमपुर नगर निगम की सियासी पृष्ठभूमि में भले ही शांता कुमार का आशीर्वाद रहा, लेकिन इसी क्षेत्र की संवेदना से रिसते जख्म बताते हैं कि कांगड़ा जिला के राजनीतिक उत्तराधिकारी समझे जा रहे विपिन सिंह परमार से मंत्री पद छीनने के पीछे कोई साधुवाद तो पैदा नहीं हुआ। हकीकत भी यही है कि लगातार भाजपाई सरकारों के दौरान कांगड़ा के नेतृत्व को मात मिल रही है।

 ऐसे में कांग्रेस अगर आंदोलनजीवी बनकर धर्मशाला-पालमपुर में चुनाव को कांगड़ा की सलवटों तक ले जाती है या सत्ता से पदच्युत माहौल में अनाथ हो चुकी जमीन पर नई सियासी पारी खेल देती है, तो समीकरण कहीं पार्टी चिन्हों के बाहर भी बहुत कुछ लिख देंगे। मंडी नगर निगम चुनाच वास्तव में सत्ता का बफर जोन हो सकता है और सुखराम के वर्चस्व में छेद करने की बड़ी वजह भी, लेकिन शहर की कसावट और बनावट में अनिल शर्मा के दिल का छेद काफी गहरा असर रखता है। यहां भाजपा के अपने द्वंद्व और अतीत के सदके में फिर कहीं इंदिरा मार्केट के सुखद एहसास में सुखराम के प्रति कृतज्ञता ओढ़कर अगर शहर ने बर्ताव किया, तो राजनीति का लंगर बदल सकता है। सोलन अपने परिदृश्य के संताप में एक कसक लिए डा. राजीव बिंदल की तरफ देखता है। भले ही सिरमौर तक खिसके जनाधार ने डा. बिंदल को चिन्हित किया, लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम की आबरू में यह नेता कहीं अपने जख्मों से लड़ रहा है। ऐसे में शिमला-चंडीगढ़ को जोड़ता यह शहर पूरे प्रदेश की धमनियों में अपने आक्रोश जोड़ पाता है या जिला की इस भूमिका में राजीव सैजल एक नया दृष्टांत खड़ा कर देते हैं, देखना रोचक होगा। कुल मिलाकर चार नगर निगम अपने भीतर सत्ता के खूंटे या विपक्ष के आक्रोश में किसे चुनते हैं, इस पर तुरंत कयास नहीं लगाया जा सकता।

 

2.जांच की दिशा

कुछ चेहरे बड़े मासूम लगते हैं। शायद वे मासूम होते भी होंगे! लेकिन चेहरों की असलियत जब बेनकाब होती है, तो कई मोहभंग होते हैं। बंगलुरू की जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि का प्रसंग ऐसा ही है। दिल्ली पुलिस ने राजद्रोह, आपराधिक साजि़श और वैमनस्य फैलाने के बेहद गंभीर आरोपों की कानूनी धाराओं के तहत दिशा को गिरफ्तार किया है। उनके अन्य साथियों में मुंबई की वकील निकिता जैकब और इंजीनियर शांतनु के खिलाफ  गैर-जमानती वारंट जारी किए गए हैं। एक और आरोपी पीटर फ्रेडरिक है, जिसके संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ बताए जा रहे हैं। पीटर पर महात्मा गांधी की प्रतिमा तोड़ने का भी आरोप है। बहरहाल आरोप गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी, को दिल्ली में हिंसा भड़काने और सामाजिक, धार्मिक टकराव के मद्देनजर हैं। जो मासूम चेहरे आरोपित हैं, वे भारत की संप्रभुता, एकता, अखंडता का पत्ता भी हिला सकते हैं, हमें यह नहीं लगता, क्योंकि भारत इतनी ‘पतली चमड़ी’ का राष्ट्र नहीं है। बेशक ’70 के दशक में ‘अंतरराष्ट्रीय हाथ’ एक जुमला था, लेकिन 2021 का भारत शक्तिशाली और संगठित है, लिहाजा पुलिस के आरोप प्रथमद्रष्ट्या असंगत लगते हैं, लेकिन दिशा रवि की सामाजिक-सार्वजनिक छवि के मद्देनजर उनकी 21-22 साल की उम्र का प्रलाप करना भी गलत है।

 यह ऐसी उम्र है, जब औसतन लड़की अपना जीवन-साथी चुनने में सक्षम मानी जाती है। गणतंत्र में जन-प्रतिनिधि और सरकार चुनने को मताधिकार का इस्तेमाल कर सकती है। वह कानूनी, मानसिक और शारीरिक तौर पर बालिग हो जाती है। इस उम्र से भी कम के कुछ प्रसंग याद आ रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी की हत्या करने वाली लड़की की उम्र सिर्फ  17 साल ही थी। चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने 18-19 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में खुद को झोंक दिया था। बंगाल के क्रांतिकारी खुदीराम बोस ने 18 साल की उम्र में ही मां भारती की स्वतंत्रता के लिए कुर्बानी दे दी थी। उदाहरण असंख्य दिए जा सकते हैं। मौजूदा संदर्भ में 26 जनवरी के ही दिन लालकिले की प्राचीर पर धावा बोल कर ‘तिरंगा’ के अतिरिक्त एक धर्म-विशेष का झंडा फहराने वाले की उम्र भी लगभग इतनी ही होगी। चूंकि उम्र मासूमियत बयां कर रही थी, लिहाजा देशद्रोह के आरोपी भी मासूम होंगे, यह एक कुतर्क है। महत्त्वपूर्ण मानसिकता और विचारधारा है। मानसिकता देश-समर्थक है अथवा किसी उग्रवादी संगठन का समर्थन करती है! पूरे प्रकरण में यह बेहद संवेदनशील तथ्य है कि बीती 11 जनवरी को एक वर्चुअल बैठक हुई, जिसमें कनाडा में बसे खालिस्तानी चेहरा मो धालीवाल के साथ-साथ दिशा रवि, ग्रेटा समेत करीब 70 लोगों ने शिरकत की थी। क्या जलवायु परिवर्तन पर विमर्श कर रहे थे? हम बैठक के निष्कर्षों और कथित साजि़श के आरोप भी चस्पा नहीं कर रहे हैं, लेकिन इन मासूम पर्यावरण कार्यकर्ताओं को यह तो साबित करना पड़ेगा कि उनके खालिस्तान आंदोलन से कोई सरोकार नहीं हैं। धालीवाल के साथ संपर्कों पर भी न्यायिक सफाई देनी पड़ेगी। धालीवाल का संगठन ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन’ बुनियादी तौर पर खालिस्तानी और प्रतिबंधित संगठन है।

 इसका संबंध ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ से है। वह भी भारत समेत कई देशों में प्रतिबंधित संगठन है। जिस टूलकिट की चर्चा पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट से शुरू हुई थी, उसे धालीवाल ने ही बनवाया था। दिशा रवि ने अदालत में अपनी भूमिका स्वीकार की है, लेकिन महत्त्वपूर्ण यह भी है कि टूलकिट में हिंसा का उल्लेख नहीं है। फिर भी भारतीय दूतावासों, औद्योगिक घरानों और मीडिया हाउस पर विरोध-प्रदर्शनों और घेराव की योजना के बुनियादी कारण क्या हैं? भारत-विरोधी दुष्प्रचार क्यों किया गया कि नरसंहार किए जा रहे हैं? 25 करोड़ किसान सड़कों पर आंदोलनरत हैं! टूलकिट में ‘डिजिटल स्ट्राइक’ और ‘ट्विटर स्टॉर्म’ के मायने क्या हैं? जो 78 पर्यावरणविद और अन्य भीड़ दिशा रवि की रिहाई के समर्थन में सड़कों पर हैं, उनसे इन सवालों के जवाब जरूर पूछे जाएं। दिशा दोषी है अथवा नहीं, यह कोई भीड़़ या सियासी जमात नहीं, देश की अदालत, साक्ष्यों के आधार पर, तय करेगी। दिशा को यह भी स्पष्ट करना होगा कि वह खालिस्तान के अलावा आईएसआई की सांठगांठ में शामिल हैं या नहीं। इस प्रकरण को मौजूदा किसान आंदोलन से नहीं जोड़ा जाए, क्योंकि आंदोलन तो एक बहाना था। धालीवाल का आह्वान है कि कानून वापस लेने और किसान आंदोलन समाप्त होने के बावजूद आंदोलन को जारी रखा जाए, क्योंकि खालिस्तान अब भी सांसें ले रहा है।

 

  1. निजता की चिंता

सोशल मीडिया कंपनी वाट्सएप की नई नीति के मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप आश्वस्तकारी है। अदालत ने उचित ही कहा है कि देश के लोग अपनी निजता की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं और उनके हितों की रक्षा करना अदालत का कर्तव्य है। साल 2014 में फेसबुक ने जब वाट्सएप को खरीदा था, तब यह कहा था कि वाट्सएप कंपनी अपने डाटा फेसबुक के साथ साझा नहीं करेगी, लेकिन वह अपने वादे पर कायम नहीं रह सकी। फिर इस जनवरी में वाट्सएप ने जो नई नीति बनाई है, उसमें यूजर्स से अतिरिक्त डाटा जुटाने की अपनी मंशा उसने साफ जाहिर की है। भारतीयों को आसान लक्ष्य समझने का उसका दुस्साहस इस तथ्य से भी पुष्ट होता है कि कंपनी ने यूरोप के लिए नीतियों का अलग मसौदा तैयार किया, जबकि भारत के लिए अलग। हालांकि, सरकार और यूजर्स की तीखी प्रतिक्रिया के बाद कंपनी ने नई नीति के क्रियान्वयन को मई तक के लिए स्थगित कर दिया था। पर इस पूरे मामले में पारदर्शिता और वैधानिक बाध्यता बहुत जरूरी है। 
भारत में वाट्सएप इस्तेमाल करने वालों की संख्या दिसंबर महीने में ही 46 करोड़ के पास पहुंच गई थी। ऐसे में, कंपनी की व्यावसायिक आकांक्षाएं स्वाभाविक ही जोर मार रही हैं, लेकिन लोगों की निजता में घुसपैठ की उसे इजाजत नहीं दी जा सकती। फिर वाट्सएप पर उस सोशल मीडिया कंपनी, यानी फेसबुक का मालिकाना हक है, जिसके कई कदम बेहद विवादास्पद रहे हैं, बल्कि कई तो बेहद गंभीर किस्म के हैं। हम नहीं भूल सकते कि इस पर देश के सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने वाली पोस्ट और सामग्रियों में भेदभाव करने के कई संगीन आरोप अभी हाल में लगे हैं। ऐसे में, डाटा की सुरक्षा और इनकी निगरानी कितनी अहम हो जाती है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। अनेक साइबर विशेषज्ञों का कहना है कि गूगल के पास हमारा काफी सारा डाटा जा चुका है और वह इनका व्यावसायिक दोहन कर काफी धन कमा भी रहा है। फेसबुक भी उसी से प्रेरित होकर वाट्सएप की नई नीति लेकर आया है। यकीनन, कानून की कमी के कारण अब तक ऐसा हुआ है और ऐसा दुनिया भर में हुआ है। लेकिन विकसित देशों ने खतरों को भांपते हुए अपने यहां कानूनी चूलें कसी भी हैं। यूरोप के लिए वाट्सएप की नई नीति इसकी पुष्टि करती है। आने वाले दिनों में, जब डाटा की जंग और अधिक तेज होगी, तब यूजर्सके हितों की निगहबानी सरकार को ही करनी होगी। इसलिए जल्द से जल्द ऐसे कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए कि कोई सोशल मीडिया कंपनी यूजर्स के हितों से खिलवाड़ न कर सके। दुर्योग से, हमारे देश में साइबर अपराधों की संख्या तो तेजी से बढ़ रही है, लेकिन उनमें प्रभावी सजा का संदेश अवाम तक नहीं पहुंच रहा। ऐसे में, नागरिकों का भय वाजिब है कि एक तरफ खरबपति कंपनियां होंगी, और दूसरी तरफ सामान्य पीड़ित, तब वे उनसे लड़ने का साहस भी कहां से जुटा पाएंगे? वाट्सएप की नई नीति के धमकी भरे अंदाज से नाराज कई सारे यूजर्स ने तो दूसरे वैकल्पिक एप की शरण भी ले ली है, लेकिन यह समस्या का स्थाई हल नहीं है। सरकार को इस संदर्भ में स्पष्ट नीति के साथ आगे आना चाहिए, ताकि  कोई निजी कंपनी बेजा फायदा न उठाए और ऐसी किसी हिमाकत में उसके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जा सके।

  1. निजता की रक्षा

कारगर कानून वक्त की जरूरत

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व्हॉट्सएप द्वारा प्राइवेसी पॉलिसी में किये जा रहे मनमाने बदलाव के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कंपनी को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है। चीफ जस्टिस एस. ए. बोबड़े की अध्यक्षता वाली पीठ ने दो टूक शब्दों में कहा कि ये आरोप चिंताजनक हैं कि उपभोक्ताओं के डेटा दूसरी कंपनियों के साथ शेयर किये जा रहे हैं। अदालत ने बल दिया कि व्यक्ति की निजता की रक्षा होनी चाहिए। साथ ही यह कि निजता नीति में बदलाव के चलते लोगों में आशंका बलवती हुई है कि निजी जानकारी साझा किये जाने से उनकी निजता का हनन होता है। अदालत ने व्हॉट्सएप व फेसबुक के वकीलों को खरे-खरे शब्दों में कहा कि भले ही ये कंपनियां दो-तीन ट्रिलियन की हों, लेकिन आम आदमी को पैसे से ज्यादा अपनी निजता पसंद है, जिसकी रक्षा करना हमारा दायित्व है। मुख्य न्यायाधीश ने कंपनी की सहयोगी कंपनी द्वारा कारोबारी हितों के लिये डेटा शेयरिंग की विसंगतियों की ओर ध्यान खींचा। दरअसल, विडंबना यह है कि भारत में अमेरिका व यूरोप की तरह सख्त डेटा प्रोटेक्शन कानून नहीं है, जिसका लाभ ये कंपनियां उठा रही हैं। हालांकि, कंपनी के भारतीय वकीलों की दलील थी कि यदि भारत में यूरोपीय देशों की तर्ज पर जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन्स अस्तित्व में आते हैं तो कंपनियां उनका पालन करेंगी। वहीं कोर्ट में सरकार की भी दलील थी कि कंपनियां यूजर्स की जानकारियां शेयर नहीं कर सकतीं। दरअसल, व्हॉट्सएप द्वारा थोपे जाने वाली सख्त प्राइवेसी पॉलिसी के खिलाफ इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की ओर से शीर्ष अदालत में याचिका दायर करके आरोप लगाया गया था कि कंपनियां निजी फायदे के लिये बड़े पैमाने पर यूजर का डेटा शेयर कर रही हैं जो आम उपभोक्ता के लिये बेहद चिंता की बात है। साथ ही संगठन ने कंपनी द्वारा फेसबुक से उपभोक्ता के डेटा शेयर पर रोक लगाने की भी मांग की थी।

एक अनुमान के अनुसार भारत में व्हॉट्सएप के चालीस करोड़ प्रयोक्ता हैं। भारत में बड़े उभरते बाजार और लचर साइबर कानूनों का फायदा उठाते हुए ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नये कारोबार की संभावना तलाश रहे हैं। कहने को तो ये अमेरिकी कंपनियां मुफ्त में अपनी सेवाएं उपलब्ध करा रही हैं, लेकिन अघोषित तौर पर यूजर को उत्पाद की तरह इस्तेमाल करना चाह रही हैं। कहा भी जाता है कि जब आप कोई सेवा मुफ्त में उपयोग करते हैं तो आपको एक उत्पाद के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। कमोबेश व्हॉट्सएप के मामले में भी ऐसा ही किया जा रहा है। विडंबना यह है कि अमेरिका, ब्राजील और यूरोपीय संघ के देशों में सख्त साइबर कानून होने के कारण व्हॉट्सएप की निजता के मापदंड ऊंचे हैं। जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में वह निजता के मापदंडों को कमतर कर रही है, जिसका देश में मुखर विरोध किया जा रहा है और यूजर   सेवा के नये विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। दरअसल, भारत में पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल लंबित है। ऐसे में इसके कानून की शक्ल लेने से पहले व्हॉट्सएप अपनी नीति में बदलाव लाकर मौके का फायदा उठाना चाह रहा है। दरअसल, डेटा प्रोटेक्शन बिल में कई कड़े और प्रगतिशील प्रावधान हैं, जिससे लोगों की निजी जानकारी की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी। जिसमें नियमों के उल्लंघन पर मुआवजे और सजा का प्रावधान भी है। ऐसे में बिल पास हो जाने की स्थिति में व्हॉट्सएप के इन प्रस्तावित बदलावों के अस्तित्व में आने पर नये कानून का नियंत्रण प्रभावी नहीं हो पायेगा। इसके लागू होने से पहले ही व्हॉट्सएप यूजर का निजी डेटा जमा करके उसे शेयर कर चुका होगा जो हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। ऐसे में सरकार को कंपनी की मंशा पर अंकुश लगाने के लिये कारगर हस्तक्षेप करना चाहिए। निस्संदेह बदलते वक्त के साथ साइबर व तकनीक से जुड़े कानूनों की समीक्षा करके इन्हें धारदार बनाया जाना चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि निजता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। यही वजह है कि व्हॉट्सएप की नयी निजता पॉलिसी को खतरे की घंटी बताया जा रहा है। 

 

 

 

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