इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.हिमाचल में कितना आयुर्वेद
अपने लिए और अपने से कहीं अधिक आयुर्वेद चिकित्सा क्षेत्र में इतिहास रच चुके पपरोला आयुर्वेदिक कालेज की परिधि में हिमाचल की ब्रांडिंग अगर दिखाई दे, तो यह राज्य केरल की तर्ज पर आयुर्वेद की डेस्टिनेशन बन सकता है। जिस कालेज की आधी सदी पहले स्थापना की गई हो या जिसके कारण उत्तर भारत में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का विस्तार हुआ हो, उसके दायरे में इतनी शक्ति तो है कि प्रदेश हैल्थ टूरिज्म में कई कदम आगे बढ़ सके। पोस्ट कोविड परिदृश्य में वेलनेस टूरिज्म की मांग आयुर्वेद पद्धतियों को चमत्कार की तरह देख रही है, लेकिन हमसे कहीं आगे उत्तराखंड और गोवा हो गए। प्रदेश ने अपनी पैंसठ फीसदी भूमि को जंगल बना दिया, लेकिन इसकी गुणात्मक ताकत का सही इस्तेमाल नहीं किया। जंगलों में औषधीय पौधों की 1038 प्रजातियों और करीब 3400 प्रकार की जड़ी-बूटियों के संरक्षण व शोध की परिपाटी में आयुर्वेद कालेज पपरोला की भूमिका का विस्तार किया होता या तमाम हर्बल गार्डन अपने परिसर में हैल्थ रिजॉर्ट का एहसास विकसित कर पाते, तो यह आत्मनिर्भरता के प्रबल स्रोत होते। हर्बल राज्य की संपन्नता में हिमाचल ने आयर्वेद ज्ञान-विज्ञान को अपना ठौर बनाया होता, तो सारा देश केरल की तर्ज पर हिमाचल को भी अधिमान देता। इससे स्थानीय परंपराएं, खान-पान व रीति-रिवाज भी अपने व्यवहार में आयुर्वेद को लेकर चलते।
विडंबना यह कि वर्षों से हर्बल नीति के नाम पर वन दोहन की असंवेदनशीलता में तहस-नहस बहुत कुछ हुआ, लेकिन जड़ी-बूटियों के संरक्षण व वैज्ञानिक शोधन पर नवाचार पैदा नहीं हुआ। यह विमर्श और चिंतन का विषय है कि 22 औषधीय प्रजातियां तेजी से जंगलों से गायब हो रही हैं। पूर्व मंत्री डा.राजन सुशांत ने हर्बल खेती के व्यापारिक उत्पादन को प्रोत्साहित करने के कुछ सार्थक कदम उठाए थे या बतौर वन मंत्री जगत प्रकाश नड्डा ने वन महोत्सव को घर-घर हर्बल पौधारोपण की शक्ल दी, लेकिन ये सारे प्रयास कहीं गुम हो गए, ठीक उसी तरह जैसे आयुर्वेद कालेज की स्थापना के बाद विभाग यह भूल गया कि इसकी श्रेष्ठता को चार चांद कैसे लगाए जा सकते हैं। हैरानी यह कि सरकारें फुर्सत में तकनीकी विश्वविद्यालय बना देती हैं या अब प्रस्तावित संस्कृत विश्वविद्यालय पर करवटें जारी हैं, लेकिन आयुर्वेद के शृंगार में देश के प्रथम दस कालेजों में शुमार पपरोला महाविद्यालय को विद्यापीठ का दर्जा नहीं मिला। अगर इसे स्वतंत्र विश्वविद्यालय न बनाना हो तो भी कृषि विश्वविद्यालय के साथ जोड़ते हुए स्वतंत्र शोध एवं उच्च अध्ययन केंद्र का प्रारूप बनाया जा सकता है। हिमाचल में ही आयुर्वेद के अलावा तिब्बती चिकित्सा संस्थान ने अपनी पैठ बनाई है। तिब्बती दवाइयां अपनी खूबियों और सामग्री के कारण पर्वतीय जड़ी-बूटियों से गहरा रिश्ता रखती हैं, लेकिन इन्हें आयुर्वेद चिकित्सा के नजदीक समझने की कोशिश ही नहीं की गई।
इतना ही नहीं हिमाचल में परंपरागत वैद्य-हकीम प्रथाओं से निकले नुस्खों का संरक्षण तथा विभिन्न विधियों का निरुपण अगर विज्ञान उपलब्धि की तरह किया होता, तो आयुर्वेद और समृद्ध होता। एक विडंबना उस पाठ्यक्रम को लेकर भी पैदा हो रही है, जहां आयुर्वेद प्रणाली के प्रचार-प्रसार के बजाय चिकित्सक खुद को एलोपैथी के समानांतर खड़ा करने के बजाय, अंग्रेजी दवाइयों के इस्तेमाल का घालमेल पैदा कर रहे हैं। धूमल सरकार में आयुर्वेद मंत्री रहे डा.राजीव बिंदल ने विभागीय कौशल व दक्षता के नए पैमाने स्थापित करते हुए पंचकर्म जैसी पद्धतियों के प्रसार से इसे पर्यटन के नजरिए से पुख्ता किया था, लेकिन यह भी कहीं उदासीनता के गर्त में चला गया। प्रदेश में जड़ी-बूटियों के संरक्षण तथा उत्पादन के साथ-साथ आयुर्वेद विभाग की कार्यप्रणाली को कायाकल्प केंद्रों के रूप में विकसित करना होगा ताकि विश्व पर्यटन में हिमाचल हैल्थ टूरिज्म, योग तथा स्वस्थ होने के विभिन्न पैकेजों के साथ वास्तव में हर्बल और आयुर्वेद राज्य बन सके। खेल चिकित्सा में अपनी क्षमता, आबोहवा तथा पारंपरिक जड़ी-बूटियों के कारण यह पर्वतीय राज्य खिलाडि़यों के पुनर्वास तथा क्षमता विकास में सहायक हो सकता है।
2.रद्द करो इन कानूनों को
जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को यूएपीए की आशंका क्यों थी? यह आतंकवाद से जुड़ा कानून है। कमोबेश दिशा आतंकी गतिविधियों में संलिप्त नहीं थी, लेकिन खालिस्तान का उल्लेख जरूर हुआ है। देश में राजद्रोह का कानून ब्रिटिश साम्राज्य की देन है। हम उसे ढोए चले जा रहे हैं। सत्ता किसी भी दल या गठबंधन की हो, यह कानून सभी की प्राथमिकता रहा है। सभी आशंकित रहे हैं कि देशद्रोह की गतिविधियां सामने आ सकती हैं। भारत के खिलाफ सामाजिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक और बाहरी युद्ध छेड़ा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय देशद्रोह कानून के मद्देनजर टिप्पणियां करता रहा है। कमोबेश समय और स्थितियों के मद्देनजर ब्रिटिशकालीन कानून में संशोधन किए जा सकते थे। चूंकि यह कानून समकालीन और अद्यतन नहीं है, लिहाजा सजा की दर भी बहुत कम है। यदि बीते कुछ सालों का आकलन करें, तो 2016 में देशद्रोह के 35, 2018 में 70 और 2019 में 93 केस दर्ज किए गए।
ज्यादातर मामले अदालत के विचाराधीन हैं या आरोप-पत्र दाखिल नहीं किए जा सके अथवा आरोपितों को जमानत मिल चुकी है। देशद्रोह या राजद्रोह अपराध या देश के खिलाफ साजि़श अथवा विघटन की पराकाष्ठा है, लेकिन कानून में इतने छिद्र हैं कि आरोपित को सजा नहीं मिल पाती अथवा केस साल-दर-साल अदालतों में जारी रहते हैं। बीते दो सालों में करीब 6300 केस देशद्रोह की धाराओं के तहत दर्ज किए गए हैं। इनमें पुलवामा आतंकी हमले के बाद राजद्रोह, सीएए, दिल्ली दंगों और हाथरस सामूहिक बलात्कार के बाद जो केस दर्ज किए गए थे, उनमें करीब 3000 आरोपित हैं। इसी तरह आतंकवाद संबंधी यूएपीए का रुझान और परिणाम भी लगभग ऐसे ही हैं। भारत में अलग-अलग दौर में टाडा और पोटा सरीखे कानूनों की व्यवस्था रही है। उनका जमकर दुरुपयोग किया गया। राजनीतिक विरोधियों को भी खूब निशाने पर रखा गया। यूएपीए नवीनतम व्यवस्था है, लेकिन आरोपी सालों तक दहशत में रहते हैं अथवा बीसियों साल जेल में बंद रहते हैं। जब अदालत अपराध-मुक्त घोषित करती है, तब तक जिंदगी और पेशे का सब कुछ छिन चुका होता है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने संसद में यूएपीए की स्थिति पर जवाब दिए थे, तो एक ही सवाल मन के भीतर उठता रहा कि आखिर ये कानून मौजूद और लागू क्यों हैं? क्या इन्हें रद्द करने के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत दखल नहीं दे सकती? जब इनकी सजा-दर मात्र 2 फीसदी के करीब है, तो इन कानूनों की ज़रूरत और प्रासंगिकता क्या है? 2016-19 के दौरान यूएपीए के तहत 5922 गिरफ्तारियां की गईं, लेकिन सजा के कटघरे तक सिर्फ 132 मामले ही पहुंच पाए।
ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हैं। 2019 के आरंभ में यूएपीए के 3908 मामलों में जांच लंबित थी। जांच बीते सालों से ही जारी थी, लेकिन 2019 में पुलिस 257 मामलों में ही आरोप-पत्र दाखिल कर सकी। कोई भी व्यक्ति इन मामलों का प्रासंगिक प्रतिशत निकाल सकता है। कानून आतंकी गतिविधियों और हमलों से जुड़ा है। क्या हमारी एजेंसियां आतंकवाद के मामलों को भी अंतिम, कानूनी निष्कर्ष तक पहुंचाने में नाकाम रही हैं? गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी, को लालकिले पर कुछ उपद्रवियों का हमला भी आतंकी हमले से कम नहीं आंका जा सकता। देशद्रोह वाले कानून में तो गिरफ्तारियां की गई हैं। क्या टूलकिट की योजना और दिशा-ग्रेटा की बातचीत भी आतंकी साजि़श के दायरे में आती हैं? टूलकिट तो सामान्य डिजिटल दस्तावेज है। ऐसे सक्रिय कार्यकर्ता दुनिया भर में ‘चैट’ करते रहते हैं। क्या अब यूएपीए के खौफ से आम आदमी गूगल, व्हाट्स एप अथवा दूसरे सोशल मीडिया पर जाना ही छोड़ दे? दिल्ली पुलिस ने गूगल और जू़म एप से जानकारी मांगी है कि टूलकिट में कौन-कौन शामिल था और उनकी बैठकों में क्या विमर्श किया गया था? यदि इन जांचों का निष्कर्ष भी शून्य रहा, तो इन कानूनों पर क्या टिप्पणी करेंगे? कमोबेश टूलकिट में हमें तो आतंकवाद का एक अक्षर भी नहीं मिला, लेकिन धालीवाल सरीखों पर कानूनी कार्रवाई के लिए देश स्तर पर पहल की जानी चाहिए। कनाडा तो दशकों से खालिस्तान का अड्डा रहा है।
3.कोरोना के खिलाफ
कोरोना मामलों में भारत में आ रही कमी प्रशंसनीय है, लेकिन नए मामलों का सामने आना कम नहीं हो रहा है। ज्यादा बड़ी चिंता तब उभरती है, जब विदेश से कोरोना का कोई नया स्ट्रेन या प्रकार भारत पहुंचता है। दिसंबर महीने में ब्रिटेन से भारत पहुंचा कोरोना स्ट्रेन सनसनी फैलाने में कामयाब रहा था और अब दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील से भारत पहुंचे स्टे्रन को लेकर विशेष रूप से दक्षिण भारत में तनाव है। बेंगलुरु हवाई अड्डे पर उचित ही जांच बढ़ा दी गई है। देश के दूसरे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर भी जांच बढ़ा देनी चाहिए। जब हम भारत में कोरोना के खिलाफ लड़ाई को 80 प्रतिशत से ज्यादा जीत चुके हैं, तब हमें लापरवाही का परिचय कदापि नहीं देना चाहिए। ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका से जो कोरोना भारत पहुंच रहा है, उसकी गंभीरता या संक्रमण शक्ति पर खास नजर रखने की जरूरत है। वैज्ञानिकों को पहले से ही अंदाजा था कि कोरोना के अलग-अलग वायरस सामने आएंगे और इससे डरने की कोई बात नहीं, लेकिन सावधानी के मोर्चे पर कोई ढिलाई नहीं होनी चाहिए। केवल दक्षिण अफ्रीका या ब्राजील से आने वालों पर ही नहीं, बल्कि विदेश से आने वाले हरेक यात्री को ठीक से जांचकर ही आम आबादी में प्रवेश देना चाहिए।
हमें सावधानी के आजमाए हुए उपायों को भूलना नहीं चाहिए। ऐसे उपायों की वजह से ही भारत कोरोना के मोर्चे पर कुछ राहत की सांस ले रहा है। अब देश में सक्रिय मामले महज 1,36,549 बचे हैं, जबकि 18 सितंबर को सक्रिय मामलों की संख्या 10,17,754 तक पहुंच गई थी। मतलब, कोरोना के सक्रिय मामलों में 86.58 फीसदी की कमी आई है। संभव है, यदि हम कुछ और दिन सावधानी बरतें, तो मार्च में सक्रिय मामलों की संख्या एक लाख से नीचे ही रहेगी और रोजाना के नए मामले भी 10,000 से नीचे चले जाएंगे। यह किसी खुशी से कम नहीं कि वैश्विक सक्रिय मामलों में भारत की हिस्सेदारी अब 0.60 प्रतिशत ही बची है। दुनिया में हर 167 कोरोना पीड़ितों में भारतीयों की संख्या सिर्फ एक है। सक्रिय मामलों में हमारा देश दुनिया में 16वें स्थान पर आ गया है। याद कीजिए वह समय, जब हम दूसरे स्थान पर पहुंच गए थे। बहुत बुरा दौर निकल चुका है, लेकिन पूरी तरह छुटकारा पाने की कोशिशें जारी रहनी चाहिए। विशेष रूप से महाराष्ट्र और केरल जैसे अपेक्षाकृत विकसित राज्यों में जो कमियां सामने आ रही हैं, उन्हें जल्द से जल्द दूर करना होगा। नए मामलों को बढ़ते देख महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को लॉकडाउन की चर्चा करनी पड़ी है। कोशिश यही करनी चाहिए कि कहीं भी लॉकडाउन की स्थिति न बने, लोग स्वयं सावधानी बरतें। जांच, निगरानी और उपचार के जो निर्देश हैं, उनमें शिथिलता न आए। जांच व उपचार केंद्रों को बंद करने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। इस बीच टीकाकरण अभियान में तेजी लाने की जरूरत है। देश में मंगलवार तक टीका लेने वालों की संख्या 89,99,230 तक पहुंच गई। इस अभियान में तेजी लाने के साथ ही दूसरी खुराक के लिए भी लोगों को प्रेरित करना होगा। दूसरी खुराक के बाद ही असल स्थिति सामने आएगी। दूसरी खुराक के नतीजे देखने के बाद मार्च महीने में टीका अभियान को और तेज करना होगा, ताकि टीकाकरण के लक्ष्य को पूरा किया जा सके। दुनिया देख रही है, भारत कोरोना के खिलाफ एक मिसाल बनकर उभर रहा है।