इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.अधोसंरचना की नई कल्पना
संरचना निर्माण की भूमिका में हिमाचल की पैरवी का एक नया अंदाज हो सकता है, लेकिन हर मुख्यमंत्री ने अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से राज्य का सफर पूरा किया। ऐसे में पूर्ण राज्यत्व के पचास साल की पचास कहानियां भी कम होंगी, क्योंकि विकास के पहले-पहले दस्तावेज तो छोटे मजमूनों को भी बड़ी दृष्टि से देखते रहे हैं। इसलिए हिमाचल निर्माता वाईएस परमार के बाद वीरभद्र सिंह संस्थागत विस्तार यानी शिक्षा-चिकित्सा व प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के लिए जाने गए, तो पानी वाले या सड़क वाले मुख्यमंत्रियों के रूप में शांता कुमार तथा प्रेम कुमार धूमल प्रतिष्ठित हुए। अब वक्त का तकाजा फिर एक उत्साही मुख्यमंत्री के रूप में जयराम ठाकुर के साथ विकास की नई संज्ञा जोड़ने के लिए सरकार के सफर से मुखातिब है। इसी परिप्रेक्ष्य में वर्ष की रूपरेखा में प्रस्तावित पूर्ण राज्यत्व के पचास साल गूंजेंगे और अतीत से बनते इतिहास के संदर्भों में, हिमाचल की अधोसंरचना रू-ब-रू होगी। जाहिर है अधोसंरचना से नए हिमाचल की कल्पना को पेश करते मुख्यमंत्री नीति आयोग की बैठक को प्रदेश की जरूरतों से वाकिफ कराते हैं, लेकिन इसके साथ राज्य को यह भी तय करना होगा कि हम भविष्य में कैसा दिखना चाहते हैं।
क्या हम पूरी तरह पर्यटन राज्य की ओर अग्रसर होना चाहते हैं या औद्योगिक, कृषि-बागबानी, शिक्षित, या पर्वतीय राज्य की तरह पारंपरिक बंदिशों से बाहर प्रगतिशील दिखाई देना चाहते हैं। यह दूसरा अवसर है जब केंद्र में अपनी ही पार्टी की सरकार से प्रदेश की भाजपा सरकार कुछ खास पाना चाहती है। इससे पूर्व धूमल सरकार ने विशेष औद्योगिक पैकेज प्राप्त करके बीबीएन को जन्म दिया था। यह प्रदेश कांग्रेस सरकारों के तहत भी सीमा क्षेत्रों पर एक औद्योगिक गलियारे को मुकम्मल करता दिखाई दिया है। पांवटा साहिब, कालाअंब, परवाणू, मैहतपुर, टाहलीवाल से संसारपुर टैरस तक की पट्टी में औद्योगिक करवटें केवल कर छूट या सबसिडी की मलाई चाटती रहीं, जबकि अब सवाल निजी निवेश की ख्वाहिशों को ईज ऑफ डूईंग के मकबरे पर खड़ा कर देती हैं। परवाणू की तर्ज पर औद्योगिक शहर बसे होते, तो बीबीएन की क्षमता में यह प्रदेश अपनी आर्थिकी की दुरुस्ती करते हुए आगे बढ़ सकता था। एक स्थिति यह भी आई कि प्रदेश उच्च शिक्षा में निजी निवेश का गवाह बन गया, लेकिन शिक्षा की अधोसंरचना आज बिखर गई प्रतीत होती है। अधिकांश निजी विश्वविद्यालय अपनी क्षमता के पूर्ण दोहन में असफल हैं, जबकि ढाई सौ करोड़ के छात्रवृत्ति घोटाले ने पूरे शिक्षा क्षेत्र को ही बदनामी से अभिशप्त कर दिया। हिमाचल में सरकारी क्षेत्र के कृषि-बागबानी विश्वविद्यालयों के तहत विज्ञान केंद्रों का विस्तार हुआ, लेकिन किसान की आर्थिकी उलटे पांव चल पड़ी। प्रदेश पहले यह तय करे कि अब तक उठाए गए साठ हजार करोड़ के कर्ज में से कितना पैसा हमने अधोसंरचना पर व्यय किया। इस दौर में विभागीय तरक्की का जो पसीना महज इमारतें खड़ी करने में बहा या कद से कहीं अधिक निर्माण करने के बावजूद भी क्यों गुणवत्ता दिखाई नहीं दे रही। कहीं हम बार-बार पुरानी नींव के पत्थर ही तो खोद नहीं रहे।
यह इसलिए भी क्योंकि शहरी परिदृश्य में स्थापित तमाम सरकारी स्कूल, अपनी क्षमता से कहीं कम छात्र संख्या के कारण अप्रासंगिक हो रहे हैं और इस पर भी तुर्रा यह कि वहां प्रायः प्रवासी मजदूरों के बच्चे ही फायदा उठा रहे हैं। ऐसे में वर्तमान शिक्षा ढांचे के सदुपयोग पर नीतिगत फैसला लेना होगा। जल शक्ति और विद्युत आपूर्ति से जुड़ा ढांचा किस तरह भविष्यगामी हो सकता है, इस पर सोचना होगा। बहरहाल मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से कुछ खास परियोजनाओं या यूं कहें कि कनेक्टिविटी अधोसंरचना में क्रांतिकारी पहल चाहते हैं। मंडी एयरपोर्ट, कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार तथा रेल परियोजनाओं में तेजी लाने के लिए एक बड़े आर्थिक पैकेज का इंतजार वर्षों से हो रहा है। हमारा मानना है कि हिमाचल में रेल विस्तार ऊना से अंब-अंदौरा पहुंची पटरी को ज्वालामुखी या नादौन की तरफ मोड़ने से होगा। सड़कों के विस्तार को हमीरपुर से गुजरते मार्गाें से जोड़कर होगा, तो एयर कनेक्टिविटी के लिए कांगड़ा एयरपोर्ट की क्षमता का विस्तार ही भविष्य की योजनाओं को जोड़ पाएगा। जहां तक हिमाचल के पर्यटन ढांचे की मजबूती का सवाल है, तो सर्वप्रथम हमें पर्यटन राज्य के रूप में सारी विकास योजनाओं का रुख मोड़ना होगा, ताकि हर विभाग अपने बजट का इस्तेमाल यह देखते हुए करे कि भविष्य में प्रदेश सैलानियों के आगमन पर कैसा दिखे, व्यवहार करे और सुविधाओं के मानकों में उच्च शिखर पर रहे। इसके लिए विभागीय सोच व ढांचा भी बदलना होगा।
2.सवालिया है चीनी रणनीति
पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग लेक के उत्तरी-दक्षिणी छोर पर भारत-चीन की सेनाएं पीछे हट चुकी हैं। सहमति और समझौते का सम्मान और पालन किया गया है। उसकी पुष्टि और सत्यापन के बाद ही दोनों सेनाओं के कोर कमांडरों ने 10वें दौर की बातचीत की है। संवाद रात्रि दो बजे तक चला, लिहाजा मुद्दों की गंभीरता और संवेदनशीलता को समझा जा सकता है। यह संपादकीय लिखने तक दोनों पक्षों का अधिकृत बयान सार्वजनिक नहीं हुआ था, लेकिन यह जरूर सामने आया है कि भारत और चीन गोगरा, हॉट स्प्रिंग, देपसांग और देमचोक आदि विवादित स्थलों और मोर्चों पर लगातार संवाद के जरिए तनाव कम करने को प्रतिबद्ध हैं। ये सभी पूर्वी लद्दाख की परिधि के इलाके हैं और सैन्य रणनीति के मद्देनजर भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। राहत का विषय यह है कि सेना-वापसी के प्रथम चरण की प्रक्रिया नौ दिन में ही संपन्न हो गई और कोई दुर्घटना या टकराव की नौबत नहीं आई। चीन ने अपने करीब 200 टैंक वापस किए। तैनात मिसाइलें तोड़ीं। बंकर और अन्य निर्माण भी ध्वस्त किए। भारत को भी कई फायदेमंद मोर्चेबंदियां छोड़नी पड़ी हैं। कैलाश रेंज का कब्जा छोड़ना रक्षा विशेषज्ञों के लिए भी सवाल बना हुआ है।
यह मोर्चा एलएसी के भारतीय पाले में आता है। बहरहाल इसे भी रणनीति का हिस्सा मानकर मौजूदा सैन्य कमांडरों के निर्णयात्मक विवेक को स्वीकार कर लिया गया है। बहरहाल सैन्य और राजनयिक स्तर पर संवाद जारी है, लेकिन बताया गया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के विशेष प्रतिनिधि भी जल्द ही मुलाकात और बातचीत करेंगे। संवाद के दौरान दोनों पक्ष हॉट स्प्रिंग में पेट्रोलिंग प्वाइंट 15 और 17-ए पर भी सेनाओं की वापसी की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमत हो गए हैं, लेकिन विरोधी सैन्य दस्तों की तैनाती को लेकर अब भी बाधाएं हैं। बेशक अधिकृत बयान आने के बाद बहुत कुछ स्पष्ट होगा, लेकिन भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय संवाद का यह सिलसिला एक ठोस बुनियाद रख सकता है, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। अलबत्ता सवाल और विरोधाभास अपनी जगह महत्त्वपूर्ण हैं। सवाल है कि कैलाश रेंज सरीखा कब्जा हमने छोड़ा है, तो क्या बदले में चीन उन इलाकों को खाली कर देगा, जहां बीते साल अप्रैल में अचानक उसने अतिक्रमण किया था। हमारे सैन्य कमांडरों के इस स्पष्टीकरण को माना जा सकता है कि यथास्थिति कायम करने के लिए वापस लौटना और कुछ कब्जे खाली करना जरूरी था, लेकिन फिर भी देश को अपेक्षा रहेगी कि इस सवाल का ठोस और तर्कसंगत जवाब सामने आए। देश और उसकी संप्रभुता से बढ़कर कुछ भी नहीं है। सवाल यह भी रहेगा कि दूसरे विवादित बिंदुओं से चीनी सेनाओं की वापसी की सार्थक बातचीत से, अंततः, भारत को क्या लाभ होंगे?
क्या 1962 के युद्ध में कब्जाई 38,000 वर्ग किलोमीटर हमारी ज़मीन पर भी संवाद होगा? पाकिस्तान ने पीओके की 5100 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा ज़मीन जो चीन को सौंप दी है, क्या उसकी बातचीत भी होगी? देपसांग इलाके की बार-बार बात की जाती है, क्योंकि वह दौलत बेग ओल्डी इलाके से सिर्फ 30 किमी दूर है। दौलत बेग लद्दाख की ऐसी समतल ज़मीन है, जहां हमने हवाई अड्डा भी बना रखा है। देपसांग से करीब 70 किमी दूर सियाचिन का वह इलाका है, जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। वहीं से काराकोरम दर्रा भी नजदीक है। क्या संवाद के दौरान भारत देपसांग पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने की कोशिश करेगा अथवा यथास्थिति के मद्देनजर वहां की मोर्चेबंदी भी छोड़ दी जाएगी? हमें एहसास है कि रणनीतिक और सैन्य संबंधी मामलों पर ऐसी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जानी चाहिए, लेकिन सवाल तो जिज्ञासापूर्ण तरीके से ये भी पूछे जा रहे हैं कि चीनी सेनाएं बीते साल अचानक ही, कोरोना संकट के दौर में, हमलावर तरीके से क्यों घुस आईं। वह आक्रमण अनपेक्षित था। अब अचानक ही पीछे हटने पर सहमत हो रही है, जबकि उन इलाकों का मौसम भी पहले जैसा ठंडा और बर्फीला नहीं रहा। बेशक अंतरराष्ट्रीय दबाव और मजबूरियां हो सकती हैं। क्या वही बुनियादी कारण रहा है कि चीनी सेनाएं लौटने को तैयार हुई हैं? लिहाजा हमारा मानना है कि संवाद अपनी जगह महत्त्वपूर्ण और कारगर है, लेकिन चीन की छलवादी फितरत को भी भूला नहीं जा सकता, लिहाजा उसकी हरेक गतिविधि पर ‘आंख’ गड़ाए रखना भी रणनीतिक होगा।
3.दो राज्यों में बजट
देश के दो महत्वपूर्ण राज्य, उत्तर प्रदेश और बिहार में वार्षिक बजट पेश कर विकसित भविष्य की ओर बढ़ने का संकल्प दोहराया गया है। इन दोनों राज्यों के बजट का विशेष महत्व है, क्योंकि ये दोनों राज्य न केवल राजनीतिक, बल्कि आर्थिक रूप से भी पूरे देश को शायद सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। दोनों की ही गिनती अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में होती है और दोनों ही प्रदेशों से रोजगार की तलाश में युवाओं को घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ता है। पहली नजर में देखा जाए, तो उत्तर प्रदेश में जहां मूलभूत ढांचा विकास पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया गया है, वहीं बिहार का बजट विशेष रूप से बालिका व महिला विकास की दृष्टि से बहुत आशा जगाता है। दोनों के बजट आकार की तुलना करें, तो बिहार का बजट उत्तर प्रदेश के बजट की तुलना में करीब 40 प्रतिशत ही है। उत्तर प्रदेश का बजट पांच लाख पचास हजार दो सौ सत्तर करोड़ अठहत्तर लाख रुपये का है, तो वहीं बिहार का बजट दो लाख अठारह हजार तीन सौ तीन करोड़ रुपये का है। आबादी के अनुपात के हिसाब से बजट का अनुपात सही है। हालांकि, दोनों राज्यों में विगत दशकों में यदि दक्षिणी राज्यों जैसी तरक्की होती, तो बजट कई गुना ज्यादा का होता। खैर, इन राज्यों के बजट से पता चलता है कि दोनों को अभी विकास की राह पर बहुत आगे जाना है। उत्तर प्रदेश का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री सुरेश खन्ना ने किसानों का भी पूरा ध्यान रखा है, तो अचरज नहीं। किसानों को मुफ्त पानी के लिए 600 करोड़ रुपये और सस्ते ऋण के लिए 400 करोड़ रुपये आवंटित किए जाएंगे। कानपुर, गोरखपुर और वाराणसी में भी मेट्रो दौडे़गी। दिल्ली-मेरठ रैपिड रेल के लिए 1,326 करोड़ रुपये का आवंटन विशेष रूप से ध्यान खींचता है। एयरपोर्ट और एक्सप्रेस वे के लिए भी बजट आवंटन स्वागतयोग्य है। टीकाकरण के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। संभव है, उत्तर प्रदेश सरकार बजट से परे भी आने वाले दिनों में मुफ्त टीकाकरण की घोषणा करेगी। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं और चुनाव का असर बजट पर भी दिख रहा है। सरकार मूलभूत ढांचा विकसित करके निवेश आमंत्रित करना चाहती है, ताकि प्रदेश में रोजगार बढ़े। दूसरी ओर, बिहार में नई सरकार का यह पहला बजट है, जिसे उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री तारकिशोर प्रसाद ने पेश किया है। यहां ज्यादा जोर गांवों, महिलाओं और कौशल विकास पर है, तो इसकी जरूरत कोई भी समझ सकता है। 12वीं पास करने वाली अविवाहित लड़कियों को सरकार 25,000 रुपये देगी और स्नातक होने पर 50,000 रुपये। इसके अलावा महिलाओं को पांच लाख रुपये तक का ब्याज मुक्त ऋण भी मिल सकेगा। महिला उद्यमिता के विकास के लिए यह बड़ी पहल है। बिहार में लड़कियों, महिलाओं के सशक्तीकरण के जरिए समाज बदलने की कवायद विगत कुछ वर्षों से जारी है, इसे ईमानदारी से आगे बढ़ाना चाहिए। बाहर काम करने वाले बिहारियों का पंचायतवार डाटा भी बहुत जरूरी है, ताकि जरूरतमंदों को स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराया जा सके। बिहार सरकार के सात निश्चय भाग-दो, लिंक रोड और डेयरी विकास के प्रयासों से भी जमीनी बदलाव आएगा। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार। आज युवाओं व आम लोगों की सबसे बड़ी आकांक्षा यही है।
4. फिर बढ़ता कोरोना
भारी पड़ती लापरवाही
वैश्विक महामारी कोरोना के भारत में फिर से बढ़ते नये मामले बताते हैं कि बार-बार आगाह किये जाने के बावजूद बढ़ती लापरवाही भारी पड़ रही है। पिछला साल जानलेवा कोरोना की दहशत के साये में गुजारने के बाद नये साल के साथ, जरूरी सावधानी तथा वैक्सीन की उपलब्धता के चलते, सकारात्मक संकेत मिले थे। घटते दैनिक कोरोना मामलों ने इन संकेतों को उत्साहवर्धक बनाया। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कोरोना नियंत्रण के लिए लागू कड़े प्रतिबंध भी इस बीच धीरे-धीरे हटाये जाते रहे। हालांकि यूरोप समेत विदेशों में कोरोना के नये स्ट्रेन मिलने के चलते बार-बार विश्व स्वास्थ्य संगठन और सरकार द्वारा लोगों को आगाह किया जाता रहा कि मास्क पहनने, बार-बार हाथ धोने और दो गज की दूरी के मामले में लापरवाही बरतना अभी भी भारी पड़ सकता है। लगातार कम होते नये कोरोना मामलों में अब पिछले कुछ दिनों से फिर वृद्धि का रुख बता रहा है कि इन चेतावनियों को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया। केरल और महाराष्ट्र में मुश्किल से कोरोना पर काबू पाया जा सका था, अब देश भर के नये कोरोना मामलों में 75 प्रतिशत फिर वहीं से आ रहे हैं। पंजाब में भी नये कोरोना मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी नये कोरोना मामलों में वृद्धि के आंकड़े बताते हैं कि कोरोना से बचाव के लिए जरूरी सावधानी बरतने में लापरवाही बढ़ रही है, वरना लगातार गिरते नये मामलों में दोबारा से उछाल का और कोई कारण नजर नहीं आता। यह वाकई चिंताजनक है कि जिस महामारी की दहशत के साये में लगभग पूरे विश्व को ही पिछला साल गुजारना पड़ा, अब हम उससे बचाव के लिए सहज-सुलभ सामान्य उपाय भी करने में कोताही बरत रहे हैं।
बेशक कोरोना काल में ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था के मद्देनजर सरकारी तंत्र और आम आदमी की अपनी बाध्यताएं हैं कि घर से निकल कर जीवन को फिर से पटरी पर लाया जाये। लंबे लॉकडाउन के बाद खुद प्रधानमंत्री ने कहा था कि जान के साथ जहान बचाना भी जरूरी है, लेकिन उसका अर्थ यह हरगिज नहीं था कि कोरोना से बचाव के सामान्य, मगर जरूरी उपायों में असावधानी बरती जाये। कटु सत्य यही है कि अनलॉक प्रक्रिया के समय से ही कोरोना प्रोटोकॉल के पालन में हर स्तर पर लापरवाही दिखायी पड़ती रही है। आम आदमी दिनचर्या में कोरोना से बचाव के उपायों के प्रति लापरवाह हुआ है तो हमारे राजनेता, खासकर चुनावी सक्रियता में, कोरोना के खतरे को धता बताते हुए जनसाधारण के समक्ष बेहद गैर जिम्मेदार और नकारात्मक उदाहरण पेश करने के दोषी हैं। मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन से लेकर बिहार में चुनाव और अब बंगाल में चुनाव की तैयारियों में जुटे राजनेताओं-कार्यकर्ताओं को देख कर नहीं लगता कि उन्हें कोरोना संकट के मद्देनजर अपनी जिम्मेदारियों का तनिक भी अहसास है। प्रभावशाली लोगों के निजी और सार्वजनिक आयोजनों में कोरोना प्रोटोकॉल के पालन के प्रति सरकारी तंत्र भी आंखें मूंद लेता है। यह भी लापरवाही का ही नतीजा है कि दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और ब्रिटेन में मिले नये कोरोना स्ट्रेन से संक्रमित लोग भारत पहुंच चुके हैं। ब्रिटेन में मिले नये स्ट्रेन से प्रभावित मरीजों की संख्या तो भारत में लगभग 200 है। माना कि कोरोना से बचाव के लिए वैक्सीन आ गयी है और वैक्सीनेशन भी तेजी से चल रहा है, लेकिन वैक्सीन के असर और उसकी अवधि की बाबत अभी भी कुछ दावे से नहीं कहा जा सकता। उधर साइड इफेक्ट्स की आशंकाएं स्वास्थ्यकर्मियों में भी देखी जा सकती हैं। ऐसे में कोरोना से बचाव का सबसे आसान और कारगर उपाय यही है कि हम मास्क पहनें, बार-बार हाथ धोयें तथा दो गज की दूरी का पालन करें, वरना जैसा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने राज्य को चेताया है : लॉकडाउन की वापसी के लिए तैयार रहें। फैसला हमें खुद करना है।