इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.जिंदगी की भारतीय खुराक
भारत में एक नया सूर्योदय हुआ है, लिहाजा महामारी का खौफनाक अंधेरा भी छंटने लगेगा। कोरोना वायरस की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया के सबसे बड़े और व्यापक टीकाकरण का शुभारंभ किया। देशवासियों को स्वस्थ होने की शुभकामनाएं दीं और टीके की बधाइयां भी साझा कीं। देश के 3352 केंद्रों में 1.91 लाख से अधिक लाभार्थियों को टीके की खुराक दी गई। हालांकि लक्ष्य 3 लाख को टीका लगाने का तय किया गया था, लेकिन यह भी विश्व कीर्तिमान है। दुनिया के तमाम बड़े देश भी एकदिनी उपलब्धि के संदर्भ में भारत से पीछे हैं। इस खुराक की तुलना ‘संजीवनी’ से की जा सकती है। यकीनन यह राष्ट्रीय उत्सव का दिन है।
एक शानदार उपलब्धि भी भारत के साथ जुड़ गई है, क्योंकि दो-दो ‘मेड इन इंडिया’ टीके हमारे सामने हैं, लिहाजा कोरोना टीके के संदर्भ में भी हम आत्मनिर्भर साबित हुए हैं। एक मायने में टीकाकरण अभियान हमारे वैज्ञानिकों और चिकित्सकों के प्रति राष्ट्रीय आभार और आदर की अभिव्यक्ति है। चेहरों पर उल्लास और गर्व के भाव दिखाई देते रहे, क्योंकि वैश्विक महामारी के खिलाफ जंग की निर्णायक शुरुआत हुई है। लेकिन निराशा और क्षोभ भी होता है, जब ऐसे पुनीत अवसर पर कुछ ‘काली भेड़ों’ ने कोरोना टीके पर सवाल किए हैं, टीका न लेने का दुष्प्रचार किया है, भ्रांतियां फैलाने का सिलसिला जारी है और एक वाहियात, कुतर्की सवाल पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को टीके क्यों नहीं लगाए गए हैं? इस सवाल का जवाब देश जानता है। हमें कुतर्क का हिस्सा बनने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। बेशक सवाल करना भी लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन फिलहाल मौका चुनाव का नहीं है। आम दिनचर्या अथवा विमर्श का मौका भी नहीं है। सवाल, सरोकार और चिंता इनसानी जिंदगी की है। बीता करीब एक साल कैसा गुज़रा है, हरेक देशवासी को उसका एहसास है। कोरोना वायरस से एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हुए हैं और अब भी सिलसिला जारी है। मौतें भी 1.52 लाख से ज्यादा हो चुकी हैं। ये कोई सामान्य आंकड़े नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी अब भी हमारे सामने है। हम एक और यातनापूर्ण साल देखने और झेलने को तैयार नहीं हैं। इतनी क्षमता भी शेष नहीं है। देश की जो पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक इकाइयां टूटती रही हैं, अब वे बिखर कर खो भी सकती हैं। बेशक एक करोड़ से अधिक लोग स्वस्थ होकर अपने घरों को भी लौट चुके हैं, लेकिन उन्हें याद करें, जिन्हें महामारी ने बिल्कुल अकेला कर दिया था, जो अस्पतालों से लौट कर घर को नहीं आ सके, जिनके शव अस्पताल के गलियारों में पड़े सड़ते रहे और जिनका विधिवत अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका। कोरोना टीके की खुराक उन त्रासद परिस्थितियों के खिलाफ ‘जिंदगी की खुराक’ की शुरुआत है। उस पर सवाल करने या बहिष्कार करने से हासिल क्या होगा? वोट भी नहीं मिलेंगे! टीके लगने के बाद अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी सरीखे विकसित देशों में भी अनहोनियां हुई हैं।
मौतें भी हो रही हैं, लेकिन जिंदगी की राहत-भरी छांव भी बेहद लंबी है। भारत में कोरोना टीकाकरण का एक दौर समाप्त हुआ, लेकिन कोई त्रासद घटना नहीं हुई है। कुछ सामान्य और विपरीत हालात जरूर सामने आए हैं, लेकिन उन्हें गंभीर नहीं माना जा सकता। दुनिया के विख्यात वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि टीका लगने के बाद हल्का बुखार, सिरदर्द, थकान, चक्कर आना, उलटी होना, टीके के स्थान पर ललाई और सूजन आदि साइड इफेक्ट के मायने हैं कि टीके ने शरीर में इम्यून सिस्टम के तार छेड़ दिए हैं। वायरस से लड़ने की शुरुआत हो चुकी है। ये लक्षण कोरोना टीके के फीचर हैं, गुण हैं, टीके की नाकामी नहीं मान सकते। हैरत तब हुई, जब राजधानी दिल्ली के सरकारी राममनोहर लोहिया अस्पताल के डाक्टरों ने ही भारत बायोटेक का ‘को-वैक्सीन’ टीका लगवाने का विरोध किया, क्योंकि उसके तीसरे चरण के इनसानी परीक्षण अभी जारी हैं। यह बेबुनियादी भ्रांति है। दुनिया के 123 देशों में टीके सप्लाई करने वाली कंपनी का ‘को-वैक्सीन’ पूरी तरह भारतीय टीका है, जिसके करीब 30,000 लोगों पर परीक्षण किए जा चुके हैं। यह टीका 12 राज्यों में लगाया गया है। आज तक एक भी त्रासद घटना दर्ज नहीं की गई है। भारत दुनिया के 60 फीसदी से अधिक टीकों का निर्माण करता है। करीब 100 देश भारत के मुखापेक्षी हैं कि उन्हें भी कोरोना टीका मुहैया कराया जाए। अभी तो टीकाकरण का दौर बेहद लंबा चलना है। अभी से देश के भीतर टीकों पर ही सवाल किए जाते रहेंगे, तो भारत की दुनियावी छवि का क्या होगा?
2. फैसलों की कतार में छात्र
यह पहली बार नहीं हो रहा, बल्कि हिमाचल में स्कूल-कालेज खोलने का फैसला उस आत्मविश्वास से लबरेज है जो एक हाथ में वैक्सीन की डोज पकड़े है, तो दूसरे में कोरोना से सुधरते आंकड़ों का हिसाब। छुट्टियों के माहौल के बाहर फिर से स्कूल-कालेज में कदम धरने का सबब बनकर हिमाचल मंत्रिमंडल का फैसला आ रहा है। इस बार छात्र संख्या व कक्षाओं की शुमारी बढ़ रही है यानी स्कूल के दरवाजे पांचवीं, आठवीं से 12वीं कक्षा तक खुल कर उन तमाम वर्जनाओं को तोड़ रहे हैं जिनसे आजिज ऑनलाइन पढ़ाई कहीं दुबक गई है। जाहिर है ऐसे फैसलों की प्रतीक्षा में कुछ छात्रों के सवाल भी रहे हैं और कोरोना को अलविदा कहने का अंदाज भी। स्कूल-कालेजों का खुलना अपने आप में सामाजिक आत्मबल का परीक्षण है और शिक्षा की तमाम गतिविधियों का असर बाजार और व्यापार पर भी रहेगा। खास तौर पर राज्य की परिवहन व्यवस्था में ऐसे आदेश की सूचना इससे जुड़े अर्थ तंत्र को फिर से सांसें दे सकती है। जाहिर है बंधे हाथ खोलकर शिक्षा विभाग को अपने खोए हुए सत्र को पटरी पर लाने का कुछ अवसर मिल रहा है, लेकिन अभी स्थितियां न तो सामान्य बर्ताव करेंगी और न ही शिक्षण परिसर के भीतर छूट मिलेगी। तमाम चुनौतियों के भीतर शिक्षा केवल अपने मायनों का बचाव कर सकती है, जबकि लक्ष्यों की इबारत पूरी तरह लिखने के लिए अभी और इंतजार करना पड़ेगा। हिमाचल सरकार सभी प्रकार के समारोहों में भीड़ के दायरे को पचास से बढ़ा कर दो सौ कर रही है। कोविड काल के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अनुभव को देखते हुए ऐसी छूट के मायने सभी प्रकार के आंकड़ों की निगरानी है। स्थानीय निकाय चुनावों के दौर से गुजरते हुए पचास लोगों की भीड़ को दो सौ की सीमा तक बढ़ा कर सरकार ने राजनीतिक जश्न के पैमाने बदले हैं।
जैसा कि अतीत में देखा गया है और कोरोना काल के बनते-बिगड़ते का अवलोकन करें, तो सारे खतरे भीड़ के निरंकुश इरादों ने ही पैदा किए। भीड़ शादियों में रही हो या सियासी संगत में खड़े होने की चाह रही हो, कोरोना संक्रमण की कहानियों में यही मंजर खलनायक साबित हुआ है। ऐसे में छूट के तमाम तरानों के बीच अभी भी जिंदगी की बेबसी आजाद नहीं हुई है और इसलिए सरकार को सुरक्षा चक्र की अपरिहार्यता के बीच अपने इंतजाम पुख्ता रखने होंगे। चिकित्सा क्षेत्र में चार मेकशिफ्ट अस्पतालों की जिम्मेदारी में कोविड निगरानी के नए मजमून तैयार हैं, तो प्रदेश के दो जोनल अस्पताल फिर से सामान्य मरीजों की पर्ची पर काम करेंगे। यानी अब कोरोना संकट के साये से दूर हटकर चिकित्सा व शिक्षा अपने स्वाभाविक दायित्व की तरफ लौटने का सामर्थ्य जुटा रही है। मंत्रिमंडल ने कई रूटीन के फैसले भी लिए हैं, लेकिन प्रदेश की दृष्टि से पुनः दूर तक देखने की कोशिश हो रही है। यह अलग तरह की समीक्षा को निमंत्रण दे रहा है और समाज को एक नई परीक्षा में उतार रहा है। कितनी तीव्रता से स्थितियां सामान्य होती हैं, इस तथ्य पर निर्भर रहेगा कि कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण किस शिद्दत से हो रहा है। सुरक्षा चक्र पहले भी तोड़े गए और उनका हर्जाना भरना पड़ा, अब भी माहौल की सरगर्मियां अगर छूट के दायरों पर निरंकुश हुईं, तो कोविड का व्यवहार खतरे ही बढ़ाएगा। ऐसे में भले ही बसों के जरिए दिल्ली दूर नहीं है या स्कूल से छात्र दूर नहीं है, लेकिन अभी कोरोना हमसे दूर नहीं गया है।
अभिभावक और प्रशासन की जिम्मेदारियों में स्कूलों को अब नए आदर्श स्थापित करने हैं। यह महज शिक्षा के उद्देश्यों की वापसी या वार्षिक परीक्षाओं की तैयारी नहीं, बल्कि राष्ट्र के आत्मविश्वास की ऐसी प्रयोगशाला सरीखा कर्त्तव्य है जो देश को फिर से चलना सिखाएगा। छात्र समुदाय के भीतर संकल्पों के विराम तोड़ना या जिंदगी के एहसास में लौटना, एक अद्भुत पारी की तरह है। ऑनलाइन पढ़ाई या कालेज-विश्वविद्यालय परिसर से खारिज चिंतन-मनन की फिर से स्थापना, मात्र एक घटना भर नहीं, बल्कि नए लक्ष्यों की उड़ान है। यह फैसले राज्य की परिधि तक ही महफूज नहीं, बल्कि अंतरराज्यीय व राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे ऐसे फैसलों की कतार में हिमाचली छात्रों के वजूद पर असर पड़ेगा। कितनी ही प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम इसलिए ठिठक गए कि कहीं शिक्षा परिसर के गेट बंद थे। अब राष्ट्रीय स्तर पर छात्र समुदाय को मिल रहा नया निमंत्रण पूरे देश की सोहबत बदलेगा। जिस कोरोना संकट ने छात्रों को घर बिठाया, उसके खिलाफ अब छात्र फिर से देश को सामान्य हालात का परिचय देंगे।
3.सेहत का सवाल
कोरोना और लॉकडाउन की वजह से जब दुनिया भर में लोग ज्यादा से ज्यादा समय घर में बिताने को तरजीह दे रहे हैं, तब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सच्चाई को हमारे सामने रखकर न सिर्फ हमें सचेत किया है, बल्कि आगे का सही रास्ता भी दिखाया है। आज शारीरिक के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी खतरे मंडरा रहे हैं। ऐसे में, यह जरूरी है कि शारीरिक गतिविधियों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि शारीरिक गतिविधियों को अगर अपेक्षा अनुरूप रखा जाए, तो दुनिया में हर साल होने वाली 40 से 50 लाख मौतों को टाला जा सकता है। मोटे तौर पर दुनिया में हर डेढ़ सौ इंसानों में से एक की जिंदगी शारीरिक गतिविधियों के अभाव की वजह से खतरे में पड़ती है। खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान बताता है कि दुनिया में 27.5 प्रतिशत वयस्क और 81 प्रतिशत किशोर शारीरिक गतिविधियों के पैमानों पर खरे नहीं उतरते हैं, अर्थात इतने लोग अपने शरीर को उतना नहीं चलाते हैं, जितना कि चलाना चाहिए। विगत एक दशक में इस मोर्चे पर कोई अंतर नहीं आया है। लोग अपने स्वास्थ्य या शारीरिक गतिविधियों की जरूरत को लेकर सजग नहीं हो रहे हैं।
ताजा दिशा-निर्देशों के अनुसार, 5 से 17 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रतिदिन कम से कम 60 मिनट की मध्यम से तीव्र शारीरिक गतिविधि करनी चाहिए। इसमें एरोबिक गतिविधियों के साथ-साथ मांसपेशियों और हड्डियों को मजबूत करने की गतिविधि भी जरूरी है। यदि इस उम्र के लोग जरूरत भर का व्यायाम या कार्य कर लें, तो उनका शरीर मजबूत हो सकता है। उनका हृदय, रक्तचाप, ग्लूकोज, अस्थियां, मन-दिमाग, शैक्षणिक प्रदर्शन सुधर सकता है। कोरोना के समय हमने देखा है, बच्चों की गतिविधियां मोबाइल या स्क्रीन तक सिमट रही हैं। अभी आंकड़े नहीं आए हैं, पर आने वाले महीनों में मोटापे व विभिन्न रोगों के आंकड़े भी जारी होंगे और हमें पता चल सकेगा कि कोरोना या लॉकडाउन ने हमें कितना नुकसान पहुंचाया है। 18 से 64 वर्ष की आयु के वयस्कों को कम से कम तीन से पांच घंटे की मध्यम-तीव्रता वाली एरोबिक गतिविधि या हर हफ्ते कम से कम 75-150 मिनट की जोरदार तीव्रता वाली एरोबिक गतिविधि करनी चाहिए। मांसपेशियों केलिए व्यायाम भी सप्ताह में दो या अधिक दिन करने की सिफारिश की जाती है। दिशा-निर्देशों में साफ कहा गया है कि वयस्कों में गतिहीन व्यवहार से हृदय रोग, कैंसर और टाइप-2 मधुमेह की आशंका बढ़ सकती है। 65 से ज्यादा उम्र के लोगों को अपनी जरूरत और क्षमता के लिहाज से गतिविधियां करने की सिफारिश की गई है, तो इसे समझा जा सकता है। यह भी गौर करने की बात है कि लड़कियां और महिलाएं अपेक्षाकृत कम सक्रियता दिखा रही हैं। हर परिवार और संस्थान को शारीरिक गतिविधियां बढ़ाने के उपाय करने चाहिए। भारत सहित ज्यादातर देशों में स्वास्थ्य को निजी मामला मान लिया जाता है, जबकि यह विषय पूरे समाज-देश से जुड़ा है। क्या जब कोई बीमार पड़ता है, तो अनगिनत लोगों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है? एक बीमार आदमी भी सबकेतन, मन और धन को नुकसान पहुंचा सकता है। अत: बीमारियों से बचने के लिए सभी को मिलकर आगे आना होगा, तभी हमारी गतिशीलता बढ़ेगी और हम ज्यादा सेहतमंद रहेंगे।
4. कामयाबी की वैक्सीन
मंजिल दूर मगर उत्साहित है देश
बीते साल की तमाम मुश्किलों-त्रासदियों के बाद जब शनिवार को कोरोना संक्रमण के खिलाफ टीकाकरण अभियान की शुरुआत हुई तो कई जगह उत्सव जैसा माहौल था। देश के तीन हजार के लगभग केंद्रों पर दो लाख के करीब अग्रिम योद्धाओं को कोविड-19 की वैक्सीन दी गई। कुल मिलाकर कार्यक्रम संतोषजनक रहा और बड़ा नकारात्मक पहलू सामने नहीं आया। निस्संदेह दुनिया के चंद चोटी के देशों में वैक्सीनेसशन की शुरुआत हो पायी है। उनमें हमारा शामिल होना हर भारतीय के लिये गर्व की बात है। इस मायने में भी कि प्रयोग की जा रही दोनों वैक्सीनों का निर्माण भारत में ही हुआ है। दुनिया को साठ फीसदी वैक्सीन की आपूर्ति करने वाले देश में अपनी वैक्सीन पर भरोसा किया जा सकता है। आज तमाम विकासशील और पड़ोसी मुल्क वैक्सीन की उम्मीद को लेकर भारत की ओर देख रहे हैं। निस्संदेह वैक्सीनों को लेकर कुछ लोगों के मन में शंकायें भी थीं। इसके जहां राजनीतिक कारण हैं वहीं कुछ तथ्यात्मक शंकायें भी हैं। भारत बायोटैक के टीके के अंतिम चरण के परीक्षण परिणामों के सामने न आने की वजह से सवाल उठाये जा रहे हैं। निस्संदेह, इन वैक्सीनों को अनुमति आपातकालीन प्रावधानों के तहत दी गई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत बायोटैक पिछले 24 सालों से वैक्सीन बना रही है। इसने अब तक 16 वैक्सीन बनायी हैं और दुनिया के 123 देशों को निर्यात किया है। देश की ड्रग कंट्रोलर ने जांच के बाद ही अनुमति दी है।
हम यह न भूलें कि भारत अमेरिका के बाद सबसे अधिक संक्रमित होने वाले देशों में था। देश में एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हुए और डेढ़ लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई। ऐसे में देश में निर्मित वैक्सीन का एक साल के भीतर बनना और उसका प्रयोग होना बड़ी उपलब्धि ही कही जायेगी। वहीं कतिपय राजनीतिक दलों के नेता कह रहे हैं कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को पहले टीकाकरण करवाना चाहिए था ताकि लोगों का इस अभियान में विश्वास बढ़े। कुछ लोग इसे बड़ा इवेंट मैनेजमेंट बनाने को लेकर सवाल खड़े करते रहे हैं। कुछ राज्यों ने वैक्सीन कार्यक्रम के लिये बनायी गई को-विन ऐप की उपादेयता को लेकर सवाल उठाये, जिससे महाराष्ट्र में टीकाकरण कार्यक्रम प्रभावित हुआ। हालांकि सरकार ने स्पष्ट किया है कि किसी पर टीका लगाने के लिये दबाव नहीं बनाया जायेगा। इतना जरूर कहा है कि शरीर में एंटीबॉडी विकसित होने के लिये वैक्सीन की दो डोज लेना अनिवार्य होगा। साथ ही किन रोगियों को ये वैक्सीन नहीं लेनी है, इस बाबत दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। इसके साथ ही कुछ समय तक संक्रमण से बचाव के परंपरागत तरीके अपनाने की भी सलाह दी गई है। बहरहाल, महीनों की हताशा और भय के बाद देश में टीकाकरण अभियान का आरंभ होना सुखद ही है। सवा अरब से अधिक जनसंख्या का टीकाकरण करना निस्संदेह एक बड़ी चुनौती होगी, लेकिन अच्छी शुरुआत किसी अभियान की सफलता की राह तो निर्धारित करती है।