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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.आर्थिक स्थिति के सुराख

यह केवल विधानसभा सत्र में सूचनाभर नहीं, बल्कि गिरते हिमाचली आचरण की तस्वीर हो सकती है या हमारी कार्यप्रणाली के भीतरी सुराख भी देखे जा सकते हैं। विद्युत आपूर्ति के हिमाचली शिलालेखों के बीच बिल न भरने की शिकायतें अगर चार सौ चौबीस करोड़ के भुगतान की कुंडली है, तो प्रश्न किसी ढाबे के भुगतान का नहीं, बल्कि प्रदेश की आर्थिक स्थिति के सुराख की तरह उस निकम्मेपन का जिक्र भी है जो समाज की संरचना में ही भ्रष्टाचार के पैबंद लगा रहा है। दरअसल हिमाचली समाज का एक पक्ष अब राज्य के संसाधनों को हथिया कर इतना बलशाली हो चुका है कि न सत्ता और न ही विपक्ष के पास इन्हें साधने का कोई समाधान है। हिमाचल में एक ऐसी सोच व आवश्यकताओं की आपूर्ति में सरकारी कारगुजारी को सींचा गया कि अब निजी सपनों का भी राष्ट्रीयकरण हो गया है। बच्चे को पढ़ाई करवाते अभिभावक अपने मंतव्य के प्रकाश में सरकार से नौकरी की गारंटी चाहते हैं, तो हर सामाजिक या सामुदायिक कर्त्तव्य में भी सार्वजनिक हिस्सेदारी चाहते हैं। प्रदेश के होने का अर्थ जनता के वजूद को सार्वजनिक धन से पूजने का है, इसलिए सरकारी तंत्र भी एक खास ढर्रे का फकीर है।

 विद्युत आपूर्ति के पन्नों पर 424 करोड़ का बकाया साबित करता है कि सरकार के कर्त्तव्य को ठेंगे पर लेने वालों की तादाद बढ़ रही है, जबकि राज्य अपने संसाधनों की बढ़ोतरी में आवाम को नाराज नहीं करना चाहता। इसके विपरीत निजी क्षेत्र को भी ऐसे खूंटे से बांधने की कोशिशें जारी हैं, ताकि जनता को सेवाओं के भुगतान में कोई ठेस न लगे। कोरोना काल के दौरान निजी स्कूलों पर सरकारी नियमों के हथकंडे परोसने के लिए सरकार इसलिए आतुर दिखी, क्योंकि उसे लगता है कि अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग कहीं राजनीतिक जरूरत से छिटक कर पूरे शिक्षा विभाग की तस्वीर ही न बदल दे। लिहाजा शिक्षण संस्थान विनियामक कानून में ऐसा बीज डालने के प्रयत्न जारी हैं कि कल निजी शिक्षण संस्थानों को फीस के भिखारी बना दिया जाए। यह कैसे संभव है कि निजी क्षेत्र अपनी गुणवत्ता को सरकारी कानूनों की कलम से लिखे और यह सुनिश्चित करे कि उसके दायरे में सरकार को शाबाशियां मिलें। विडंबना यह है कि अपने स्कूलों की प्रासंगिकता व उपादेयता खो चुकी सरकार अब यह चाहती है कि उसके हुक्म से निजी स्कूल भी फीस के भिखारी बन जाएं। सरकार अपने तौर पर यह सुनिश्चित करके देखे कि तमाम सरकारी स्कूलों के अध्यापक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में न पढ़ाएं। क्या ऐसा कानून बनाने की जरूरत नहीं जो सरकारी स्कूलों से दूर होते सरकारी अध्यापक अभिभावकों में नैतिक आचरण की शर्तें लागू कर सके।

 यह लगभग हर क्षेत्र में हो रहा है। एचआरटीसी के सामने निजी बसों के खिलाफ खडे़ विभागीय कौशल की तारीफ करें या यह कबूल करें कि निजी बसें न होतीं, तो परिवहन का हिमाचली मॉडल कितना लापरवाह व खर्चीला होता। पर्यटन निगम के होटलों की अमानत से क्या हम सैलानियों को संतुष्ट कर पाए और अगर यही मापतोल लागू हो जाए, तो कौन निवेश करेगा। ऐसे में विद्युत आपूर्ति का ढंग और ढर्रा बदलने की जरूरत को समझना होगा कि ऐसी नौबत क्यों आई कि उपभोक्ता ही गिरेवां पकड़ रहा है। मुफ्त के ढकोसलों में हिमाचल ने आत्मनिर्भरता के आरंभिक कदम ही गिरवी रख दिए। कर्ज की हर तह के नीचे कार्यसंस्कृति तो छिपाई जा सकती है, लेकिन कराहती अर्थ व्यवस्था को अपंग बना देने से अंततः चलेगा कौन। विडंबना भी यही है कि अति सरकारवादी रुख ने न केवल समाज की क्षमता को क्षीण किया, बल्कि उन संभावनाओं को भी रौंद दिया जो प्रदेश की आर्थिक व्यवस्था की अनिवार्यता में अहम भूमिका निभा सकती थीं। प्रदेश ने आजतक आर्थिक सुधारों को अपराध माना और प्रशासनिक सुधारों को भी अमलीजामा न पहनाकर सरकारी खर्चों में कटौतियां नहीं कीं। औकात भले ही गुड़ की चाय पीने की न हो, लेकिन प्रदेश ने जनता की उत्कंठा को शहद पिला-पिला कर यह अंतर ही खत्म कर दिया कि उधार का बोझ अंततः आत्मघाती साबित होगा। विद्युत आपूर्ति के लिहाज से अगर कोई निजी कंपनी होती, तो शायद ही 424 करोड़ की नालायकी चस्पां होती और यही मंजर प्रदेश के कई बोर्ड व निगमों के औचित्य को खारिज कर चुका है।

  1. गलती के पीछे, गलती के आगे

आज आपातकाल प्रासंगिक नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में दर्ज वह ऐसा काला, डरावना और अलोकतांत्रिक कालखंड है, जिसे याद भी नहीं करना चाहिए। उस कालखंड और तानाशाही को पराजित करने के मायने ‘दूसरी स्वतंत्रता’ से कम नहीं हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकार छिन गए थे। संविधान और न्यायपालिका को लगभग ‘बंधक’ बना लिया गया था। दुर्भाग्य से जो नागरिक जेलों में कैद थे, उनकी पेशी और जमानत के अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अवैध और असंवैधानिक तरीकों से करीब 11 लाख विरोधियों, पत्रकारों, बौद्धिकों, इतिहासकारों आदि को जेलों में ठूंस दिया गया। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और अटलबिहारी वाजपेयी भी उनमें शामिल थे। कमोबेश 19 माह का कारावास तो झेलना पड़ा। पुरुषों की जबरन नसबंदी कराई गई, बेशक जनसंख्या नियंत्रण की दलीलें दी गईं। सभी चुनाव स्थगित कर दिए गए। यानी लोकतंत्र ठप…! भारतीय प्रेस परिषद सरीखी संवैधानिक संस्थाओं को भंग कर दिया गया।

 मीडिया पर पहरे बिठा दिए गए। जिन्होंने तानाशाही के सामने घुटने टेक दिए थे, उन्हें भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री से अख़बार की सामग्री पर हरी झंडी लेनी पड़ती थी। जो आपातकाल के खिलाफ  तने और डटे रहे, उनके दफ्तरों की बिजली काट दी गई। फिर भी अन्वेषी मस्तिष्क ने रास्ता खोज लिया और टै्रक्टर के जरिए प्रिंटिंग मशीन चलाकर अख़बार छापा गया। आपातकाल के विरोध में अख़बारों ने पहला पन्ना ‘काला’ छापा और संपादकीय पृष्ठ को खाली ही रखा गया। उस लोकतांत्रिक विरोध ने आपातकाल के तानाशाहों को भी कंपा दिया था। जिन्होंने वह बर्बर और तानाशाह दौर देखा और झेला था, उनमें लालकृष्ण आडवाणी, नीतीश कुमार, सुशील मोदी और लालू प्रसाद यादव, बुजुर्ग पत्रकार मनमोहन शर्मा सरीखे कई चेहरे आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। वे कहानियां सुनाते रहे हैं कि किस तरह 25 जून, 1975 की आधी रात में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सोते हुए राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद को जगाया था और आपातकाल के सरकारी दस्तावेज पर हस्ताक्षर कराए थे। बहरहाल आपातकाल 21 मार्च, 1977 को समाप्त किया गया। उसके बाद संपन्न चुनावों में नवगठित जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनी और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री चुने गए। इंदिरा गांधी कुछ वक्त के लिए अप्रासंगिक हो गईं, लेकिन 1980 तक जनता पार्टी सरकार के अंतर्विरोध और नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं सतह पर आने लगीं। विभाजन हुआ और चौ. चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। सरकार को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया। चरण सिंह ऐसे प्रधानमंत्री साबित हुए, जो संसद में प्रवेश नहीं कर सके। कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति तब बेनकाब हुई, जब कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। सरकार का पतन हुआ और नए चुनावों में देश ने एक बार फिर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को जनादेश दिया।

आज 2021 में, करीब 45 सालों के बाद, आपातकाल का जि़क्र हो रहा है, तो उसकी दो वजह हैं। एक तो हम देश की मौजूदा, युवा पीढ़ी को संक्षेप में बताना चाहते हैं कि आपातकाल दरअसल क्या था। दूसरे इंदिरा गांधी के पौत्र राहुल गांधी ने भी आपातकाल को एक ‘गलती’ माना है। हम आपातकाल को सिर्फ  ‘राजनीतिक गलती’ करार नहीं दे सकते। हालांकि कांग्रेस के भीतर शीर्ष स्तर पर किसी भी नेता ने आपातकाल के लिए देश से ‘सार्वजनिक माफी’ नहीं मांगी है। चूंकि आज के संदर्भ में कई विरोधी नेता प्रधानमंत्री मोदी और उनके शासन को ‘अघोषित आपातकाल’ करार देते रहे हैं। विरोध के लिए कुछ भी बोला जा सकता है, क्योंकि देश में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी का लोकतंत्र है। इंदिरा गांधी ने बुनियादी तौर पर इन्हीं पर पाबंदियां थोपी थीं। उधर कई आलोचक आज के भारत की स्थिति को भी आपातकाल का ही प्रारूप मानते हैं। संवैधानिक संस्थाओं को जिस तरह सरकार हांक रही है, उससे कई आलोचक नाराज हैं। हालांकि यह भी सच है कि हररोज अख़बारों में मोदी-विरोधी संपादकीय भी छपते हैं और टीवी चैनलों की बहस में सरकार को खूब कोसा जाता है। आखिर कितनों पर आपातकाल सरीखे देशद्रोह के केस बनाए जाते हैं? कोई राजनीतिक गलती इतनी भयंकर और क्रूर नहीं हो सकती। वह साजि़शाना रणनीति थी कि देश का लोकतंत्र और संविधान ही बदल दिया जाए। उन योद्धाओं और कुर्बानियों का आभार जताते हैं कि देश बच गया, लिहाजा मौजूदा पीढ़ी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा रखे।

3.हमारे शहरों में जीवन

चमकदार भारतीय शहरों में शुमार बेंगलुरु में जीवन का सबसे सुगम होना जितना सुखद है, उतना ही अनुकरणीय भी। गुरुवार को जारी ‘ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स’ अर्थात सुगम जीवन सूचकांक 2020 में पुणे को दूसरा और अहमदाबाद को तीसरा स्थान मिला है। इस बार देश के 111 शहरों में जीवन की सुगमता का आकलन किया गया। इस आकलन में जीवन की गुणवत्ता, सेवाओं की स्थिति, स्थिरता, आर्थिक क्षमता, प्रशासन, योजना, तकनीक और लोगों की राय को आधार बनाया गया था। दस लाख से ज्यादा आबादी के शीर्ष 10 शहरों में क्रमश: चेन्नई, सूरत, नवी मुंबई, कोयम्बटूर, वडोदरा, इंदौर, ग्रेटर मुंबई भी शामिल हैं। 10 लाख से ज्यादा आबादी के सुगमतम शहरों में उत्तर भारत के शहरों का न होना अगर किसी को चुभता हो, तो आश्चर्य नहीं। हालांकि, 10 लाख से कम आबादी के सुगम शहरों की सूची में शिमला ने शीर्ष पर रहते हुए और गुरुग्राम ने आठवें स्थान पर रहकर उत्तर भारत के मान की रक्षा की है। कुल मिलाकर, 10 लाख से कम आबादी वाले शहरों में भी उत्तर भारत के हमारे शहर पिछड़ गए हैं। साफ है, शहरों के विकास के लिए उपयोगी यह सूचकांक एक मूल्यांकन उपकरण है, जो जीवन की गुणवत्ता व शहरी विकास के प्रयासों का मूल्यांकन करता है। इस सूचकांक में आखिर कहां रह गए हमारे शहर? दिल्ली 13वें स्थान पर रही, तो उत्तर प्रदेश में लखनऊ 26वें, वाराणसी 27वें, कानपुर 28वें, गाजियाबाद 30वें और प्रयागराज 32वें स्थान पर रहा। पटना 33वें स्थान पर रहा, तो रांची 42वें पर। मतलब, उत्तर भारत के ये शहर जीवन की सुगमता के मामले में एक-दूसरे के आसपास ही हैं। रांची के लिए तो विशेष प्रयास की जरूरत है और उस धनबाद के लिए भी, जो 48वें स्थान पर है। यह बात बिल्कुल सही है कि उत्तर भारत के शहरों को आबादी की मार कुछ ज्यादा ही झेलनी पड़ती है और उसी हिसाब से सुविधाओं पर भी असर पड़ता है, लेकिन यह बात प्रथम दृष्टि में ही सही है। जीवन की सुगमता के मामले में जो शहर अव्वल आए हैं, उन पर भी तो आबादी का बोझ है, तो वास्तव में, उत्तर भारत के शहरों के सामने शहरी विकास सीखने के लिए बहुत से पहलू हैं। सूचकांक में इस्तेमाल पैमानों को देखें, तो उत्तर भारत के शहरों की सबसे बड़ी कमी उनकी कमजोर आर्थिक क्षमता है। मिसाल के लिए, देश के शीर्ष शहर बेंगलुरु का आर्थिक क्षमता अंक 78.82 हैै, जबकि रांची का महज 6.88, लखनऊ का 10.05 और पटना का 24.61 है। कमजोर आर्थिक क्षमता संकेत है कि ये शहर न पर्याप्त रोजगार दे पा रहे हैं और न धन-संसाधन के मामले में तेजी से आगे बढ़ पा रहे हैं। पर्याप्त रोजगार सृजन से जीवन का स्तर सुधरता है और शहरों में जीवन आसान भी होता है। गौरतलब बात है कि जीवन की गुणवत्ता में लखनऊ, पटना, रांची भी बेंगलुरु से बहुत पीछे नहीं हैं। कुल मिलाकर, हमारे शहरों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, बुनियादी सेवाओं और आर्थिक क्षमता में सुधार। दिलचस्प बात है कि उत्तर भारत के लोगों की अपने शहरों के बारे में धारणा बहुत अच्छी है, लेकिन लोगों की राय मात्र से हमारे शहर सुगम जीवन सूचकांक में ऊपर नहीं आ जाएंगे। अपने शहर में सबके लिए जीवन को आसान बनाना है, जो हर एक शहरवासी को अपना दायित्व निभाना होगा। 

  1. भरोसे का टीका

आत्मनिर्भरता से वैश्विक कारोबार तक

आखिरकार जिस भारतीय कोवैक्सीन को लेकर जमकर राजनीति की जा रही है, जिसकी उपादेयता पर शक जताया जा रहा था, उसके अंतिम चरण के आंकड़ों ने सभी शंकाएं निर्मूल साबित कर दी हैं। अंतिम नतीजे ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की कोविशील्ड वैक्सीन से बेहतर पाये गये हैं। यह भारत में अब तक का सबसे बड़ा ट्रायल था, जिसने बताया है कि देशकाल-परिस्थिति के चलते  इसके आपातकालीन उपयोग की अनुमति उचित थी। कहा जा रहा था कि जब तक इसके तीसरे चरण के परिणाम नहीं आये हैं तो इसे लगाने की अनुमति क्यों दी जा रही है। कांग्रेस इस मुद्दे पर हमलावर हुई थी और सपा सुप्रीमो ने तो यहां तक कह दिया था कि वे भाजपा की वैक्सीन नहीं लगाएंगे। बहरहाल, अंतिम चरण के आंकड़े राहतकारी हैं। अंतिम आंकड़ों में भारत बायोटेक का स्वदेशी कोरोना टीका 81 फीसदी प्रभावी पाया गया है। निस्संदेह देशवासियों का इसमें भरोसा बढ़ेगा। हालांकि, इससे पहले प्रधानमंत्री ने स्वयं यह टीका लगाकर देशवासियों का भरोसा बढ़ाया था, जिसके बाद देश में टीकाकरण में लोगों की उत्सुकता बढ़ी भी है। अब तो अग्रिम चिकित्सीय परीक्षण के आंकड़े आने के बाद वैश्विक वैक्सीन अभियान में भारत की भूमिका को भी विस्तार मिलेगा। भारत बायोटेक के अनुसार दुनिया के चालीस देशों ने टीके में रुचि दिखायी है।  हैदराबाद की भारत बायोटेक का कहना है कि उसके तीसरे चरण के ट्रायल में कुल 25800 लोग शामिल हुए थे, इस मायने में यह भारत का सबसे बड़ा चिकित्सा परीक्षण था, जिसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से अंजाम दिया गया था। कोवैक्सीन तेजी से उभरते कोरोना के नये रूपों के खिलाफ भी बेहतर प्रतिरोधक क्षमता दर्शा रही है। पहले कंपनी का अनुमान इसके साठ फीसदी प्रभावी होने का था लेकिन परिणाम उम्मीदों से बेहतर आये हैं। पिछले सप्ताह देश में जो एक करोड़ लोगों का टीकाकरण किया गया था, उसमें कुल 11 फीसदी कोवैक्सीन का ही प्रयोग किया गया था। 

बहरहाल, कोवैक्सीन के ट्रायल के अंतिम परिणाम आने से भारत बायोटेक के इरादों को मजबूती मिली है। पूरी तरह स्वदेशी इस टीके की सफलता से विदेशों में इसके कारोबार बढ़ने की उम्मीदें भी जगी हैं। खासकर मित्र देशों से बेहतर संबंध बनाने में इससे मदद मिलेगी। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से विकसित इस टीके की प्रामाणिकता निस्संदेह इन परिणामों से बढ़ी है। इसकी एक वजह यह भी है कि तीसरे चरण में 18 से 98 वर्ष तक के लोगों को शामिल किया गया था, जिसमें ढाई हजार के करीब साठ से अधिक आयु का संवेदनशील वर्ग था, जिसे कोरोना संक्रमण की ज्यादा  आशंका जतायी जाती रही है। अब कंपनी शीघ्र ही अंतिम चरण के आंकड़े सार्वजनिक करेगी। इसके बावजूद हमारी चिंता यह होनी चाहिए कि देश में कोरोना संक्रमण फिर से सिर उठा रहा है। वैक्सीनेशन बढ़ने के साथ ही देश में संक्रमण के आंकड़े बढ़ रहे हैं। बुधवार को उपलब्ध आंकड़ों में 24 घंटों में 18 राज्यों में कोरोना से ठीक होने के मुकाबले संक्रमित होने वालों की संख्या अधिक थी। इनमें भी संक्रमित होने वालों की सबसे बड़ी संख्या महाराष्ट्र की रही।  वहां 18 अक्तूबर के बाद पहली बार नौ हजार से अधिक लोग कोरोना संक्रमण से ग्रस्त पाये गये। बुधवार को देश में 17,425 कोरोना के रोगी मिले और चौदह हजार ठीक हुए तो 87 लोगों की मृत्यु हुई, जिसका साफ संकेत है कि संकट टला नहीं है और किसी भी तरह की ढिलाई घातक साबित हो सकती है। सार्वजनिक जीवन में शारीरिक दूरी और मास्क का अनुपालन जरूरी है। इस दौरान होने वाले कि्रकेट व अन्य मैचों के दौरान दर्शकों की संख्या को नियंत्रित करने की जरूरत महसूस की जा रही है। खासकर जिन चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, वहां राजनीतिक कार्यक्रमों में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है। खासकर यह जानते हुए कि देश में 1.11 करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और डेढ़ लाख से अधिक लोग जीवन गंवा चुके हैं। यह सुखद है कि देश में डेढ़ करोड़ लोगों को वैक्सीन लग चुकी है।

 

 

 

 

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