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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.भरोसेमंद परीक्षण

कोरोना टीके ‘कोवैक्सीन’ ने भ्रामक और गलत धारणाओं को तोड़ा है। उसके मानवीय परीक्षण के तीसरे चरण के अंतरिम आंकड़े सार्वजनिक किए गए हैं। करीब 25,800 इनसानों पर परीक्षण किए गए। उसके आधार पर जो विश्लेषण सामने है, उसके मुताबिक ‘कोवैक्सीन’ का असर करीब 81 फीसदी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, यह बहुत शानदार और सफल प्रभाव है। कोरोना वायरस के संदर्भ में टीकों की 50-60 फीसदी प्रभावशीलता को ही मानक माना जाता रहा है, लिहाजा 81 फीसदी असर के मायने हैं कि ‘कोवैक्सीन’ भरोसे का टीका है और उसे लेकर महामारी के खिलाफ  जंग जीती जा सकती है। प्रख्यात विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अंतरिम परिणाम करीब 81 फीसदी है, तो अंतिम आंकड़े और असर इससे भी ज्यादा हो सकता है। उस आधार पर ‘कोवैक्सीन’ को हम मॉडर्ना और फाइज़र टीकों की श्रेणी में आंक सकते हैं। दरअसल जब अधिकारप्राप्त  विशेषज्ञ समूह की अनुशंसा के बाद भारत सरकार के औषध नियंत्रण महानिदेशक ने, आपात इस्तेमाल के आधार पर, ‘कोविशील्ड’ के साथ-साथ ‘कोवैक्सीन’ को भी मंजूरी दी थी, तो उस पर खूब चीखा-चिल्ली की गई थी। सवाल किए गए थे कि मानवीय परीक्षण को पूरा किए बिना ही कोई टीका इनसानों को कैसे दिया जा सकता है? क्या इनसानों को मौत की ओर धकेलने की कोशिश की जा रही है? तब ‘कोवैक्सीन’ बनाने वाली कंपनी ‘भारत बायोटैक’ का बड़ा दुखद स्पष्टीकरण आया था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो कंपनी कई देशों को विभिन्न टीके और दवाएं मुहैया कराती रही है, जिसके उत्पादों की मृत्यु-दर नगण्य है, उसके अपने ही देश में, कोरोना टीके पर, सवाल और संदेह किए जा रहे हैं।

 नतीजतन छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार ने केंद्र से आग्रह किया था कि उसे सिर्फ  ‘कोविशील्ड’ टीका ही भेजा जाए। एक सरकार के ऐसे फैसले को क्या कहा जाए? जब विशेषज्ञ समूह ने ‘कोवैक्सीन’ की भी आपात मंजूरी की अनुशंसा की थी, तब उस समूह में प्रख्यात वैज्ञानिक और चिकित्सक मौजूद थे। वह निचले दरजे का सामान्य समूह नहीं है। मानवीय जिंदगी की संवेदनशीलता वे भी जानते हैं। उनके सामने ‘कोवैक्सीन’ के इनसानी परीक्षण के आंकड़े पेश किए गए थे और पूरी प्रक्रिया की प्रस्तुति भी दी गई थी। यदि विपक्षी राजनीति के कुछ चिढ़े और पूर्वाग्रही चेहरे कोरोना टीके पर ही सियासत करेंगे, तो उनकी असलियत देश देख रहा है और देश ही निर्णय लेगा। फिलहाल चिंता यह है कि देश में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं और टीकाकरण के विराट, व्यापक अभियान की चुनौतियां भी सामने हैं। संक्रमण के दोबारा विस्तार को लेकर भारत विश्व में 13वें स्थान से उछल कर 5वें स्थान पर आ गया है। महाराष्ट्र में एक दिन में 9000 से ज्यादा संक्रमित सामने आ रहे हैं, लिहाजा टीकाकरण एकमात्र उम्मीद  है। गुरुवार शाम तक कुल 1.7 करोड़ लोगों को टीका लगाया जा चुका था। इस एक दिन में 11 लाख से अधिक नागरिकों ने टीका लगवाया, जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा 60 पार के और 45 पार के गंभीर बीमारी वाले लोग हैं। साफ  है कि टीकाकरण में अचानक उछाल आया है, क्योंकि भ्रम, संदेह और हिचक खंडित हुए हैं।

 हालांकि 139 करोड़ की आबादी वाले देश में टीकाकरण का औसत अब भी निराशाजनक कहा जा सकता है। संभव है कि इसमें लगातार सुधार होगा। देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री, गृह, रक्षा, विदेश मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों ने ‘कोवैक्सीन’ टीके लगवाए हैं और सभी स्वस्थ बताए जाते हैं। तो ‘कोवैक्सीन’ की विश्वसनीयता को अब कोई ‘अग्नि-परीक्षा’ देने की ज़रूरत नहीं है। यह टीका पूर्णतः स्वदेशी है और उत्पादन हैदराबाद में किया जा रहा है। गौरतलब यह है कि इस टीके का मानवीय परीक्षण अब भी जारी है। अंतरिम आंकड़े विश्व स्तर की विज्ञान और शोध पत्रिकाओं में भी छपे हैं। यानी सब कुछ सार्वजनिक है, तो कमोबेश वे आधार बताए जाएं, जिनके कारण ‘कोवैक्सीन’ को खारिज किया जा रहा है अथवा दोयम दरजे का टीका करार दिया जा रहा है। प्रख्यात वैज्ञानिक एंटनी फिची का मानना है कि कोरोना वायरस आगामी 7-10 साल तक खत्म नहीं होने वाला है। यही आकलन विश्व स्वास्थ्य संगठन का है। तो ऐसी स्थिति में टीकाकरण जरूरी है अथवा क्षुद्र राजनीति…!

 

  1. प्रदेश के कान में सिंघा के सवाल

विपक्षी आवाज से रूठे मुद्दों की तलाशी करते हुए हिमाचल विधानसभा ने अपने भीतर के सन्नाटे तोड़े, तो इसके लिए ठियोग के माकपा विधायक राकेश सिंघा का जिक्र एक साथ कई मोर्चों पर होगा। सवालों की खाल उधेड़ते हुए सिंघा ने एक ऐसा माहौल बनाया जो सरकार के सामने विपक्षी विरोध का हुजूम खड़ा कर देता है। चंबा में मेडिकल खरीद पर उठे सवाल में खुद ऐसी मास्क फंस गई, जिसकी कीमत कथित तौर पर 580 रुपए वसूली गई। सिंघा का ही आरोप है कि सरकारी संसाधनों से कोविड से बचाव के उपाय इतने खर्चीले हो गए कि एक-एक थर्मल स्कैनर ने 10531 रुपए का बिल थमा दिया। अपने सवालों का दायरा बड़ा करते हुए सिंघा ने सरकार के आउट सोर्स कर्मचारियों की नियुक्ति का जिलाबार ब्यौरा मांगा था और जब जवाब आया तो राजनीतिक सिलसिले क्षेत्र विशेष पर मेहरबान दिखाई देते हैं। सिंघा आगे बढ़ते हुए जनमंच का शामियाना पकड़ कर यह बताने से गुरेज नहीं करते कि किस तरह फरियाद को भी घुटने टेकने पड़ते हैं। यह चित्रण कितना सही और कितना विरोधी है, लेकिन विपक्ष की भूमिका में जब जवाबदेही मांगी जाती है, तो लोकतंत्र भी इसके पक्ष में गूंजता है।

 इसीलिए जब मंडी के विधायक एवं वर्तमान सरकार के पूर्व मंत्री अनिल शर्मा खेल परिसर निर्माण में देरी का विषय उठाते हैं, तो सवाल बड़ा दिखने लगता है। इस सवाल के नखरे समझे जाएं या सत्ता के भीतरी घाव देखे जाएं, लेकिन हकीकत को दिखाने के लिए कब तक सियासी चश्मे चाहिएं। अनिल शर्मा अगर अब तक मंत्री होते तो शायद चश्मे इतना हकीकत पसंद न होते, लेकिन अब सवाल की अहमियत से वह बड़ा दिखाई दे रहे हैं। खैर यह भी विडंबना  है कि प्रदेश अपनी खेल नीति के घूंघट ओढ़े बैठा है और इधर वर्षों के संकल्प भी अछूत हो रहे हैं। हिमाचल की विधानसभा बता सकती है कि पूछने वाले से कहीं अधिक सुनने वाले के कान भी खुलने चाहिएं। यही समृद्ध परंपराओं का निर्वहन है कि प्रश्न अपने आप में टेढ़ी अंगुली से घी निकालने कला की किस तरह पारंगत और नुकीले हों। राकेश सिंघा के मार्फत प्रदेश के कानों ने बहुत कुछ सुना, लेकिन इसे किस्त दर किस्त समझा जाए तो मालूम होगा कि हमारे संसाधनों की रेत कौन छान रहा है। सिंघा का प्रश्न न आता, तो प्रदेश के कान यह न सुन पाते कि इस साल की कम बर्फबारी ने भी अपनी सफाई के लिए हिमाचल प्रदेश के साढ़े बारह करोड़ हड़प लिए। निजी ठेकेदारों को यह अधिकार दिया कि वे बर्फ से निजात पाने में आगे आएं। बर्फ की तहों में अगर अब सिंघा का सवाल उबला है, तो ऐसा कोई मानदंड या प्रमाण नहीं, जो बता सके कि हल्की सी बर्फ की चादर को हटाने के लिए शहंशाह हिमाचल को अपनी कितनी वित्तीय आबरू गंवानी पड़ती है।

 जितनी बर्फ हटाई गई अगर उतनी ही गर्मियों के सीजन में जमानी हो, तो भी इतना खर्च नहीं आएगा। आश्चर्य यह कि शिमला के जनजीवन से बर्फबारी का प्रकोप महज सोलह लाख में साफ हो जाता है, लेकिन पीडब्ल्यूडी का कांगड़ा जोन चार करोड़ बाईस लाख खर्च करके चंबा के अधिकांश इलाकों में सकून से कार्य करता है। बर्फ के भीतर भी प्रश्न और बर्फ के भीतर भी ठेकेदारी की मुरादों का संरक्षण हो सकता है, इस आशंका में प्रश्न का आशय इतना बड़ा हो जाता है कि सरकार को नए रास्ते ढंढने पड़ते हैं। हैरानी की बात यह भी कि घूम फिर कर प्रश्न चंबा की परिक्रमा क्यों कर रहे हैं। यह इसलिए भी क्योंकि विधानसभा के कान में चंबा से भाजपा विधायक भी खुजली करते सुने गए। विधायक पवन नैयर ने कोविड काल के मध्य खरीदी गई ‘बेबी किट’ को कठघरे में खड़ा किया है। यह विषय आंगनबाडि़यों को मास्क व सेनेटाइजर की आपूर्ति पर गहरे संदेह प्रकट करता है, तो मंत्री के जवाब बचकाने और बेगाने से लगते हैं। बहरहाल विधानसभा सत्र अगर सुन रहा है, तो पक्ष और विपक्ष के कई मजमून साझेदारी कर सकते हैं। गनीमत यह है कि लोकतंत्र अपने मूल्यों को हासिल करने के लिए सिंघा जैसे विधायकों की संगत में उठते प्रश्नों में गुस्सा देख पा रहा है, वरना खुरदरे विषय भी अब आंख नहीं उठाते।

3.भोजन का अपमान

यह सूचना किसी दुख से कम नहीं कि हमारी दुनिया में 17 प्रतिशत भोजन घरों, रेस्तरां और दुकानों में बर्बाद चला जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट 2021 से पता चलता है कि कुछ भोजन खेतों पर ही, तो कुछ आपूर्ति के दौरान और एक बड़ा हिस्सा तैयार होने के बाद बर्बाद हो जाता है। कुल मिलाकर, एक तिहाई भोजन खाए जाने से रह जाता है। भोजन बर्बादी के ये आंकड़े बहुत मेहनत से जुटाए गए हैं, जिनका विश्लेषण हमें चौंकाता है और रुलाता भी है। संयुक्त राष्ट्र की एक कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन कहती हैं कि ‘अगर हम जलवायु परिवर्तन, प्रकृति, जैव विविधता के नुकसान और प्रदूषण, कचरे से निपटने के बारे में गंभीर होना चाहते हैं, तो दुनिया भर के व्यवसायों, सरकारों और नागरिकों को भोजन की बर्बादी को कम करने के लिए काम करना पड़ेगा।’ अन्न-भोजन की बर्बादी ज्यादातर देशों में समस्याओं को जन्म दे रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी देशों में इस बर्बादी का स्तर आश्चर्यजनक रूप से समान है। न विकसित देशों के लोग आदर्श हैं और न गरीब देशों के लोग। भोजन की बर्बादी कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसके बारे में किसी देश में लोग जानते न हों। परंपरागत रूप से दुनिया की ज्यादातर संस्कृतियों और समाजों में भोजन की बर्बादी रोकने के लिए लोगों को पाबंद किया गया है, लेकिन तब भी लोग सुधर नहीं रहे, कम से कम यह रिपोर्ट तो यही गवाही दे रही है। 
रिपोर्ट के विस्तार में जाएं, तो खुदरा दुकानों पर दो प्रतिशत, खाद्य सेवाओं के स्तर पर पांच प्रतिशत और रसोईघर में पहुंचने के बाद 11 प्रतिशत भोजन बेकार जाता है। मतलब सबसे ज्यादा सुधार की जरूरत हमारे रसोईघरों और थालियों में है। रिपोर्ट यह भी इशारा करती है कि भोजन की ऐसी बर्बादी से जलवायु परिवर्तन को भी बल मिलता है। वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का आठ से दस प्रतिशत भोजन की बर्बादी से जुड़ा है। बेशक, भोजन की बर्बादी कम करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती होगी। भूमि रूपांतरण और प्रदूषण के माध्यम से होने वाला प्रकृति का विनाश धीमा होगा। भोजन की उपलब्धता बढ़ेगी और इस तरह वैश्विक मंदी के समय भूख की समस्या घटेगी, साथ ही, पैसों की भी बचत होगी। दुनिया का सचेत होना इसलिए बहुत जरूरी है,क्योंकि 2019 में करीब 69 करोड़ लोग भूख से प्रभावित थे और तीन अरब लोग स्वस्थ आहार का खर्च उठाने में अक्षम थे। यह स्वागतयोग्य है कि संयुक्त राष्ट्र के एक लक्ष्य में भोजन की बर्बादी को आधा करना भी शामिल है। इस मोर्चे पर भारत जैसे विशाल देश में तो विशेष पहल की जरूरत है। आम भारतीय घरों में एक-एक सदस्य साल भर में 50 किलो खाना बर्बाद कर देता है, जबकि भारत में एक बड़ी आबादी भूखे रहने को मजबूर है। यह देखना ज्यादा जरूरी है कि बर्बादी रोकने के लिए क्या और कितना किया जा रहा है? सामाजिक स्तर पर अपील के अलावा भोजन की बर्बादी रोकने के लिए कोई पुख्ता प्रबंध नहीं है। हां, भारत यह संतोष व्यक्त कर सकता है कि भोजन बर्बाद करने में अफगानिस्तान, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव और बांग्लादेश की तुलना में वह बेहतर है। लेकिन जिस देश में अन्न-भोजन की पूजा होती हो, उसे देश में यथोचित सुधार के लिए नए संकल्प की जरूरत पड़ेगी।

 

4.स्वतंत्रता के मानक

भारतीय मुद्दों पर अमेरिकी नजरिया

यूं तो पश्चिमी जगत, खासकर अमेरिका दुनिया को लोकतंत्र की परिभाषा सिखाने के अपने मानक निर्धारित करता है। जिसे उसके स्वतंत्र देशों पर दबाव बनाने के तौर-तरीके के रूप में देखा जाता है। अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद उम्मीद थी कि सरकार और उनके कथित थिंट टैंक भारत के लोकतंत्र, प्रेस की आजादी, इंटरनेट पर रोक व कश्मीर जैसे मुद्दों पर भारत को घेर सकते हैं। दुनिया में कथित रूप से लोकतंत्र की निगहबानी करने वाले अमेरिकी एनजीओ ‘फ्रीडम हाउस’ ने ताजा रिपोर्ट में यह दलील दी है कि भारत में नागरिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है, जिसे उसने आंशिक बताया है। यानी नागरिक पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं। हालांकि, रिपोर्ट में अन्य देशों में भी लोकतंत्रों की स्थिति को चिंताजनक बताया गया है। इसके बावजूद एक नागरिक के तौर पर हमें यह बात परेशान करने वाली जरूर है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में नागरिक स्वतंत्रता को आंशिक बताया जा रहा है। हालांकि, खुद अमेरिका की पिछली सरकार में जिस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ायी गईं, उसका जिक्र अमेरिकी थिंक टैंक नहीं करते। ट्रंप शासन में शरणार्थियों के साथ अमानवीय व्‍यवहार, कुछ मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक, रंगभेद के संघर्ष तथा मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाया जाना किस लोकतांत्रिक मर्यादा के दायरे में आते हैं? अपने साम्राज्यवाद के विस्तार के लिये किस तरह दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों को अपदस्थ करने का खेल चला, उसकी पूरी दुनिया गवाह है। यही वजह है कि सत्तारूढ़ दल ने अमेिरकी थिंक टैंक की रिपोर्ट को वैचारिक साम्राज्यवाद का नमूना बताया। बहरहाल, देश में सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में इस रिपोर्ट की अपनी सुविधा से अलग-अलग व्याख्या की जा रही है। इसको लेकर वैचारिक विभाजन साफ नजर आ रहा है। बहरहाल, एक नागरिक के तौर पर हमें भी मंथन करना चाहिए कि क्या वाकई भारतीय लोकतंत्र में एक नागरिक के रूप में हमारी आजादी का अतिक्रमण हुआ है। साथ ही रिपोर्ट में दी गई दलील को भारतीय परिस्थितियों के नजरिये से भी देखने की जरूरत है।

दरअसल, इस रिपोर्ट में जिन बिंदुओं को आधार बनाया गया है उनके अन्य पहलुओं पर विचार करना चाहिए। कहा गया कि कोरोना संकट में देश में बेहद सख्त लॉकडाउन लगाया गया, जिससे लाखों श्रमिकों को मुश्किल हालातों से गुजरना पड़ा। इस दलील का तार्किक आधार नजर नहीं आता क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में सख्त लॉकडाउन को कोरोना से निपटने का कारगर माध्यम माना गया। लॉकडाउन से जुड़ी लापरवाहियों की बड़ी कीमत अमेरिका ने चुकायी है, जहां अब तक तमाम आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद पांच लाख लोग कोरोना संक्रमण से मौत के मुंह में समा चुके हैं। ऐसे में सख्त लॉकडाउन और श्रमिकों के पलायन के मुद्दे को लेकर यह नहीं कहा जा सकता कि देश में लोकतांत्रिक आजादी कम हुई है। रिपोर्ट का एक बड़ा मुद्दा इंटरनेट पर रोक लगाना है जो अमेरिकी कंपनियों के कारोबार को प्रभावित करता है। कश्मीर में परिस्थितियां और पाक के हस्तक्षेप के चलते सरकार ने इंटरनेट नियंत्रण को अंतिम हथियार माना। वैसे भी स्थितियां सामान्य होने पर वहां फोर-जी सेवा बहाल कर दी गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में प्रतिरोध करने वालों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज करने का मुद्दा भी उठाया गया है। सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि हिंसा न फैलाने वाले लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मामले न दर्ज किये जायें। इसके अलावा रिपोर्ट में कोरोना काल में अल्पसंख्यकों से भेदभावपूर्ण व्यवहार, सूचना माध्यमों के खिलाफ सख्ती, लव जिहाद व सीएए के दौरान हिंसा के मुद्दों को आधार बनाया गया है। एक नागरिक के तौर पर भी हमारे लिये मंथन का समय है कि क्या हम अपनी स्वतंत्रता पर आंच महसूस करते हैं। रिपोर्ट को सिरे से खारिज करने के बजाय इसका लोकतांत्रिक आधार पर मूल्यांकन करने की जरूरत है। साथ ही व्यवस्था का न्यायपूर्ण बने रहना प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये अपरिहार्य शर्त भी है। 

 

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