इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1. शहर में कितना मर्ज, कितनी दवा
हिमाचल की शहरी व्यवस्था का आईना बनकर इस बार शिमला व धर्मशाला नगर निगमों की बजटीय समीक्षा करनी होगी, ताकि पता चले कि स्थानीय स्वशासन में यह प्रदेश कितना स्वतंत्र व मौलिक है। यह इसलिए भी कि आगे चलकर चार नगर निगमों के चुनाव में जब मुद्दे तय हों, तो जनता को आभास हो कि उनके संभावित पार्षदों के पास कितना मर्ज, कितनी दवा है। ये दोनों शहर स्मार्ट सिटी व अमृत मिशन के तहत भले ही अलंकृत हैं, फिर भी शहरों के बजटीय प्रावधान बताते हैं कि आगामी नक्शा क्या होगा। दोनों बजटों की खासियत व खामियों का जिक्र बताता है कि अभी वित्तीय दृष्टि में शहरी आत्मनिर्भरता के पैगाम कितने खोखले व विवश हैं। देखना यह भी होगा कि जयराम सरकार का अपना बजट नए नगर निगमों की अवधारणा में किस तरह के वित्त पोषण का जरिया बनता है। चंद गांवों को शहरी आगोश में बैठा देने से आर्थिक मिलकीयत नहीं बनती, बल्कि शहरीकरण को संबोधित करने के मकसद से बजटीय शक्ति व ऊर्जा चाहिए। धर्मशाला नगर निगम की आय के साधन करीब पच्चीस से तीस करोड़ ही जुटा पाते हैं, जबकि व्यय के ब्यौरे में करीब डेढ़ सौ करोड़ की तमन्ना का अब अपना दुख दर्द है। ऐसे में शहरी प्रबंधन का आदर्श मॉडल कैसे बनेगा, जबकि राजनीतिक चाकरी में सत्तापक्ष का हमेशा साथ ढूंढा जाएगा। जनसहभागिता के बिना नगर निगमों के आय-व्यय को संतुलित करना कठिन होगा। ऐसे में हर शहर को अपनी बुनियादी जरूरतों के साथ-साथ ऐसे निवेश की जरूरत है, जो कल आय का ढांचा विकसित कर दे।
शिमला जैसा शहर अगर बिजली की दर बढ़ा कर कुछ हासिल करना चाहता है, तो यह एक अपर्याप्त आय की क्षतिपूर्ति सरीखा प्रयास होगा, जबकि शहर की अपनी परिकल्पना में बीओटी या पीपीपी मोड के तहत राजस्व का नया ढांचा खड़ा करना होगा। कमोबेश हिमाचल के हर बड़े शहर में पर्यटन, व्यापार, सेवाक्षेत्र तथा मनोरंजन के क्षेत्र में आय जुटाने की बड़ी संभावनाएं हैं। नगर निगम बैंकिंग क्षेत्र के साथ मिलकर ऐसी परियोजनाएं बना सकते हैं या सेवाक्षेत्र की नई पहचान में शहरों की परिधि में आवासीय तथा व्यापारिक परिसरों का विस्तार किया जा सकता है। सरकार को भी चाहिए कि शहरी आमदनी बढ़ाने के लिए नगर निगमों को अधोसंरचना निर्माण में वित्तीय मदद करे। बडे़ शहरों के बस स्टैंड तुरंत प्रभाव से नगर निगमों को सौंप दिए जाएं, जबकि पीपीपी मोड के तहत सिटी अस्पतालों,आवासीय बस्तियों,आई टी पार्कों तथा व्यावसायिक परिसरों के जरिए भी आय बढ़ाने का अवसर दिया जा सकता है। जिस इन्वेस्टर मीट के तहत हिमाचल ने ऊंची छलांग मारने की कोशिश की है, उसकी व्यावहारिकता को सर्वप्रथम शहरी परिवेश में संपन्न करना होगा। शहरों में नए निवेश का ढांचा कुछ उपग्रह नगरों, आवासीय कालोनियों, मनोरंजन पार्कों, व्यावसायिक परिसरों तथा नवाचार के जरिए आगे बढ़ाना होगा। शहरों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों का समायोजन जब तक नहीं होगा, आर्थिक ढांचा पूर्ण नहीं होगा। अतः क्षेत्रीय विकास प्राधिकरणों के तहत नगर निगम क्षेत्रों के साथ-साथ गांव भी जोड़ने होंगे ताकि विकास में समन्वय स्थापित हो और इससे अतिरिक्त दबाव शहरों पर न पड़े। शहर और गांव के समन्वय से जो आर्थिक ढांचा विकसित हो सकता है, उसके परिप्रेक्ष्य कई क्लस्टर योजनाएं एक बड़े भू-भाग के लिए बनानी होंगी ताकि कई छोटे-बड़े शहर और गांव इनमें समाहित हो सकें। पूर्व में नगर परिषद प्रबंधन के तहत नए नगर निगमों के अतीत में कई गलतियां, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद तथा नालायकियां छिपी हैं। कानूनी तौर पर नगर निगमों के दायरे में तमाम अतिक्रमण हटाने तथा हड़पी गई संपत्तियों की नई व्यवस्था से शहरों की आय बढ़ाने की वैधानिक शक्तियां अगर मिल जाएं, तो ही परिवर्तन आएंगे।
- गरीब का ‘खेला होबे’
पश्चिम बंगाल की चुनावी लड़ाई प्रधानमंत्री मोदी बनाम मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हो गई है। एक नारा भाजपाई मंच से उछाला जाता है, तो ममता उसका पलटवार करती हैं। चुनाव असम, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल में भी हो रहे हैं, लेकिन आभास ऐसा है कि पूरी ताकत बंगाल में ही झोंक दी गई है! मानो बंगाल ही राष्ट्रीय दुर्ग का प्रतीक बन गया है! आरोप-प्रत्यारोप तो चुनावों की स्वाभाविकता है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिगेड मैदान रैली में गरीब, गरीबी, चायवाला आदि का मुद्दा एक बार फिर उछाला। उन्होंने ममता बनर्जी को ‘गरीबों की खलनायक’ के तौर पर पेश किया। हम इस राजनीतिक दलील से सहमत नहीं हैं। ममता ने बंगाल की 90.31 लाख से अधिक महिलाओं को आर्थिक मदद दी। रूपाश्री और कन्याश्री योजनाएं भी लोकप्रिय रहीं। राज्य सरकार ने 36 आश्रय-गृह बनवाए। बहरहाल बहस का मुद्दा ‘गरीबी’ नहीं है। हर गरीब के लिए सरकार का दायित्व होता है। प्रधानमंत्री का यह बयान 2014 से कई बार बज चुका है कि हर गरीब, दलित, शोषित, वंचित, पीडि़त और दबा-कुचला आदमी उनका दोस्त है। जनसभा में आई भीड़ को भी उन्होंने अपना दोस्त माना।
देश के 130 करोड़ लोग (असल आबादी 139 करोड़ से ज्यादा) ही उनके दोस्त हैं। जब सभी देशवासी प्रधानमंत्री के दोस्त हैं, प्रिय हैं, तो अलग से किन गरीबों की ओर उन्होंने संकेत किया है? इन गरीबों में चाय बागान के मज़दूर और मज़दूरिनें भी शामिल हैं, जिनके लिए केंद्रीय बजट में 1000 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है। न तो प्रधानमंत्री और न ही ममता ने कोरोना-काल में पलायन करने वाले करीब 40 लाख बंगाली युवाओं का जि़क्र किया है, जिन्हें रोज़गार के लिए हरियाणा, उप्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र आदि राज्यों में जाना पड़ा। वे भी गरीब आम आदमी थे, जिन्हें ‘रोटी’ ने मजबूर किया था। राजनीति गरीब और गरीबी पर नहीं की जानी चाहिए। यह तो दुनिया का वीभत्स यथार्थ है। भारत में कुछ ज्यादा है। कई अफ्रीकी और टापू किस्म के देश हैं, जो ‘रोटी’ के लिए जानवर भी बन जाते हैं। बेशक प्रधानमंत्री ने अपने बचपन और किशोर उम्र में तकलीफदेह गरीबी को झेला था, लेकिन वह दौर गुज़रे करीब पांच दशक बीत चुके हैं। हमें भारत के लोकतंत्र पर गर्व है, जहां एक गरीब, चायवाला भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन यह संदर्भ मई, 2014 में ही समाप्त हो चुका है, जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री चुने गए थे। ममता बनर्जी भी आम परिवार से हैं और सड़कों पर मार-पीट वाले संघर्ष झेलकर वह मुख्यमंत्री के पद तक पहुंची हैं। प्रधानमंत्री गरीबों के लिए अपनी सरकार की नीतियों और परियोजनाओं का उल्लेख कर सकते हैं। वह बेघरों और गरीबों के लिए बनाए जा रहे घर, शौचालयों, गैस चूल्हों और गरीब महिलाओं के खातों में जमा हजारों करोड़ रुपए की सरकारी राशि का भी जि़क्र कर सकते हैं, लेकिन देश भर में करोड़ों युवा और पेशेवर आज भी बेरोज़गार हैं। बेरोज़गारी की औसत राष्ट्रीय दर 6.5 फीसदी है।
नौकरी की उम्र निकलने का खौफ भी युवाओं में है। वे देश के कई हिस्सों में सड़कों पर धरना दिए हैं और आक्रोश में उनकी मुट्ठियां भिंची हैं। गरीबों का ऐसा गुस्सा भी उचित और सामान्य नहीं है। प्रधानमंत्री ऐसे नौजवानों को तसल्ली क्यों नहीं देते कि सरकारी नौकरी की उपलब्धता सीमित है, लेकिन प्रधानमंत्री हर खाली, नौजवान हाथ को भरने की कोशिश करेंगे, ऐसा वर्गीकृत खुलासा वह क्यों नहीं करते? गरीबी हटाना या कम करना भी सरकार का नैतिक दायित्व है। 1971 के दौर से गरीबी का चुनावी नारा सुनते आए हैं। आज भी करीब 82 करोड़ भारतीय गरीबी-रेखा के तले हैं अथवा वे दोनों वक्त की रोटी का बंदोबस्त करने में असमर्थ हैं। उनके लिए ऐसे चुनावी नारों का मतलब क्या है? प्रधानमंत्री के अतीत की गरीबी जानकर उन्हें हासिल क्या हो सकता है? कुछ वोट बढ़ सकते हैं और राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों का फायदा हो सकता है, लेकिन इस राजनीति के पीछे की मानसिकता और नीयत को समझने में उन्हें देर नहीं लगती और फिर चुनावी ध्रुवीकरण होने लगता है और गरीब समुदाय गरीब ही रहता है। बस नेताओं के भाषणों पर तालियां बजाता रहता है। बंगाल में ऐसा ‘खेला होबे’, उसका ‘खेला खत्म’ किया जाना चाहिए।
- आरक्षण पर जरूरी विचार
पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देना सही है या नहीं, इसका फैसला करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का गंभीर होना स्वागतयोग्य है। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आरक्षण के प्रावधानों और इसकी बदलती जरूरतों पर विचार शुरू कर दिया है। विगत वर्षों में एकाधिक राज्य ऐसे हैं, जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने की कोशिश हुई और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। पूरे देश में अभी यह भ्रम की स्थिति है कि क्या किसी राज्य को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने की अनुमति दी जा सकती है? वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में संविधान पीठ के फैसले के बाद यह परंपरा रही है कि 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। वैसे तो हमारी सरकारों को ही विधायिका के स्तर पर यह विचार कर लेना चाहिए था कि आरक्षण की सीमा क्या होनी चाहिए। यह दुर्भाग्य है कि आरक्षण राजनीति का तो विषय है, पर उसे लेकर वैधानिक गंभीरता बहुत नहीं रही है। वैधानिक गंभीरता होती, तो सांसद-विधायक आरक्षण की सीमा पर संवाद के लिए समय निकाल लेते और मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पाता।
अब अदालत को यह देखना है कि विगत दशकों में कैसे सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए हैं। इसके लिए अदालत ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों से जवाब दाखिल करने को कहा है। वास्तव में, मराठा आरक्षण को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की संविधन पीठ ने सुनवाई के दौरान जो कदम उठाए हैं, उनका दूरगामी और गहरा असर तय है। महाराष्ट्र सरकार मराठा वर्ग को विशेष आरक्षण देना चाहती है, जिस वजह से 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का उल्लंघन हो रहा है, अत: अदालत ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी थी। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार की शिकायत और अन्य याचिकाओं ने गहराई से विमर्श की पृष्ठभूमि तैयार की है। इसमें कोई शक नहीं, अगर महाराष्ट्र के मामले में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण को स्वीकृत किया गया, तो इसका असर सभी राज्यों पर पड़ेगा, अत: इसमें तमाम राज्यों की राय लेना एक सही फैसला है। सभी राज्यों को सुनकर एक रास्ता निकालना होगा, ताकि भविष्य में विवाद की स्थिति न बने। कई सवालों के हल होने की उम्मीद बढ़ गई है। क्या राज्यों को अपने स्तर पर आरक्षण देने का अधिकार है? क्या केंद्र सरकार के अधिकार में कटौती नहीं होगी? 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने से समाज के किसी वर्ग के साथ अन्याय तो नहीं होगा? आरक्षण का समानता के अधिकार से कैसे नया नाता बनेगा?
सर्वोच्च न्यायालय जब सुनवाई शुरू करेगा, तब अनेक जटिल सवालों के जवाब मिलते जाएंगे। संविधान की रोशनी में आरक्षण पर तथ्य आधारित तार्किक बहस जरूरी है, ताकि वंचित वर्गों को यथोचित लाभ मिले। सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि आबादी के अनुपात में ही वंचितों को अवसर दिए जाएं। यह भी देखना है कि आज के समय में वंचित कौन है। वंचितों को अवसर देने की कोशिश में किसी के साथ अन्याय न होने लगे। चूंकि 50 प्रतिशत की मंजूर आरक्षण सीमा को 28 साल बीच चुके हैं, तो नई रोशनी में पुनर्विचार हर लिहाज से सही है। पुनर्विचार के जो नतीजे आएंगे, उससे देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बुनियाद तय होगी। लोग यही उम्मीद करेंगे कि फैसला ऐसा आए, जो समाज को मजबूत करे।
4.फिर डराता कोरोना
लापरवाही से बढ़ेंगी मुश्किलें
इस साल की शुरुआत में जब कोविड-19 की वैक्सीन लगनी शुरू हुई तो उम्मीद जगने लगी थी कि अब कोरोना पर नियंत्रण पा ही लेंगे। इस बीच, सुखद आंकड़े आये और कोरोना संक्रमितों की संख्या में गिरावट भी देखी गयी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से लगातार बढ़ रहे मामलों ने सबकी चिंता बढ़ा दी है। पंजाब के चार जिलों समेत भारत के अनेक राज्यों के कई इलाकों में नाइट कर्फ्यू लगा दिया गया है। कुछ जगहों पर चेतावनी जारी कर दी गयी है। कई जगह मॉल, रेस्तरां और थियेटरों को दोबारा बंद करने पर विचार चल रहा है। कोरोना वायरस के फिर से पैर पसारने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में लगातार तीसरे दिन 18 हजार से अधिक नये मामले सामने आए हैं। इसके साथ ही मरीजों के ठीक होने की दर में भी गिरावट दर्ज की गई है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक इस वायरस से अब तक 1 लाख 57 हजार 853 लोग जान गंवा चुके हैं। रविवार-सोमवार के बीच जिन 97 लोगों की मौत हुई, उनमें से महाराष्ट्र के 38, पंजाब के 17 और केरल के 13 लोग थे। इस वक्त कोरोना के ज्यादा मामले महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात और तमिलनाडु में हैं। उसके बाद हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी मामले बढ़ रहे हैं। इस महामारी पर काबू पाने के लिए बेशक टीकाकरण अभियान तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच अभी दूर की कौड़ी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक अब तक वैक्सीन की करीब 2.10 करोड़ खुराकें दी जा चुकी हैं। वैक्सीनेशन अभियान जारी रहने का यह अर्थ कतई नहीं कि कोरोना पर हमने काबू पा लिया है। इससे बचाव के लिए वही सावधानियां अब भी जरूरी हैं, जो शुरुआत से चल रही थीं। यानी पर्याप्त दूरी बनाकर रहें, सार्वजनिक स्थलों पर मास्क पहनें, हाथों को सैनेटाइज करें या साबुन से धोते रहें। कोरोना के प्रति सावधानी के लिए अनेक माध्यमों से चेताये जाने के बावजूद ज्यादातर इलाकों का माहौल देखने से लग रहा है जैसे लोग अब मान चुके हैं कि यह महामारी चली गयी।
उधर, सरकारें कोरोना के खिलाफ कदम तो उठा रही हैं, लेकिन बिना सुरक्षा उपायों के रैलियों, सभाओं का दौर बदस्तूर जारी है, खासतौर से चुनावी राज्यों में। इन दोहरे मापदंडों से बचना होगा। आम जनता को भी समझना होगा कि कोरोना से बचाव के जो जरूरी नियम-कायदे हैं, उनमें ढिलाई बिल्कुल न बरती जाये। संक्रमण की यह बीमारी एक से अनेक लोगों में फैलती है। इसलिए इस चेन को तोड़ना जरूरी है। याद कीजिए सालभर पहले का मंजर। इन्हीं दिनों पूरे विश्व से कोरोना की खौफनाक तस्वीर सामने आने लगी थी। यूं तो बदलते मौसम में स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना होता है, फिर कोरोना काल में कुछ सावधानियों का सख्ती से पालन और अहम हो जाता है। कोशिश करें कि बिना काम घर से बाहर न निकलें, निकलना ही पड़े तो मास्क लगाकर जायें। पर्याप्त दूरी बनाकर रखें। घर में बुजुर्गों और बच्चों का विशेष ध्यान रखें। वैक्सीनेशन की बारी आ गयी हो तो डॉक्टरी सलाह पर उसे लगायें। ध्यान रहे कोरोना को मात देने के लिए हम सबको एक होना पड़ेगा। यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकारों की नहीं है। हमें यह भी समझना होगा कि दिनों को गिनने से वायरस नहीं चला जाएगा। इस बात का कोई मतलब नहीं कि लंबा वक्त हो गया, अब कोरोना कहीं नहीं है। कोरोना महामारी का खौफ अभी भी वैसा ही है, जैसा पहले था, बल्कि कई देशों में तो इसके नये स्वरूप के सामने आने की सूचनाएं हैं। गनीमत है कि भारत में नये स्वरूप के ज्यादा मामले नहीं हैं। कोरोनामुक्त भारत के लिए लापरवाही वाली आदत सबको छोड़नी होगी। सावधानी से चलेंगे तो निश्चित रूप से इस महामारी से भी पार पा लेंगे, लेकिन सावधानी हटेगी तो दुर्घटना घटेगी ही। महामारी से निपटने में हर किसी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। सरकारों, सियासी दलों की ओर से उचित कदम उठें, सकारात्मक संदेश मिलें और आम जनता जागरूक रहे, तभी बीमारी का यह वायरस खत्म होगा।