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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.सत्ता का खर्चीला पक्ष

तख्त की तहजीब में घाटे उठाने की ताकत और मेहरबानियों के उसूल में जर्जर बुनियाद की रखवाली की जिम्मेदारी। यह तस्वीर हिमाचल में सत्ता के पैगाम में ऐसा खर्चीला बंदोबस्त है, जिसकी कब्र में हर साल करोड़ों फनां होते हैं। एक बार फिर जिक्र आवारा व घाटे के बोर्ड तथा निगमों का, लेकिन सरकार की अस्मिता में पल रहे घाटे की न चिंता और न ही समाधान की कोई कवायद। हिमाचल विधानसभा का सत्र केवल यह सुनने में मशगूल कि बारह निगम व बोर्ड अपने घाटे की व्यवस्था में चलते रहेंगे और सरकार की ओर से जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह बड़ी साफगोई से इसमें छिपे राजनीतिक कर्ज का बोझ उतारने के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को कोस भर देते हैं। राज्य के ऐसे घाटे में पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच कोई कलह-क्लेश भी नहीं देखा गया, क्योंकि वीरभद्र सरकार ने छह अध्यक्ष थोपे थे तो बकौल महेंद्र सिंह, उनकी सरकार तो अभी मात्र पांच नेताओं को ही ‘एडजेस्ट’ कर पाई है। राजनीतिक सेवा में ऐसे उपहार राज्य पर कितने भारी पड़ते हैं, इसका जीता-जागता सबूत और क्या होगा कि घाटे के बोर्ड-निगम अपनी लचर व्यवस्था पर खामख्वाह अध्यक्षों व उपाध्यक्षों को ढोते रहते हैं।

 प्रदेश की आर्थिक व्यवस्था के दोषी निगमों में पर्यटन, ऊर्जा, एचपीएमसी, वन, परिवहन तथा विद्युत बोर्ड के बढ़ते घाटों पर चादर बिछा कर अगर राजनीति अपने नेता के लिए पद की भीख मांगती है, तो इससे बड़ा अपराध क्या होगा। आश्चर्य यह कि प्रदेश फल राज्य है, लेकिन एचपीएमसी का घाटा 85 करोड़ तक पहुंच गया। प्रदेश पर्यटन राज्य है, लेकिन पर्यटन निगम का घाटा पचास करोड़ से कहीं आगे निकल गया। वन विकास निगम ऐसा कौन सा उपकार कर रहा है कि घाटा 110 करोड़ के पार हो गया और पथ परिवहन निगम की औकात को 1533 करोड़ के घाटे में समझें, तो मालूम हो जाएगा कि इस कसूर की वजह क्या है। कहना न होगा कि यह तमाम बोर्ड-निगम न तो एक दिन में नालायक बने और न ही इनका मकसद यही था, बल्कि इन्हें तरह-तरह की राजनीति ने बर्बाद किया। पर्यटन विकास निगम को ही लें, तो पिछले दशकों में इकाइयां इसलिए बंद हुईं क्योंकि उन्हें मात्र राजनीति को सींचने के लिए बनाया गया था। कमोबेश हर परिवहन मंत्री ने अपने क्षेत्र में बस डिपो खड़ा करते-करते परिवहन निगम को घाटे का कबाड़ बना दिया। प्रबंधकीय दृष्टि से परिवहन निगम के खर्चों में उछाल इसके आधारभूत ढांचे को तबाह करने पर उतारू है। ऐसे में क्या सरकार यह विचार करेगी कि अगर बोर्ड व निगमों के घाटे न रुके तो अगले कुछ सालों में प्रदेश कहां खड़ा होगा। क्या ये घाटे वित्तीय सुधारों के प्रति सरकार को सोचने पर विवश कर पाएंगे या आगे सरका दिए जाएंगे। जो भी हो घाटे के अलावा सरकार की फिजूलखर्ची का आलम हर दौर में राज्य की वित्तीय व्यवस्था का मजाक ही उड़ाता है

अनावश्यक कार्यालयों का विस्तार, जरूरत से अधिक शिक्षण व चिकित्सा संस्थान तथा राजनीतिक तुष्टीकरण के कारण जो भी मसौदा तैयार होता है, दरअसल वह आर्थिक अनुशासन का सौदा है। ऐसे में प्रदेश में प्रशासनिक व आर्थिक सुधारों की गुंजाइश के साथ-साथ यह भी समझना होगा कि भविष्य में किस तरह ऋण तथा घाटे का बोझ घटा कर अतिरिक्त आय के स्रोत पैदा किए जाएं। अब वक्त आ गया है जब शिक्षण संस्थान के बजाय ऐसे निवेश केंद्र विकसित किए जाएं, जहां पढ़े-लिखे युवा स्वरोजगार पैदा कर पाएं। ऐसी नीतियां व कार्यक्रम बनाने होंगे, जिनसे प्रोत्साहित होकर निजी निवेश रोजगार का सबसे बड़ा आश्वासन बने। सामाजिक तौर पर भी जनापेक्षाओं को यथार्थवाद की सतह पर स्थापित करना होगा ताकि सरकारें अपने काम की कला और दायित्व की वजह बता सकें। आखिर कब तक घाटे के बोर्ड-निगमों के मरे हुए सांप को गले में लटका कर सरकारें प्रदेश को प्रगतिशील साबित करती रहेंगी। नवाचार के वर्तमान युग में प्रबंधकीय घाटों से निवृत होकर, नए आकाश व आयाम जोड़ने होंगे, वरना घाटे की व्यवस्था कभी उठने नहीं देगी। समय की मांग को समझते हुए विभागीय युक्तिकरण के अलावा घाटे के बोर्ड-निगमों से निजात पाने के लिए नए विकल्प तैयार करने होंगे या निजी क्षेत्र के साथ पीपीपी मोड पर आगे बढ़ना होगा।

2.हादसा अथवा हमला!

राजनीतिक हिंसा भी बंगाल की संस्कृति बन गई है। बंगाल की सनातन और सांस्कृतिक परंपराओं पर यह एक धब्बा है। हिंसा और हत्याओं के संदर्भ में आरोप तृणमूल कांग्रेस और भाजपा पर चस्पा किए जाते रहे हैं। दोनों पक्षों के कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जाती रही हैं, लेकिन बीती 10 मार्च को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चोटिल हुई हैं, तो यह हिंसा की पराकाष्ठा है। ममता का आरोप है कि जब वह कार का दरवाजा खोल कर लोगों से संवाद कर रही थीं और अभिवादन का जवाब दे रही थीं, तो उसी दौरान कुछ लोगों ने उन्हें धक्का मारा। कार के दरवाजे में आकर एक पांव का टखना चोटिल हुआ है। वह जगह काफी सूज गई है। टखने में फ्रेक्चर बताया गया है और पूरे पांव पर प्लास्टर चढ़ा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की गर्दन, दायें कंधे, कलाई में भी चोट लगी है। सीने में दर्द और सांस लेने में दिक्कत का भी खुलासा डॉक्टरों ने किया है। चुनाव की दृष्टि से देखें, तो ममता बनर्जी का चोटिल होना चुनाव की दिशा और दशा बदल सकता है। ममता धुआंधार चुनाव प्रचार नहीं कर सकेंगी, क्योंकि पांव पर खड़ा होने में उन्हें करीब डेढ़ महीना लग सकता है। यदि ममता चुनाव प्रचार करती हैं, तो उन्हें व्हील चेयर पर ही करना पड़ेगा। यह घायल अवस्था ममता के प्रति ‘सहानुभूति का सैलाब’ भी साबित हो सकती है। अतीत की कुछ घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं, जिन्होंने ममता को कद्दावर नेता बना दिया। 2007 के नंदीग्राम आंदोलन के दौरान उनकी स्थिति मरणासन्न कर दी गई थी, लेकिन उसी आंदोलन ने ममता को मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचा दिया।

 वह ज़मीन अधिग्रहण का बहुत बड़ा मामला था। बंगाल की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार करीब 14,000 एकड़ ज़मीन में ‘कैमिकल हब’ स्थापित करना चाहती थी। आंदोलन में 14 लोग मारे गए थे, लेकिन वाममोर्चा की सत्ता की निरंतरता समाप्त हुई। अब उसी नंदीग्राम में यह हादसा हुआ है अथवा हमला किया गया है। उसी इलाके में ममता लगातार दो दिन सक्रिय रहीं। महादेव शिव के मंदिरों में जाकर पूजा-पाठ किया। उसके बाद अपना नामांकन-पत्र भी दाखिल किया। अच्छा-खासा रोड शो भी आयोजित किया गया। किसी ने ममता की ओर पत्थर तक नहीं उछाला। हादसे और हमले के मद्देनजर कुछ सवाल हैं। ममता बनर्जी को ज़ेड प्लस सुरक्षा दी गई है। देश के गृह और रक्षा मंत्रियों तथा भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की भी वही सुरक्षा-व्यवस्था है। सिर्फ  प्रधानमंत्री की एसपीजी सुरक्षा इससे अधिक गहरी, सूक्ष्म और परतदार है। जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनमें मुख्यमंत्री के अंगरक्षक और पुलिसकर्मी दोनों ही मौजूद थे। यदि मुख्यमंत्री की घेराबंदी के बावजूद कोई भी भीड़ मुख्यमंत्री को धक्का मार सकती है, तो ऐसी सुरक्षा-व्यवस्था भी सवालिया है। कुछ चश्मदीदों के बयान सुने हैं कि मुख्यमंत्री के काफिले के रास्ते में एक खंभा था और कार का दरवाजा खुला था, लिहाजा संभावना है कि कार का दरवाजा खंभे से टकरा कर वापस आया हो और ममता का पांव चोटिल हुआ हो।

 यह जांच का विषय बन गया है, क्योंकि विरोधाभासी बयान सामने आ रहे हैं। केंद्र सरकार को, चुनाव आयोग के निर्देश पर, एनआईए या किसी अन्य जांच एजेंसी को दायित्व सौंपना चाहिए, ताकि सच सामने आ सके। इस हादसे या हमले के बाद बंगाल में राजनीतिक घमासान के हालात बनते जा रहे हैं। आगजनी की जा रही है, निरंकुश प्रदर्शन किए जा रहे हैं, तृणमूल और भाजपा के काडर एक-दूसरे के सामने आकर हमलावर होने की कोशिश कर रहे हैं। विपक्ष ने ममता के घायल होने को ‘सियासी पाखंड’ करार दिया है, तो भाजपा मान रही है कि चुनाव में सहानुभूति बटोरने के लिए ममता ने यह नौटंकी की है। वैसे ममता ऐसी नेता रही हैं कि संसद में भी ड्रामा किया था और स्पीकर की ओर ही काग़जात उछाल दिए थे। बहरहाल ममता अस्पताल में हैं और ऐसी टिप्पणियों से बचना चाहिए। तृणमूल और भाजपा ने चुनाव आयोग के सामने अपने-अपने पक्ष रखे हैं। आयोग को फैसला लेने दें, लेकिन बंगाल के चुनाव में यह तो शुरुआत भर है। हालात और भी बिगड़ेंगे, हिंसक भी होंगे, क्योंकि बंगाल की चुनावी संस्कृति ही बदल चुकी है।

  1. फिर लॉकडाउन

यह बड़ी चिंता का विषय है, देश के लगभग मध्य भाग में स्थित नागपुर में फिर लॉकडाउन की नौबत आ गई है, पर उससे भी बड़ी चिंता यह कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने राज्य के अन्य शहरों में भी लॉकडाउन की आशंका जताई है। हालांकि, उनका यह कहना उम्मीद जगाता है कि अभी कोरोना संक्रमण से स्थिति बेकाबू नहीं हुई है। फिर भी लॉकडाउन की वापसी सोचने पर विवश कर रही है। महाराष्ट्र में जलगांव में जनता कफ्र्यू की स्थिति है और अब नागपुर में 15 मार्च से 21 मार्च तक लॉकडाउन हमें सावधान करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। नागपुर में केवल आवश्यक सेवाएं जारी रहेंगी। पिछले महीने ही नागपुर के सभी स्कूल, कॉलेज, कोचिंग संस्थान बंद कर दिए गए थे। बाजार को शनिवार और रविवार को खोलने की अनुमति थी, पर अब पूरी तरह बंदी का एलान कर दिया गया है। ध्यान रहे, इस राज्य में पहले ही सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आयोजनों में भीड़ पर रोक है।
एक समय पूरे देश में प्रतिदिन कोरोना संक्रमण के कुल दस हजार मामले भी नहीं आ रहे थे, लेकिन अब अकेले महाराष्ट्र में ही 12,000 से ज्यादा मामले आने लगे हैं।  अकेले महाराष्ट्र में एक लाख से अधिक सक्रिय मामले हैं। केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार से उचित ही कहा है कि वह वायरस को हल्के में न ले। स्वास्थ्य मंत्रालय की दैनिक प्रेस ब्रीफिंग में नीति आयोग के सदस्य डॉक्टर वी के पॉल ने कहा है कि महाराष्ट्र में कोरोना मामले का बढ़ना काफी गंभीर है। इससे दो सबक मिलते हैं, वायरस को हल्के में नहीं लेना है और अगर हमें कोरोना से छुटकारा पाना है, तो फिर कोविड-19 से बचाव के दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना के प्रति लोग पहले की तुलना में लापरवाह हुए हैं। हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब मास्क की जरूरत भी महसूस नहीं कर रहा है। टीकाकरण को ही अगर देखें, तो उद्धव ठाकरे देर से टीका लेने वाले मुख्यमंत्रियों में शुमार हैं। महाराष्ट्र में मुंबई में बुधवार को 1,539 मामले, पुणे शहर में 1,384, नागपुर शहर में 1,513, नासिक में 750, यवतमाल जिला 403 और औरंगाबाद में 560 दर्ज किए गए हैं। इन तमाम शहरों में सरकार को लॉकडाउन की जरूरत महसूस होने लगी है। बेशक, कोरोना के खिलाफ युद्ध समाप्त नहीं हुआ है। पर उन छह राज्यों में विशेष कड़ाई की जरूरत है, जहां कोरोना के ज्यादातर मामले दर्ज हो रहे हैं। सभी को मिलकर इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह करना है। केरल में मामले आधे हुए हैं, तो महाराष्ट्र में दोगुने से भी अधिक हो गए हैं। विकसित राज्य आखिर देश के सामने कैसी मिसाल पेश कर रहे हैं? ऐसे राज्य, जिन्हें अपनी संपन्नता पर गर्व है, उनके लिए कोरोना परीक्षा बनकर आया है। लोगों को नए सिरे से सावधान होना पड़ेगा। लॉकडाउन की प्रशंसा कोई नहीं करेगा, लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि लॉकडाउन की नौबत के लिए कौन जिम्मेदार है? वह सरकार जो बार-बार दिशा-निर्देश जारी करती है या वे लोग, जो एक कान से सुन दूसरे से निकाल देते हैं? टीकाकरण जारी है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम निडर घूमने लगें। विशेषज्ञों ने भी बता दिया है कि टीकाकरण की अभी जो गति है, हम 2024 में ही सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर सकेंगे। तब तक सतर्कता ही प्राथमिकता है।

4.नंदीग्राम में महासंग्राम

ध्रुवीकरण की राजनीति के नहले-दहले

कभी एक अनजाने से गांव नंदीग्राम को अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में लाकर वाम सरकार के पराभव की इबारत लिखने वाली ममता बनर्जी ने आज उसी नंदीग्राम से विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा करके भाजपा को रणनीति बदलने को मजबूर कर दिया है। भाजपा ने कभी ममता का दहिना हाथ रहे जिस शुभेंदु अधिकारी को दक्षिणी बंगाल में पार्टी को स्थापित करने के लिये प्रतिनिधि चेहरा बनाया था, ममता ने उसी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा करके संग्राम के कायदे बदल दिये हैं। अपनी परंपरागत भवानीपुर सीट के बजाय नंदीग्राम को केंद्र में लाकर ममता एक तीर से कई शिकार करने की सोच रही हैं। दरअसल, पिछले लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा दक्षिण बंगाल के इस इलाके में ज्यादा कुछ नहीं कर पायी थी। ममता भाजपा की इस महत्वाकांक्षा पर विराम लगाकर सत्ता के समीकरणों को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही है। दरअसल, इस सीट में अल्पसंख्यकों की संख्या निर्णायक रही है। पार्टी कैडर के वोट हासिल करने के बाद अल्पसंख्यक वोट मिलने से प्रत्याशी की जीत निश्चित हो जाती है। भाजपा मानकर चल रही थी कि ममता बनर्जी अल्पसंख्यक प्रत्याशी को टिकट देगी तो जयश्री राम के नारे के साथ उसकी झोली वोटों से भर जायेगी। लेकिन ममता बनर्जी ने खुद चुनाव लड़ने का फैसला करके भाजपा को रणनीति बदलने को मजबूर कर दिया है। इस इलाके में तृणमूल कांग्रेस का मजबूत कैडर रहा है लेकिन भाजपा यहां कार्यकर्ताओं के मामले में पिछड़ी हुई थी। वह मानकर चल रही थी कि शुभेंदु अधिकारी के समर्थक कैडर की कमी को पूरा कर देंगे। इस  इलाके में शुभेंदु अधिकारी परिवार का खासा दबदबा रहा है। तृणमूल कांग्रेस का जो कैडर दुविधा की स्थिति में था, वह ममता के नये दांव के चलते अब पार्टी की ओर लौटने लगा है। जो शुभेंदु अधिकारी के लिये समस्या खड़ी कर सकते हंै। एक वजह यह भी है कि ममता बनर्जी बचाव के बजाय अधिक आक्रामक मुद्रा में नजर आ रही हैं।

दरअसल, राजनीति के तमाम मुद्दों के अलावा ममता ने नंदीग्राम में भाजपा के हिंदुत्व कार्ड का जवाब देना शुरू कर दिया है। जय श्रीराम के नारे का मुखर विरोध करने वाली ममता ने हिंदू वोटरों पर डोरे डालने शुरू कर दिये हैं। अब तक भाजपा ने ममता की जो मुस्लिम तुष्टीकरण की छवि गढ़ी थी, ममता ने उसकी काट तलाश ली है। अपनी नंदीग्राम रैली के मंच से चंडी पाठ के उच्चारण, मंदिरों की परिक्रमा तथा शिवरात्रि को घोषणापत्र जारी करने के वक्तव्य ममता की रणनीति में स्पष्ट बदलाव के संकेत हैं। इलाके के जिन सत्तर फीसदी बहुसंख्यक वोटों के जरिये भाजपा जिस नंदीग्राम को जीतने की योजना बना रही थी, उसमें ममता ने सेंध लगानी शुरू कर दी है। अब ममता अपनी धार्मिक प्रतिबद्धताएं जताकर और खुद को ब्राह्मण की बेटी बताकर छवि बदलने की कवायद में जुटी है, जिससे लगता है कि नंदीग्राम हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला में तब्दील होता जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र के लिये यह विडंबना ही कही जायेगी कि जिस नंदीग्राम में विकास और जमीनी मुद्दों पर वोट मांगे जाते, वहां धार्मिक ध्रुवीकरण का सहारा लेकर चुनावी जीतने के लिये कवायदें की जा रही हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत कदापि नहीं कहा जा सकता। निस्संदेह, ममता के सामने अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है। एक दशक के कार्यकाल के बाद उसका मुकाबला एक ऐसे दल से है जो अपने भरपूर संसाधनों और आक्रामक चुनाव रणनीति से पूरे देश में जीत का अभियान चला रहा है। दल को केंद्रीय सत्ता में होने का अतिरिक्त लाभ भी है। मगर इसके बावजूद अपने आक्रामक तेवरों व जुझारू राजनीति के लिये प्रसिद्ध ममता बनर्जी भी आसानी से हथियार डालने वाली राजनेता नहीं है। पश्चिम बंगाल में तीन दशक से अधिक की वामपंथी सत्ता का अंत करने वाली और कांग्रेस से निकलकर कांग्रेस के खिलाफ निर्णायक जीत हासिल करने वाली ममता बनर्जी भी राजनीति के सभी सधे दांव खेलना जानती है। और सभी दांव वह भाजपा के खिलाफ अपना भी रही है।

 

 

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