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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.कुछ भूलना, कुछ भटकना

सियासी, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल के बीच कोरोना प्रभाव के सामने, सरकार के दायित्व की बानगी में मैड़ी होला-मोहल्ला उत्सव पर रोक को देखा जाएगा, लेकिन सिर्फ यही एक बड़ा कदम नहीं हो सकता। दरअसल मेले, भंडारे, भीड़, चुनाव और कुछ समय बाद शादी समारोहों की शुरुआत के सदके सरकार की बपौती क्या होगी। क्या हम एक होला-मोहल्ला रोक कर इतिश्री कर लें या ग्रामीण मेलों में बजते टमक या छिंज की उड़ती धूल को फिर विराम देना चाहेंगे। मंडी में शिवरात्रि की जलेब में अगर प्रमुख नेता मास्क विहीन मुद्रा में फोटाग्राफरों के चहेते बनें या नगर निगम चुनावी प्रचार की अहमियत में कोरोना को विस्मृत कर दें, तो यह कुछ भूलने और कुछ भटकने की स्थिति है। शिवरात्रि महोत्सव की शरण में प्रदेश की थाती बेशक हमें प्रेरित करती है, लेकिन भंडारों में समर्पित शक्ति का निर्विघ्न उपयोग उस समय चुनौतियों से भर जाता है, जब प्रसाद ग्रहण करने की पंक्तियों में न सामाजिक दूरी और न ही मास्क दिखाई देती है।

 कुछ इसी अंदाज में भीड़ बनता समुदाय अपने आसपास के माहौल में जिंदगी बटोर कर भी उस उन्माद से नहीं बच सकता जो कोरोना आतंक की तरह फिर खतरे पेश कर रहा है। बेशक होला-मोहल्ला पर लगी रोक एहतियाती तौर पर आवश्यक है। खास तौर पर पड़ोसी राज्यों की खबरों से विमुक्त होकर हम यह सोच भी नहीं सकते कि रिश्तों का ऐसा सांस्कृतिक आदान-प्रदान किया जाए, लेकिन तस्वीर यहीं मुकम्मल नहीं होती। सप्ताहांत पर्यटन की नई ताजगी में सैलानियों का रेला जिस तरह हिमाचल में अंगीकार है, उसमें भी तो वहीं यात्री हैं। पंजाब-हरियाणा की सीमा से सटे मंदिरों खासतौर पर चिंतपूर्णी, दियोटसिद्ध, नयनादेवी व बाला सुंदरी परिसरों में आ रही रौनक की चीरफाड़ करें, तो हर दिन कोई न कोई ‘होला मोहल्ला’ दस्तक दे रहा है। हिमाचल में श्रद्धालुओं के जत्थे उसी पंजाब, हरियाणा या ऐसे अन्य राज्यों से आ रहे हैं, जो कोरोना के अगले चरण में अच्छा संदेश नहीं दे रहे। ऐसे में मंदिर पर्यटन की छूट में भी पुनर्विचार की जरूरत है। जिस तरह छात्र समुदाय के भीतर कुछ उदाहरण सचेत कर रहे हैं, उन्हें भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन देश अपनी ही मनमर्जियों में चल रहा है। कहीं दो पल की छूट गनीमत नहीं और कहीं पूरी छूट भी एक सफर है। यही सफर आज हिमाचल में भी राजनीतिक मुहाने तराश रहा है। पूरा जोर नगर निगम चुनावों में अपनी-अपनी हैसियत का परचम लिए चल रहा है। कल चार बड़े शहरों के 64 वार्डों में चुनावी कदम अगर पांच सौ उम्मीदवारों के साथ भी आगे बढ़ते हैं, तो काफिले किस बात के सबूत होंगे।

 कौन सा घर इन कदमों को रोक पाएगा या माहौल की सरमस्तियों में कोरोना के साये मसल दिए जाएंगे। आश्चर्य यह भी कि प्रदेश कोरोना के खिलाफ अपनी भुजाओं पर टीकाकरण के चिन्ह लेकर चला है, लेकिन शर्तों के प्रतीक पूरी बस्ती को समाहित नहीं करते। प्रचार सामग्री और माहौल की बेताबी को ढोते मीडिया कर्मी फिर इसी भीड़ के बीच कहीं चुनाव, कहीं मेलों, कहीं मंडी शिवरात्रि की रौनक, तो कहीं नेताओं की प्रेस कान्फ्रेंसों में शरीक होंगे, लेकिन चर्चाओं के दौर और मंत्रिमंडलीय फैसलों ने इस वर्ग को वॉरियर घोषित करने से परहेज किया है। क्या हिमाचल के पास पत्रकारों के लिए वैक्सिनेशन के हजार टीके नहीं हो सकते। इसी तरह अगर चुनावों में चार नगर निगम खड़े करने हैं, तो क्या इनकी परिधि में वैक्सिनेशन पर जोर नहीं दिया जा सकता। ऐसे में हिमाचल कोकोरोना के खिलाफ अपने सुरक्षा कवच को फैलाना होगा। निश्चित रूप से आर्थिकी के समावेश में वित्तीय हाथियों को काफी समय तक बांधा नहीं जा सकता। मंदिरों में श्रद्धालु, पर्यटन स्थलों में सैलानी, बसों में यात्री और मेलों में जनता को कब तक रोकेंगे, लेकिन इसके लिए व्यवस्थागत तैयारियां, तहजीब और तरीके सुनिश्चित करने होंगे। इससे पहले कि फिर से आर्थिकी को रेंगना पड़े, छात्रों को पढ़ाई से मजबूर होना पड़े या बाजार को अपने सूनेपन से लड़ना पड़े, फिर से जनता का अभिप्राय और सरकार के प्रयत्न एकजुट होकर इतना तो चल सकते हैं कि अनहोनी को टाला जा सके।

2.आंदोलन में राज्यपाल

किसान आंदोलन को लेकर भारत सरकार के भीतर ही एक बड़ा विरोध सामने आया है। उसे सलाह और नसीहत भी माना जा सकता है। मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सरकार को आगाह किया है कि किसानों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। उनसे बातचीत का सिलसिला शुरू करना चाहिए। यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा दिया जाता है, तो किसान मान जाएंगे। किसी भी सूरत में किसानों को नाराज़ नहीं करना चाहिए। राज्यपाल का दावा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया है कि किसानों को खाली हाथ न जाने दें। वे खाली हाथ लौटने वाले नहीं हैं। यदि उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा, तो वे (खासकर सिख) 300 सालों तक इस कार्रवाई को नहीं भूलेंगे।’ राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसीन, भाजपा के किसी वरिष्ठ नेता का, यह पहला बयान है। साररूप में बयान भारत सरकार के अभी तक के रुख के विपरीत है। सरकार ने 22 जनवरी के बाद किसानों से किसी भी तरह का संवाद नहीं किया है और न ही प्रधानमंत्री मोदी ने कोई पेशकश की है। फोन कॉल का क्या हुआ, यह भी प्रधानमंत्री ही बता सकते हैं। राज्यपाल भी भारत सरकार का हिस्सा होता है, क्योंकि राज्यों में वह केंद्र सरकार का ही प्रतिनिधि होता है। अक्सर संवैधानिक पदासीन व्यक्ति ऐसे बयान नहीं देते, लेकिन सत्यपाल मलिक कर्म, धर्म, आत्मा और राजनीति से किसान नेता रहे हैं। वह सम्मानित नेता डा. राममनोहर लोहिया के शिष्य रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह की पार्टी ‘लोकदल’ के बड़े पदाधिकारी रहे हैं। प्रख्यात किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के भी बेहद करीबी रहे हैं। सरकारों और टिकैत के बीच संवाद और समझौते का जरिया बनते रहे हैं।

 किसानों की राजधानी बागपत उनका बुनियादी कार्यक्षेत्र रहा है। भाजपा में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और किसान मोर्चा के सर्वेसर्वा के तौर पर काम किया है। उन्होंने संकेत दिया है कि वह किसान नेताओं और सरकार के बीच ‘मध्यस्थ’ की भूमिका निभाने को तैयार हैं। बेशक किसान नेताओं ने इस बयान का भरपूर स्वागत किया है, लेकिन अहम सवाल यह है कि सरकार के जो अंतर्विरोध सार्वजनिक हुए हैं, उन पर प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया क्या रहेगी? राज्यपाल को ऐसे बयान देने की स्वतंत्रता नहीं है। राज्यपाल मलिक किसानों की पैरवी कर रहे हैं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, बल्कि यह एक राजनेता की संवेदनशीलता है, लेकिन आंदोलन के साथ-साथ किसान नेताओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं और संबद्धता भी स्पष्ट होने लगी है। बंगाल में नंदीग्राम, सिंगुर और अन्य राज्यों में आयोजित जनसभाओं के मंच पर हन्नान मोल्ला, अतुल अंजान सरीखे वामपंथी नेता मौजूद थे। राजेवाल और योगेंद्र यादव की सोच भी वामपंथी रही है। उनका बयान आया है कि अब लक्ष्य भाजपा को हराना है। यदि किसानों के सरोकार, शोषण, गरीबी और कर्ज़दारी आदि आंदोलन के लक्ष्य ‘सतही’ हैं और बुनियादी मुद्दा भाजपा और मोदी-विरोध है, तो राज्यपाल मलिक ही बताएं कि आंदोलित किसानों के साथ, किसी समाधान पर, कैसे पहुंचा जाए? किसान आंदोलन या तो पेशेवर, सामाजिक और गैर-राजनीतिक आंदोलन है अथवा सभी दलों की तरह राजनीतिक है! किसी भी तरह के मुखौटे स्वीकार्य नहीं हो सकते। राज्यपाल मलिक ऐसे पहले संवैधानिक व्यक्ति हैं, जिन्होंने कृषि के विवादास्पद कानूनों को किसान-हित में नहीं माना है।

 यानी सरकार के घोषित रुख का स्पष्ट विरोध…! लिहाजा प्रधानमंत्री के निर्णय का इंतज़ार रहेगा। हन्नान लोकसभा में सीपीएम के निर्वाचित सदस्य एक लंबे वक्त तक रह चुके हैं। अतुल अंजान सीपीआई के राष्ट्रीय सचिव हैं। इनके अलावा, कई और मुखौटाधारी हैं, जो किसान आंदोलन से जुड़े हैं। हमें वामपंथी होने पर आपत्ति नहीं है। वैसे भी यह आंदोलन अब राजनीतिक एजेंडा बन चुका है और सभी दल अपनी तरह इसे भुनाने में संलग्न हैं। ऐतराज राजनीतिक और गैर-राजनीतिक होने पर है। भाजपा-विरोधी दल 2014 में भी खिलाफ  थे और चुनाव लड़ते रहे हैं और आज भी उनकी नीयत यही है। सवाल यह है कि किसानों को आड़ बनाकर यह राजनीति क्यों खेली जाए? और क्यों खेलने दी जाए? किसानों की आर्थिक स्थिति और फसल से जुड़ी विवशताएं पूरा देश समझता है, लेकिन सरकारें क्यों नहीं समझ पातीं? करीब 50 साल से एमएसपी का मुद्दा ही लटका है। तो किसान की आर्थिक प्रगति कैसे संभव होगी? बहरहाल किसानों को लेकर एक नया आयाम खुला है। देखते हैं कि सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी?

3.रेल मंत्री का आश्वासन

जिस वक्त देश के दस लाख से अधिक बैंककर्मी सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों के निजीकरण की सरकारी घोषणा के खिलाफ हड़ताल पर थे, ठीक उसी समय रेल मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में कल कहा कि भारतीय रेल का कभी निजीकरण नहीं होगा और यह हमेशा भारत सरकार के ही हाथों में रहेगी। रेल मंत्री के इस आश्वासन के निहितार्थ समझे जा सकते हैं। अलबत्ता, उन्होंने रेलवे में तेज सुधार के लिए पूंजीगत जरूरतों की खातिर निवेश को आकर्षित करने की बात भी कही। इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछली कई सरकारें निजी-सार्वजनिक भागीदारी के जरिए भारतीय रेलवे के विकास को गति देने की कोशिशें करती रही हैं और स्टेशनों की साफ-सफाई से लेकर पेंट्री कार की सेवाओं तक में उन प्रयासों का फर्क भी दिखा है। पर इन दिनों सरकारी संस्थाओं के विनिवेश से जुड़ी जो सबसे बड़ी चिंता कर्मचारियों को है, वह उनकी नौकरी के भविष्य से जुड़ी है। साफ है, सरकार उन्हें आश्वस्त करने में विफल रही है कि इस कवायद में उनके हितों को लेकर पर्याप्त ‘सेफगार्ड’रखे जाएंगे।
भारतीय रेलवे न सिर्फ देश में सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराने वाले सरकारी संगठनों में से एक है, बल्कि यह देश के गरीब-गुरबों की भी सवारी है। यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों में यह विभाग राजनीतिक वर्ग के लिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का माध्यम बनकर रह गया। लोक-लुभावन बजटों में इसके तकनीकी विकास और इसकी पेशेवर जरूरतें हाशिए पर जाती रहीं। मगर सरकार अब इसके आधुनिकीकरण और तकनीकी तरक्की के प्रति प्रतिबद्ध दिख रही है, तो इसके लिए लाजिमी तौर पर उसे भारी आर्थिक संसाधनों की जरूरत होगी। अच्छी बात यह है कि भारतीय रेलवे के पास देश भर में भारी अचल संपत्ति है और सरकार उनके कुशल प्रबंधन से काफी संसाधन जुटा भी सकती है। लेकिन रह-रहकर रेलवे के निजीकरण की बात जनता में लौटती है, तो उसकी वजह यही है कि सरकार की तरफ से विगत समय में ऐसे प्रयोग हुए हैं, जो निजी क्षेत्र की ऐसी सहभागिता को प्रोत्साहित करते दिखे, जिनकी वजह से किराये में भारी बढ़ोतरी की आशंका भी साथ-साथ आई। रेलवे की आमदनी में कमी की एक वजह यह भी है कि देश में राजमार्गों के बेहतर होने से माल की ढुलाई ट्रकों व दूसरे भारी वाहनों के जरिए काफी होने लगी है। फिर पिछले एक साल में कोरोना के कारण सीमित परिचालन से रेलवे को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। महकमे पर आर्थिक दबाव कितना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्टेशनों पर भीड़ को हतोत्साहित करने की आड़ में प्लेटफॉर्म टिकटों के दाम काफी बढ़ा दिए गए हैं। यात्री किराये में बढ़ोतरी के अलावा टिकट रद्द कराने की सूरत में भी मुसाफिरों को अपनी जेब अब ज्यादा ढीली करनी पड़ रही है। ऐसे में, जब निजीकरण की कोई बात उठती है, तो आम आदमी को यही लगता है कि उसके कंधे पर बोझ और बढ़ जाएगा। आमदनी घटने का दबाव नागरिकों पर भी है और एक लोक-कल्याणकारी राज्य में सब कुछ निजी क्षेत्र के हवाले नहीं किया जा सकता। तब तो और, जब सामाजिक सुरक्षा के उपायों की भारी कमी हो। अत: रेलवे की देखभाल तो सरकार को ही करनी होगी। लोक-कल्याणकारी नजरिए से, पेशेवर प्रबंधन के साथ।  

  1. बाटला की हकीकत

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर न हो राजनीति

बहुचर्चित बाटला हाउस मामले में इंडियन मुजाहिदीन आतंकी आरिज खान को मौत की सजा के साथ मामला तार्किक परिणति तक पहुंचा है। इस मुद्दे पर बड़ा राजनीतिक प्रलाप सामने आया था। पूरे देश में हंगामा खड़ा किया गया। तमाम सियासी दांव-पेच खेले गये थे। मुठभेड़ को फर्जी बताया गया था। सपा के कई दिग्गज नेताओं और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इसके विरोध में आयोजित कार्यक्रम का मंच साझा किया था। दावा किया था कि यदि मुठभेड़ सच साबित हुई तो वे राजनीति छोड़ देंगी। दिल्ली पुलिस को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा गया कि समुदाय विशेष के युवाओं को निशाना बनाया जा रहा है। वोट बैंक के लिये सियासी रोटी सेंकने वाले नेताओं ने जांबाज इंस्पेक्टर की शहादत को भी नकारा। अब उसके परिजनों ने न्याय मिलने की बात कही है। निस्संदेह फैसला कांग्रेस समेत उन राजनीतिक दलों के लिये सबक है जो तथ्यों को नकार कर पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठा रहे थे। निस्संदेह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। सोमवार को दिल्ली की साकेत कोर्ट ने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या के लिये आरिज खान को दोषी करार दिया। अदालत ने अभियुक्त पर ग्यारह लाख का जुर्माना भी लगाया, जिसमें से दस लाख रुपये शहीद के परिवार को देने के निर्देश दिये गये हैं। दरअसल, दिल्ली पुलिस ने आतंकी आरिज के लिये यह कहकर फांसी की सजा मांगी थी कि यह महज हत्या का ही मामला नहीं वरन न्याय की रक्षा करने वाले कानून के रक्षक की हत्या का भी मामला है। कोर्ट ने माना भी कि आरिज समाज के लिये ही नहीं, राष्ट्र के लिये भी खतरा है। वह प्रशिक्षित आतंकवादी है और उसके सुधरने की उम्मीद नहीं है। आरिज और उसके साथी अन्य राज्यों में बम धमाकों से निर्दोष लोगों की हत्याएं करने की वजह से रहम के हकदार नहीं हैं। 

दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 13 सिंतबर, 2008 में बम धमाकों की एक शृंखला में 39 लोग मारे गये थे। करोल बाग, ग्रेटर कैलाश, कनाट प्लेस व इंडिया गेट आदि पांच जगह हुए धमाकों के अलावा तीन जिंदा बम भी बरामद हुए थे। धमाकों से दिल्ली के दहलने के बाद अपराधियों की तलाश में 19 सितंबर, 2008 को बाटला हाउस के एक फ्लैट पर पुलिस ने दबिश दी थी। पुलिस दल की आतंकवादियों से मुठभेड़ में दो संदिग्ध आतंकी मारे गये थे। पकड़े गये एक आतंकी शहजाद को 2013 में उम्रकैद की सजा सुनायी गई थी। तब के भगोड़े आरिज खान को 2018 में भारत-नेपाल सीमा से गिरफ्तार किया गया। घटना के करीब बारह साल बाद फैसला आने से पीड़ित पक्ष ने इसे न्याय की जीत बताया है। वहीं इस मुद्दे पर लंबे चले राजनीतिक विवाद का भी पटाक्षेप हुआ है। अब केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस पर हमलावर है। वह ममता बनर्जी के उस कथन कि यदि मुठभेड़ सच निकली तो राजनीति से संन्यास ले लेंगी, के बाबत वचन निभाने की बात कर रही है। दरअसल, सपा व तृणमूल कांग्रेस ही नहीं, कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह व सलमान खुर्शीद ने भी मोर्चा खोला था। आजमगढ़ से लेकर दिल्ली में जंतर-मंतर तक प्रदर्शन किये गये थे। इसके बावजूद कि इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पड़ताल के बाद दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट दी गई थी। यह भी कि बाटला हाउस से जुड़े आतंकवादियों के नाम कालांतर अहमदाबाद, फैजाबाद, जयपुर तथा सूरत के बम धमाकों से जुड़े पाये गये थे। बहरहाल, हालिया फैसले ने तुष्टीकरण की राजनीति को ही बेनकाब किया है। बचाव पक्ष ने मामले में हाईकोर्ट जाने की बात कही है। साकेत कोर्ट ने भी फैसले की प्रति हाईकोर्ट को भेजी है क्योंकि निचली अदालत फांसी की सजा तो दे सकती है, मगर अमल हाईकोर्ट की पुष्टि के बाद ही होता है। बहरहाल, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया के बीच यह फैसला कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ाने वाला है। 

 

 

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