इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1. अब सुशासन का इंतजार
चुनावों की फेहरिस्त में जनता की आस्था व अनुराग का ठिकाना हम स्थानीय निकायों की बनती-बिगड़ती तस्वीर में देख सकते हैं। हम दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके लौटी, रोहड़ू की लोहरकोटी की प्रधान अवंतिका के रूप में राजनीति के प्रति नई आस्था का श्रीगणेश कर सकते हैं या उन तमाम युवाओं को स्वीकार कर सकते हैं जो शिक्षित व करियर के प्रति वफादारी का सबूत बनकर इन चुनावों में सफल हुए। जाहिर तौर पर इस बार हिमाचल में स्थानीय निकाय चुनाव कठिन स्पर्श के मुलायम आसन साबित नहीं हुए। जागरूकता के नए स्तर पर हिमाचल के मतदाता ने अपने आसपास की सियासी धूल को झाड़ने का प्रयास नहीं किया, बल्कि अस्सी फीसदी के लगभग वोटिंग की हुंकार भरकर कई परिवर्तन भी लिख डाले। खासतौर पर शहरी मानसिकता में राजनीतिक टकराव की स्थिति का पैदा होना अब सीधे-सीधे विधायकों के लिए चुनौती सरीखा है, तो दूसरी ओर ग्रामीण परिवेश में कूदे पढ़े-लिखे युवाओं की तरफ जनता का भरोसा पूरे राजनीतिक चरित्र को बदल रहा है। ऐसे में ग्रामीण विकास के नए तौर तरीके व जनाधिकारों की गूंज सुनाई दे सकती है।
शहरों में करियर की धार खोज रहे युवा अगर गांव लौट कर ग्रास रूट से कुछ पाने की उम्मीद कर रहे हैं, तो योजनाओं के प्रति संवेदना बढ़ेगी। ऐसे में ग्रामीण रोजगार या स्थानीय आर्थिकी में कृषि-बागबानी तथा लघु उद्योगों का स्वरूप बदलना होगा। ग्रामीण पर्यटन एक नई संभावना के रूप में रेखांकित हो सकता है और इसके साथ-साथ सहकारिता आंदोलन को बल मिल सकता है। ग्रामीण संसद के चुनाव परिणाम, प्रशासनिक संबोधनों में सुशासन की अभिलाषा बढ़ा देते हैं। सीधे तौर पर विकास खंड अधिकारी अपने दायित्व और नेतृत्व के एहसास में पूरे परिदृश्य की तस्वीर बदल सकते हैं। स्थानीय निकाय चुनाव परिणाम की तलहटी में अगर सुशासन की खेती हो जाए, तो प्रगति और विकास के किस्से बदल सकते हैं। हिमाचल में टॉप हेवी एडमिनिस्ट्रेशन के जानिब से गांव के भविष्य को चुनना आसान नहीं, बल्कि पूरी मशीनरी को विकेंद्रीकृत करना होगा। महकमे गांव की दहलीज पर योजनाओं के फलक लिखें, तो ही आशातीत परिवर्तन आएगा। हर गांव को अपने भीतर नवाचार और प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ने की तरकीब ईजाद करनी है, तो सुशासन के तंत्र को व्यवहार में लाना ही पड़ेगा।
बहरहाल स्थानीय निकाय चुनावों का एक दौर गुजर गया, लेकिन एक फांस लेकर पहली बार नगर निगम चुनाव अपनी बिसात बिछा चुके हैं। बाकायदा सरकार के कुछ मंत्री शहरी आवरण में अपने औचित्य व रणनीति के प्रयोग कर रहे हैं। भाजपा के प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना भले ही मिशन रिपीट की नब्ज टटोल रहे हैं, लेकिन इसकी मुनादी नगर निगम चुनाव ही करेंगे। पांच शहरों की वोटिंग मानसिकता का पीछा करती सियासत अपने पिछले अनुभव से सीख सकती है और इसी परिप्रेक्ष्य में नगर पंचायतों से परिषदों तक के परिणाम नत्थी रहेंगे। घुमारवीं, नयनादेवी, सुजानपुर या कांगड़ा जैसे शहरों में जिस बुनियाद पर चुनाव हुए, उसके आधार पर सत्ता के लिए कई सबक हैं। इसी तरह विधानसभा क्षेत्रों के भीतर ग्रामीण चौपाल से रूठे-खिसके मंतव्य पर विधायक अपना-अपना ठौर देख सकते हैं। बहरहाल प्रदेश के पांच शहर अपने साथ एक नया रेला खड़ा कर सकते हैं। स्वशासन की अहम तस्वीर अगर इन शहरों में बनती है, तो आम नागरिक की ख्वाहिशों में लोकतांत्रिक मंसूबे चरितार्थ होंगे। ये पांच शहर नहीं, बल्कि पांच विधानसभा क्षेत्रों की जनता का मूड उजागर कर सकते हैं या यह भी कि हिमाचल का शहरीकरण अब सियासत की नई खोज बन जाए। शहरी प्रबंधन में ढर्रे की राजनीति से कहीं ऊपर उठकर सोच विकसित करने की जरूरत है और इस लिहाज से एक बड़े चारित्रिक बदलाव की कोशिश होनी चाहिए।
2. कानून पर रोक संभव नहीं!
कृषि के तीनों विवादास्पद कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने का सरकारी प्रस्ताव भी किसानों ने खारिज कर दिया। साझा समिति का गठन भी उन्हें कबूल नहीं है। किसानों ने अपनी अडि़यल मांग फिर दोहराई है कि कानून निरस्त करने से कम कुछ भी उन्हें स्वीकार नहीं। सभी फसलों पर लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर सरकार यथाशीघ्र कानून बनाए। जाहिर है कि किसान आंदोलन लंबा खिंच सकता है। दो माह तो बीत चुके हैं। गतिरोध अब तनावपूर्ण लगता है। अब किसान हुंकार भरने लगे हैं कि वे वैशाखी त्योहार तक भी आंदोलन पर बैठे रहने को तैयार हैं। कुछ आवाज़ें तो 2024 तक की सुनाई दे रही हैं। हजारों किसान दिल्ली की चार सीमाओं पर गोलबंद हैं और उनकी जिद टूटने के आसार नहीं लगते। असंख्य टै्रक्टर लेकर किसान पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और ओडिशा तक से राजधानी की तरफ कूच कर चुके हैं। कई प्रशासनिक अड़चनें झेल रहे हैं, लेकिन जुनून बरकरार है। हालांकि 22 जनवरी, शुक्रवार को भी भारत सरकार और किसान संगठनों के बीच संवाद का 11वां दौर सम्पन्न हुआ। जब दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह अड़े और डटे हैं, तो निष्कर्ष कैसे हासिल किया जा सकता है? सरकार के कानून स्थगन प्रस्ताव पर कई किसान संगठन उदार और लचीले भी दिखाई दिए। उनका मानना था कि कानून स्थगित हो जाएंगे, तो साफ मायने हैं कि ऐसे कानून अस्तित्व में ही नहीं हैं।
डेढ़ साल का समय कम नहीं होता। उस दौरान निरंतर संवाद से सहमति का रास्ता मिल सकता है। इस संदर्भ में किसानों की मैराथन बैठकें हुईं। एक ख़बर यह भी है कि 15 संगठन सरकार के प्रस्ताव के पक्ष में थे, लेकिन सभी संगठनों और आम सभा का बहुमत था कि प्रस्ताव खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि एक बार आंदोलन खत्म होने के बाद सरकार अपने रंग दिखा सकती है। इस सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दरअसल यह अवधारणा गलत और पूर्वाग्रही है। यह सरकार भी निर्वाचित है और देश के लोगों की अपनी सरकार है। आंदोलित किसान किसी ब्रिटिश सरकार के चेहरों से बातचीत नहीं कर रहे हैं। आखिर टकराव और जिद से समाधान क्या निकलेगा? वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों के अमल पर रोक फिलहाल लगा रखी है और एक समिति का गठन भी किया है। समिति किसानों के सभी पक्षकारों से बात करेगी और दो माह के बाद अपनी अनुशंसाएं सर्वोच्च अदालत को देगी। आंदोलित किसानों ने समिति का बहिष्कार भी कर रखा है। उन्हें न तो शीर्ष अदालत पर भरोसा है और न ही समिति को तटस्थ मानते हैं। बहरहाल किसी भी कानून पर रोक लगाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 245 के तहत सिर्फ सर्वोच्च अदालत को ही है। अदालत समिति की रपट मिलने के बाद कृषि कानूनों के अमल पर रोक हटा सकती है, लेकिन भारत सरकार ने 18 माह के स्थगन का जो प्रस्ताव किसानों को दिया था, वह उसके अधिकार-क्षेत्र में ही नहीं है। एक विधेयक संसद में पारित होकर और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद कानून बन जाता है, तो सरकार उसे रोक, निलंबित या ठंडे बस्ते में नहीं डाल सकती।
कानून को लागू करने का अधिकार सरकार को है, लेकिन एक बार गजट में अधिसूचना जारी होने के बाद सरकार कानून पर रोक नहीं लगा सकती। अलबत्ता सर्वोच्च अदालत से अनुरोध जरूर कर सकती है कि वह कानूनों पर रोक जारी रखे। अंतिम निर्णय अदालत को ही लेना है। लोकसभा के प्रख्यात महासचिव रहे डा. सुभाष कश्यप का मानना है कि बिल वापस लिए जाते रहे हैं। कानूनों को लागू करने में सरकारें देरी करती रही हैं। अधिसूचना जारी करने में विलम्ब किया जाता रहा है। कानून निरस्त भी किए गए हैं, लेकिन एक बार संसदीय और विधायी प्रक्रिया पूरी होने के बाद कानूनों को स्थगित करने अथवा ठंडे बस्ते में डालने का संदर्भ आज तक सामने नहीं आया है। शायद किसानों ने इस कोण से विचार नहीं किया होगा। वैसे सरकार कानून बनने से पहले बिलों को संसदीय स्थायी समिति या प्रवर समिति को विचारार्थ भेजती रही है। असंख्य बिलों को भेजा गया होगा। सरकार ने इन विवादास्पद कानूनों के संदर्भ में ऐसा क्यों नहीं किया? ये सवाल किसानों ने भी पूछे हैं और राजनीतिक विपक्षियों ने भी उठाए हैं। अब भी यदि कानूनों को निरस्त किया जाना है, तो सरकार को संसद में ही जाना पड़ेगा।
3.चंचल का जाना
भजन गायक नरेंद्र चंचल की विदाई एक ऐसी क्षति है, जिसे संगीत की दुनिया में हमेशा महसूस किया जाएगा। एक ऐसी आवाज का मालिक हमारे बीच से चला गया है, जो हमें रूहानी सुकून से भर देता था। उनकी आवाज खैर हमेशा हमारे साथ रहेगी। एक ऐसी आवाज, जिसे दूर से ही थोड़ा-बहुत सुनकर पहचाना जा सकता है। हमारी फिल्मों ने तो उनकी आवाज के जादू का कमोबेश इस्तेमाल किया ही, मगर भजन-जागरण की दुनिया में वह एक सरताज थे। अमृतसर में जन्मे चंचल दिल्ली आ बसे थे और काफी दिनों से बीमार थे। शुक्रवार दोपहर 80 की आयु में वह दुनिया को अलविदा कह गए। पंजाबी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन पर सबद शैली के बजाय सूफी शैली का ज्यादा प्रभाव था। दूर से आती और दूर तक जाने का एहसास कराती उनकी आवाज में एक आह्वान था, इसलिए भजन की दुनिया में उन्हें स्थान बनाने में बहुत वक्त नहीं लगा। उनकी आवाज में दर्द भी था और खुशी भी, पर उनसे भी ज्यादा गुहार। वही गुहार, जो सूफी गायकों में विशेष रूप से पाई जाती है। उनके गले को किसी इलेक्ट्रॉनिक इंजीनिर्यंरग की जरूरत नहीं थी। अपने स्वाभाविक स्वरूप में ही उनका जादू लोगों को संगीत से सराबोर करता था। उन्हें केवल भजन-कीर्तन के लिए ही नहीं, बल्कि बुल्ले शाह जैसे सशक्त भक्त कवि की रचनाओं को आम लोक व्यवहार में लाने का भी श्रेय दिया जा सकता है।
उन्हें 1973 में ज्यादा ख्याति राज कपूर की फिल्म बॉबी में गाए गीत, बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो… पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो… के लिए मिली थी। इसके अगले ही साल आई फिल्म बेनाम में उन्होंने न केवल एक बेहतरीन गीत गाया, बल्कि गायक के रूप में अभिनय भी किया था। मैं बेनाम हो गया हिंदी फिल्मों के अमर गीतों में शामिल है। मोहम्मद रफी के साथ गाया गीत तूने मुझे बुलाया शेरा वालिये को भला कौन भूल सकता है? चंचल की आवाज का अगर विश्लेषण किया जाए, तो उनकी सबसे बड़ी खासियत आलाप है। लहराती सुरीली आवाज, जिसमें खनक की पुरजोर मौजूदगी अलग भाव पैदा करती है। अपेक्षाकृत पतली या मीठी आवाज सुनकर ऐसा लगता है कि आवाज विशेष रूप से प्रार्थना-निवेदन के लिए बनी है। व्यक्ति जब भाव में बहता है, उसे जब ईश्वर या देवी मां से किसी चीज की गुहार करनी पड़ती है, तब उसकी आवाज में अनायास एक जोर पैदा होता है, ताकि उसे तत्काल और दूर तक सुना जाए। इसलिए उत्तर भारत में रात्रि जागरणों, माता की चौकी इत्यादि में नरेंद्र चंचल की बहुत मांग रहती थी। उन्होंने न जाने कितने भजन गायकों को प्रेरित किया। एक भजन सम्राट के रूप में अनूप जलोटा को लोगों ने बाद में जाना, लेकिन उनके पहले नरेंद्र चंचल अच्छी तरह जम चुके थे। जहां अनूप जलोटा की आवाज में शास्त्रीयता गूंजती है, वहीं नरेंद्र चंचल की आवाज में लोक संगीत का वैभव बसता है। वह आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हमेशा आम आदमी के भजन गायक बने रहेंगे। गायकों की आने वाली पीढ़ियां उनसे निरंतर सीखती रहेंगी। उनके भजन दूसरे गायकों को भी हमेशा प्रिय रहेंगे। जैसे अवतार फिल्म के लिए गाया उनका एक और गीत बहुत प्रसिद्ध है,चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है। अब यह गीत जब भी कोई गाएगा या सुनेगा, नरेंद्र चंचल की याद जरूर आएगी।
4. चमक और कसक
बाजार की उछाल आर्थिकी में भी नजर आये
बीते बृहस्पतिवार का दिन बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हुआ। तकरीबन डेढ़ सदी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि इसके संवेदी सूचकांक ने पचास हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर को छू लिया। यद्यपि दिन के अंत में कुछ गिरावट भी दर्ज की गई। दलाल स्ट्रीट ने इस ऊंचाई का जश्न भी मनाया लेकिन एक आम आदमी को यह सवाल जरूर कचोटता है कि शेयर बाजार कुलांचे भर रहा है और अर्थव्यवस्था कोरोना संकट से लड़खड़ाने के बाद चलनी ही शुरू हुई है। अर्थव्यवस्था का सिमटना और बाजार का उछाल लेना उसे तार्किक नजर नहीं आता। मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद बाजार में तेज गिरावट और तेज उछाल आम आदमी को असमंजस में डालती है। इसके बावजूद यह हकीकत है कि बीते दस महीने में शेयर बाजार के सूचकांक में दुगनी वृद्धि हुई है और बीते साल शेयर बाजार के निवेशकों ने पंद्रह फीसदी का लाभ लिया। जाहिर है कोरोना संकट के दौर में किसी अन्य क्षेत्र में शायद ही निवेश का ऐसा प्रतिफल मिला हो। लेकिन इसके बावजूद सवाल वही है कि शेयर बाजार अर्थव्यवस्था का आईना क्यों नहीं है। ऐसा नहीं है कि ऐसा भारत में ही हो रहा है। यह वैश्विक रुझान है और अमेरिका समेत कुछ अन्य देशों की अर्थव्यवस्था में भी ऐसा ही रुझान देखने को मिल रहा है। कुछ अर्थशास्त्री बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के संकुचन के बावजूद शेयर बाजार में उछाल के मूल में बाजार में नकदी की तरलता का अधिक होना है। दरअसल, एक हकीकत यह भी है कि बाजार अर्थव्यवस्था को भविष्य के नजरिये से देखता है। निवेशक की नजर भविष्य में अर्थव्यवस्था के रुझान पर होती है। वहीं आम आदमी की नजर अर्थव्यवस्था में उत्पादन और रोजगार की स्थिति पर होती है। दरअसल, शेयर बाजार की तुलना कार चलाने से की जाती है, जिसमें चालक की नजर दूर से आने वाले वाहन पर होती है। वह यह नहीं देख पाता कि सड़क में कहां गड्ढे हैं।
वास्तव में विश्वव्यापी शेयर बाजार में उछाल के तात्कालिक कारण भी रहे हैं। हाल ही में अमेरिका में चुनाव के बाद जो बाइडेन के सत्ता संभालने के बाद विश्वास बढ़ा कि विदेश नीति बेहतर होने से अब शांति कायम होगी। दूसरे, बाइडेन ने 19 खरब डालर के राहत पैकेज की घोषणा की है, जिससे बाजार संवेदनशील हुआ है। राहत पैकेज से डॉलर कमजोर होगा, जिसका लाभ उभरती अर्थव्यवस्थाओं को होगा। ऊंची ब्याज दर निवेशकों को भारत खींच लाती है। एक अन्य कारण यह भी कि कोरोना संकट के बाद ग्लोबल सेंट्रल बैंक ने बड़ी मात्रा में वैश्विक अर्थव्यवस्था में पैसा डाला, जिसका लाभ भारतीय शेयर बाजार को भी मिला। वहीं बड़ी अर्थव्यवस्थाएं महामारी से निपटने के लिये आर्थिक पैकेज दे रही हैं, जिससे बाजार में तरलता आने से शेयर बाजार में रौनक आई है। एक महत्वपूर्ण घटक यह भी है कि कोरोना संकट के दौरान वैश्विक शेयर बाजार से जुड़ी ऐसी कंपनियों में बहार आई जो अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधि चेहरा नहीं हैं। उनकी आय अन्य सैकड़ों कंपनियों के बराबर रही। भारत के संदर्भ में देखें तो अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की उम्मीद में शेयर बाजार में उछाल है। दूसरे सरकार द्वारा जो संरचनात्मक सुधार किये थे, उसका असर अब अर्थव्यवस्था पर दिखायी देने लगा है। वहीं बीते दस महीने में स्टॉक मार्केट में एक करोड़ नये खाते खोला जाना बता रहा है कि नयी पीढ़ी शेयर बाजार को बेहतर निवेश विकल्प के रूप देख रही है। वह प्रॉपर्टी व बैंकों में निवेश करने के बजाय तेज लाभ की राह शेयर बाजार में देख रही है। वहीं अब नये बजट की उम्मीदों ने बाजार की संवेदनशीलता को बढ़ाया है। बाजार को भरोसा है कि सरकार कमजोर क्षेत्रों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ज्यादा पैसा डालेगी, जिससे आर्थिकी में सकारात्मक बदलाव नजर आयेगा। निस्संदेह शेयर बाजार मुनाफे की आकांक्षा और आशंकाओं से गहरे तक प्रभावित होता है। यही वजह है कि वैश्विक शेयर बाजार में शुक्रवार को आई गिरावट ने भारतीय शेयर बाजार को भी झटका दिया।