इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.फिर सन्नाटों की कैद में
कब तक धूल भरे बादल से बारिश की उम्मीद करते, उनके रोजनामचे में शिकायत मौसम के गायब होने की है। यह स्थिति कोरोना वन से टू तक बिखरी व्यवस्था की है और जहां रोते-बिलखते मंजर के आंसू पौंछने का एहसास कराने की व्यथा भी है। सामने दिखाई दे रहा है कि सारे देश के बिगड़ते हालात हिमाचल में दस्तक दे चुके हैं, लेकिन हमारी करवटों के पैमाने अभी ढके हुए हैं। प्रदेश अपने भीतर की सक्रियता में पहले पंचायतों में सियासी झंडे खड़े करता रहा और अब ताज की बुलंदी में नगर निगमों में सत्ता की हिफाजत का रंग चढ़ा है। आदेश तो कड़े होते जाएंगे और बंदिशें भी कबूल होंगी, लेकिन जो पिछले साल से रौंदे गए उन्हें कौन गले लगाएगा। हिमाचल की इन्हीं गलियों में अपने सन्नाटों को तोड़ते कलाकार अगर फरियादी बन कर घूम रहे हैं, तो यह बेरोजगारी का शोर है।
कलाकारों की व्याख्या में हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष गवाही देता है और यह स्पष्ट है कि कोरोना काल की तमाम जिल्लतों का ठीकरा इस वर्ग के अनिश्चित भविष्य पर फूटा है। आश्चर्य यह कि हिमाचल का कला, भाषा, संस्कृति विभाग और अकादमी को खुद को ऑनलाइन परफार्मेंस में यह देखने की फुर्सत नहीं कि प्रदेश के भूखे कला-जगत की तकलीफ क्या है। अपनी ऑनलाइन चर्चाओं का दायरा बड़ा करते हुए,संपर्क साधना का बेहतरीन नमूना कुछ अधिकारी पेश कर सकते हैं, लेकिन तमाम कलाओं का संरक्षण तभी होगा अगर कलाकार के पेट की आग बुझेगी। ये लोग कब तक बैठकें करके सरकार के कान में कहने की कोशिश करेंगे या शिष्ट मंडलों के जरिए सत्ता से भर-पेट जीने की अरदास करेंगे। पालमपुर और धर्मशाला में मुख्यमंत्री से मिले कलाकारों के जत्थे जो वास्तविकता रख रहे थे, क्या उससे अनभिज्ञ रह कर भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी की ऑनलाइन श्रृंखला की प्रासंगिकता बची रहेगी। आश्चर्य यह कि कोविड काल में हिमाचल के सुर ढीले नहीं हुए, बल्कि सुर साधना के परिवेश को चोट लगी है। ऐसे में कला व संस्कृति महकमे के औचित्य से यह तो गुजारिश रही कि वह इस दौर की त्रासदी में फंसे हिमाचल के कलाकारों का कम से कम हाल चाल ही पूछ लेता। जाहिर है कलाओं के संरक्षण में हिमाचल के अनेक बिंदु हैं, फिर भी लोक-गीत संगीत जैसी विधाओं में जो लोग अपनी जिंदगी लगा रहे हैं, उन्हें यह पूछने का हक है कि कोविड काल में उनके लिए सरकार क्या कर रही। हिमाचल की गायन परंपराएं ही नहीं, बल्कि वाद्ययंत्रों से जुड़े समाज का एक पहलू हमेशा से जिंदगी का एहसास कराता है। ऐसे में कला को इवेंट बना कर छोड़ दें या यह सोचें कि शादी या सांस्कृतिक समारोहों में बैंड-बाजों के अलावा पारंपरिक वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन करते कलाकारों को प्रदेश की थाती मानते हुए किस हद तक प्रश्रय दें। विडंबना यह है कि हिमाचल का कलात्मक पक्ष भाषा विभाग के संज्ञा में ग्रसित है।
ऐसे में कला एवं संस्कृति के उद्देश्य को अलग करते हुए अकादमी बनानी होगी जिसका नेतृत्व कोई कला साधक करे, वरना भाषा अकादमी के नखरों का नूर, श्रोतों व दर्शक रहित मंचन के सिवाय और कर भी क्या सकता है। प्रदेश का बहुसंख्यक समाज जिस संस्कृति, लोक गीत-संगीत, परंपराओं व कलात्मकता का निर्वहन करता है, उसके परिप्रेक्ष्य में कलाकारों को यथोचित सम्मान व प्रश्रय मिलना चाहिए। कोविड काल अब नई परिस्थितियों का ऐसा जखीरा पैदा कर रहा है,जहां सदमे में पहुंच चुके पर्यटन व परिवहन क्षेत्र के प्रति फिर से चिंतन करना होगा। राजनीतिक आसमानों से फिर से पूछना पड़ेगा कि इनके नीचे राहगीर की दुनिया का खालीपन भी यही है कि रास्तों के कांटे क्यों देखे नहीं जा रहे। प्रदेश अपनी हुकूमत के हर्ष में यह कैसे भूल जाए कि जिन नगरों को उसने महानगर बना दिया, वहां के हर कोने में कोविड का प्रहार छिपा है। बेशक चार महापौर बनाने के बाद सियासी बोली व टोली ऊंची नजर आए, लेकिन नीचे जमीन पर आर्थिकी के सितारे हताश और निराश होकर गिरे हैं। वक्त हर मोड पर राजनीति को देख कर भले ही आगे बढ़ जाए, लेकिन जो फासले कोविड काल में पैदा हो चुके हैं, उनका दर्द हम सबके साथ चल रहा है। सरकार केवल सार्वजनिक क्षेत्र की चोंच में कर्ज की खुराक भर कर इतिश्री नहीं कर सकती, बल्कि बेसहारा हो रहे हिमाचल के उस दर्द को भी मरहम की जरूरत है, जो पिछले एक साल से अपनी चीख को दबाए बैठा है।
2.स्वास्थ्य ढांचा बेनकाब!
पहला दृश्य झारखंड की राजधानी रांची के सदर अस्पताल का है। पिता के शव के पास एक बेटी चीत्कार कर रही थी- ‘कोई डॉक्टर नहीं आया…बार-बार चीखती रही, तब भी कोई नहीं आया…पार्किंग में ही मेरे पापा की मौत हो गई। मंत्री जी! क्या आप मेरे पिता को लौटा सकते हैं? आपको सिर्फ वोट चाहिए, बेशक जनता मरती रहे।’ संयोगवश स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता अस्पताल में ही आए हुए थे। चीत्कार के सामने वह खामोश खड़े रहे। क्या बोलते…? दूसरा दृश्य बिहार की राजधानी पटना के एक अस्पताल का है। स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे मुआयना करने अस्पताल आए हुए थे। उसी दौरान एक पत्नी चीख-चीख कर, ज़मीन पर बैठी, गुहार कर रही थी- ‘मेरे पति को बचा लो…वह घंटों से एंबुलेंस में ही तड़प रहे हैं। कोई नहीं आया है देखने…!’ अंततः उस महिला के पति की मौत हो गई। महिला और उसके बेटे का रुदन इतना मर्माहत था कि कलेजा चीर कर रख दिया था! एक बेटी और एक पत्नी की चीखें सत्ता और व्यवस्था ने नहीं सुनी होंगी, क्योंकि वे तो बहरी होती हैं। हालांकि आंखों से तमाम विद्रूप और कुरूप सच दिखाई दिए होंगे! गुजरात में एक बेटे ने अपना मजबूर दर्द यूं बयान किया-‘अस्पताल में बेड और इलाज नहीं दे सकते, तो मेरे पिता को मौत का इंजेक्शन ही दे दो। कम से कम उनका तड़पना तो बंद होगा।’ अहमदाबाद में राज्य के सबसे बड़े अस्पताल के बाहर एंबुलेंस की एक कतार लगी है। उनमें कोरोना के गंभीर मरीज हैं। वे हांफ रहे हैं, क्योंकि ऑक्सीजन कम हो गई है।
वेंटिलेटर बाहर नहीं लगाए जा सकते, लिहाजा सांस उखड़ रही है। एंबुलेंस में ही कुछ को ऑक्सीजन देने या दूसरी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की कोशिश की जा रही थी। सड़क पर ही इलाज…अस्पताल में बिस्तर खाली नहीं है, लिहाजा कुर्सी पर बिठा कर ही इलाज किया जा रहा है। एक और वीभत्स दृश्य का उल्लेख करना चाहेंगे, जिससे स्पष्ट होगा कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी संवेदनहीन और अधूरी है! दृश्य यह था कि एक शव को कूड़े की थैली में लपेट-बंद कर श्मशानघाट भेजा जा रहा था। कचरे की गाड़ी में शव लादे जा रहे थे। एक साथ 35 शवों का कथित अंतिम संस्कार किया जा रहा था। अब तो यह सवाल भी उठता है कि क्या हमारी व्यवस्था में अंतिम संस्कार का मानवीय सम्मान भी हासिल होगा या नहीं? खुद लखनऊ के जिलाधिकारी का बयान सार्वजनिक हुआ है कि लोग सड़कों पर मर रहे हैं। हम क्या कर सकते हैं? क्या सरकार और प्रशासन की जवाबदेही इतनी-सी रह गई है? फोर्टिस अस्पताल के निदेशक डा. कौशल कांत मिश्र ने खुलासा किया है कि देश भर के अस्पतालों में कुल बिस्तर 20 लाख के करीब हैं। उनमें से करीब 5 लाख आईसीयू बेड हैं। क्या देश की करीब 139 करोड़ की आबादी के लिए बिस्तरों की यह संख्या पर्याप्त है? नतीजतन आम आदमी बीमारी और महामारी में तड़प-तड़प कर मर रहा है। देश के नेताओं, अमीर लोगों और वीआईपी जमात को कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि उनके लिए बिस्तर खाली और आरक्षित (अघोषित तौर पर) रखे जाते हैं। ये तमाम दृश्य टीवी चैनलों पर दिखाए गए। इनकी सूची बहुत लंबी और अंतहीन हो सकती है।
इसे तो दरिंदगी की हद ही कहेंगे कि मध्यप्रदेश के शिवपुरी के जिला अस्पताल में एक वार्ड ब्वॉय ने एक मरीज का ऑक्सीजन सपोर्ट ही हटा दिया। नतीजतन मरीज की मृत्यु हो गई। डॉक्टर कुछ भी दलीलें देकर अपने सहायक कर्मचारी को बचा सकते हैं, लेकिन यह जांच का मुद्दा है। बहरहाल इन दृश्यों के जरिए एक ही सवाल उठता है कि पिछला लॉकडाउन तो 68 दिन का था। उस कोरोना-काल में जब सरकार स्वास्थ्य ढांचे को दुरुस्त कर रही थी, तमाम तैयारियां की जा रही थीं, तो अब संक्रमण की नई लहर के जबरदस्त प्रहार के दौरान व्यवस्था चरमरा क्यों गई है? ऐसी टिप्पणियां प्रमुख डॉक्टरों की हैं, जो व्यवस्था के अधूरेपन के सवाल उठाकर देश को सचेत कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में भी स्थितियां हाथों के बाहर हो चुकी हैं। कई अस्पतालों में 200-300 की प्रतीक्षा-सूची है। अस्पताल टेलीफोन नहीं उठा रहे हैं। कोई भी सूचना पूरी नहीं है और संक्रमण पिछली लहर से दोगुना हो चुका है। देश भर में संक्रमित मरीजों का आंकड़ा 2 लाख को पार कर चुका है। वरिष्ठ डॉक्टर मान रहे हैं कि यह संख्या 3 लाख रोज़ाना से भी बढ़ सकती है। क्या वह नौबत भी आने वाली है कि आम आदमी को लावारिस की तरह मरने को छोड़ दिया जाए?
3. कोरोना में महंगाई
खुदरा बाजार में तो महंगाई का असर पहले ही दिखने लगा था, लेकिन अब थोक महंगाई के आंकड़े भी सामने आ गए हैं। थोक महंगाई आठ साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। थोक महंगाई के लिए सीधे-सीधे कच्चे तेल और धातु की कीमतों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिसके चलते थोक कीमतों पर आधारित मुद्रास्फीति मार्च में बढ़कर 7.39 प्रतिशत हो गई थी। एक महीने में महंगाई की यह बड़ी छलांग है, क्योंकि फरवरी में यह मुद्रास्फीति महज 4.17 प्रतिशत पर थी। इसके पहले थोक महंगाई अक्तूबर 2012 में 7.4 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर थी। एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि पिछले साल चूंकि मार्च में ही यह मुद्रास्फीति कम थी, इसलिए तुलनात्मक रूप से अभी महंगाई ज्यादा नजर आ रही है। पिछले साल मार्च महीने में महंगाई दर 0.42 प्रतिशत ही थी। फरवरी के महीने में चूंकि तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी की जा रही थी, उसका असर इस मुद्रास्फीति पर पड़ना तय था। पेट्रोल, डीजल की बढ़ती कीमतों की वजह से ही मार्च में ईंधन और बिजली की मुद्रास्फीति 10.25 प्रतिशत रही, जो फरवरी में महज 0.58 प्रतिशत थी। आंकड़ों के अनुसार, मार्च में खुदरा मुद्रास्फीति चार महीने के उच्चतम स्तर 5.52 प्रतिशत पर पहुंच गई थी। महंगाई का बढ़ना कतई नहीं चौंकाता, क्योंकि एक समय महंगाई को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा था। यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी नीतियों से महंगाई के पक्ष को मजबूत किया। यह माना गया कि महंगाई को कुछ बल देना देश की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जरूरी है, ताकि उत्पादकों को लाभ हो। लॉकडाउन के दौर में ज्यादातर उत्पादों के दाम काबू में थे, उत्पाद बहुत मुश्किल से बिक रहे थे, लेकिन जैसे ही बिक्री में तेजी आई, दाम बढ़ने लगे। कीमतों के बढ़ने का यह क्रम हम सब्जियों से लेकर घर-जमीन तक देख सकते हैं। नवंबर के बाद के तीन महीने ऐसे रहे हैं, जब मनमाने ढंग से चीजों की कीमतों को बढ़ने दिया गया है, नतीजा सामने है। वैसे भी, यह बताया जाता है कि मुद्रास्फीति महंगाई की पूरी कहानी बयान नहीं करती है। सब्जियों-फलों के दाम फिर बढ़ने लगे हैं, जो कि गरमियों में होता ही है। तेल की कीमतें चुनाव की वजह से स्थिर हैं, लेकिन मतदान होने के बाद तेल कंपनियों के घाटे का रोना फिर सुनाई पड़ सकता है। यह ऐसा समय है, जब सरकार को महंगाई के प्रति सजग हो जाना चाहिए। कोरोना का कहर चरम पर पहुंच रहा है। गरीब व मध्यवर्गीय आबादी सुरक्षित ठिकानों की ओर निकल पड़ी है। लोग अपने बजट की चिंता करने लगे हैं। जो काम ऑनलाइन संभव नहीं हैं, उन सब पर असर दिखने लगा है। महंगाई को एक सीमा तक ही बढ़ने की इजाजत दी जाए। हो सकता है, भारतीय रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति में बदलाव करे, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है कि तेल, ईंधन की कीमतों को स्थिर रखा जाए। तेल और रसोई के खर्च को बढ़ने से रोकना आम लोगों के खाते में नकद राहत देने से बेहतर है। याद रहे, लॉकडाउन के समय लोग संभल गए थे, क्योंकि महंगाई ज्यादा नहीं थी। इस बार भी महंगाई को काबू में रखना अनिवार्य है। इसके साथ ही जिन जमाखोरों का दुस्साहस वैधानिक समर्थन से बढ़ा हुआ है, उन पर भी लगाम जरूरी है, ताकि बाजार में किसी चीज की कालाबाजारी न हो
4. आत्मघाती भीड़तंत्र
सरकार जवाबदेह, जनता जिम्मेदार बने
देश में प्रतिदिन दो लाख से अधिक नये संक्रमितों का सामने आना महामारी की गंभीरता को दर्शा रहा है। इस बार के बदले हुए वायरस की गति न केवल तेज है बल्कि घातक भी है। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रतिदिन एक लाख से दो लाख लोगों के संक्रमित होने में महज दस दिन लगे। चिंता की बात यह कि इस बार संक्रमित होने वालों में युवा व बच्चे ज्यादा हैं। खासकर तीस से चालीस वर्ष आयु वर्ग की संख्या, जिनकी अधिक जनसंख्या के चलते सामाजिक सक्रियता ज्यादा है। इन डरावने आंकड़ों के बीच हरिद्वार में चल रहे कुंभ में कोरोना नियमों का उल्लंघन करती लाखों लोगों की भीड़ विचलित करती है। मंगलवार के शाही स्नान में बताते हैं कि चौदह लाख लोगों ने स्नान किया। सोचकर डर लगता है कि जब देश के विभिन्न राज्यों से आये तीर्थयात्री अपने घरों व शहरों को लौटेंगे तो उसके बाद क्या स्थिति होगी। कुंभ क्षेत्र में हो रही जांच में हजारों की संख्या में संक्रमित तीर्थयात्री सामने आये हैं, जिनमें आम लोग ही नहीं, अखाड़ों के नामी संत-महंत भी शामिल हैं जो किसी तरह भी मास्क लगाने को तैयार नहीं हैं और शारीरिक दूरी का परहेज भी नहीं कर रहे हैं। देश में व्याप्त कोरोना संकट के बीच सार्वजनिक स्थलों पर ऐसा व्यवहार विचलित करने वाला है और भीड़ की सामूहिक चेतना पर सवाल उठाता है। उस पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह का बेतुका बयान सामने आता है कि गंगा मैया की कृपा से कोरोना नहीं होगा। इससे पहले भी उनके कई बचकाने बयान सामने आ चुके हैं और जांच रिपोर्ट के बगैर कुंभ आने के फैसले के बाद उत्तराखंड हाईकोर्ट ने तीर्थयात्रियों के लिये जांच रिपोर्ट लाना अनिवार्य किया था। निस्संदेह, हरिद्वार प्रशासन के लिये कुंभ का प्रबंधन एक टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। प्रशासन अखाड़ों और संतों को समझाने का प्रयास कर रहा है कि इस चुनौतीपूर्ण समय में कुंभ के शेष पर्वों को टाल दिया जाये। यह स्थिति एक विवेकशील समाज के लिये असहज स्थिति पैदा करती है। सामूहिक विवेक पर सवालिया निशान लगाती है।
कमोबेश यही स्थिति देश के चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों को लेकर भी पैदा हुई। तीन राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में तो जैसे-तैसे चुनाव संपन्न हो गये हैं, लेकिन रणक्षेत्र बने पश्चिम बंगाल में बाकी चार चरणों का चुनाव शासन प्रशासन के लिये गले की हड्डी बना हुआ है। यह मांग की जा रही थी कि शेष चार चरणों का मतदान विकट परिस्थितियों को देखते हुए एक ही चरण में करा दिया जाये। लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसी किसी संभावना से इनकार किया है। निस्संदेह, ऐसे फैसलों को राजनीति गहरे तक प्रभावित करती है और राजनीतिक दलों के नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर ऐसे निर्णय लिये जाते हैं। बहरहाल, चुनाव रैलियों, रोड शो और लंबे जनसंपर्क अभियान के बाद इन राज्यों में कोरोना संक्रमण में अप्रत्याशित वृद्धि सामने आयी है, जो कि डराने वाली है। नेता तो चुनाव जीत-हार के निकल जायेंगे, लेकिन इन इलाकों की जनता को उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। जिस सिस्टम की पहले ही सांसें उखड़ी हुई हैं वो क्या समाज को चिकित्सा सहायता उपलब्ध करा पायेगा? जिन राज्यों में कोरोना का कहर ज्यादा है, वहां मरीजों की बेबसी विचलित करने वाली है। आक्सीजन का संकट और जीवन रक्षक दवाओं की कालाबाजारी व्यथित करती है। सवाल यह है कि जब देश की स्वतंत्रता को सात दशक पूरे हो चुके हैं तो हम जनता में यह विवेक क्यों पैदा नहीं कर पाये कि वह भीड़तंत्र का शिकार न बने। क्यों उसे राजनीतिक रैलियों और धार्मिक आयोजनों की भीड़ का हिस्सा बनना अपनी जान की कीमत से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है? क्यों वह देश के संक्रमण हालात से अनभिज्ञ बना हुआ है, जबकि हमारा चिकित्सातंत्र पहले से ही डॉयलिसिस पर चल रहा है। आखिर हमारे समाज में ऐसा प्रगतिशील नेतृत्व क्यों पैदा न हो पाया जो लोगों को राजनेताओं से इतर जीवन रक्षक तर्कशील सलाह दे सके और उसका अमल सुनिश्चित करा सके ताकि भीड़तंत्र आत्मघाती साबित न हो।