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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.सोलन निगम का ताला खुला

अंततः सोलन शहर के ताले खुले और कांग्रेस की चिडि़या बाहर निकली। सफेद धुली हुई, पंख खोलती हुई। नगर निगम चुनाव का अंतिम पिंजरा खुला और सोलन के पहले महापौर पूनम ग्रोवर तथा उप महापौर के रूप में राजीव कौड़ा मिल गए। हम इसे राजनीतिक जीत-हार के बीच नागरिक फासलों का हिसाब लगाएं, तो पता चलेगा कि इन करवटों में किसका नफा और किसका नुकसान हुआ। एक अनावश्यक नौटंकी के कुछ दिन स्थानीय स्वशासन की विरासत को गंदा जरूर कर गए और आगे चलकर नगर व सरकार के बीच यही खटास देखी जाए, तो कोई हैरानी नहीं होगी। यह इसलिए भी कि वर्तमान सत्ता के दौर में धर्मशाला नगर निगम को तमाम कड़वे घूंट पीने पड़े जो अमूमन सत्ता और विपक्ष को बांटते हैं। शहरी और ग्रामीण आवरण में जनता के बीच सियासत को ढूंढना भले ही पार्टियों की कसरत के लिए सुखद हो, लेकिन शहरों के भविष्य के लिए किसी तरह का मतभेद घातक है।

 सोलन के फैसले के बाद हिमाचल में दो नगर निगम कांग्रेस और दो ही भाजपा के चुनाव चिन्ह को तसदीक कर रहे हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हें प्रदेश की सत्ता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यह सही होगा कि सरकार धर्मशाला और मंडी को अपने नजरिए से देखेगी और पालमपुर व सोलन को विपक्ष के खाते में डाल कर चलेगी। आगे चलकर सबसे कठिन प्रश्न तो शहरी गांवों के नए अस्तित्व का रहेगा, क्योंकि अभी कई अड़चनें भौगोलिक व आर्थिक दृष्टि से रहेंगी और इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में शहरों को अपने भीतर नई संस्कृति और सुशासन की नई पद्धति विकसित करनी होगी। सर्वप्रथम हर नगर निगम का भौगोलिक सीमांकन इस दृष्टि से होना चाहिए ताकि अगले सौ साल तक नागरिक सुविधाओं का खाका कमजोर न पड़े। इस दृष्टि से हर शहर की अपनी खासियत और विकास की संभावना रहेगी। सोलन के प्रश्न पालमपुर से भिन्न होंगे, तो मंडी व धर्मशाला में विकास की अलग संभावनाएं रहेंगी, दोनों दलों को अपने भीतर शहरी राजनीति का अलख जगाते हुए यह विश्लेषण भी करना होगा कि दो शहरों में जीत और दो में हार के कारण क्या रहे। ऐसे में कांग्रेस ने सोलन की जीत में शहरी मुद्दों को लेकर कमर कसी, तो अब इन पर अमल की गुजारिश रहेगी। वहां कांग्रेस के राजिंद्र राणा व केवल सिंह पठानिया ऐसे नेता बनकर उभरे हैं, जो पार्टी को रणनीतिक तौर पर मुकाबला करना सिखा रहे हैं। हमारा मानना है कि चारों शहरों के बीच सोलन की राजनीतिक कवायद यह जरूर साबित कर रही है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस को किस शिद्दत से चलना होगा। कांग्रेस ने वहां पेयजलापूर्ति, पार्किंग व कूड़ा-कचरा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा, जबकि धर्मशाला, पालमपुर व मंडी के मुद्दा विहीन युद्ध में राजनीतिक आचरण की धींगामस्ती हुई।

सोलन के चुनाव में जनता ने अपना मत स्पष्ट करते हुए मेयर और डिप्टी मेयर से उम्मीदों का नया रिश्ता जोड़ा है। कमोबेश इसी आशा से अन्य शहरों के महापौर व उप महापौर देखे जाएंगे, इसलिए सरकार को शहरी सत्ता को प्रश्रय देते हुए इसे वित्तीय शक्तियां तथा विशेषाधिकार सौंपने होंगे। शिमला के बाद धर्मशाला नगर निगम के अनुभव बताते हैं कि अभी  हिमाचल की शहरी व्यवस्था के ताज कितने ढीले व कांटों से भरे हैं।  सरकार के वर्तमान बजट में शहरी विकास की मद में कुल 708.6 करोड़ राशि रखी है जो पिछले साल के 819.26 करोड़ से करीब 10 प्रतिशत कम है। यह बजट नए या पुराने नगर निगमों की वित्तीय जरूरतों के अनुरूप कमजोर दिखाई देता है, अतः इस दिशा में योजनाओं-परियोजनाओं के साथ-साथ शहरी आत्मनिर्भरता के सपनों को जमीन पर लाने के लिए कड़ी मेहनत व सहयोग की अपेक्षा रहेगी। नगर निगम चुनावों ने सत्ता व विपक्ष की राजनीतिक समीक्षा नहीं की, बल्कि यह भी बताया कि हिमाचल में शहरीकरण की वास्तविक तड़प है क्या। कई अनुत्तरित प्रश्न चुनावी मोर्चे पर उभरे हैं और अगर सोलन के मुद्दों का ही संज्ञान लें, तो प्रदेश के हर शहर की पेयजलापूर्ति, पार्किंग, पार्क, कूड़ा-कचरा प्रबंधन, परिवहन तथा आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी पड़ेंगी। राज्य के टीसीपी कानून के साथ-साथ शहरी विकास की प्राथमिकताओं और प्रबंधन की दिशा में नई फेहरिस्त तैयार करनी पडे़ेगी।

 

2.डबल म्यूटेंट का संक्रमण

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 55 घंटे का वीकेंड कर्फ्यू लगाया गया है। राजस्थान में भी यही निर्णय लिया गया है। नाइट कर्फ्यू पहले से ही जारी है। कर्फ्यू की अवधि को छोड़ कर शेष दिन खुले रहेंगे, क्योंकि आम आदमी की आजीविका और कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की चिंता भी अहम सवाल है। आम दिनों में मॉल, जिम, स्पा, थियेटर, ऑडिटोरियम, खेल परिसर और पार्क आदि भी 30 अप्रैल तक बंद रहेंगे। इनसे आर्थिकी पर सीमित असर पड़ेगा। इसके अलावा, दिल्ली मेट्रो, बसें, ऑटो, टैक्सी, फैक्ट्रियां और अंतरराज्यीय परिवहन जारी रहेंगे, जो देशभर के लॉकडाउन के दौरान बंद रखे गए थे। रेस्तरां और क्लब भी पूरी तरह बंद रखे गए थे। यानी व्यापक स्तर पर तालाबंदी की गई थी। हालांकि तब कोरोना संक्रमण की मार इतनी भयावह नहीं थी, जितनी इस बार तमाम हदें पार करती जा रही है। इस 55 घंटे के कर्फ्यू का, कोरोना वायरस के फैलाव को लेकर, कितना असर होगा, उसका विश्लेषण मंगलवार या बाद के दिनों में किया जा सकता है, लेकिन हम एक बार फिर दोहरा दें कि ऐसी अल्पकालिक पाबंदियां कोरोना संक्रमण का उपचार साबित नहीं हो सकतीं।

 वायरस की गति को थामने या तोड़ने का विचार भी एक भ्रम है, ऐसा कई विशेषज्ञों का मानना है। खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तालाबंदी अथवा पाबंदियों के खिलाफ  रहे हैं, फिर भी उन्हें दिल्ली में ‘संक्षिप्त कर्फ्यू’ लगाना पड़ा है। यह प्रशासनिक विवशता हो सकती है। महाराष्ट्र में भी धारा 144 तो 24 घंटे के लिए लागू है और तालाबंदी-सी पाबंदियां लगाई गई हैं, लेकिन ‘जरूरी काम’ की परिभाषा आम नागरिक के जिम्मे छोड़ दी गई है, लिहाजा सड़कों पर यातायात के जाम अब भी दिख रहे हैं। सब्जी मंडी और दूसरे स्थानों पर भीड़ बेलगाम है। लोग टहल भी रहे हैं। इस देश का क्या होगा? नागरिक महामारी के दंश को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं? महाराष्ट्र में संक्रमण के रोज़ाना आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। देश भर में संक्रमितों की संख्या 2.17 लाख हो गई है और मौतें 1185 तक पहुंच गई हैं। ये सिर्फ  एक दिन के आंकड़े हैं। लॉकडाउन का मुद्दा दिल्ली एम्स के डॉक्टरों ने भी उठाया, जब स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने एम्स का दौरा किया और डॉक्टरों की समस्याएं सुनीं। कोविड डॉक्टरों को भी चपेट में ले रहा है, लिहाजा कई डॉक्टर भी बीमार हैं। नतीजतन एम्स में भी डॉक्टरों की कमी हुई है। बहरहाल विशेषज्ञ डॉक्टरों ने कहा है कि यदि तालाबंदी या घरबंदी जैसी पाबंदियां लगानी हैं, तो कमोबेश 15 दिनों के लिए अथवा कुल 1.5 माह के लिए लगानी चाहिए। उसी से संक्रमण की चेन तोड़ना संभव है।

अच्छी बात यह है कि दिल्ली या ज्यादातर राज्यों में ऑक्सीजन की कमी नहीं है। वैसे भी भारत सरकार ने 50,000 टन ऑक्सीजन आयात करना तय किया है। 100 नए अस्पतालों में ऑक्सीजन के प्लांट लगाए जाएंगे और उसका खर्च पीएम केयर फंड उठाएगा। इसके अलावा, महाराष्ट्र को भी ऑक्सीजन के लिए हवाई सेवा की अनुमति केंद्र सरकार ने दे दी है। विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रिटेन मॉडल पर संक्रमण की गति थामी जा सकती है, लेकिन इस बार ‘डबल म्यूटेंट’ ने इनसानों पर प्रहार किया है। पिछली लहर के संक्रमण की तुलना में इसकी गति तीन गुना है। नया खतरनाक रुझान है कि यह वायरस बच्चों  और युवाओं में ज्यादा मार कर रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक, मार्च में 10 साल या कम उम्र के 50,000 से ज्यादा बच्चे संक्रमित हुए हैं। यह ऐसा म्यूटेंट है कि जो संक्रमित हो चुके हैं, वे दोबारा भी संक्रमित हो रहे हैं। यह ‘डबल म्यूटेंट’ किस-किस वायरस का मिश्रण है। क्या इसमें ब्रिटेन नस्ल ही है अथवा साउथ अफ्रीका और ब्राजील के कोरोना प्रकार भी शामिल हैं। वायरस का केरल स्टे्रन भी सामने आया है। बहरहाल इतना तय है कि इस बार का वायरस, पहले की तुलना में, बहुत घातक और संक्रामक है। इसका समाधान तालाबंदी या घरबंदी नहीं हो सकता। ब्रिटेन मॉडल के मुताबिक, आक्रामक टीकाकरण और सख्त कंटेनमेंट बेहद जरूरी है। दोनों ही मामलों में हम फिलहाल पिछड़े हैं। इस बीच ख़बर आई है कि हरिद्वार कुंभ में विभिन्न अखाड़ों के साधु-संतों ने 17 अप्रैल को मेला समाप्त कर अपने-अपने स्थानों पर लौटने का फैसला लिया है। यदि यह होता है और दूसरे अनावश्यक जमावड़ों पर भी अंकुश लग जाता है, तो कमोबेश संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत कम हो सकती हैं।

  1. कड़ाई अब मजबूरी

अंतत: उत्तर प्रदेश सरकार को कडे़ फैसले लेने की शुरुआत करनी पड़ी। जिस हिसाब से कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है, उसमें लॉकडाउन और कफ्र्यू के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। एक ओर, जहां रात्रिकालीन कफ्र्यू का विस्तार किया गया है, वहीं रविवार को पूरी तरह से लॉकडाउन लगाने का फैसला भी प्रदेश में संक्रमण की शृंखला तोड़ने के लिए अनिवार्य है। मास्क न पहनने वालों से एक हजार रुपये का जुर्माना वसूलना गरीबों की दृष्टि से थोड़ा आक्रामक लगता है, लेकिन बचाव के लिए यह भी जरूरी है। रविवार को सभी बाजारों को सैनेटाइज करने का फैसला भी स्वागतयोग्य है। जो लोग सरकार की इस कड़ाई को जरूरी नहीं मानते, उन्हें उत्तर प्रदेश में गुरुवार को सामने आए आंकडे़ देखने चाहिए। एक दिन में 104 लोगों की मौत हुई है और 22,439 नए मामले सामने आए हैं। नोएडा जैसे अपेक्षाकृत विकसित क्षेत्र में मरीजों के लिए सरकारी अस्पतालों में जगह कम पड़ने लगी है, तो उत्तर प्रदेश के दूरदराज के इलाकों में अस्पताल किस दबाव में होंगे, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। 
जहां तक बिहार का सवाल है, यहां उच्च न्यायालय ने चिंता जाहिर की है। राज्य के बड़े नेताओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों को भी कोरोना परेशान करने लगा है। गुरुवार को बिहार में 6,133 मामले सामने आए, जबकि 24 मौतें दर्ज की गईं। हम जानते हैं, बिहार में आंकडे़ जुटाना आसान नहीं। स्वास्थ्य सेवाओं तक हर किसी की पहुंच नहीं है। डॉक्टरों के खाली पदों की संख्या ही अगर हम देखें,तो हमें अंदाजा हो जाएगा कि बिहार में चिंता का स्तर क्या है। क्या बिहार इस स्थिति में है कि पचास या एक लाख मरीजों को झेल पाए? सक्रिय मामले लगभग 30,000 के आसपास दर्ज हैं और आने वाले दिनों में विशेषज्ञों को आशंका है, बिहार जैसे क्षेत्रों में संक्रमण बढ़ेगा। जैसे जीवन और जीविका बचाने की जंग उत्तर प्रदेश में शुरू हो रही है, ठीक उसी राह पर बिहार को भी चलना पड़ेगा। शनिवार को राज्यपाल के नेतृत्व में सर्वदलीय बैठक होने वाली है, उसके बाद सरकार कडे़ फैसलों के साथ सामने आ सकती है। लचीले फैसलों का समय बीत चुका है। यदि हम कड़ाई नहीं करेंगे, तो मुसीबतों से घिरते चले जाएंगे। कोरोना का नया हमला सबके सामने है। जरूरत वास्तविक आंकड़ों या हकीकत से मुंह चुराकर लोगों का मनोबल बनाए रखने की नहीं है। लोगों को जिम्मेदारी लेने के लिए पाबंद करना होगा। नेतृत्व वर्ग को समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करना होगा। चेहरा दिखाने के बजाय काम दिखाने का वक्त है? काम न दिखा, तो जो घाव लोगों की देह और दिल पर लगेंगे, उनका इलाज आने वाले कुछ दशकों तक नहीं हो पाएगा। संक्रमण के बढ़ते मामलों पर पटना हाईकोर्ट ने चिंता जताते हुए स्वास्थ्य विभाग की जमकर खिंचाई की है, तो यह स्वाभाविक है। ऐसे समय में न केवल जांच रिपोर्ट जल्दी आनी चाहिए, सभी के इलाज का मुकम्मल इंतजाम भी होना चाहिए। ताकि किसी कोर्ट को यह न कहना पड़े कि आमजन के लिए सरकारी अस्पताल का दरवाजा लगभग बंद सा है। यह आरोप-प्रत्यारोप का समय कदापि नहीं और न ही राजनीति का है। आज देश-समाज के नेताओं की सार्थकता तब है, जब जरूरी सेवाएं युद्ध स्तर पर सुनिश्चित हों।

4. महंगाई की धार

कोरोना संकट के बीच बढ़ी मुश्किलें

ऐसे वक्त में जब देश में जारी कोरोना संकट से अस्त-व्यस्त जिंदगी में आम लोगों की आमदनी में गिरावट आई है और क्रय शक्ति घटी है, लगातार बढ़ती महंगाई कष्टदायक है। यह महंगाई केवल पेट्रोल-डीजल व ईंधन के दामों में ही नहीं, खाद्य पदार्थों व फल-सब्जियों में भी नजर आ रही है। वैसे तो लोग पहले ही महंगाई की तपिश महसूस कर रहे थे, लेकिन अब हाल में आये थोक महंगाई के आंकड़ों ने उस तपिश पर मोहर लगा दी है। चिंता की बात यह है कि देश में थोक महंगाई दर बीते आठ सालों के मुकाबले उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। बताते हैं कि इससे पहले वर्ष 2012 में थोक कीमतों पर केंद्रित मुद्रास्फीति 7.4 फीसदी के उच्चतम स्तर पर थी। इस वृद्धि के मूल में कच्चे तेल व अन्य धातुओं की कीमतों में हुए इजाफे को कारक माना जा रहा है। लेकिन चिंता की बात यह है कि जो महंगाई की दर फरवरी माह में महज 4.17 फीसदी थी, वह महज एक माह में लगभग दुगनी 7.39 कैसे पहुंच गई। ऐसे में सरकार को मुश्किल वक्त में महंगाई की इस छलांग के कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। निस्संदेह जब देश का निम्न और मध्य वर्ग रोजी-रोटी के सवाल से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था संवेदनशील स्थिति में है, आसमान छूती महंगाई चुभने वाली है। ऐसे में सरकारी नीतियों में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जाती है। जाहिरा तौर पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में आया उछाल भी थोक की मुद्रास्फीति बढ़ाने में एक कारण रहा है, जिसके चलते देश में पेट्रोल व डीजल के दामों में खासी तेजी आई। तभी फरवरी में 0.58 फीसदी रहने वाली ईंधन की मुद्रास्फीति मार्च में करीब साढ़े दस फीसदी तक जा पहुंची। वैसे सरकार की तरफ से भी कोई गंभीर प्रयास महंगाई पर काबू पाने के लिये नहीं किये गये। यहां तक कि केंद्रीय बैंक की नीतियां भी महंगाई को उर्वरा भूमि देती रही।

दरअसल, कोरोना संकट के मुकाबले के लिये बीते साल देश में जो सख्त लॉकडाउन लगा, उसका देशव्यापी प्रभाव नजर आया। अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया। ऐसे में दिसंबर के बाद के दो महीनों में अर्थव्यवस्था जब पटरी पर लौटती नजर आई तो सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को गति देने की थी, न कि महंगाई रोकने की। लॉकडाउन के दौरान जो कीमतें ठहरी हुई थीं, उसमें अब उछाल नजर आया। उपभोक्ताओं से मनमानी कीमतें वसूली जाने लगीं। एक दृष्टिकोण यह भी रहा कि देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये कुछ महंगाई स्वीकार्य है, जिससे उत्पादकों के कारोबार को गति मिल सके। तभी पिछले कुछ महीनों में स्थिति सामान्य होते ही बिक्री में गति के साथ ही कीमतों में तेजी देखने में आई। खाद्य वस्तुओं में ही नहीं, फल व सब्जियों के दामों में भी। आमतौर पर देश में मौसम के चरम यानी गर्मी की तेजी के साथ ही कीमतों में उछाल देखा जाता है जो अब की बार मार्च में ही नजर आने लगा। एक बार फिर कोरोना संकट घातक दौर में पहुंच गया और रोज कमाकर खाने वाले तबके का रोजगार फिर संकट में है। ऐसे में सरकार को महंगाई नियंत्रण की दिशा में गंभीर पहल करनी चाहिए। कमर तो मध्य वर्ग की भी टूटी है। जो अपनी कुल जमा पूंजी की बचत पर जिंदगी चला रहा था, उसका जीवनयापन भी महंगाई के कारण अब सहज नहीं रहा। देश के महानगरों से कामगार वर्ग का पलायन शुरू हो गया है। इन्हें अपने राज्यों व गांव में रोजगार आसानी से नहीं मिलने वाला है। पिछले लॉकडाउन के बाद ये महीनों खाली बैठने के बाद फिर महानगरों की ओर लौटे थे। ऐसे लोगों पर महंगाई की मार ज्यादा नजर आयेगी। ऐसे में सरकार से महंगाई नियंत्रण की दिशा में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए। सरकार के साथ ही केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीतियों में बदलाव भी मददगार हो सकता है। साथ ही जमाखोरों पर नियंत्रण लगाना जरूरी है। अन्यथा टुकड़ों-टुकड़ों में लगने वाला लॉकडाउन और महंगाई मारक साबित हो सकती है।

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.सोलन निगम का ताला खुला

अंततः सोलन शहर के ताले खुले और कांग्रेस की चिडि़या बाहर निकली। सफेद धुली हुई, पंख खोलती हुई। नगर निगम चुनाव का अंतिम पिंजरा खुला और सोलन के पहले महापौर पूनम ग्रोवर तथा उप महापौर के रूप में राजीव कौड़ा मिल गए। हम इसे राजनीतिक जीत-हार के बीच नागरिक फासलों का हिसाब लगाएं, तो पता चलेगा कि इन करवटों में किसका नफा और किसका नुकसान हुआ। एक अनावश्यक नौटंकी के कुछ दिन स्थानीय स्वशासन की विरासत को गंदा जरूर कर गए और आगे चलकर नगर व सरकार के बीच यही खटास देखी जाए, तो कोई हैरानी नहीं होगी। यह इसलिए भी कि वर्तमान सत्ता के दौर में धर्मशाला नगर निगम को तमाम कड़वे घूंट पीने पड़े जो अमूमन सत्ता और विपक्ष को बांटते हैं। शहरी और ग्रामीण आवरण में जनता के बीच सियासत को ढूंढना भले ही पार्टियों की कसरत के लिए सुखद हो, लेकिन शहरों के भविष्य के लिए किसी तरह का मतभेद घातक है।

 सोलन के फैसले के बाद हिमाचल में दो नगर निगम कांग्रेस और दो ही भाजपा के चुनाव चिन्ह को तसदीक कर रहे हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हें प्रदेश की सत्ता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यह सही होगा कि सरकार धर्मशाला और मंडी को अपने नजरिए से देखेगी और पालमपुर व सोलन को विपक्ष के खाते में डाल कर चलेगी। आगे चलकर सबसे कठिन प्रश्न तो शहरी गांवों के नए अस्तित्व का रहेगा, क्योंकि अभी कई अड़चनें भौगोलिक व आर्थिक दृष्टि से रहेंगी और इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में शहरों को अपने भीतर नई संस्कृति और सुशासन की नई पद्धति विकसित करनी होगी। सर्वप्रथम हर नगर निगम का भौगोलिक सीमांकन इस दृष्टि से होना चाहिए ताकि अगले सौ साल तक नागरिक सुविधाओं का खाका कमजोर न पड़े। इस दृष्टि से हर शहर की अपनी खासियत और विकास की संभावना रहेगी। सोलन के प्रश्न पालमपुर से भिन्न होंगे, तो मंडी व धर्मशाला में विकास की अलग संभावनाएं रहेंगी, दोनों दलों को अपने भीतर शहरी राजनीति का अलख जगाते हुए यह विश्लेषण भी करना होगा कि दो शहरों में जीत और दो में हार के कारण क्या रहे। ऐसे में कांग्रेस ने सोलन की जीत में शहरी मुद्दों को लेकर कमर कसी, तो अब इन पर अमल की गुजारिश रहेगी। वहां कांग्रेस के राजिंद्र राणा व केवल सिंह पठानिया ऐसे नेता बनकर उभरे हैं, जो पार्टी को रणनीतिक तौर पर मुकाबला करना सिखा रहे हैं। हमारा मानना है कि चारों शहरों के बीच सोलन की राजनीतिक कवायद यह जरूर साबित कर रही है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस को किस शिद्दत से चलना होगा। कांग्रेस ने वहां पेयजलापूर्ति, पार्किंग व कूड़ा-कचरा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा, जबकि धर्मशाला, पालमपुर व मंडी के मुद्दा विहीन युद्ध में राजनीतिक आचरण की धींगामस्ती हुई।

सोलन के चुनाव में जनता ने अपना मत स्पष्ट करते हुए मेयर और डिप्टी मेयर से उम्मीदों का नया रिश्ता जोड़ा है। कमोबेश इसी आशा से अन्य शहरों के महापौर व उप महापौर देखे जाएंगे, इसलिए सरकार को शहरी सत्ता को प्रश्रय देते हुए इसे वित्तीय शक्तियां तथा विशेषाधिकार सौंपने होंगे। शिमला के बाद धर्मशाला नगर निगम के अनुभव बताते हैं कि अभी  हिमाचल की शहरी व्यवस्था के ताज कितने ढीले व कांटों से भरे हैं।  सरकार के वर्तमान बजट में शहरी विकास की मद में कुल 708.6 करोड़ राशि रखी है जो पिछले साल के 819.26 करोड़ से करीब 10 प्रतिशत कम है। यह बजट नए या पुराने नगर निगमों की वित्तीय जरूरतों के अनुरूप कमजोर दिखाई देता है, अतः इस दिशा में योजनाओं-परियोजनाओं के साथ-साथ शहरी आत्मनिर्भरता के सपनों को जमीन पर लाने के लिए कड़ी मेहनत व सहयोग की अपेक्षा रहेगी। नगर निगम चुनावों ने सत्ता व विपक्ष की राजनीतिक समीक्षा नहीं की, बल्कि यह भी बताया कि हिमाचल में शहरीकरण की वास्तविक तड़प है क्या। कई अनुत्तरित प्रश्न चुनावी मोर्चे पर उभरे हैं और अगर सोलन के मुद्दों का ही संज्ञान लें, तो प्रदेश के हर शहर की पेयजलापूर्ति, पार्किंग, पार्क, कूड़ा-कचरा प्रबंधन, परिवहन तथा आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी पड़ेंगी। राज्य के टीसीपी कानून के साथ-साथ शहरी विकास की प्राथमिकताओं और प्रबंधन की दिशा में नई फेहरिस्त तैयार करनी पडे़ेगी।

 

2.डबल म्यूटेंट का संक्रमण

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 55 घंटे का वीकेंड कर्फ्यू लगाया गया है। राजस्थान में भी यही निर्णय लिया गया है। नाइट कर्फ्यू पहले से ही जारी है। कर्फ्यू की अवधि को छोड़ कर शेष दिन खुले रहेंगे, क्योंकि आम आदमी की आजीविका और कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की चिंता भी अहम सवाल है। आम दिनों में मॉल, जिम, स्पा, थियेटर, ऑडिटोरियम, खेल परिसर और पार्क आदि भी 30 अप्रैल तक बंद रहेंगे। इनसे आर्थिकी पर सीमित असर पड़ेगा। इसके अलावा, दिल्ली मेट्रो, बसें, ऑटो, टैक्सी, फैक्ट्रियां और अंतरराज्यीय परिवहन जारी रहेंगे, जो देशभर के लॉकडाउन के दौरान बंद रखे गए थे। रेस्तरां और क्लब भी पूरी तरह बंद रखे गए थे। यानी व्यापक स्तर पर तालाबंदी की गई थी। हालांकि तब कोरोना संक्रमण की मार इतनी भयावह नहीं थी, जितनी इस बार तमाम हदें पार करती जा रही है। इस 55 घंटे के कर्फ्यू का, कोरोना वायरस के फैलाव को लेकर, कितना असर होगा, उसका विश्लेषण मंगलवार या बाद के दिनों में किया जा सकता है, लेकिन हम एक बार फिर दोहरा दें कि ऐसी अल्पकालिक पाबंदियां कोरोना संक्रमण का उपचार साबित नहीं हो सकतीं।

 वायरस की गति को थामने या तोड़ने का विचार भी एक भ्रम है, ऐसा कई विशेषज्ञों का मानना है। खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तालाबंदी अथवा पाबंदियों के खिलाफ  रहे हैं, फिर भी उन्हें दिल्ली में ‘संक्षिप्त कर्फ्यू’ लगाना पड़ा है। यह प्रशासनिक विवशता हो सकती है। महाराष्ट्र में भी धारा 144 तो 24 घंटे के लिए लागू है और तालाबंदी-सी पाबंदियां लगाई गई हैं, लेकिन ‘जरूरी काम’ की परिभाषा आम नागरिक के जिम्मे छोड़ दी गई है, लिहाजा सड़कों पर यातायात के जाम अब भी दिख रहे हैं। सब्जी मंडी और दूसरे स्थानों पर भीड़ बेलगाम है। लोग टहल भी रहे हैं। इस देश का क्या होगा? नागरिक महामारी के दंश को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं? महाराष्ट्र में संक्रमण के रोज़ाना आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। देश भर में संक्रमितों की संख्या 2.17 लाख हो गई है और मौतें 1185 तक पहुंच गई हैं। ये सिर्फ  एक दिन के आंकड़े हैं। लॉकडाउन का मुद्दा दिल्ली एम्स के डॉक्टरों ने भी उठाया, जब स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने एम्स का दौरा किया और डॉक्टरों की समस्याएं सुनीं। कोविड डॉक्टरों को भी चपेट में ले रहा है, लिहाजा कई डॉक्टर भी बीमार हैं। नतीजतन एम्स में भी डॉक्टरों की कमी हुई है। बहरहाल विशेषज्ञ डॉक्टरों ने कहा है कि यदि तालाबंदी या घरबंदी जैसी पाबंदियां लगानी हैं, तो कमोबेश 15 दिनों के लिए अथवा कुल 1.5 माह के लिए लगानी चाहिए। उसी से संक्रमण की चेन तोड़ना संभव है।

अच्छी बात यह है कि दिल्ली या ज्यादातर राज्यों में ऑक्सीजन की कमी नहीं है। वैसे भी भारत सरकार ने 50,000 टन ऑक्सीजन आयात करना तय किया है। 100 नए अस्पतालों में ऑक्सीजन के प्लांट लगाए जाएंगे और उसका खर्च पीएम केयर फंड उठाएगा। इसके अलावा, महाराष्ट्र को भी ऑक्सीजन के लिए हवाई सेवा की अनुमति केंद्र सरकार ने दे दी है। विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रिटेन मॉडल पर संक्रमण की गति थामी जा सकती है, लेकिन इस बार ‘डबल म्यूटेंट’ ने इनसानों पर प्रहार किया है। पिछली लहर के संक्रमण की तुलना में इसकी गति तीन गुना है। नया खतरनाक रुझान है कि यह वायरस बच्चों  और युवाओं में ज्यादा मार कर रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक, मार्च में 10 साल या कम उम्र के 50,000 से ज्यादा बच्चे संक्रमित हुए हैं। यह ऐसा म्यूटेंट है कि जो संक्रमित हो चुके हैं, वे दोबारा भी संक्रमित हो रहे हैं। यह ‘डबल म्यूटेंट’ किस-किस वायरस का मिश्रण है। क्या इसमें ब्रिटेन नस्ल ही है अथवा साउथ अफ्रीका और ब्राजील के कोरोना प्रकार भी शामिल हैं। वायरस का केरल स्टे्रन भी सामने आया है। बहरहाल इतना तय है कि इस बार का वायरस, पहले की तुलना में, बहुत घातक और संक्रामक है। इसका समाधान तालाबंदी या घरबंदी नहीं हो सकता। ब्रिटेन मॉडल के मुताबिक, आक्रामक टीकाकरण और सख्त कंटेनमेंट बेहद जरूरी है। दोनों ही मामलों में हम फिलहाल पिछड़े हैं। इस बीच ख़बर आई है कि हरिद्वार कुंभ में विभिन्न अखाड़ों के साधु-संतों ने 17 अप्रैल को मेला समाप्त कर अपने-अपने स्थानों पर लौटने का फैसला लिया है। यदि यह होता है और दूसरे अनावश्यक जमावड़ों पर भी अंकुश लग जाता है, तो कमोबेश संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत कम हो सकती हैं।

  1. कड़ाई अब मजबूरी

अंतत: उत्तर प्रदेश सरकार को कडे़ फैसले लेने की शुरुआत करनी पड़ी। जिस हिसाब से कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है, उसमें लॉकडाउन और कफ्र्यू के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। एक ओर, जहां रात्रिकालीन कफ्र्यू का विस्तार किया गया है, वहीं रविवार को पूरी तरह से लॉकडाउन लगाने का फैसला भी प्रदेश में संक्रमण की शृंखला तोड़ने के लिए अनिवार्य है। मास्क न पहनने वालों से एक हजार रुपये का जुर्माना वसूलना गरीबों की दृष्टि से थोड़ा आक्रामक लगता है, लेकिन बचाव के लिए यह भी जरूरी है। रविवार को सभी बाजारों को सैनेटाइज करने का फैसला भी स्वागतयोग्य है। जो लोग सरकार की इस कड़ाई को जरूरी नहीं मानते, उन्हें उत्तर प्रदेश में गुरुवार को सामने आए आंकडे़ देखने चाहिए। एक दिन में 104 लोगों की मौत हुई है और 22,439 नए मामले सामने आए हैं। नोएडा जैसे अपेक्षाकृत विकसित क्षेत्र में मरीजों के लिए सरकारी अस्पतालों में जगह कम पड़ने लगी है, तो उत्तर प्रदेश के दूरदराज के इलाकों में अस्पताल किस दबाव में होंगे, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। 
जहां तक बिहार का सवाल है, यहां उच्च न्यायालय ने चिंता जाहिर की है। राज्य के बड़े नेताओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों को भी कोरोना परेशान करने लगा है। गुरुवार को बिहार में 6,133 मामले सामने आए, जबकि 24 मौतें दर्ज की गईं। हम जानते हैं, बिहार में आंकडे़ जुटाना आसान नहीं। स्वास्थ्य सेवाओं तक हर किसी की पहुंच नहीं है। डॉक्टरों के खाली पदों की संख्या ही अगर हम देखें,तो हमें अंदाजा हो जाएगा कि बिहार में चिंता का स्तर क्या है। क्या बिहार इस स्थिति में है कि पचास या एक लाख मरीजों को झेल पाए? सक्रिय मामले लगभग 30,000 के आसपास दर्ज हैं और आने वाले दिनों में विशेषज्ञों को आशंका है, बिहार जैसे क्षेत्रों में संक्रमण बढ़ेगा। जैसे जीवन और जीविका बचाने की जंग उत्तर प्रदेश में शुरू हो रही है, ठीक उसी राह पर बिहार को भी चलना पड़ेगा। शनिवार को राज्यपाल के नेतृत्व में सर्वदलीय बैठक होने वाली है, उसके बाद सरकार कडे़ फैसलों के साथ सामने आ सकती है। लचीले फैसलों का समय बीत चुका है। यदि हम कड़ाई नहीं करेंगे, तो मुसीबतों से घिरते चले जाएंगे। कोरोना का नया हमला सबके सामने है। जरूरत वास्तविक आंकड़ों या हकीकत से मुंह चुराकर लोगों का मनोबल बनाए रखने की नहीं है। लोगों को जिम्मेदारी लेने के लिए पाबंद करना होगा। नेतृत्व वर्ग को समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करना होगा। चेहरा दिखाने के बजाय काम दिखाने का वक्त है? काम न दिखा, तो जो घाव लोगों की देह और दिल पर लगेंगे, उनका इलाज आने वाले कुछ दशकों तक नहीं हो पाएगा। संक्रमण के बढ़ते मामलों पर पटना हाईकोर्ट ने चिंता जताते हुए स्वास्थ्य विभाग की जमकर खिंचाई की है, तो यह स्वाभाविक है। ऐसे समय में न केवल जांच रिपोर्ट जल्दी आनी चाहिए, सभी के इलाज का मुकम्मल इंतजाम भी होना चाहिए। ताकि किसी कोर्ट को यह न कहना पड़े कि आमजन के लिए सरकारी अस्पताल का दरवाजा लगभग बंद सा है। यह आरोप-प्रत्यारोप का समय कदापि नहीं और न ही राजनीति का है। आज देश-समाज के नेताओं की सार्थकता तब है, जब जरूरी सेवाएं युद्ध स्तर पर सुनिश्चित हों।

4. महंगाई की धार

कोरोना संकट के बीच बढ़ी मुश्किलें

ऐसे वक्त में जब देश में जारी कोरोना संकट से अस्त-व्यस्त जिंदगी में आम लोगों की आमदनी में गिरावट आई है और क्रय शक्ति घटी है, लगातार बढ़ती महंगाई कष्टदायक है। यह महंगाई केवल पेट्रोल-डीजल व ईंधन के दामों में ही नहीं, खाद्य पदार्थों व फल-सब्जियों में भी नजर आ रही है। वैसे तो लोग पहले ही महंगाई की तपिश महसूस कर रहे थे, लेकिन अब हाल में आये थोक महंगाई के आंकड़ों ने उस तपिश पर मोहर लगा दी है। चिंता की बात यह है कि देश में थोक महंगाई दर बीते आठ सालों के मुकाबले उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। बताते हैं कि इससे पहले वर्ष 2012 में थोक कीमतों पर केंद्रित मुद्रास्फीति 7.4 फीसदी के उच्चतम स्तर पर थी। इस वृद्धि के मूल में कच्चे तेल व अन्य धातुओं की कीमतों में हुए इजाफे को कारक माना जा रहा है। लेकिन चिंता की बात यह है कि जो महंगाई की दर फरवरी माह में महज 4.17 फीसदी थी, वह महज एक माह में लगभग दुगनी 7.39 कैसे पहुंच गई। ऐसे में सरकार को मुश्किल वक्त में महंगाई की इस छलांग के कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। निस्संदेह जब देश का निम्न और मध्य वर्ग रोजी-रोटी के सवाल से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था संवेदनशील स्थिति में है, आसमान छूती महंगाई चुभने वाली है। ऐसे में सरकारी नीतियों में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जाती है। जाहिरा तौर पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में आया उछाल भी थोक की मुद्रास्फीति बढ़ाने में एक कारण रहा है, जिसके चलते देश में पेट्रोल व डीजल के दामों में खासी तेजी आई। तभी फरवरी में 0.58 फीसदी रहने वाली ईंधन की मुद्रास्फीति मार्च में करीब साढ़े दस फीसदी तक जा पहुंची। वैसे सरकार की तरफ से भी कोई गंभीर प्रयास महंगाई पर काबू पाने के लिये नहीं किये गये। यहां तक कि केंद्रीय बैंक की नीतियां भी महंगाई को उर्वरा भूमि देती रही।

दरअसल, कोरोना संकट के मुकाबले के लिये बीते साल देश में जो सख्त लॉकडाउन लगा, उसका देशव्यापी प्रभाव नजर आया। अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया। ऐसे में दिसंबर के बाद के दो महीनों में अर्थव्यवस्था जब पटरी पर लौटती नजर आई तो सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को गति देने की थी, न कि महंगाई रोकने की। लॉकडाउन के दौरान जो कीमतें ठहरी हुई थीं, उसमें अब उछाल नजर आया। उपभोक्ताओं से मनमानी कीमतें वसूली जाने लगीं। एक दृष्टिकोण यह भी रहा कि देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये कुछ महंगाई स्वीकार्य है, जिससे उत्पादकों के कारोबार को गति मिल सके। तभी पिछले कुछ महीनों में स्थिति सामान्य होते ही बिक्री में गति के साथ ही कीमतों में तेजी देखने में आई। खाद्य वस्तुओं में ही नहीं, फल व सब्जियों के दामों में भी। आमतौर पर देश में मौसम के चरम यानी गर्मी की तेजी के साथ ही कीमतों में उछाल देखा जाता है जो अब की बार मार्च में ही नजर आने लगा। एक बार फिर कोरोना संकट घातक दौर में पहुंच गया और रोज कमाकर खाने वाले तबके का रोजगार फिर संकट में है। ऐसे में सरकार को महंगाई नियंत्रण की दिशा में गंभीर पहल करनी चाहिए। कमर तो मध्य वर्ग की भी टूटी है। जो अपनी कुल जमा पूंजी की बचत पर जिंदगी चला रहा था, उसका जीवनयापन भी महंगाई के कारण अब सहज नहीं रहा। देश के महानगरों से कामगार वर्ग का पलायन शुरू हो गया है। इन्हें अपने राज्यों व गांव में रोजगार आसानी से नहीं मिलने वाला है। पिछले लॉकडाउन के बाद ये महीनों खाली बैठने के बाद फिर महानगरों की ओर लौटे थे। ऐसे लोगों पर महंगाई की मार ज्यादा नजर आयेगी। ऐसे में सरकार से महंगाई नियंत्रण की दिशा में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए। सरकार के साथ ही केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीतियों में बदलाव भी मददगार हो सकता है। साथ ही जमाखोरों पर नियंत्रण लगाना जरूरी है। अन्यथा टुकड़ों-टुकड़ों में लगने वाला लॉकडाउन और महंगाई मारक साबित हो सकती है।

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.सोलन निगम का ताला खुला

अंततः सोलन शहर के ताले खुले और कांग्रेस की चिडि़या बाहर निकली। सफेद धुली हुई, पंख खोलती हुई। नगर निगम चुनाव का अंतिम पिंजरा खुला और सोलन के पहले महापौर पूनम ग्रोवर तथा उप महापौर के रूप में राजीव कौड़ा मिल गए। हम इसे राजनीतिक जीत-हार के बीच नागरिक फासलों का हिसाब लगाएं, तो पता चलेगा कि इन करवटों में किसका नफा और किसका नुकसान हुआ। एक अनावश्यक नौटंकी के कुछ दिन स्थानीय स्वशासन की विरासत को गंदा जरूर कर गए और आगे चलकर नगर व सरकार के बीच यही खटास देखी जाए, तो कोई हैरानी नहीं होगी। यह इसलिए भी कि वर्तमान सत्ता के दौर में धर्मशाला नगर निगम को तमाम कड़वे घूंट पीने पड़े जो अमूमन सत्ता और विपक्ष को बांटते हैं। शहरी और ग्रामीण आवरण में जनता के बीच सियासत को ढूंढना भले ही पार्टियों की कसरत के लिए सुखद हो, लेकिन शहरों के भविष्य के लिए किसी तरह का मतभेद घातक है।

 सोलन के फैसले के बाद हिमाचल में दो नगर निगम कांग्रेस और दो ही भाजपा के चुनाव चिन्ह को तसदीक कर रहे हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इन्हें प्रदेश की सत्ता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। यह सही होगा कि सरकार धर्मशाला और मंडी को अपने नजरिए से देखेगी और पालमपुर व सोलन को विपक्ष के खाते में डाल कर चलेगी। आगे चलकर सबसे कठिन प्रश्न तो शहरी गांवों के नए अस्तित्व का रहेगा, क्योंकि अभी कई अड़चनें भौगोलिक व आर्थिक दृष्टि से रहेंगी और इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में शहरों को अपने भीतर नई संस्कृति और सुशासन की नई पद्धति विकसित करनी होगी। सर्वप्रथम हर नगर निगम का भौगोलिक सीमांकन इस दृष्टि से होना चाहिए ताकि अगले सौ साल तक नागरिक सुविधाओं का खाका कमजोर न पड़े। इस दृष्टि से हर शहर की अपनी खासियत और विकास की संभावना रहेगी। सोलन के प्रश्न पालमपुर से भिन्न होंगे, तो मंडी व धर्मशाला में विकास की अलग संभावनाएं रहेंगी, दोनों दलों को अपने भीतर शहरी राजनीति का अलख जगाते हुए यह विश्लेषण भी करना होगा कि दो शहरों में जीत और दो में हार के कारण क्या रहे। ऐसे में कांग्रेस ने सोलन की जीत में शहरी मुद्दों को लेकर कमर कसी, तो अब इन पर अमल की गुजारिश रहेगी। वहां कांग्रेस के राजिंद्र राणा व केवल सिंह पठानिया ऐसे नेता बनकर उभरे हैं, जो पार्टी को रणनीतिक तौर पर मुकाबला करना सिखा रहे हैं। हमारा मानना है कि चारों शहरों के बीच सोलन की राजनीतिक कवायद यह जरूर साबित कर रही है कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस को किस शिद्दत से चलना होगा। कांग्रेस ने वहां पेयजलापूर्ति, पार्किंग व कूड़ा-कचरा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा, जबकि धर्मशाला, पालमपुर व मंडी के मुद्दा विहीन युद्ध में राजनीतिक आचरण की धींगामस्ती हुई।

सोलन के चुनाव में जनता ने अपना मत स्पष्ट करते हुए मेयर और डिप्टी मेयर से उम्मीदों का नया रिश्ता जोड़ा है। कमोबेश इसी आशा से अन्य शहरों के महापौर व उप महापौर देखे जाएंगे, इसलिए सरकार को शहरी सत्ता को प्रश्रय देते हुए इसे वित्तीय शक्तियां तथा विशेषाधिकार सौंपने होंगे। शिमला के बाद धर्मशाला नगर निगम के अनुभव बताते हैं कि अभी  हिमाचल की शहरी व्यवस्था के ताज कितने ढीले व कांटों से भरे हैं।  सरकार के वर्तमान बजट में शहरी विकास की मद में कुल 708.6 करोड़ राशि रखी है जो पिछले साल के 819.26 करोड़ से करीब 10 प्रतिशत कम है। यह बजट नए या पुराने नगर निगमों की वित्तीय जरूरतों के अनुरूप कमजोर दिखाई देता है, अतः इस दिशा में योजनाओं-परियोजनाओं के साथ-साथ शहरी आत्मनिर्भरता के सपनों को जमीन पर लाने के लिए कड़ी मेहनत व सहयोग की अपेक्षा रहेगी। नगर निगम चुनावों ने सत्ता व विपक्ष की राजनीतिक समीक्षा नहीं की, बल्कि यह भी बताया कि हिमाचल में शहरीकरण की वास्तविक तड़प है क्या। कई अनुत्तरित प्रश्न चुनावी मोर्चे पर उभरे हैं और अगर सोलन के मुद्दों का ही संज्ञान लें, तो प्रदेश के हर शहर की पेयजलापूर्ति, पार्किंग, पार्क, कूड़ा-कचरा प्रबंधन, परिवहन तथा आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी पड़ेंगी। राज्य के टीसीपी कानून के साथ-साथ शहरी विकास की प्राथमिकताओं और प्रबंधन की दिशा में नई फेहरिस्त तैयार करनी पडे़ेगी।

 

2.डबल म्यूटेंट का संक्रमण

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 55 घंटे का वीकेंड कर्फ्यू लगाया गया है। राजस्थान में भी यही निर्णय लिया गया है। नाइट कर्फ्यू पहले से ही जारी है। कर्फ्यू की अवधि को छोड़ कर शेष दिन खुले रहेंगे, क्योंकि आम आदमी की आजीविका और कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की चिंता भी अहम सवाल है। आम दिनों में मॉल, जिम, स्पा, थियेटर, ऑडिटोरियम, खेल परिसर और पार्क आदि भी 30 अप्रैल तक बंद रहेंगे। इनसे आर्थिकी पर सीमित असर पड़ेगा। इसके अलावा, दिल्ली मेट्रो, बसें, ऑटो, टैक्सी, फैक्ट्रियां और अंतरराज्यीय परिवहन जारी रहेंगे, जो देशभर के लॉकडाउन के दौरान बंद रखे गए थे। रेस्तरां और क्लब भी पूरी तरह बंद रखे गए थे। यानी व्यापक स्तर पर तालाबंदी की गई थी। हालांकि तब कोरोना संक्रमण की मार इतनी भयावह नहीं थी, जितनी इस बार तमाम हदें पार करती जा रही है। इस 55 घंटे के कर्फ्यू का, कोरोना वायरस के फैलाव को लेकर, कितना असर होगा, उसका विश्लेषण मंगलवार या बाद के दिनों में किया जा सकता है, लेकिन हम एक बार फिर दोहरा दें कि ऐसी अल्पकालिक पाबंदियां कोरोना संक्रमण का उपचार साबित नहीं हो सकतीं।

 वायरस की गति को थामने या तोड़ने का विचार भी एक भ्रम है, ऐसा कई विशेषज्ञों का मानना है। खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तालाबंदी अथवा पाबंदियों के खिलाफ  रहे हैं, फिर भी उन्हें दिल्ली में ‘संक्षिप्त कर्फ्यू’ लगाना पड़ा है। यह प्रशासनिक विवशता हो सकती है। महाराष्ट्र में भी धारा 144 तो 24 घंटे के लिए लागू है और तालाबंदी-सी पाबंदियां लगाई गई हैं, लेकिन ‘जरूरी काम’ की परिभाषा आम नागरिक के जिम्मे छोड़ दी गई है, लिहाजा सड़कों पर यातायात के जाम अब भी दिख रहे हैं। सब्जी मंडी और दूसरे स्थानों पर भीड़ बेलगाम है। लोग टहल भी रहे हैं। इस देश का क्या होगा? नागरिक महामारी के दंश को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं? महाराष्ट्र में संक्रमण के रोज़ाना आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। देश भर में संक्रमितों की संख्या 2.17 लाख हो गई है और मौतें 1185 तक पहुंच गई हैं। ये सिर्फ  एक दिन के आंकड़े हैं। लॉकडाउन का मुद्दा दिल्ली एम्स के डॉक्टरों ने भी उठाया, जब स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने एम्स का दौरा किया और डॉक्टरों की समस्याएं सुनीं। कोविड डॉक्टरों को भी चपेट में ले रहा है, लिहाजा कई डॉक्टर भी बीमार हैं। नतीजतन एम्स में भी डॉक्टरों की कमी हुई है। बहरहाल विशेषज्ञ डॉक्टरों ने कहा है कि यदि तालाबंदी या घरबंदी जैसी पाबंदियां लगानी हैं, तो कमोबेश 15 दिनों के लिए अथवा कुल 1.5 माह के लिए लगानी चाहिए। उसी से संक्रमण की चेन तोड़ना संभव है।

अच्छी बात यह है कि दिल्ली या ज्यादातर राज्यों में ऑक्सीजन की कमी नहीं है। वैसे भी भारत सरकार ने 50,000 टन ऑक्सीजन आयात करना तय किया है। 100 नए अस्पतालों में ऑक्सीजन के प्लांट लगाए जाएंगे और उसका खर्च पीएम केयर फंड उठाएगा। इसके अलावा, महाराष्ट्र को भी ऑक्सीजन के लिए हवाई सेवा की अनुमति केंद्र सरकार ने दे दी है। विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रिटेन मॉडल पर संक्रमण की गति थामी जा सकती है, लेकिन इस बार ‘डबल म्यूटेंट’ ने इनसानों पर प्रहार किया है। पिछली लहर के संक्रमण की तुलना में इसकी गति तीन गुना है। नया खतरनाक रुझान है कि यह वायरस बच्चों  और युवाओं में ज्यादा मार कर रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक, मार्च में 10 साल या कम उम्र के 50,000 से ज्यादा बच्चे संक्रमित हुए हैं। यह ऐसा म्यूटेंट है कि जो संक्रमित हो चुके हैं, वे दोबारा भी संक्रमित हो रहे हैं। यह ‘डबल म्यूटेंट’ किस-किस वायरस का मिश्रण है। क्या इसमें ब्रिटेन नस्ल ही है अथवा साउथ अफ्रीका और ब्राजील के कोरोना प्रकार भी शामिल हैं। वायरस का केरल स्टे्रन भी सामने आया है। बहरहाल इतना तय है कि इस बार का वायरस, पहले की तुलना में, बहुत घातक और संक्रामक है। इसका समाधान तालाबंदी या घरबंदी नहीं हो सकता। ब्रिटेन मॉडल के मुताबिक, आक्रामक टीकाकरण और सख्त कंटेनमेंट बेहद जरूरी है। दोनों ही मामलों में हम फिलहाल पिछड़े हैं। इस बीच ख़बर आई है कि हरिद्वार कुंभ में विभिन्न अखाड़ों के साधु-संतों ने 17 अप्रैल को मेला समाप्त कर अपने-अपने स्थानों पर लौटने का फैसला लिया है। यदि यह होता है और दूसरे अनावश्यक जमावड़ों पर भी अंकुश लग जाता है, तो कमोबेश संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत कम हो सकती हैं।

  1. कड़ाई अब मजबूरी

अंतत: उत्तर प्रदेश सरकार को कडे़ फैसले लेने की शुरुआत करनी पड़ी। जिस हिसाब से कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है, उसमें लॉकडाउन और कफ्र्यू के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है। एक ओर, जहां रात्रिकालीन कफ्र्यू का विस्तार किया गया है, वहीं रविवार को पूरी तरह से लॉकडाउन लगाने का फैसला भी प्रदेश में संक्रमण की शृंखला तोड़ने के लिए अनिवार्य है। मास्क न पहनने वालों से एक हजार रुपये का जुर्माना वसूलना गरीबों की दृष्टि से थोड़ा आक्रामक लगता है, लेकिन बचाव के लिए यह भी जरूरी है। रविवार को सभी बाजारों को सैनेटाइज करने का फैसला भी स्वागतयोग्य है। जो लोग सरकार की इस कड़ाई को जरूरी नहीं मानते, उन्हें उत्तर प्रदेश में गुरुवार को सामने आए आंकडे़ देखने चाहिए। एक दिन में 104 लोगों की मौत हुई है और 22,439 नए मामले सामने आए हैं। नोएडा जैसे अपेक्षाकृत विकसित क्षेत्र में मरीजों के लिए सरकारी अस्पतालों में जगह कम पड़ने लगी है, तो उत्तर प्रदेश के दूरदराज के इलाकों में अस्पताल किस दबाव में होंगे, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। 
जहां तक बिहार का सवाल है, यहां उच्च न्यायालय ने चिंता जाहिर की है। राज्य के बड़े नेताओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों को भी कोरोना परेशान करने लगा है। गुरुवार को बिहार में 6,133 मामले सामने आए, जबकि 24 मौतें दर्ज की गईं। हम जानते हैं, बिहार में आंकडे़ जुटाना आसान नहीं। स्वास्थ्य सेवाओं तक हर किसी की पहुंच नहीं है। डॉक्टरों के खाली पदों की संख्या ही अगर हम देखें,तो हमें अंदाजा हो जाएगा कि बिहार में चिंता का स्तर क्या है। क्या बिहार इस स्थिति में है कि पचास या एक लाख मरीजों को झेल पाए? सक्रिय मामले लगभग 30,000 के आसपास दर्ज हैं और आने वाले दिनों में विशेषज्ञों को आशंका है, बिहार जैसे क्षेत्रों में संक्रमण बढ़ेगा। जैसे जीवन और जीविका बचाने की जंग उत्तर प्रदेश में शुरू हो रही है, ठीक उसी राह पर बिहार को भी चलना पड़ेगा। शनिवार को राज्यपाल के नेतृत्व में सर्वदलीय बैठक होने वाली है, उसके बाद सरकार कडे़ फैसलों के साथ सामने आ सकती है। लचीले फैसलों का समय बीत चुका है। यदि हम कड़ाई नहीं करेंगे, तो मुसीबतों से घिरते चले जाएंगे। कोरोना का नया हमला सबके सामने है। जरूरत वास्तविक आंकड़ों या हकीकत से मुंह चुराकर लोगों का मनोबल बनाए रखने की नहीं है। लोगों को जिम्मेदारी लेने के लिए पाबंद करना होगा। नेतृत्व वर्ग को समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करना होगा। चेहरा दिखाने के बजाय काम दिखाने का वक्त है? काम न दिखा, तो जो घाव लोगों की देह और दिल पर लगेंगे, उनका इलाज आने वाले कुछ दशकों तक नहीं हो पाएगा। संक्रमण के बढ़ते मामलों पर पटना हाईकोर्ट ने चिंता जताते हुए स्वास्थ्य विभाग की जमकर खिंचाई की है, तो यह स्वाभाविक है। ऐसे समय में न केवल जांच रिपोर्ट जल्दी आनी चाहिए, सभी के इलाज का मुकम्मल इंतजाम भी होना चाहिए। ताकि किसी कोर्ट को यह न कहना पड़े कि आमजन के लिए सरकारी अस्पताल का दरवाजा लगभग बंद सा है। यह आरोप-प्रत्यारोप का समय कदापि नहीं और न ही राजनीति का है। आज देश-समाज के नेताओं की सार्थकता तब है, जब जरूरी सेवाएं युद्ध स्तर पर सुनिश्चित हों।

4. महंगाई की धार

कोरोना संकट के बीच बढ़ी मुश्किलें

ऐसे वक्त में जब देश में जारी कोरोना संकट से अस्त-व्यस्त जिंदगी में आम लोगों की आमदनी में गिरावट आई है और क्रय शक्ति घटी है, लगातार बढ़ती महंगाई कष्टदायक है। यह महंगाई केवल पेट्रोल-डीजल व ईंधन के दामों में ही नहीं, खाद्य पदार्थों व फल-सब्जियों में भी नजर आ रही है। वैसे तो लोग पहले ही महंगाई की तपिश महसूस कर रहे थे, लेकिन अब हाल में आये थोक महंगाई के आंकड़ों ने उस तपिश पर मोहर लगा दी है। चिंता की बात यह है कि देश में थोक महंगाई दर बीते आठ सालों के मुकाबले उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। बताते हैं कि इससे पहले वर्ष 2012 में थोक कीमतों पर केंद्रित मुद्रास्फीति 7.4 फीसदी के उच्चतम स्तर पर थी। इस वृद्धि के मूल में कच्चे तेल व अन्य धातुओं की कीमतों में हुए इजाफे को कारक माना जा रहा है। लेकिन चिंता की बात यह है कि जो महंगाई की दर फरवरी माह में महज 4.17 फीसदी थी, वह महज एक माह में लगभग दुगनी 7.39 कैसे पहुंच गई। ऐसे में सरकार को मुश्किल वक्त में महंगाई की इस छलांग के कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। निस्संदेह जब देश का निम्न और मध्य वर्ग रोजी-रोटी के सवाल से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था संवेदनशील स्थिति में है, आसमान छूती महंगाई चुभने वाली है। ऐसे में सरकारी नीतियों में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जाती है। जाहिरा तौर पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में आया उछाल भी थोक की मुद्रास्फीति बढ़ाने में एक कारण रहा है, जिसके चलते देश में पेट्रोल व डीजल के दामों में खासी तेजी आई। तभी फरवरी में 0.58 फीसदी रहने वाली ईंधन की मुद्रास्फीति मार्च में करीब साढ़े दस फीसदी तक जा पहुंची। वैसे सरकार की तरफ से भी कोई गंभीर प्रयास महंगाई पर काबू पाने के लिये नहीं किये गये। यहां तक कि केंद्रीय बैंक की नीतियां भी महंगाई को उर्वरा भूमि देती रही।

दरअसल, कोरोना संकट के मुकाबले के लिये बीते साल देश में जो सख्त लॉकडाउन लगा, उसका देशव्यापी प्रभाव नजर आया। अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया। ऐसे में दिसंबर के बाद के दो महीनों में अर्थव्यवस्था जब पटरी पर लौटती नजर आई तो सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को गति देने की थी, न कि महंगाई रोकने की। लॉकडाउन के दौरान जो कीमतें ठहरी हुई थीं, उसमें अब उछाल नजर आया। उपभोक्ताओं से मनमानी कीमतें वसूली जाने लगीं। एक दृष्टिकोण यह भी रहा कि देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये कुछ महंगाई स्वीकार्य है, जिससे उत्पादकों के कारोबार को गति मिल सके। तभी पिछले कुछ महीनों में स्थिति सामान्य होते ही बिक्री में गति के साथ ही कीमतों में तेजी देखने में आई। खाद्य वस्तुओं में ही नहीं, फल व सब्जियों के दामों में भी। आमतौर पर देश में मौसम के चरम यानी गर्मी की तेजी के साथ ही कीमतों में उछाल देखा जाता है जो अब की बार मार्च में ही नजर आने लगा। एक बार फिर कोरोना संकट घातक दौर में पहुंच गया और रोज कमाकर खाने वाले तबके का रोजगार फिर संकट में है। ऐसे में सरकार को महंगाई नियंत्रण की दिशा में गंभीर पहल करनी चाहिए। कमर तो मध्य वर्ग की भी टूटी है। जो अपनी कुल जमा पूंजी की बचत पर जिंदगी चला रहा था, उसका जीवनयापन भी महंगाई के कारण अब सहज नहीं रहा। देश के महानगरों से कामगार वर्ग का पलायन शुरू हो गया है। इन्हें अपने राज्यों व गांव में रोजगार आसानी से नहीं मिलने वाला है। पिछले लॉकडाउन के बाद ये महीनों खाली बैठने के बाद फिर महानगरों की ओर लौटे थे। ऐसे लोगों पर महंगाई की मार ज्यादा नजर आयेगी। ऐसे में सरकार से महंगाई नियंत्रण की दिशा में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए। सरकार के साथ ही केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीतियों में बदलाव भी मददगार हो सकता है। साथ ही जमाखोरों पर नियंत्रण लगाना जरूरी है। अन्यथा टुकड़ों-टुकड़ों में लगने वाला लॉकडाउन और महंगाई मारक साबित हो सकती है।

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