इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.बना रहे भरोसा
आज पूरा देश कोरोना वायरस के सामने जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है। इतने निस्सहाय-निरुपाय हम पहले कभी नहीं थे। साल भर पहले जब इस महामारी ने हमारे देश में दस्तक दी थी, तब हमारे पास कोई तैयारी नहीं थी। इस एक वर्ष में हमने लंबी यात्रा तय की है। देश तरह-तरह के प्रयोगों के दौर से गुजरा है। हमने एक के बाद एक लॉकडाउन देखे हैं, अपने बीमार पिताजी को 1,200 किलोमीटर साइकिल चलाकर बिहार ले जाने वाली किशोरी देखी है। अपने देस-गांव पैदल लौटते लाखों मजदूरों को देखा है, फिर भी हम इतने असहाय नहीं थे। हालांकि, इस बीच हमारे पास हर तरह के किट हैं, वेंटिलेटर हैं, हमारे पास वैक्सीन भी हैं, हमने वैक्सीन अपने पड़ोसियों को भी भेंट में दी है। हम वैक्सीन डिप्लोमेसी में भी अव्वल रहे। 15 करोड़ अपने लोगों को वैक्सीन लग भी चुकी है, फिर भी हम निरुपाय हैं, क्योंकि महामारी की मार इतनी तेज है कि हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
शायद हम अपनी शुरुआती कामयाबी से कुछ ज्यादा ही फूल के कुप्पा हो गए थे। कोविड के संकट को भूलकर हमारे राजनेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुट गए। कोविड प्रोटोकॉल सिर्फ कुछ ही जिम्मेदार लोगों के अनुपालन की चीज रह गया। नेतागण धड़ल्ले से चुनावों में कूद गए। चुनावी रैलियों में कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ने लगीं। यहां तक कि कुंभ जैसे, विशाल जनसमुद्र को आमंत्रित करने वाले आयोजन भी बिना खास तैयारी के होने लगे। सरकारों को ही क्यों दोष दें? जनता स्वयं जैसे चादर ताने सो रही थी। वैक्सीन है, लेकिन हम उसे लगवाने में कोताही बरतने लगे थे। शादी-ब्याह, उत्सव-त्यौहार उसी पुराने अंदाज में मनाने लगे थे, इसलिए जब कोरोना के बहुरूपी वायरस ने हमें सुषुप्तावस्था में पाया, तो चौतरफा प्रहार कर दिया। एक साथ बड़ी संख्या में पीड़ित लोग अस्पतालों की तरफ कातर निगाह से देखने लगे। व्यवस्था चरमराने लगी। नियंत्रण कमजोर पड़ने लगा। न हमारे पास पर्याप्त ऑक्सीजन है, न रेम्देसिवियेर इंजेक्शन हैं, हैं भी तो कालाबाजारी करने वालों के पास, जो दूसरे महायुद्ध के दिनों की तरह एक-एक इंजेक्शन 50-50 हजार रुपये तक में बेच रहे हैं। कोरोना टेस्ट तक नहीं हो रहे। हो भी रहे हैं, तो पांच दिन तक रिपोर्ट नहीं आ रही। निजी जांच कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए हैं, जो जांचें हो रही हैं, वे सोलह आना भरोसे लायक नहीं हैं। अब हर रोज तीन लाख तक नए मरीज आ रहे हैं। ढाई-तीन हजार मौतें रोज हो रही हैं। आंकड़े घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। यहां तक आशंका व्यक्त की जा रही है कि अभी इसका चरम बाकी है। चारों तरफ अव्यवस्था का आलम है। लोग अस्पताल जाने से घबरा रहे हैं। ये कैसे समय में जी रहे हैं हम? जाहिर है, ऐसी स्थिति में सर्वोच्च अदालत मूक दर्शक बनी नहीं रह सकती। यदि वह सरकार से आगे का रोडमैप मांग रही है, तो गलत नहीं कर रही। व्यवस्था को कसने के लिए अदालतों को न केवल कड़ाई करनी चाहिए, बल्कि कोरोना के खिलाफ युद्ध को वैचारिक रूप से भी बल देना चाहिए। अभी पूरा ध्यान जमीनी स्तर पर सुविधाओं को बहाल करने पर होना चाहिए। जितनी जल्दी हम सुविधाओं को बहाल करेंगे, उतना ही अच्छा होगा। यह वक्त भरोसे को कायम रखने का है और जब अदालतें दोटूक बात करती हैं, तब लोगों का मनोबल बढ़ता है।
- कोविड के खिलाफ शीर्षासन
हिमाचल की नरम हवाओं का घर्षण अब शादियों के शामियाने की खबर लेने लगा और बारात के दस्तावेजों में मेहमानों की सूची पर निगाह रख रहा है। दरअसल कोविड काल ने यह समझा दिया कि यह मसला आचरण की चुनौती सरीखा है, न एक कदम अधिक और न ही गुंजाइश से अधिक लाड़ प्यार। यह दीगर है कि कुछ हफ्ते पहले तक हमारी सामुदायिक गलियों के हर घर को बाहर खींचता चुनाव प्रचार जारी था और लोग प्रवाहित भी हुए, लेकिन अब एक अलग शीर्षासन है। यह ठहराव लाने की कोशिश में न्यायोचित होती सरकारों की बैसाखियां पहने प्रशासन भी दौड़ने की कोशिश कर रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि अचानक देश रिवर्स गेयर में और तमाम मंचों से नीचे उतर आया है। अचानक अदालतों के दरवाजे खुल गए और कान पकड़ कर चुनाव आयोग से उठा बैठक लगाने की हिदायत आ गई है। देश भरपूर कोशिश में है कि व्यवस्था सुधर जाए। नीतियां-नियम अचानक ऐसे खनक रहे हैं कि कोविड मरीज को भी सुनाई देने लगा है जैसे कि उसके बाद किसी को संक्रमण होगा ही नहीं। कितने प्रसन्न होंगे केजरीवाल, बिना कुछ किए दिल्ली को आक्सीजन का प्रबंध कर बैठे।
हिमाचल का उत्साह देखिए कभी दिल्ली को पानी पिलाने के लिए श्री रेणुकाजी बांध परियोजना के अंतर्गत अपने ही लोगों को विस्थापित बना देता है और अब राजधानी के फेफड़ों में ‘मेक इन हिमाचल’ की आक्सीजन भेज देगा। आखिर दिल्ली भी तो इस हालत में पहुंच गया है कि हमारे हिमाचली भाई-बहनों को शीघ्रातिशीघ्र वापस घर लौटने की मंजूरी दे रहा है। एक बार फिर लौटेंगे वही मुसाफिर और हम पलके बिछाए उनकी पंजीकरण की मदद से तफतीश करेंगे। ऐसे में अब प्रदेश को फिर से चौकन्ना होना होगा ताकि पड़ोस से कोई बिना पूछे घुसपैठ न कर सके। पिछले कोविड काल में कई जननायक उभरे थे और सरेआम बंटते मास्क व सेनेटाइजर देखे गए थे। बहुत सारे पुराने पंचायत प्रधान और शहरी पार्षद शायद बदल गए होंगे, इसलिए उनके पास आदर्श व नेक जनप्रतिनिधि साबित होने का मौका है। जोर शोर से गांव को फिर से सेनेटाइज कराएं और यह खबर रखें कि सामुदायिक कार्यक्रमों में हद से ज्यादा लोगों का प्रवेश न हो। सरकार अगर यह सुनिश्चित कर दे कि आइंदा जन प्रतिनिधि किसी शादी समारोह, मंगल कार्य या अंतिम संस्कार में न जाएं, तो कोविड काल की हिदायतें सौ फीसदी सफल हो सकती हैं। सरकार चाहे तो धाम की तरकारी पर नजर रख सकती है। मसलन पूरे हिमाचल की धामों में व्यंजनों की संख्या मात्र तीन करके संदेश दे सकती है कि सारे आयोजन सीमित हैं। कोविड काल को अपनी नई परिभाषाओं में अभिव्यक्त होना है, तो कायदे कानून भी इसी तर्ज पर बनेंगे। ऐसे में मुख्यमंत्री ने साफगोई से धाम के संचालकों को बता दिया है कि शिफ्टों के आधार पर लंबी अवधि के लिए अधिक संख्या नहीं निपटाई जा सकती। बेहतर होगा कि धाम का एक निश्चित समय पूरे प्रदेश में कर दिया जाए या शादी समारोहों को टाइम टेबल में बांध दिया जाए।
इसमें दो राय नहीं कि शादी समारोहों की आवभगत में समाज ऋणी होने की चाहत नहीं छोड़ रहा। किश्तों में बंटती धाम और आंगन में चलती नाटी का कानूनी अवलोकन नहीं हो सकता, मगर जनता को सीखना ही पड़ेगा कि यह वक्त नागरिक अधिकारों या सांस्कृतिक मेलजोल का नहीं है। इस बीच सरकार के मुखिया पूरे प्रदेश के नेटवर्क में, कोविड प्रबंधन की मजबूती का स्वयं मुआयना कर रहे हैं। एक तरह से यह सुखद एहसास हो सकता है, लेकिन व्यवस्था की जवाबदेही में प्रदेश के चिकित्सा क्षेत्र को रोज बोलना होगा। क्यों नहीं हर दिन कोविड अस्पतालों व कोविड केयर केंद्रों के हालात में कोई मेडिकल बुलेटिन सीधे विभागीय अधिकारियों के जानिब से सामने आता। प्रदेश के मेडिकल कालेजों के प्राचार्यों व चिकित्सा अधीक्षकोें के साथ फीड बैक सिस्टम बना कर जनता के साथ संवाद स्थापित हो सकता है। ऐसी ढेरों शिकायतें, वायरल वीडियो घूमते रहते हैं, जहां चिकित्सा संस्थानों की औपचारिकताओं में विषम परिस्थितियां इंगित होती हैं। ऐसे विषयों के प्रति राज्य के चिकित्सा विभाग की जवाबदेही तभी तय होगी अगर कोविड अस्पतालों की स्थिति पर रोजाना कोई न कोई वरिष्ठ प्रिंसीपल या मेडिकल सुपरिंटेंडेंट अपना पक्ष रखे। कोविड काल ने राज्य की मेडिकल व्यवस्था पर कई लबादे चढ़ा दिए हैं, जबकि इन्हें उतारने की सख्त जरूरत है।
3.कोरोना टीका सियासी नहीं
यह राजनीतिक विरोध का वक्त नहीं है। कमोबेश कोरोना टीकाकरण को लेकर सियासी पाले मत खींचिए। टीकाकरण मोदी, गांधी अथवा किसी दल-विशेष का कार्यक्रम नहीं है। टीकाकरण राष्ट्रीय अभियान है और केंद्र सरकार के नेतृत्व में जारी है। ऐसे राष्ट्रीय अभियान कई गंभीर बीमारियों के खिलाफ भी छेड़े गए हैं और अब भी जारी हैं। केंद्र सरकार समूचे भारत की है। उसका नेतृत्व कौन-सा राजनीतिक दल कर रहा है, यह बिल्कुल बेमानी है, लिहाजा जो राज्य सरकारें और पार्टियां एक मई से आरंभ होने वाले टीकाकरण के तीसरे चरण का विरोध कर रही हैं और टीकाकरण से ही इंकार कर रही हैं, दरअसल वे राष्ट्र-विरोधी हैं। वे टीकाकरण विरोधी करार दिए जाएंगे। वे कोरोना के खात्मे के अभियान में शामिल नहीं होना चाहते। वे भी क्या करें, क्योंकि सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड और भारत बायोटैक ने कोवैक्सीन के दाम घोषित कर दिए हैं। उनमें बुनियादी विरोधाभास यह है कि दोनों कंपनियां भारत सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक के हिसाब से टीका मुहैया करवा रही हैं, जबकि राज्य सरकारों के लिए कोविशील्ड ने 400 रुपए और कोवैक्सीन ने 600 रुपए प्रति खुराक की कीमतें तय की हैं।
यह फर्क क्यों है? इस सवाल का स्पष्टीकरण न तो भारत सरकार ने दिया है और न ही टीका कंपनियों ने। दोनों कंपनियों को भारत सरकार का पूरा संरक्षण हासिल है। प्रधानमंत्री मोदी ने अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन से फोन पर बात की है। विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अपने समकक्षों को वक्त की नाजुकता समझाई। अमरीका में भारतीय बेहद प्रभावशाली हैं। भारतीय मूल के सांसदों, कंपनी मालिकों, सीईओ, वैज्ञानिकों और अन्य ने राष्ट्रपति पर पुरजोर दबाव बनाया, तो अमरीका के घोषित रुख में बदलाव दिखाई दिया। अमरीका को याद आया कि जब उसके देश में महामारी उग्र रूप धारण कर रही थी, तो भारत ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सरीखी जीवन-रक्षक दवा भेजकर और अन्य तरीकों से अमरीका की मदद की थी, लिहाजा अब हमारी बारी है। अब अमरीका न केवल टीकों के लिए जरूरी कच्चे माल की आपूर्ति कर रहा है, बल्कि टीकों के विकास और आपूर्ति में भी मदद करेगा। अमरीका आपातकालीन और आर्थिक मदद भी मुहैया करा रहा है। अलबत्ता अमरीका का घोषित रवैया था कि यह अमरीका और शेष विश्व के हित में है कि प्रत्येक अमरीकी को कोविड टीका लगे। इसके मद्देनजर अमरीका ने विभिन्न टीकों का जो अनावश्यक भंडारण कर रखा है, उनसे कई गरीब और छोटे देशों के करीब 60 करोड़ नागरिक जिंदा रह सकते हैं। बहरहाल अमरीका का संदर्भ प्रसंगवश था, क्योंकि उसकी मदद से हमारा टीकाकरण प्रभावित होता है। भारत में इस टीके पर भी सियासत जारी है, जबकि सभी पक्षों को एहसास है कि कोरोना के खिलाफ जंग में टीका ही अंतिम हथियार है। फिर इस पर भी भ्रम और अफवाह की स्थिति क्यों है? इसके लिए मोदी सरकार भी जिम्मेदार है। प्रधानमंत्री विपक्षियों पर ही आरोप चस्पा न करें। स्वास्थ्य की संसदीय स्थायी समिति को सरकार ने आश्वस्त किया था कि टीके की कीमत 250 रुपए से ज्यादा नहीं होगी। यह कीमत निजी अस्पतालों में है। सरकारी केंद्रों में टीकाकरण मुफ्त है।
करीब 20 राज्य सरकारों ने निशुल्क टीका लगाने की घोषणा की है। टीका तो केंद्र सरकार ही मुहैया कराएगी। हमारे बजट में 35,000 करोड़ रुपए का प्रावधान टीकाकरण के लिए ही तय किया गया था। दरअसल कोरोना का टीकाकरण अभियान भी उसी तरह ‘राष्ट्रीय’ है, जिस तरह सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम चलाया जाता रहा है। उसके तहत भी 10-12 गंभीर बीमारियों के लिए देश भर में वयस्कों, बच्चों और महिलाओं को मुफ्त टीके लगाए जा रहे हैं। तो अहम सवाल है कि भारत सरकार ने कोरोना टीकाकरण को भी, सभी उम्र के नागरिकों के लिए, निःशुल्क क्यों नहीं किया? हम मानते हैं कि जब टीके के विकेंद्रीकरण की चर्चा छेड़ी गई थी, तो वह भी सियासत थी। अब राज्य सरकारों को खुला विकल्प मिला है, तो भी राजनीति ढूंढी जा रही है, लिहाजा पहल केंद्र सरकार को ही करनी पड़ेगी कि सभी केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारी केंद्रों में टीका निःशुल्क लगाया जाएगा। निजी अस्पतालों में कीमत क्या रहेगी, यह राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। कंपनियों को बाध्य किया जाए कि वे राज्य सरकारों को भी केंद्रीय दाम पर ही टीका मुहैया कराएं। कोरोना राष्ट्रीय आपदा है, लिहाजा टीकाकरण देश का बुनियादी कार्यक्रम है, नतीजतन दो कीमतें हो ही नहीं सकती।
- आयोग की गैर जिम्मेदारी
सत्ता और दलों की भी तय हो जवाबदेही
मद्रास हाईकोर्ट की इस टिप्पणी ने पूरे देश का ध्यान खींचा है कि कोरोना की दूसरी लहर का विस्फोट चुनाव आयोग की लापरवाही का नतीजा है और उसके अधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए। अदालत का मानना था कि आयोग अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने में विफल रहा है, जिसके चलते चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल का जमकर उल्लंघन हुआ है। इस अराजकता को रोकने में आयोग नाकाम रहा है। दरअसल, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी और जस्टिस कुमार राममूर्ति की पीठ का मानना था कि यह आयोग की संस्थागत विफलता है और वह अपनी जिम्मेदारी को निभाने में विफल रहा है। उसने अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया। इसमें दो राय नहीं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव अभियान में जिस तरह की भीड़ जुटी और जैसे भारी-भरकम रोड शो किये गये, उसने पूरे देश को हैरान किया। लोग इस तरह के कुतुर्क देने लगे कि जब पश्चिम बंगाल की भीड़ को बिना मास्क व शारीरिक दूरी के कुछ नहीं हो रहा है तो हमें क्या होगा। विडंबना यह रही कि राजनेता और स्टार प्रचारक भी बिना मास्क के नजर आये। कोर्ट ने यहां तक कहा कि यदि आयोग ने कोविड प्रोटोकॉल का कोई ब्लूप्रिंट नहीं बनाया तो दो मई की मतगणना को भी रोका जा सकता है। हालांकि, इसके बाद आयोग ने सक्रियता दिखाते हुए निर्णय लिया है कि मतगणना के बाद विजयी प्रत्याशियों के जुलूस आदि प्रदर्शन पर रोक रहेगी। लेकिन यह कार्रवाई आयोग की साख पर उठे सवालों के बाद ज्यादा प्रभावी नजर नहीं आ रही है। आयोग की यह घोषणा पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम व केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी के दो मई को आने वाले चुनाव परिणामों पर लागू रहेगी। मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी के जवाब में आयोग ने कहा है कि आयोग ने कोरोना संकट के दौरान बिहार के चुनाव को कोविड प्रोटोकॉल के साथ सफलतापूर्वक आयोजित किया। पश्चिम बंगाल में यही प्रोटोकॉल लागू है। विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में सुरक्षा के उपाय किये गये हैं और बाद में चुनाव प्रचार अभियान को नियंत्रित किया गया।
वहीं मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चेताया कि हम कोरोना संकट को देखते हुए मूकदर्शक नहीं बने रह सकते। अदालत ने केंद्र से पूछा कि इस महासंकट से निपटने का उसका क्या राष्ट्रीय प्लान है। अदालत ने पूछा कि केंद्रीय संसाधनों का कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है। मसलन पैरामिलिट्री डॉक्टर्स और सैन्य सुविधाओं का कैसे प्रयोग किया जा रहा है। अदालत का मानना था कि उच्च न्यायालयों को राज्यों के हालात की निगरानी करनी चाहिए, लेकिन शीर्ष अदालत चुप नहीं बैठ सकती। हमारा कार्य राज्यों के बीच समन्वय करना है। सरकार को इस संकट में अन्य बलों का इस्तेमाल करना चाहिए। वहीं सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की ओर से पक्ष रखा कि सरकार पूरी सतर्कता के साथ स्थिति को संभालने का प्रयास कर रही है। बहरहाल, इसके बावजूद देश में मंथन जारी है कि क्या वाकई चुनावी रैलियों से संक्रमण की दर बढ़ी है या यह डबल वैरिएंट की देन है। हालांकि, दोनों को लेकर कोई प्रामाणिक अध्ययन सामने नहीं आये, लेकिन यह विचार आम लोगों के जेहन में जरूर तैर रहा है। इसके अलावा बेतहाशा बढ़ते संक्रमण के मूल में लचर भारतीय चिकित्सा तंत्र की भी भूमिका है। वहीं आम धारणा है कि राजनेताओं ने भी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया और बेझिझक भीड़भाड़ वाली बड़ी रैलियां आयोजित की। दरअसल, सितंबर में संक्रमण दर में जो कमी आई थी, वह फरवरी में फिर ग्राफ उठाने लगी। फिर रैलियों में तो न तो मास्क नजर आये और न ही शारीरिक दूरी। नेता भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते नजर नहीं आये। जिसके बाद चुनाव आयोग ने 22 अप्रैल को चुनावी रैलियों पर रोक भी लगायी। निस्संदेह चुनावी राज्यों में संक्रमण दर में वृद्धि देखी गई लेकिन वहीं दलील दी जा रही है कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में तो चुनाव नहीं थे, वहां रिकॉर्ड संक्रमण की क्या वजह है?