इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.निजी अस्पतालों के द्वार पर
अंततः सरकार भी निजी अस्पतालों के द्वार पहुंच रही है और इसकी एक पहल कांगड़ा जिला से शुरू हो गई। बाकायदा आठ निजी अस्पतालों की पचास फीसदी क्षमता का इस्तेमाल इस आपदा में होगा। इससे आने वाले खतरे की सूचना के साथ-साथ यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की लाचारी का आलम क्या है। हालात से हतप्रभ होने की वजह और एक साल से जारी कशमकश में ऐसी बेबसी क्यों हो गई कि हिमाचल के सरकारी अस्पताल भी अपनी क्षमता से जूझ रहे हैं। धर्मशाला के जोनल अस्पताल में चल रहे कोविड अस्पताल के 150 बिस्तर भले ही बढ़ाकर 175 की क्षमता तक पहुंचा दिए गए, लेकिन आफत से बच निकलने का यह अंतिम उपाय नहीं हो सकता, लिहाजा जिलाधीश राकेश प्रजापति ने टीएमसी की सीमाओं का मूल्यांकन करते हुए निजी चिकित्सा संस्थानों के बेहतर इंतजाम से सहयोग मांगा है। यह एक प्रशंसनीय कदम इसलिए माना जाएगा, क्योंकि ऐसी व्यवस्था के तहत निजी अस्पतालों की कार्यप्रणाली अनुशासित, पारदर्शी और जवाबदेह होगी। दूसरी ओर चिकित्सा के बेहतर विकल्प के रूप में निजी क्षेत्र की सहभागिता अपनी गुणवत्ता का लोहा मनवा सकती है। हालांकि इसी बीच कांगड़ा के एक नए अस्पताल के साथ सरकार का समझौता, विपक्ष की आंख में किरकिरी पैदा कर रहा है।
प्रस्ताव के अनुसार सरकार एक नवनिर्मित निजी अस्पताल को प्रति माह 54 लाख की दर से अनुबंधित कर सकती है, अगर विपक्षी आलोचना से संदर्भ न बिगड़ें। आपदा के समय ऐसी व्यवस्था से हैरानी नहीं हो सकती, लेकिन अतीत में जिस तरह हिमाचल की चिकित्सकीय खरीद-फरोख्त में बवाल मचा, यह अस्पताल अनुबंध भी आलोच्य है। कांगे्रस इस प्रस्ताव के सुराख में अपनी आपत्तियों के तर्क देख रही है, तो सरकार बचाव की मुद्रा में ऐसे किसी समझौते को बयां नहीं कर पा रही है। यह दीगर है कि किसी पारदर्शी व्यवस्था के तहत अस्पतालों के साथ प्रति बिस्तर समझौता होता है, तो आपदा की वर्तमान परिस्थिति में सतर्कता और तीव्रता से चिकित्सा प्रदान की जा सकती है। पालमपुर के विवेकानंद अस्पताल को सरकार के अधीन चलाने की मांग स्वयं नागरिक करते रहे हैं, जबकि अन्य निजी अस्पतालों की अधोसंरचना ने अपनी सेवाओं से सारे कोविड काल को संबोधित किया है। जिला के दो प्रमुख निजी अस्पतालों का सीधे कांग्रेस नेताओं से संबंध है और इस तरह वे इस क्षेत्र की व्यावसायिकता को समझते हैं। हिमाचल में निजी क्षेत्र की बढ़ती उपयोगिता के बीच यह चुनना मुश्किल नहीं कि कौन नेता क्या-क्या धंधा कर रहा है। शिक्षण संस्थान हों या नए चिकित्सा संस्थान, निवेश की फेहरिस्त में नेताओं का वजूद चमक रहा है। राजनीतिक रहनुमाई में कितने नए संस्थान आंख खोलने को तैयार हैं या भविष्य की राहों में राजनीतिक मेलजोल गुल नहीं खिला पाएगा, असंभव है। स्वयं वन मंत्री ने अपने नर्सिंग कालेज को कोविड अस्पताल में परिवर्तित करने की अनुमति मांगी है और अगर यह संभव हुआ, तो कल नूरपुर को एक नया अस्पताल मिल जाएगा। यह गरीब की पगड़ी नहीं जो कोरोना काल में भी अपनी लाज बचाने के लिए गिड़गिड़ा रही है।
हर दिन मौत के आंकड़े में कितने असहाय लोगों की जिंदगी थम रही है, यह जान लेना असंभव नहीं। सरकारी अस्पतालों की खाक छानते कदम कितने जख्मी होते हैं या अपनों को खोने का दर्द कितना बिलखता होगा, इसका अंदाजा हम किसी भी सियासी बहस से नहीं लगा सकते। सियासत एक जरिया है और ताकत इसका उत्पाद है। आज एक दल की सत्ता कुछ सौहार्द कर सकती है, तो कल लाभार्थ के पैमाने बदल जाएंगे। यह जनता जान सकती है कि पांच साल में उनका पंचायत प्रधान किस तरह संपन्न हो जाता है या एक विधायक अपनी बपौती में कितनी वित्तीय ताकत बटोर लेता है। बहरहाल एक प्रशासनिक अधिकारी ने सरकारी इंतजामों की खेप का निजी क्षेत्र के बाजुओं से रक्षाबंधन करके सुरक्षा का एहसास कराया है। हिमाचल के सुरक्षा चक्र में ऐसे कई अन्य अस्पताल शामिल होने चाहिएं, बशर्ते पद्धति पारदर्शी व भेदभाव रहित साबित हो। आपदा काल ने हिमाचल में निजी निवेश का तजुर्बा बढ़ा कर यह साबित कर दिया कि सरकारों के साथ अब निजी क्षेत्र के कंधे किस हद तक मदद कर सकते हैं। कोविड काल की वर्तमान स्थिति से कल जब नई स्वास्थ्य नीति निकले तो यह सोचना होगा कि हिमाचल के प्रमुख पचास शहरों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत कम से कम ऐसे सिटी अस्पताल हों, जिन पर जनता नाज और उनकी सुविधाओं से प्रदेश अपनी सुरक्षा कर सके।
- टीके का विस्तार
भारत में टीकाकरण पूरी संभव रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, लेकिन हमें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। 15 करोड़ से ज्यादा खुराक का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन अभी महज ढाई करोड़ लोगों का टीकाकरण पूरा हुआ है। टीके की जो रफ्तार पहले थी, उसमें बढ़त नहीं हो रही है। अब एक मई से 18 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को भी टीका लगने लगेगा, तब कई सवाल सामने आ गए हैं। क्या भारत के पास पर्याप्त टीके हैं? क्या भारत में फिलहाल दो कंपनियां इस स्थिति में हैं कि आधी से ज्यादा जरूरत को पूरा कर दें? भारत के पास कहां से टीके आएंगे? अब यह एक ऐसा विषय है, जिसे राष्ट्रवादी नजरिए से देखने के बजाय जरूरत के नजरिए से देखना चाहिए। टीकाकरण को भारत में बहुत उम्मीद से देखा जा रहा है। मरीजों का इलाज करते-करते थके डॉक्टर यह मानकर चल रहे हैं कि टीकाकरण ही कोरोना का पुख्ता समाधान होगा। लगे हाथ, चिकित्सा बिरादरी में भी यह चिंता की बात है कि यहां भी टीकाकरण को सभी ने हाथों-हाथ नहीं लिया है। टीकाकरण की राह में यह मौलिक अड़चन है। संक्रमण तेज हुआ है, तो एक भय टीकाकरण केंद्रों पर जाने को लेकर भी है। बहरहाल, टीके के बारे में फिजूल के संदेहों के बावजूद जितने लोग टीका लेना चाहते हैं, क्या आज उन्हें निराश न लौटाने की स्थिति है?
क्या भारत में टीकों की इतनी कमी हो गई है कि एक समय जहां हम प्रतिदिन 35 लाख लोगों को टीका लगा रहे थे, वहीं अब 25 लाख लोगों को ही लगा पा रहे हैं? कुल मिलाकरऔसतन 30 लाख लोगों को टीके अभी लग रहे हैं। एक मई से 18 से ज्यादा उम्र के लोगों को टीके लगने लगेंगे, तब करीब पचास-साठ लाख लोगों को प्रतिदिन टीके लगाने पडें़गे? क्या भारत में अभी प्रतिदिन एक करोड़ टीके का उत्पादन संभव है? महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, ओडिशा जैसे राज्यों ने टीकों की कमी बता दी है। यह बात भी छिपी नहीं है कि टीकों की कमी की वजह से कई जगह टीकाकरण रोकना पड़ा है। कई राज्य तनाव में हैं कि एक मई से टीकाकरण कैसे चलेगा? मिसाल के लिए, राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि हमारे राज्य में 18 से 45 की उम्र के बीच कुल 3.25 करोड़ खुराक की जरूरत है। हमारी सरकार अभी तक 3.75 करोड़ वैक्सीन बुक करा चुकी है, लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि इतनी डोज 15 मई से पहले नहीं दी जा सकती। महाराष्ट्र में भी एक मई से टीकाकरण का विस्तार आसान नहीं है। इस राज्य ने 12 करोड़ खुराक की मांग कर रखी है। भारत को विदेश से भी कुछ टीके मिल सकते हैं, लेकिन उनसे भारत की मांग नहीं पूरी होगी। ऐसे में, युद्ध स्तर पर भारत में ही टीकों का निर्माण तेज करना चाहिए। इसके लिए कच्चा माल अमेरिका से मिले या किसी अन्य देश से, तत्काल आयात की जरूरत है। साथ ही, दवा की दूसरी बड़ी कंपनियों को भी टीका निर्माण के लिए मंजूरी और प्रोत्साहन देना चाहिए। अभी दवा निर्माण या पेंटेंट मापदंडों की लंबी प्रक्रिया की पालना का समय नहीं है, अभी संकट में फंसे अपने लोगों की जान बचाना प्राथमिकता है। पूरी उदारता के साथ सक्षम भारतीय दवा कंपनियों को टीका निर्माण में उतारना चाहिए, ताकि देश को टीके का कवच जल्दी से जल्दी पहनाया जा सके।
3.त्रासदी का आंकड़ा
जिंदगियां बचाना हो पहली प्राथमिकता
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश में कोविड-19 संक्रमण से मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दो लाख पार कर गई है। किसी भी देश के लिये इतनी बड़ी जनशक्ति का अवसान वाकई पीड़ादायक है। हालांकि सरकारी आंकड़ों को लेकर सवाल उठाने वाले स्वतंत्र पर्यवेक्षक संख्या को इससे ज्यादा बताते हैं, लेकिन आंकड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारी विवशता को ही जाहिर करता है। यह हमारे नीति-नियंताओं पर सवाल खड़ा करता है। बताता है कि हम ऐसा स्वास्थ्य तंत्र विकसित नहीं कर पाये हैं जो अनमोल जिंदगियां बचाने का काम कर सके। निश्चय ही सदियों की गुलामी और साम्राज्यवादी ताकतों के अन्यायपूर्ण दोहन से मुक्त होकर हम अपनी आजादी की हीरक जयंती मनाने की दहलीज पर जा पहुंचे हैं, लेकिन देश में स्वास्थ्य विषयक आंकड़े विकासशील देशों की सूची में शर्मसार करने वाले हैं। जनमानस के रूप में भी हम समाज में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा नहीं कर पाये हैं। न ही जनता को इतना विवेकशील बना पाये हैं कि वे राजनेताओं के घोषणापत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिक दर्जा दिला सकें। राजनीतिक दलों ने भी कभी स्वास्थ्य सेवाओं को इतना बजट ही नहीं दिया कि देश में मजबूत स्वास्थ्य तंंत्र विकसित हो सके। हमारा चिकित्सा तंत्र सामान्य दिनों में ही पर्याप्त चिकित्सा हर मरीज को देने में विफल रहा है। दवाओं-चिकित्सा सुविधाओं की किल्लत से लेकर डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों की कमी से सरकारी अस्पताल जूझते रहे हैं। तो ऐसे में ये उम्मीद करना बेमानी ही था कि एक अज्ञात संक्रामक रोग के खिलाफ हम मजबूती से लड़ सकें। अस्पतालों के बाहर बेड और ऑक्सीजन पाने के लिये तड़पते मरीज और बदहवास तीमारदार इस बेबसी को ही दर्शाते हैं। निस्संदेह, कोरोना से मरने वालों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जो पहले से ही कई घातक रोगों से जूझ रहे थे। लेकिन ऑक्सीजन की कमी से लोगों का मरना हमारी शर्मनाक विफलता को दर्शाता है।
इस हताशा व निराशा के बीच उम्मीद की किरण यह है कि हमने देश में स्वदेशी वैक्सीन कोवैक्सीन तैयार कर ली और कोविशील्ड का उत्पादन देश में कर रहे हैं। इस महामारी में यदि हमें विदेशी वैक्सीन पर निर्भर रहना पड़ता तो सवा अरब के देश के क्या हालात होते, अंदाजा लगाया जा सकता है। अब रूस की स्पूतनिक समेत कई अन्य वैक्सीनों के रास्ते भी खुले हैं। हम अब तक दुनिया में सबसे तेज गति से पंद्रह करोड़ वैक्सीन लगा चुके हैं। ऐसे वक्त में जब इस महामारी का कोई इलाज नहीं है, वैक्सीन ही हमारा उद्धार कर सकती है। दो चरणों का सफल टीकाकरण हुआ, जिसमें पहले स्वास्थ्य कर्मियों और साठ साल से अधिक के लोगों को और दूसरे चरण में 45 साल से अधिक के लोगों का टीकाकरण किया गया। अब एक मई से देश में 18 वर्ष से अधिक के लोगों को टीका लगाने का काम शुरू हो जायेगा। इसके पंजीकरण का काम बुधवार से शुरू हो गया। इस चरण में अब राज्य सरकारें, निजी अस्पताल और टीकाकरण केंद्र वैक्सीन निर्माता कंपनियों से सीधे वैक्सीन खरीद सकेंगे। यहां तक कि कंपनियां अपने स्टॉक का पचास फीसदी केंद्र को व पचास फीसदी बाकी राज्यों व निजी अस्पतालों को दे सकेंगी। कोविशील्ड खुले बाजार में कुछ माह के बाद उपलब्ध हो सकेगी। सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बॉयोटेक ने केंद्र, राज्यों व निजी अस्पतालों के लिये वैक्सीन की अलग-अलग कीमतें निर्धारित की हैं, जिसको लेकर कहा जा रहा है कि एक देश में अलग-अलग दरें क्यों निर्धारित की जा रही हैं, जबकि वैक्सीन देश के लोगों को ही मिलनी है। सीरम ने कहा है कि मौजूदा ऑर्डर पूरा होने के बाद कंपनी केंद्र को भी राज्यों की दर पर ही वैक्सीन देगी। वहीं भारत बॉयोटेक पहली कीमत पर केंद्र को वैक्सीन उपलब्ध करायेगी। हालांकि, यह राज्यों का अधिकार है कि वे नागरिकों को किस कीमत पर वैक्सीन उपलब्ध कराते हैं। कुछ राज्यों ने मुफ्त वैक्सीन देने की बात कही है। केंद्र ने वैक्सीन निर्माता कंपनियों को साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध कराने की घोषणा की है।
- पंचतारा कोविड केंद्र!
भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक समता के अधिकार की व्याख्या है। समानताएं कई स्तरों पर तय की गई हैं। विधि के सामने समानता, राज्य के अधीन विभिन्न सेवाओं में समानता, सामाजिक समता आदि के उल्लेख हैं। संविधान के मुताबिक, देश के सभी नागरिक समान हैं और उन्हें समान अवसर हासिल करने के समान अधिकार प्राप्त हैं। व्यवहार में ऐसा नहीं होता। हमारा देश और समाज कई जमातों में बंटा है-अमीर, सम्पन्न वर्ग, पदासीन राजनेता, नौकरशाह, न्यायमूर्ति, मध्य-निम्न वर्ग और गरीब आम आदमी! यह कोरोना वायरस महामारी का प्रलय-काल है। इन जमातों का वर्गीकरण आराम से देखा और महसूस किया जा सकता है। अस्पतालों में विशेष कक्ष खाली रखे गए हैं, जिनमें ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और आईसीयू से जुड़े बिस्तर उपलब्ध हैं। आप किसी भी अच्छे और बड़े अस्पताल में छापा मरवा कर इस यथार्थ को देख सकते हैं। गरीब आम आदमी सड़क पर तड़पते, तरसते, बिलखते हुए मर रहा है।
अस्पतालों के बाहर ही त्रासदियां घट रही हैं, लेकिन पत्थर-दिल व्यवस्था खामोश, अंधी और निष्क्रिय है। आम आदमी का इलाज प्राथमिकता से नहीं हो सकता, बेशक उसकी सांसें उखड़ते हुए हमेशा के लिए थम जाएं। ऐसे असंख्य दृश्य राजधानी दिल्ली में भी आम हैं और देश के विभिन्न हिस्सों से भी हमारे सामने आ रहे हैं। सवाल है कि क्या इनसानी जान का मूल्य भी कम या ज्यादा आंका जा सकता है? क्या बीमार नागरिकों में भी अतिविशिष्ट और आम का विभाजन किया जा सकता है? क्या राष्ट्रीय आपदा के दौर में भी किसी अतिविशिष्ट के लिए आरक्षण किया जा सकता है? क्या कोरोना के इलाज के लिए भी वीआईपी होना लाजिमी है? हमने सवाल तो किए हैं, लेकिन ये तमाम परिस्थितियां हमारे देश में मौजूद हैं। यदि ऐसा है, तो फिर संविधान की जरूरत क्या है? बेशक सार्वजनिक रूप से दावा किया जाता रहे कि पदासीन जमात देश की सेवक है, दरअसल वह ही शासक है।
यह संदर्भ तब उभरा है, जब दिल्ली सरकार के एक अधिकारी ने पंचतारा होटल ‘अशोका’ को आदेश दिया कि न्यायमूर्तियों, न्यायिक अधिकारियों और उन दोनों जमातों के परिजनों के लिए कोविड केयर केंद्र बनाया जाए। उसके लिए होटल के 100 कमरे अलग से तय किए जाएं। उस केंद्र को निजी अस्पताल ‘प्राइमस’ से जोड़ा जाएगा। यदि आदेश का पालन नहीं किया गया, तो दंडात्मक कार्रवाई भी की जा सकती है। चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका पर सुनवाई होनी थी, लिहाजा अदालत ने इस पंचतारा व्यवस्था को खारिज कर दिया। अदालत का कहना था कि सरकार को इस आशय का आवेदन नहीं किया गया, तो पंचतारा होटल में कोविड केंद्र बनाने के आदेश क्यों और किसने जारी किए? अदालत ने बेहद तल्ख टिप्पणियां कीं कि ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं है और 100 कमरे रिजर्व कर रही है सरकार! दिल्ली का सारा सिस्टम फेल हो गया है। हमारा भरोसा हिल चुका है। यह वक्त गिद्धों की तरह बर्ताव करने का नहीं है। यदि दिल्ली सरकार व्यवस्था नहीं संभाल सकती, तो हम केंद्र सरकार को कहेंगे कि वह तमाम चीजों की व्यवस्था करे। ऐसे दौर में अदालत मूकदर्शक नहीं बन सकती और इस तरह नागरिकों को मरते हुए नहीं देखा जा सकता।
पंचतारा कोविड केंद्र के संदर्भ में न्यायाधीश की टिप्पणी थी- ‘क्या दिल्ली सरकार हमें खुश करना चाहती है?’ ये सवाल अपनी जगह हैं। बुधवार को दिल्ली सरकार को अदालत में हलफनामा दाखिल कर जवाब देना था। पंचतारा केंद्र के मुद्दे ने सोशल मीडिया और परंपरागत मीडिया में ऐसा तूल पकड़ा कि देर रात सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। अब जांच का नाटक किया जा रहा है। सरकार के अघोषित आदेश पर ही कोई अधिकारी ऐसा आदेश किसी सरकारी पंचतारा होटल को जारी कर सकता है, यह व्यवहार दुनिया जानती है। तो जांच के मायने क्या हैं? दरअसल कोविड की दूसरी लहर के दौरान मुख्यमंत्री केजरीवाल और उनकी सरकारी व्यवस्था पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। मुख्यमंत्री भावुकता से काम चलाना चाह रहे हैं। केंद्र सरकार ने 8 ऑक्सीजन प्लांट बनाने के लिए स्वीकृति दी थी और बजट भी मुहैया कराया था। ऐसी निष्क्रियता पर केजरीवाल खामोश हैं। अब फ्रांस से प्लांट मंगवाए जा रहे हैं। वे कब आएंगे और कब स्थापित होकर ऑक्सीजन पैदा करने लगेंगे। ऐसे कई सवाल अदालत के सामने रहे हैं, लिहाजा दिल्ली सरकार ने तुष्टिकरण का पंचतारा पैंतरा खेलने की कोशिश की। वह नाकाम रही, बल्कि देश का संविधान सवालिया हो गया। मामला अब भी अदालत में है। देखते हैं कि निष्कर्ष क्या रहता है।