इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.पूर्ण राज्यत्व से स्वाभिमान तक
पूरे प्रदेश के लिए हिमाचल के गठन और भौगोलिक-सांस्कृतिक विकास से एक अनूठी कहानी निकलती तथा आज भी प्रदेश की पृष्ठभूमि अलंकृत होती है। बेशक हम नायक पैदा करते रहे हैं और अतीत से आज तक के सफर में स्वाभिमान के क्षण बढ़ा रहे हैं। स्थानीय निकाय चुनाव ही लें तो राजनीतिक चूं-चूं से हटकर कहीं कोई नायक-नायिका सरीखा पात्र नजर आता है। अभी कुछ दिन पहले पंजाब के डीएमसी की मैरिट सूची को अलंकृत करके हिमाचल की बेटी आगे बढ़ गई। श्रेष्ठता और वीरता की कहानियों में हिमाचली नायकत्व आगे बढ़ जाता है, लेकिन क्या समाज अपने आचरण में इन्हें रेखांकित करता है। सामाजिक स्वीकार्यता का दोगलापन राजनीति के दुष्चक्र का परिणाम बनता जा रहा है, बल्कि यह कहें कि सत्ता लाभ और प्रभाव के दायरे में सामाजिक पृष्ठभूमि निरंतर गौण हो रही है। एक बड़ी वजह बनकर प्रगति की किश्तियां बदल रही हैं और हम अपनी निशानियों में राजनीतिक गौरव ढूंढ रहे हैं। ऐसे में सबसे बड़ा नायक प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति बन जाता है या परिदृश्य की मजबूरियों ने समर्पण कर दिया है। यह प्रचार तंत्र की सघनता या मीडिया की एप्रोच से जुड़ा विषय हो सकता है कि हिमाचली पाठक के इर्द-गिर्द तमाम संभावनाओं का अक्स सरकार की तरफ ही देखता है। निजी क्षेत्र से जुड़ी आर्थिकी का विश्लेषण न तो किसी अर्थशास्त्री के रूप में सामने आता है और न ही विश्वविद्यालय स्तरीय अध्ययन से पता चलता है कि तरक्की के आयाम, सामाजिक भूमिका में आत्मनिर्भरता की कसौटियां किस स्तर तक पैदा कर रहे हैं। ऐसे में जब समस्त दायित्व की रखवाली का चित्रण ही सरकार के माध्यम से होता है, तो मुख्यमंत्री का पद पालक बन जाता है। यही वजह है कि वाईएस परमार से जयराम ठाकुर तक के हिमाचल में नीतियां-नियम तो सामने आए, लेकिन प्रदेश ने अपनी तरक्की के सिद्धांतों में समाज की भागीदारी को परिलक्षित नहीं किया। ऐसे में समाज ने अपनी संस्कृति को भी सरकार के दायित्व में देखना शुरू कर दिया और नतीजा यह हुआ कि गांव की छिंज यानी कुश्ती तक के आयोजन भी सियासत की पगड़ी पहनते हैं। अब समाज का स्वाभिमान सरकार है, न कि सरकार का स्वाभिमान समाज दिखाई देता है। इसमें दो राय नहीं कि स्वर्गीय वाईएस परमार ने पर्वतीय स्वाभिमान के पल और पग तराशे और इस तरह रियासतों से प्रदेश के अस्तित्व को जमीन मिल गई।
यह स्वाभिमान की तलाश थी जो प्रदेश की आर्थिकी के लिहाज से एशिया की पहली बागबानी-वानिकी विश्वविद्यालय को जन्म देती है। यह पर्वतीय स्वाभिमान की जीत थी जो पंजाब के वर्चस्व से छीन कर वहां की आबादी के एक हिस्से को हिमाचली बना देती है। इसी आर्थिकी पर स्वाभिमान चित्रित करते शांता कुमार ने विद्युत उत्पादन में निजी निवेश तथा मुफ्त बिजली हासिल करने का नैतिक तथा आर्थिक हक हासिल किया। वीरभद्र सिंह ने विकास के हर पहलू में स्वाभिमान की शर्तें ऊंची कीं, लिहाजा हर गांव की पहुंच तक शिक्षा व चिकित्सा ही नहीं, कालेज स्तर की पढ़ाई और मेडिकल कालेज से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाएं भी मिलने लगीं। प्रेम कुमार धूमल ने हिमाचली अधिकारों में न केवल जलसंसाधनों व जंगल की पैरवी की, बल्कि सैन्य सेवाओं में हिमाचली स्वाभिमान की खातिर हिमालय रेजिमेंट के गठन तथा डोगरा रेजिमेंट के मुख्यालय को ऊना शिफ्ट करने की आवाज बुलंद की। पचासवें पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचा हिमाचल अपने स्वाभिमान के नए दौर में है। यहां प्रश्न इसलिए भी बड़े हैं, क्योंकि आर्थिक संसाधनों की पैरवी में दो ही रास्ते सामने हैं। पहले आगोश में ऋणों का बढ़ता बोझ और दूसरे समाधान में निजी निवेश की छूट। इन्वेस्टर मीट दरअसल अपने भीतर के परविर्तन का अवलोकन थी, लेकिन हिमाचल के अस्तित्व व पिछली सरकारों द्वारा सीमांकित आदर्शों से बाहर निकलने की चेष्टा भी। ऐसे में हिमाचल के स्वाभिमान को क्या अति सरकारवादी या सार्वजनिक क्षेत्र के रखरखाव में जाया कर सकते हैं या स्वरोजगार के जरिए अर्जित स्वाभिमान को परिमार्जित करने की जरूरत है, ताकि जन्म लेते ही बच्चे राज्य के कर्ज की एक किस्त न बन जाएं। हिमाचल के अस्तित्व में पैदा हुए और धारा 118 से जुड़े स्वाभिमान को राजनीतिक हथकंडा मानें या इसके बाहर पैदा हो रहे यथार्थवादी स्वाभिमान को अंगीकार करें, यह सोचना होगा।
- गणतंत्र की दो परेड!
आज 26 जनवरी है…भारत का 72वां गणतंत्र दिवस! स्वतंत्र भारत के संवैधानिक और जनवादी प्रारूप का दिवस! ‘पूर्ण स्वराज्य’ के संकल्प को सार्थक करने का दिवस! और भारत की अखंड संप्रभुता, शौर्य, सम्मान और सम्पन्नता के वैश्विक प्रदर्शन का दिवस! कितना महान और प्रेरणादायी है यह राष्ट्रीय पर्व? जो दिवस विविध और संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधता है, क्या उसके दो और समानांतर राष्ट्रीय समारोह मनाए जा सकते हैं? निरंकुश ताकतें और देश को अस्थिर करने का मानस रखने वाले कुछ उच्छृंखल चेहरे इस सवाल की मनमाफिक व्याख्या कर सकते हैं। स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों की दुहाई दी जा सकती है, लेकिन ऐतिहासिक तारीख के राष्ट्रीय उत्सव पर गणतंत्र के दो समानांतर सच भी हो सकते हैं, कमोबेश हमारा मन-मस्तिष्क इस सवाल पर सहमति नहीं देता।
देश का गणतंत्र एक है, लेकिन पहली बार परेड दो दिखाई देंगी। दोनों की व्याख्या ‘राष्ट्रीय’ के तौर पर की जा रही है। एक परंपरागत परेड का आयोजन देश की चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि करते हैं, जिसमें देश के सैनिक, अस्त्र-शस्त्र, सांस्कृतिक विविधता की झांकियां, देश की अभूतपूर्व उपलब्धियां और उपस्थित जन-समूह साक्षी बनते हैं। सरहदों के जांबाज रक्षकों और योद्धाओं को सार्वजनिक मंच से देश के निर्वाचित राष्ट्रपति सम्मानित करते हैं। राष्ट्रीय ध्वज को सलामी दी जाती है और परेड गणतंत्र के प्रथम प्रतिनिधि राष्ट्रपति को सलामी देती है। यानी गणतंत्र भारत का अभिनंदन किया जाता है। यह आयोजन सुरक्षित रहे, दुश्मन कामयाब न हो, साजि़शें ज़मींदोज की जा सकें, लिहाजा राजधानी दिल्ली को ‘सर्वोच्च अलर्ट’ घोषित किया जाता है। ऐसे में किसानों के बैनर तले एक और समानांतर, टै्रक्टर-परेड के आयोजन की जिद की जाए और अंततः दिल्ली पुलिस को सीमित परेड की मंजूरी देनी पड़े, तो कमोबेश उसे ‘राष्ट्रीय’ नहीं माना जा सकता। वाहनों पर तिरंगा महज नुमाइश का हिस्सा हो सकता है। गणतंत्र आंदोलनकारी जमात का भी है। उसे संवैधानिक अधिकार हैं, लिहाजा धरने-प्रदर्शन और मोदी सरकार को गालियां देने के सिलसिले जारी हैं। बेशक यह अधिकारों का अवैध अतिक्रमण है और एक सशक्त, परिपक्व गणतंत्र को ‘केला रूप’ देने की मंशा है। अधिकारों के साथ-साथ दायित्वों का भी एहसास होना चाहिए। ‘टै्रक्टर परेड’ का किसान आंदोलन से कोई सरोकार नहीं। महज शक्ति-प्रदर्शन और सरकार को झुकाने की रणनीति है। हम भी किसानों को ‘अन्नदाता’ के अलावा देशभक्त भी मानते हैं। उनके बेटे-भाई सरहदों पर ‘मां भारती’ की रक्षा में तैनात हैं, तो उसी गणतंत्र दिवस पर सुरक्षा और संप्रभुता की सीमाओं को क्यों लांघा जा रहा है?
किसान अपने गांव, कस्बे, जिले में भी गणतंत्र दिवस का पर्व मना सकते थे। देश के अधिकतर किसान और नागरिक अपने-अपने घरों, खेतों, संस्थानों और इलाकों तक सीमित रहेंगे और राष्ट्रीय पर्व मनाएंगे, लेकिन जो जमात दिल्ली के भीतर सीमित इलाकों में भी ‘टै्रक्टर परेड’ करने पर आमादा है, सवाल उसी से पूछा जाए कि देश के गणतंत्र के 71 सालों में उसने राजधानी में ‘टै्रक्टर परेड’ कब निकाली है? तो इसी बार अराजकता फैलाने, सुरक्षा को तार-तार करने अथवा दुश्मन की साजि़शों को साकार करने का दुस्साहस क्यों किया जा रहा है? दिल्ली पुलिस के विशेष आयुक्त (खुफिया) दीपेंद्र पाठक ने खुद खुलासा किया है कि परेड के दौरान भ्रम फैलाने, वैमनस्य पैदा करने और अफवाहें फैलाकर अनहोनी और आतंकी हमला करने के मंसूबों के मद्देनजर पाकिस्तान में 308 ट्विटर हैंडल सक्रिय किए गए हैं। हालांकि ताज़ा सूचना के मुताबिक, खुफिया और पुलिस एजेंसियों ने उन्हें ‘ब्लॉक’ कर दिया है, लेकिन हजारों टै्रक्टरों की परेड और उन पर सवार असंख्य भीड़ के मद्देनजर अनिष्ट की आशंकाएं तो हैं। राकेश टिकैत, कक्काजी, दर्शनपाल, चढ़ूनी और योगेंद्र यादव सरीखे मुट्ठी भर किसान नेताओं की अपील और दिशा-निर्देश ‘पत्थर पर लकीर’ साबित होंगे, इसका दावा कैसे माना जा सकता है? बहरहाल हमारी बड़ी चिंता गणतंत्र दिवस और भारत की वैश्विक छवि को लेकर है। यदि किसान यह परेड कर लेंगे, तो क्या भारत सरकार के साथ उनकी मांगों का गतिरोध समाप्त हो जाएगा? हम इस सवाल को बेमानी मानते हैं। अलबत्ता किसानों की मांगों और आर्थिक सुधारों के गुण-दोषों के लगातार विश्लेषण के पक्षधर हम भी हैं।
3.जवाबदेही का लोकतंत्र
जिम्मेदारी में निहित गणतंत्र की समृद्धि
निस्संदेह राजपथ पर गणतंत्र दिवस समारोह का भव्य आयोजन हमारी आर्थिक, सामरिक, वैज्ञानिक और सामाजिक तरक्की का जीवंत चित्र उकेरता है। यह पर्व जहां हमारे सत्ताधीशों को जवाबदेही का सबक देता है, वहीं नागरिकों से जिम्मेदार व्यवहार की उम्मीद भी करता है। यह भी कि स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान से अस्तित्व में आया गणतंत्र सिर्फ अधिकारों के लिये ही नहीं है, कर्तव्यों के लिये भी जिम्मेदारी तय करता है। यह पर्व हमें आत्ममंथन का मौका भी देता है कि हम सात दशक के लोकतंत्र में उन लक्ष्यों को हासिल कर पाये हैं जो आजादी के परवानों के सपने थे। वहीं सत्ताधीशों के लिये भी मंथन का मौका कि क्यों हमारे साथ आजाद हुए देश हमसे अधिक तरक्की कर बैठे। हमारे नीति-नियंताओं से कहां चूक हुई। क्या हम समाज में आर्थिक आजादी के लक्ष्यों को हासिल कर पाये हैं? लैंगिक समानता समाज में प्रतिष्ठित हुई है? समतामूलक समाज के लक्ष्य हासिल हो पाये हैं? सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र संविधान के आलोक में वाकई समृद्ध हुआ है? यह भी कि 26 जनवरी, 1950 को घोषित लोकतांत्रिक संप्रभुता और गणतांत्रिक व्यवस्था क्या वाकई इन मूल्यों का लाभ आम आदमी को पहुंचा पा रही है? क्या हम असहमति के स्वरों को सम्मान दे पा रहे हैं? एक नागरिक के रूप में हम सही जनप्रतिनिधियों का चयन कर पा रहे हैं? क्यों अब भी हम अपने प्रतिनिधि के चुनाव में शतप्रतिशत मतदान नहीं कर पाते? गणतंत्र का पर्व साल में एक-दो विशेष दिनों पर मनाकर हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती है। निस्संदेह जहां सत्ताधीशों की जवाबदेही तय है, वहीं लोकतंत्र की छोटी इकाई के रूप में हमारी भी जिम्मेदारी होती है कि बहुमत के नाम पर सत्ता निरंकुश न हो जाये। बहुमत की आवाज अल्पमत की आवाज को न दबा दे। हमें वक्त की मार्गदर्शक आवाज का अनुसरण करना चाहिए। यह सुखद ही है कि हम देश में महामारी के संकट से सुनियोजित तरीके से उबरे हैं। वैज्ञानिकों के प्रयास से देश में निर्मित वैक्सीनों से देशवासियों का आत्मबल बढ़ा है।
इस बार देश का गणतंत्र दिवस समारोह कई मायनों में अलग होगा। कोरोना संकट की छाया सीमित उपस्थिति और जवानों व कलाकारों के मुंह पर मास्क के रूप में नजर आयेगी। पहली बार परेड में बांग्लादेश का सैनिक दस्ता शामिल होगा। भारत की सैन्य, तकनीकी, वैज्ञानिक उन्नति के साथ दुनिया का सर्वोत्तम लड़ाकू विमान राफेल राजपथ पर गरजेगा। नारी शक्ति के रूप में महिला फाइटर पायलट विमान उड़ाती नजर आयेंगी। केंद्रशासित प्रदेश के रूप में लद्दाख की झांकी पहली बार नजर आयेगी। वहीं अदालत में विवाद के पटाक्षेप के बाद परेड में राममंदिर के प्रारूप की झांकी होने के विशिष्ट मायने होंगे। बहरहाल, आयोजन के साथ देश व सरकार की चिंता इस दिन आयोजित होने वाली किसानों की ट्रैक्टर रैली भी होगी। निस्संदेह होना तो यह सुखद संयोग ही चाहिए था कि राजपथ पर जवान और बाहरी रोड पर किसान। लेकिन आंदोलन के तेवर और विभिन्न राजनीतिक दलों की आकांक्षाओं की पूर्ति अप्रत्याशित घटनाक्रम का भी विस्तार कर सकती है। काश! ऐसा ही हो जैसा किसान संगठन के नेता कह रहे हैं कि हम दिल्ली जीतने नहीं, दिल जीतने आ रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि गणतंत्र दिवस समारोह निर्विघ्न रूप से गरिमा हासिल करेंगे। लेकिन इसके बावजूद लोकतंत्र में असहमति के स्वरों को सम्मान देने की परंपरा को आंच नहीं आनी चाहिए। संभव है कि केंद्र सरकार अच्छी नीयत के साथ सुधार की पहल कर रही हो, मगर इतना तय है कि वह अपने तर्कों से आंदोलनकारियों को सहमत नहीं कर पायी है। असहमति के सुरों के राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं लेकिन लोकतंत्र में हर असहमत आवाज को भी तरजीह दी जानी चाहिए। शीर्ष अदालत भी कह चुकी है कि विरोध करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है। लेकिन यह विरोध लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून-व्यवस्था का सम्मान करते ही किया जाना चाहिए। दूसरे नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण भी न हो। उम्मीद की जानी चािहए कि पर्व अपनी गरिमा के साथ शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न होगा।