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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.कौन चाहता है लॉकडाउन

पूर्ण लॉकडाउन के पक्ष में आ रहीं आवाजों के बीच निजी क्षेत्र के मंसूबों को कितना पढ़ा जाए। कोरोना से निपटने का पिछली बार एक पक्ष था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। हर पक्ष का एक विपक्ष खड़ा हो रहा है, तो कहीं बेचैनी है, तो कहीं मजबूरियों से आजिज हकीकत दरपेश है। प्रदेश में निजी बस मालिकों की परेशानियां भले ही एक सरीखी हैं, लेकिन समाधानों की राख में रार है। हिमाचल प्रदेश निजी बस आपरेटर यूनियन के प्रदेशाध्यक्ष राजेश पराशर का धड़ा सीधे सरकार के पाले में समाधान को संघर्ष बना रहे हैं, तो इसी के विरोध में हिमाचल प्रदेश निजी बस आपरेटरर्ज संघर्ष समिति हड़ताल के समर्थन में नहीं दिखी। सड़क पर हड़ताल के बैनर हैं, तो कहीं समाधान की आस में बस मालिकों का एक वर्ग अपनी हताशा को बातचीत से मिटाना चाहता है, हालांकि टैक्स माफी व वर्किंग  कैपिटल में मदद हासिल करना इनके तर्कों में भी मुख्य रूप से रहेंगे। बस मालिक दोनों ही परिस्थितियों में लॉकडाउन के बजाय गाड़ी खींचने की व्यवस्था चाहते हैं। कोई बस या टैक्सी आपरेटर वाहनों के पहिए फिर से रोकना नहीं चाहता और इसका खामियाजा उठाना अब उनके बूते से बाहर हो चुका है।

 शनिवार  और रविवार को साप्ताहिक कर्फ्यू की अनिवार्यता में चीखते बाजार और व्यापार की दशा अगर समझी जाए, तो लॉकडाउन की आशंका में आत्मघाती होने का सबब स्पष्ट है। शनिवार व रविवार के विराम में लॉकडाउन का अंदेशा बढ़ न जाए, इसलिए सामाजिक व्यवहार के नए उत्तर मिल रहे हैं या खोजे जा रहे हैं। बाजार ने खुद को सीमित करने के नए आदर्श बनाए हैं, तो इस बार जनता ही मॉनिटरिंग कर रही है कि किस सीमा तक प्रतिबंध जायज हैं और उनके साथ किस तरह के सामाजिक समझौते के निहितार्थ हैं। इसी तरह का एक और उदाहरण आत्मानुशासन की ओर बढ़ती होटल इंडस्ट्री के भीतर देखा जा सकता है। धर्मशाला की एक होटल एसोसिएशन ने बारह मई तक अपने यूनिट बंद कर रखे हैं, जबकि दूसरा संघ इससे कहीं भिन्न खड़ा होकर यह मत रखता है कि इस तरह की बंदिशों से तबाही का आलम बढ़ेगा। बेशक दोनों तर्काें में मतभिन्नता दिखाई देती है, लेकिन कोरोना के कारण दर्द का एहसास एक जैसा है और समाधान की गुजारिश भी एक सरीखी। होटल बंद करने का ऐलान लॉकडाउन का एहसास जगाता है, जबकि दूसरी एसोसिएशन का मत है कि हिमाचल को पर्यटन सुरक्षित डेस्टीनेशन बनाने के प्रयत्न व प्रचार किया जाए। इसमें दो राय नहीं कि महानगरों के उच्च वर्गीय लोग ऐसी सुरक्षित जगह की तलाश में विदेश तक जा पहुंचे हैं, तो निर्धारित एसओएस के तहत हिमाचल का पर्यटन क्षेत्र भी विकल्प पैदा कर सकता है। यह दीगर है कि पिछले साल इसी तरह होटलों में क्वारंटीन होने की सरकारी पहल का विरोध हुआ और एक अवसर छूट गया। हमारा विषय यह है कि प्रदेश लॉकडाउन की ओर बढ़ना चाहता है या लॉकडाउन की परिस्थितियों से उबरना चाहता है।

 कम से कम सरकार, बाजार, व्यापार और निजी क्षेत्र के सरोकार अपनी ओर से प्रयत्नशील हैं कि किसी भी सूरत लॉकडाउन न लगे। इसका यह अर्थ नहीं कि इस समय जानबूझ कर जान जोखिम में डाली जाए या किसी भी छूट के एहसास में सौ फीसदी कार्य करना होगा। निजी क्षेत्र के विभिन्न सेक्टर अगर नब्बे फीसदी कार्य करें, तो भी वर्तमान परिस्थितियां उन्हें उबरने का मौका नहीं देंगी, लेकिन यहां तो कोशिश कम से कम पचास फीसदी तक करने की है। पहले ही बसें अपनी क्षमता के बीस या तीस फीसदी पर जीने का बहाना और दायित्व की जरूरत पूरी कर रही हैं और अगर इस चक्र में भी संघर्ष की दावत या बगावत में आवाज उठने लगी, तो लॉकडाउन कुछ ही दूरी पर खड़ा होगा। होटल एसोसिएशन अगर खुद ही पाबंदी के अर्थ में शटर गिरा दे, तो लौटकर वर्तमान ऊर्जा को छू पाना असंभव होगा। बेशक निजी क्षेत्र अब फिर लॉकडाउन के हालात पर पहुंच गया है और जहां तक आर्थिकी में न इतना हौसला तथा न ही क्षमता बची है कि फिर तपस्या की जाए। फिर कहीं धंधे के बही-खाते मंसूबों का लॉकडाउन तो करवा रहे हैं, लेकिन सांसों को चलाने का सहारा या तो खुद से निर्धारित करना होगा या कतरब्योंत की अनिवार्यता में सिकुड़ कर चलना पड़ेगा। चलने के लिए लॉकडाउन की छतरी नहीं और न ही बचने के लिए इच्छाशक्ति को सिकुड़ने की जरूरत है।

2.‘संजीवनीबनाम सियासत

सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ  इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला को अचानक ही, सपरिवार, लंदन जाना पड़ा, तो यह कोई सहज और सपाट घटनाक्रम नहीं है। घुमक्कड़ी करने का यह कोई वक्त नहीं है। कमोबेश कोरोना वायरस के आपदाकाल में यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है। सीरम परिजनों ने न तो पलायन किया है और न ही देश छोड़ने का विचार किया है। यह अदार की प्रेस विज्ञप्ति से बिल्कुल स्पष्ट है। चूंकि उनका बेहद गंभीर आरोप है कि कुछ मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और ताकतवर नेताओं ने फोन पर उन्हें धमकियां दी थीं, लिहाजा वह गहरे तनाव और भय में थे। सीरम का काम पत्थर तोड़ने या रेत-गारा ढोने का नहीं है कि शाम होते-होते गणना की जा सके। यह अत्यंत नाजुक और वैज्ञानिक प्रक्रियाओं वाला काम है, क्योंकि मानवीय जिंदगी से जुड़ा सवाल है। सीरम हम भारतीयों की जिंदगियां बचाने का एक भरपूर प्रयास कर रहा है और कोरोना टीके-कोविशील्ड-का लगातार उत्पादन कर रहा है। महीने का औसत 6-7 करोड़ खुराक का है। जुलाई ’21 से यह उत्पादन 10 करोड़ टीके माहवार तक बढ़ सकता है। यानी 139 करोड़ की आबादी के लिए ‘संजीवनी’ तैयार करने का वैज्ञानिक और मानवीय दायित्व सीरम के हाथों में है।

 कोरोना कितनी भयावह और जानलेवा महामारी है, कमोबेश अब तक सभी को एहसास हो गया होगा! मुख्यमंत्री, मंत्री और बड़े नेता भी कोविड से अछूते नहीं रहे हैं। उनमें से कइयों को कोविड संक्रमण  ने दबोचा है। कुछ दिवंगत भी हुए हैं। ऐसी विकट परिस्थितियों में एक ‘संजीवनी-पुरुष’ को धमकाने के मायने और अधिकतम खुराक मुहैया कराने के जबरन दबावों का औचित्य क्या है? सरकारों और सियासत पर सवाल किए जा रहे हैं। क्या ये ‘जंगली व्यवहार’ ही हमारे नेताओं के संस्कार हैं? भारत जितना विशाल और विविध देश है, उसकी बुनियादी ‘हर्ड इम्युनिटी’ के मद्देनजर करीब 200 करोड़ खुराक का दिया जाना लाजि़मी है। अभी तक देश भर में करीब 16 करोड़ लोगों में टीकाकरण हो पाया है। कइयों को तो दो खुराक भी दी जा चुकी हैं। यानी संख्या और भी कम है। सीरम के अलावा भारत बायोटैक कंपनियां हैं, जिनके टीकों की सरकार के कोरोना विशेषज्ञ समूह ने अनुशंसा की थी। उसी के आधार पर भारत सरकार के औषधि महानियंत्रक ने आपात मंजूरी दी थी। बेशक कुछ और कंपनियां कोविड टीकों पर काम कर रही हैं, लेकिन उन्हें सरकार ने औपचारिक मंजूरी नहीं दी है। एकमात्र विकल्प हैं दो टीके…! स्पूतनिक रूस का टीका है। उसका भारत में उत्पादन जुलाई तक स्पष्ट होगा। अलबत्ता आपात मंजूरी के बाद टीके की आपूर्ति शुरू हो रही है। सीरम ऐसा संस्थान है, जो दुनिया का सबसे बड़ा टीका निर्माता और उत्पादक है। करीब 65 फीसदी बच्चे ऐसे होंगे, जिनको सीरम का कमोबेश एक इंजेक्शन जरूर लगा होगा।

 उनमें डिप्थीरिया, बीसीजी, खसरा, चेचक, रोटा वायरस, रुबेला, हैपेटाइटिस आदि कई बीमारियों के इंजेक्शन  अकेला सीरम ही बना रहा है, जिनका इस्तेमाल 170 से ज्यादा देश कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी मान्यता प्राप्त संस्थान है। यूरोप के कई देशों के साथ सीरम ने कारोबारी सहमति-पत्रों पर भी हस्ताक्षर कर रखे हैं, लिहाजा उसके अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को भी समझना चाहिए। ऐसे प्रोफाइल की कंपनी के सीईओ को हमारे राजनीतिक नेतृत्व द्वारा हड़काने की हरकतें और मंशाएं समझ के बाहर हैं। अदार ने गोपनीय स्तर पर आरोपित मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और नेताओं के नाम प्रधानमंत्री मोदी को ब्रीफ  किए होंगे! यकीनन धमकियां देने वालों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के उल्लंघन का बड़ा अपराध किया है। यदि सीरम को धमकियां दी जा सकती हैं, तो किसी भी बड़ी कंपनी को हड़काया जा सकता है। ऐसे में भारत में निवेश और कारोबार कौन करना चाहेगा? बेशक टीकाकरण दुनिया का सबसे बड़ा अभियान है। भारत फिलहाल कोविड के नुकीले और घातक प्रहारों से ज़ख्मी है। टीकाकरण सबसे बड़ा मानवीय हथियार है। यह कोविड टीका केंद्रों के बाहर लगी लंबी लाइनों से ही साफ  हो जाता है कि देश के लोग ‘संजीवनी’ लेने को कितने बेचैन और व्यग्र हैं? यदि ऐसे में सीरम टीका देने से इंकार कर दे अथवा गति धीमी कर दे, तो पूरा टीकाकरण अभियान ही अवरुद्ध हो सकता है! अदार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जुलाई तक कोरोना टीके की कमी बरकरार रहेगी, लिहाजा हमें उसी संयम के साथ टीका उपलब्ध होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शेष सब कुछ सरकार के हवाले है।

  1. खेल भी स्थगित

इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) का स्थगित या फिलहाल रद्द होना तय था, सिर्फ यह निश्चित नहीं था कि यह फैसला कब किया जाता है। जब एक के बाद एक खिलाड़ियों और अन्य संबंधित लोगों के कोरोना संक्रमित होने की खबरें आने लगीं और इस वजह से मैच रद्द करने पडे़, तो बीसीसीआई के पास आईपीएल रद्द करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। वैसे तो इस वक्त यह प्रतियोगिता आयोजित करने के लिए भी बीसीसीआई की बहुत आलोचना हो रही थी। हालांकि, यह कह सकते हैं कि जब इसे आयोजित करने का फैसला किया गया था, तब कोविड की लहर ज्यादा नहीं थी, लेकिन प्रतियोगिता के शुरू होते-होते लहर तेज होने लगी थी। आईपीएल की आलोचना तब और तीखी हो गई, जब विदेशी खासकर ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने भारत में कोरोना को लेकर फिक्र जतानी शुरू की और कुछ खिलाड़ियों और इसके अन्य पक्षों से जुडे़ पूर्व खिलाड़ियों ने आईपीएल छोड़ने का फैसला किया। भारत में खिलाड़ियों व बीसीसीआई के बीच जैसा रिश्ता है, उसे देखते हुए हम भारतीय खिलाड़ियों से मुखर विरोध या साफ राय देने की उम्मीद नहीं कर सकते, पर जब एक के बाद एक खिलाड़ी व सहयोगी स्टाफ बीमार होने लगे, तब बीसीसीआई के पास आयोजन रद्द करने के सिवा कोई चारा नहीं रहा।

बीसीसीआई बड़े रसूख वाले लोगों का संगठन है और इसकी हैसियत किसी आम खेल संगठन से कई गुना ज्यादा है। आईपीएल भी दुनिया का सबसे महंगा क्रिकेट आयोजन है, जिसमें कई हजार करोड़ रुपये दांव पर लगे होते हैं और इसके एक साल रद्द होने का मतलब है कई हजार करोड़ रुपये का घाटा। इससे जिनके हित जुड़े हैं, उनमें खिलाड़ियों और टीम से जुड़े लोगों के अलावा प्रायोजक, टीवी चैनल, विज्ञापन व मार्केटिंग उद्योग, टीमों को सामान मुहैया करने वाली कंपनियां शामिल हैं। इसलिए कुछ हो जाए आईपीएल रद्द नहीं होता। तमाम आलोचनाओं के बीच रसूख, लोकप्रियता और आर्थिक हितों की वजह से ही यह आयोजन इस भयावह कोविड लहर में भी चलता रहा, पर यह तकरीबन असंभव था कि अगर देश में ऐसी कोरोना लहर चल रही है, तो आईपीएल से जुड़े लोग उससे बच जाते। दावा किया जा रहा था कि आईपीएल से जुड़े लोग बायो बबल में सुरक्षित हैं, मगर ऐसे प्रकोप में कोई भी ऐसा बायो बबल कैसे सुरक्षित रह सकता है, जिसमें सैकड़ों लोग हों, जहां खिलाड़ी होटलों में रहते हों, बस से रोज स्टेडियम आते-जाते हों? वैसे भी, भारत में इस तरह की चौकसी बरतना असंभव है, खासकर जब मामला क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेल का हो। ऐसी खबरें आ भी रही थीं कि बायो बबल में काफी दरारें हैं और लोग अंदर-बाहर आ-जा रहे हैं। पिछले साल दुबई में आयोजन इसलिए कामयाब हो गया, क्योंकि तब कोरोना की लहर इतनी शक्तिशाली नहीं थी और यूएई में तो उसका प्रकोप और भी कम था। अब बीसीसीआई के पास सावधानी से कारोबार समेटने की जिम्मेदारी है, ताकि और ज्यादा लोग बीमार न हों। विदेशी खिलाड़ियों की भी जिम्मेदारी है, ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने भारत से किसी के आने पर पाबंदी लगा दी है। इन खिलाड़ियों को सुरक्षित रखना भी बीसीसीआई का काम है। यहां तक स्थिति पहुंचने के पहले ही आयोजन स्थगित कर दिया जाता, तो बेहतर होता, पर देर आयद दुरुस्त आयद। सलामत रहेंगे, तो खेल फिर जारी रहेगा।

4.लॉकडाउन का वक्त

संकट से जूझने में हो समय का उपयोग

देश में कोरोना संक्रमण जिस तेजी से फैल रहा है और देश में ऑक्सीजन संकट व चिकित्सा सुविधाओं का जो हाल है, उसे देखते हुए अदालत, विशेषज्ञ व उद्योग जगत भी लॉकडाउन लगाने पर जोर दे रहा है। निस्संदेह स्थिति नियंत्रण से बाहर है। लॉकडाउन के समय का उपयोग ऑक्सीजन उत्पादन बढ़ाने व आपूर्ति तथा मरीजों के लिये चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में होना चाहिए। साथ ही इस समय का उपयोग वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने व टीकाकरण अभियान में तेजी लाने के लिये भी किया जा सकता है। लेकिन पिछले साल के दो माह के सख्त लॉकडाउन के दुष्प्रभावों से सहमी केंद्र सरकार फूंक-फूंककर कदम बढ़ा रही है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कहा भी था कि लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में अपनाया जाना चाहिए। लेकिन संसाधनों की कमी और संक्रमण की भयावहता को देखते हुए कुछ राज्य पंद्रह दिन, सप्ताह, तीन दिन या सप्ताहांत का लॉकडाउन लागू कर चुके हैं। महाराष्ट्र में संक्रमण की भयावहता के बीच लगाये गये लॉकडाउन के अच्छे परिणाम देखे गये हैं। ऐसे में साफ है कि लॉकडाउन का वास्तविक फायदा तभी है जब पूरे देश में केंद्र व राज्यों के समन्वय से इस दिशा में कदम उठाया जाये। यही वजह कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने ऑक्सीजन, आवश्यक दवाओं तथा वैक्सीनेशन नीति के प्रोटोकॉल की समीक्षा के साथ ही केंद्र व राज्यों को लॉकडाउन लगाने की सलाह दी। हालांकि, इससे पहले जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को राज्य के पांच जिलों में लॉकडाउन लगाने के आदेश दिये तो राज्य सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले पर रोक लगा दी थी। यद्यपि योगी सरकार ने इसके बाद सप्ताहांत लॉकडाउन की अवधि में वृद्धि की थी। हाल के दिनों में हरियाणा में एक सप्ताह, पंजाब सरकार ने पंद्रह मई तक बंदिशें तथा ओडिशा सरकार ने दो सप्ताह का लॉकडाउन लगाया है। हालांकि, इस बार का लॉकडाउन पिछले साल की तरह सख्त नहीं है।

निस्संदेह देश के विभिन्न राज्यों में कोरोना संक्रमण में जिस तरह तेजी आई है और अस्पतालों में जगह न मिलने व ऑक्सीजन की कमी से जिस तरह से लोग मर रहे हैं, भविष्य की तैयारी के लिये लॉकडाउन अपरिहार्य माना जाने लगा है। भारत ही नहीं, विदेशी विशेषज्ञ भी मौजूदा संकट में लॉकडाउन को उपयोगी मान रहे हैं। अमेरिका में बाइडन प्रशासन के मुख्य चिकित्सा सलाहकार एंथनी फाउची का सुझाव था कि भारत को वायरस के संचरण को रोकने के लिये कुछ सप्ताह का लॉकडाउन लगाना चाहिए। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस अवधि का उपयोग चिकित्सा सुविधाओं को जुटाने तथा वैक्सीनेशन कार्यक्रम में तेजी लाने के लिये किया जाना चाहिए। लेकिन एक चिंता उन लोगों की भी है, जिनको पिछले साल सख्त लॉकडाउन लगाने पर सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा था। रोज कमाकर खाने वाले वर्ग की चिंता भी इसमें शामिल है। उस वर्ग की भी जो लाखों की संख्या में अपने गांवों को पलायन कर गया था, जिसके चलते गांवों में भी संक्रमण में तेजी आई थी। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच को कहना पड़ा कि हमारी चिंता समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक व आर्थिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर है। सरकार को पहले इस वर्ग को सहायता पहुंचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। यही वह वर्ग था जिसे लॉकडाउन शब्द से भय होने लगा था। लेकिन देश के जो हालात हैं उसमें लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में प्रयोग माना जा रहा है। यही वजह है कि उद्योग जगत की प्रतिनिधि संस्था सीआईआई ने देश में संक्रमण के विस्तार को नियंत्रित करने के लिये आर्थिक गतिविधियों में कटौती तथा सख्त कदम उठाये जाने की मांग की है। निश्चिय ही अब केंद्र सरकार को पिछले लॉकडाउन के दुष्प्रभावों से सबक लेकर संक्रमण के चक्र को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन सरकार को लॉकडाउन लगाने से पहले कमजोर वर्ग के लोगों को व्यापक राहत देने का कार्यक्रम लागू करना चाहिए। 

 

 

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