इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सुशासन पद्धति से तहज़ीब तक
अदालती आईने में हिमाचल की सुशासन पद्धति के रिसाव स्पष्ट हैं कि किस तरह सरकारी अधिकारी अपनी रूह का सौदा करने का भी कानूनी हक चाहते हैं। मामला एक ऐसे डाक्टर का है जो इस जुगाड़ में उच्च न्यायालय पहुंच गया कि कानूनी राहत के तर्क परवान चढ़ कर यह व्यवस्था कर दें, ताकि उसे कांगड़ा के कोविड मेक शिफ्ट अस्पताल में प्रतिनियुक्ति न मिले। जाहिर तौर पर न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान व न्यायाधीश चंद्रभूषण बारोबालिया की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता डाक्टर के तर्कों को ठिकाने लगाते हुए सुशासन की दरकार को अहम माना और इस तरह यह फैसला हिमाचल के कोविड प्रबंधन की नजीर बनकर पेश हुआ है। विडंबना यही है कि आपात की परिस्थितियों में फर्ज के शिखर ढह रहे हैं या विभागीय कसरतें कमजोर दिखाई दे रही हैं। कोरोना की दूसरी लहर में भी सचिवालय तक पहुंची स्थानांतरण सिफारिशों का जिक्र करें या सरकारी जिम्मेदारी के सरकारी हालचाल पूछें। आज कोविड वन से टू तक पहुंची हिमाचल की तैयारियों के अगर कई गुण हैं, तो इसके लिए अदने कर्मचारी, साहसिक आशा वर्कर या वे तमाम प्रशिक्षु डाक्टर व नर्सें गिने जाएंगे जिन्होंने आम इनसान की नब्ज पर हाथ रखा, जबकि दूसरी ओर दोष ढूंढेंगे तो कई वरिष्ठ डाक्टर अपनी ड्यूटी से कतराते हुए मिलेंगे।
हालात को असामान्य करार देता राज्य अगर मेडिकल व नर्सिंग के अंतिम वर्ष के छात्रों की कोविड ड्यूटी लगाने को आमादा है, तो सरकारी पगार से सुसज्जित एक डाक्टर यह कैसे भूल सकता है कि इस समय देश पूरे विश्व में सबसे अधिक कोविड मरीजों की बाढ़ के बीच खड़ा है। वह यह कैसे भूल सकता है कि हिमाचल में भयभीत जनता फिर से अस्पतालों के भरोसे खुद को बचाने की अरदास कर रही है। हिमाचल में कोविड संकट के अगले दौर में विश्वविद्यालय के छात्रों को कोविड सेवाओं के लिए प्रेरित करने की बात अगर राज्यपाल कर रहे हैं या अध्यापक वर्ग को इस कार्य में झोंकने की तैयारी है, तो स्वास्थ्य महकमें से निकला यह उदाहरण असंवेदना ही पैदा करता है। आज तक शिक्षक ने अध्यापन के अलावा कई तरह के काम करके राज्य की मतगणना, मतदाता सूचियां या इसी तरह के अनेक आंकड़े जुटाने के लिए घर-घर और दर-दर भटक कर भी उफ नहीं की, तो कुछ चिकित्सक क्यों अस्पतालों से ही भागने का बहाना ढूंढ रहे हैं। प्रदेश में ही कोविड से जूझते कई डाक्टर अपने जीवन से ही खेल रहे हैं और संक्रमितों के बीच अपने दायित्व की श्रेष्ठता में जी रहे हैं। इतना ही नहीं सारे कोरोना काल के अंधेरों के बीच मीडिया जगत इसलिए गुजरता रहा ताकि सूचनाओं का प्रकाश आशंकित अनहोनियों का मुकाबला कर सके। चाहे उत्पादन क्षेत्र हो या सेवा क्षेत्र, देश की हस्ती को चलाने के लिए निहत्थे मजदूर, कर्मचारी और अधिकारी दूर तक चले।
प्रशासनिक अधिकारियों ने प्रबंधन के सभी रास्तों और समन्वय के सेतुओं पर चलते हुए कभी यह नहीं सोचा कि समय की पलकों पर वायरस सवार है। कानून-व्यवस्था के हर मोड़ और दायित्व पर तैनात पुलिस सिपाही हो या वरिष्ठ अधिकारी, किसी का भी जोखिम अस्पताल की ड्यूटी से कम नहीं। इतना ही नहीं कोविड काल की हर पाबंदी शूल की तरह निजी क्षेत्र के अस्तित्व पर उतरती है। संक्रमण के इस दौर ने निजी क्षेत्र के संगठित व असंगठित रोजगार को पंगु बना दिया है, जबकि कार्य कर्मठता, अनुशासन व कड़ी मेहनत के परिणाम तक को इस काबिल नहीं छोड़ा कि वहां कार्यरत भरपेट रोटी खा सकें। हिमाचल वह नहीं जिसे यहां का सार्वजनिक क्षेत्र रोज देखता है, बल्कि वह है जो प्रदेश से बाहर निकल कर खुद की क्षमता को साबित करते हुए सारी प्रतिस्पर्धा के बीच जीने का हक पाता है। घर लौटने की एक नौबत ने पिछले साल साढ़े चार लाख हिमाचलियों को नौकरी गंवाने की असमर्थता से जोड़ दिया था, तो एक बार फिर इसी मुकाम पर संघर्ष जारी है। विडंबना यह है कि पूरी पगार पर भी सरकारी अधिकारी के नखरे अदालती प्रश्रय के लिए खड़े हैं, लेकिन अदालत ने अपने फैसले से वक्त की नजाकत को समझने की जोरदार हिदायत देकर प्रदेश का दिशा-निर्देश किया है।
2.तीसरी लहर भी तय
भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन ने आगाह किया है कि कोरोना वायरस की तीसरी लहर भी तय है। उन्होंने ‘आसार’ या ‘संभावना’ शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि यह भी चेतावनी दी कि तीसरी लहर बहुत तेजी से आ सकती है और उसे टाला नहीं जा सकता। वैज्ञानिक सलाहकार ने कोरोना के नए प्रकार के प्रति सचेत और तैयार रहने की भी अपील की है। यह लहर कब आएगी, इसका निश्चित समय उन्होंने नहीं बताया। अलबत्ता विशेषज्ञ सितंबर-अक्तूबर का अनुमान लगा रहे हैं। केंद्र सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के दावे से पहले कुछ प्रख्यात चिकित्सक भी तीसरी लहर ही नहीं, बल्कि चौथी लहर तक के आकलन दे चुके हैं। उनके शोधात्मक निष्कर्षों पर सरकार के वैज्ञानिक विशेषज्ञ ने मुहर लगाई है, तो अब महामारी के नए दौर की अपरिहार्यता समझनी चाहिए। फिलहाल कोविड की दूसरी लहर के घातक और जानलेवा थपेड़े हम झेल रहे हैं। संक्रमण का नया आंकड़ा 4.12 लाख, एक ही दिन में, को पार कर चुका है। मौतें भी 4000 के करीब पहुंच चुकी हैं। संक्रमण का आंकड़ा दुनिया के सभी देशों से ज्यादा है और एक दिन में मौतें भी कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। इस संदर्भ में अमरीका और ब्राजील से हम होड़ ले रहे हैं। भारत में 35 लाख से ज्यादा सक्रिय मरीज हैं।
यानी जिनका इलाज जारी है। देश की औसत संक्रमण-दर करीब 25 फीसदी है। कई शहरों में यह दर 50 फीसदी को भी लांघ चुकी है। ध्यान रहे कि कुल संक्रमण का आंकड़ा 2 करोड़ पार किए अंतराल बीत चुका है। बहरहाल हम किसी को डराने अथवा हतोत्साहित करने की कोशिश में नहीं हैं, बल्कि कोरोना की दूसरी लहर का यथार्थ याद दिला रहे हैं। इस वीभत्स दौर के बीच ही बंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने गणितीय आधार पर आकलन किया है कि 11 जून तक 4.4 लाख से ज्यादा मौतें हो सकती हैं। अभी तक मौतों का कुल आंकड़ा 2.30 लाख से अधिक है। यानी भारत में कोरोना से मौतें दुगुनी हो सकती हैं! बहरहाल अभी तो हम कोविड की दूसरी लहर के ‘पीक’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हालांकि विशेषज्ञों का आकलन है कि मई के अंत में ‘पीक’ की स्थिति आ सकती है और उसके बाद संक्रमण कम होना शुरू हो सकता है, लेकिन अब विशेषज्ञ लगभग सर्वसम्मत हैं कि यह कोविड के सामुदायिक संक्रमण का ही दौर है। संक्रमण गांवों तक फैल चुका है और अब विस्तार की मुद्रा में है। यह विडंबना है कि अभी डाटा शहरों और जिला मुख्यालयों तक ही सीमित है। गांवों में कोविड की टेस्टिंग भी नगण्य है। लोग अब भी जागरूक नहीं हैं। गुजरात के साणंद में जिस तरह हजारों महिलाओं की भीड़ ने सिर पर पानी से भरा घड़ा रखकर जुलूस निकाला और उस पानी को एक मंदिर पर चढ़ाया गया, क्या ऐसी भीड़ के रहते हुए कोरोना की तीसरी लहर को थामा जा सकता है?
पंजाब में किसानों ने बिना मास्क और दो गज की दूरी बनाए किसान कानूनों पर विरोध-प्रदर्शन किया और कानूनों को कोविड से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया, क्या ऐसी भीड़ संक्रमण को रोक सकती है? दरअसल आज भी देश का बड़ा हिस्सा वायरस को लेकर गंभीर नहीं है। आज भी मास्क को पुलिसवाले या कानून की धाराएं लागू करने में लगी हैं, लेकिन हम अब भी नाकाम हैं। भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार ने तीसरी लहर की घोषणा की है और अभी से तमाम जरूरी तैयारियां करने की अपील भी की है। उसके बावजूद ऑक्सीजन की लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय के मोर्चे पर लड़ी जा रही है। न्यायाधीश खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। अस्पतालों के हालात देश जानता है। ऐसी भी मौतें हो रही हैं, जो सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं की जातीं, लिहाजा कोरोना का असली डाटा तो देश के सामने है ही नहीं। बेशक सरकार और निजी स्तर पर तैयारियां की जा रही हैं, लेकिन सक्रियता तब शुरू हुई है, जब तूफान गति पकड़ चुका है। जानमाल नष्ट हो रहे हैं। अदालतें इस दौर और विभिन्न कमियों को ‘नरसंहार’ के समान आंक रही हैं। लिहाजा कुछ सवाल मौजू हैं कि भारत के लोगों को कौन बचाएगा? क्या तीसरी लहर मौजूदा लहर से ज्यादा प्रचंड और जानलेवा साबित होगी? एक विकल्प धुंधला-सा दिखाई देता है कि तीसरी लहर आने से पहले ही हम अधिकतम लोगों में टीकाकरण करें। लेकिन टीकों की भी भारी कमी है। तो फिर क्या करें? क्या देश को राम-भरोसे छोड़ दें और असंख्य लोगों को मरने दें?
3.न्याय का आश्वासन
भारत के लोकतंत्र को लेकर कई शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन आम तौर पर किसी संकट की घड़ी में कोई न कोई सांविधानिक संस्था जरूर सहारा बनकर खड़ी हो जाती है। भारत में इस संकट के दौर में पिछले कुछ दिनों से न्यायपालिका की अचानक सक्रियता आश्वस्त करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट जिस तरह कोविड की स्थिति और अन्य सवालों पर भी लगातार आम नागरिकों और सांविधानिक मूल्यों के पक्ष में अन्य संस्थाओं को जवाबदेह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह लोकतंत्र के लिए अच्छा है। ऐसे में, कोई आश्चर्य नहीं कि आए दिन अदालतों की कार्रवाई या उनके फैसले सुर्खियों में बने हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की एक याचिका पर जो ताजा फैसला सुनाया है, वह भी कई तरह से महत्वपूर्ण है। मद्रास हाईकोर्ट ने कुछ दिनों पहले विधानसभा चुनाव के नतीजे आने पर विजय जुलूस निकालने पर रोक लगाने के लिए एक याचिका की सुनवाई की थी। इस सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने कोरोना के मद्देनजर चुनाव प्रचार में भारी भीड़ को लेकर चुनाव आयोग की कड़ी आलोचना की। हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि चुनाव आयोग के खिलाफ क्यों न हत्या का मुकदमा चलाया जाए। चुनाव आयोग ने इस टिप्पणी को हटाने और मीडिया में इसे छापे जाने पर रोक के लिए हाईकोर्ट से आग्रह किया, लेकिन हाईकोर्ट ने यह आग्रह ठुकरा दिया। तब इस मामले को लेकर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट ने याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इस टिप्पणी को हटाने या मीडिया में इसे छापने पर रोक लगाने से मना किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट और चुनाव आयोग, दोनों ही सांविधानिक संस्थाएं हैं। हाईकोर्ट अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन ऐसी तल्ख भाषा न इस्तेमाल की जाए, तो अच्छा। फिर भी सुप्रीम कोर्ट का यह कहना है कि यह टिप्पणी चलते-चलते की गई है, इसे फैसले का हिस्सा नहीं बनाया गया है, इसलिए इसे हटाने का कोई मतलब नहीं है। इसी तरह, मीडिया जब अदालत की कार्रवाई रिपोर्ट करता है, तो वह एक महत्वपूर्ण काम कर रहा होता है, इसलिए उसे रोका नहीं जाना चाहिए।
आजकल यह प्रवृत्ति कई सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं में देखी जा रही है कि वे अपनी आलोचना के प्रति कुछ ज्यादा संवेदनशील हो रही हैं, अक्सर अपनी आलोचना के खिलाफ या मीडिया में रिपोर्टिंग पर रोक लगवाने के लिए अदालत चली जाती हैं। ऐसी संस्थाओं के लिए इस फैसले में काफी सबक हैं कि अपनी आलोचना के प्रति कैसा रवैया अपनाया जाए। एक तो यह स्वीकार करना जरूरी है कि लोकतंत्र में अगर आप सार्वजनिक जीवन में हैं, तो आपकी आलोचना होगी, और उससे कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला। जैसे कि इस फैसले में कहा गया कि ऐसी टिप्पणियों से या मीडिया में इस बात के छपने से चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता तय नहीं होती। पिछले दिनों चुनाव आयोग की बहुत आलोचना होती रही है और हाईकोर्ट की टिप्पणी भी उसकी ही कड़ी है। हो सकता है, चुनाव आयोग पर लगने वाले सारे आरोप सही नहीं हों, लेकिन आयोग के लिए सिर्फ विश्वसनीय होना ही नहीं, लोगों की नजर में दिखना भी जरूरी है। दुर्योग से चुनाव आयोग काफी हद तक इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। यह पूरा मामला उसे आत्मनिरीक्षण करने के लिए एक मौका देता है।
4.आरक्षण की तार्किकता
पचास प्रतिशत की सीमा हटाने से इनकार
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में महाराष्ट्र सरकार के उस कानून को असंवैधानिक करार दे दिया, जो राज्य के प्रभावशाली मराठा समुदाय को शैक्षिक व रोजगार आरक्षण देने का वादा करता है। दरअसल, अदालत का मानना था कि राज्य में ऐसी कोई असामान्य परिस्थिति नहीं है, जिसके चलते मराठा समुदाय को सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा मानते हुए आरक्षण का लाभ दिया जाये। जिसके चलते शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित अधिकतम पचास फीसदी की आरक्षण सीमा का अतिक्रमण किया जाये। उल्लेखनीय है कि पिछली देवेंद्र फडणवीस सरकार ने कानून बनाकर मराठा समुदाय को सोलह फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया था। यह कानून शीर्ष अदालत द्वारा वर्ष 1992 में निर्धारित अधिकतम पचास फीसदी की सीमा रेखा का उल्लंघन करता है। वैसे इस कानून को बंबई हाईकोर्ट ने वैधता प्रदान कर दी थी। दरअसल, विगत में देश के कई राज्यों में प्रभावशाली जातीय समुदाय द्वारा बदले आर्थिक परिदृश्य में पिछड़ने की बात करते हुए शैक्षिक क्षेत्र व रोजगार में आरक्षण की मांग की जाती रही है, जिसका कतिपय राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिये समर्थन करते भी रहे हैं। इन चर्चित आंदोलन में हरियाणा में जाट आंदोलन, राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पटेलों का आंदोलन भी शामिल रहा है। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय जजों की संवैधानिक बेंच ने स्पष्ट कर दिया है कि आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा अब नहीं टूट सकती। जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच जजों की इस बेंच में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, एस. अब्दुल नजीर, हेमंत गुप्ता और एस. रविंद्र भट्ट शामिल थे। जस्टिस भूषण का मानना था कि इंदिरा साहनी फैसले की समीक्षा की कोई वजह नजर नहीं आती। उस फैसले का पालन किया जाना चाहिए। बहरहाल, अदालत आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत रखने पर ही सहमत रही, जिसको कई राज्य खत्म करना चाह रहे हैं।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट मानना रहा है कि विशेष परिस्थितियों के बिना ही निर्धारित आरक्षण सीमा को हटाना संविधान का उल्लंघन होगा। विडंबना यही है कि राज्यों के राजनीतिक दल इस आरक्षण के समर्थन में खुलकर सामने आ जाते हैं। इस कानून के समर्थन में महाराष्ट्र के विभिन्न जनपदों में बड़े आंदोलन हुए थे। कमोबेश तमाम राजनीतिक दल इस आरक्षण को लागू करने के पक्ष में रहे हैं क्योंकि राजनीतिक रूप से मराठा समुदाय महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा दखल रखता रहा है। यही वजह है कि शीर्ष अदालत में इस मामले में सुनवाई के बीच केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाये गये इस कानून का समर्थन किया। इसी तरह कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे आरक्षण के पक्ष में विचार व्यक्त करती रही हैं। दरअसल, कई राज्यों में ये प्रभावशाली जातीय समूह राज्य सरकारों पर आरक्षण लागू करने के लिये दबाव बनाते रहे हैं। इस मुद्दे को विपक्षी दल तुरंत लपक लेते हैं, जिसके चलते राज्य सरकारों के लिये कानून-व्यवस्था का प्रश्न भी पैदा हो जाता है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में यह सवाल तो पैदा होता है कि क्या सुशासन के अन्य तरीकों से इस पिछड़ेपन को दूर नहीं किया जा सकता? क्या आरक्षण देना ही अंतिम विकल्प है? क्या इस आरक्षण से अन्य सामान्य लोगों के साथ अन्याय नहीं होगा? क्या इससे समाज में स्वतंत्र स्पर्धा पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। दरअसल, वक्त की मांग है कि उन कारणों की पड़ताल की जाये, जिससे कोई समाज प्रगति की दौड़ में पीछे छूट जाता है। ऐसे वक्त में जब सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है, क्या रोजगार के पर्याप्त अवसर आरक्षण के जरिये हासिल किये जा सकते हैं, क्या यह प्रतिभा के साथ नैसर्गिक न्याय का समर्थन करता है? वैसे यह हमारे सत्ताधीशों की विफलता भी है कि आजादी के सात दशक के बाद हमारे समाज का एक वर्ग क्यों प्रगति की दौड़ में पिछड़ गया है।