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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.परिस्थितियां बदलने के लिए

आपातकाल में अच्छे काम का कोई मॉडल नहीं, परिस्थितियों के सही अर्थ में जो कर गया, वही तो काम का माना जाएगा। कोरोना काल की तमाम नकारात्मक सूचनाओं के बीच जो चेहरे परिस्थितियां बदलने पर आमादा, उन्हें यह वक्त हमेशा याद रखेगा। यह वक्त एक ऐसी कोशिश है, जो पहले नहीं हुई। हर प्रयास का नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता, क्योंकि मेहनत की कोई मुरौवत नहीं बची। हम अपने आसपास कई ऐसे चेहरे देख सकते हैं, जो घर के तमाम झंझावात से दूर निकल कर कोरोना को मात देने का जोखिम सिर पर उठाकर चले हैं। कुल्लू की कृष्णा के लिए पति और बेटे की बीमारी कोई बंधन नहीं, लिहाजा वह इस वक्त को कोविड वार्ड को अर्पित करके परिस्थितियां पलटना चाहती हैं। दौलतपुर चौक के डा. राजीव कोरोना के ग्यारह हजार सैंपल लेकर यह साबित कर रहे हैं कि कर्म का यह दौर एक नई गीता लिखेगा। इस भीड़ में कोई अर्जुन अकेला नहीं रहेगा क्योंकि इस युद्ध में बेटियां भी आगे चल रही हैं। ऐसी कितनी महिला डाक्टर हैं जो अपने बच्चों को किसी न किसी के हवाले करके रोज पीपीई किट के भीतर अनूठी मां बन रही हैं।

 हर दिन की मशक्कत में कई किरदार ऐसे भी हैं, जो हमसे कहीं ऊपर खुदा जैसी बात करते हैं। आखिर वे भी तो हाथ ही हैं, जो अस्पतालों के वार्ड में कोरोना संक्रमितों की नब्ज पर ही नहीं उनके जीवन से स्पर्श करते हैं। हर दिन दौड़ती सैकड़ों एंबुलेंस के भीतर चालक व अन्य स्टॉफ किसे ढो रहा है। उन्हें मालूम है कि वे सांसें ढो रहे हैं और उनके हर मुकाम पर एक जिंदगी जीत सकती है। यही है भावना जो कोरोना काल में भी हमारे जैसे लोगों के भीतर कइयों को नायक की तरह पहचान रही है, तो दूसरी ओर आपदा में अवसर की निर्लज्ज हकीकत भी है। हैं कई कैंकड़ा वृत्ति के लोग जो भ्रष्टाचार के रास्तों पर कोरोना के दिए जख्म बेच रहे हैं। जमाखोरी, घूसखोरी और उपभोक्ताओं की जरूरतों का मजाक उड़ाने वाले भी तो हैं, जो कीमतों में फर्जी उछाल लाकर या बंदिशों के पर्दे हटाकर अपना इमान बेच रहे हैं। खेत में उत्पादक अपनी सब्जियों पर लागत वसूल नहीं पाया, लेकिन बाजार में लुट रहा है मासूम उपभोक्ता। हर हिदायत की वसूली में बाजार आंखें दिखा रहा, इसलिए दवाई से दुआ तक महंगी है इस कफन में।

कोविड काल ने कहीं सिखाया, कहीं रुलाया, लेकिन कुछ ऐसे लोग भी सामने आते रहे जो अभिशप्त राहों पर तिलिस्म दिखाते रहे। कोविड सेंटर से बच कर घर पहुंचे जसूर के एक व्यक्ति पर क्या गुजरी होगी, जब एंबुलेंस के संचालक ने उसे सड़क पर पटक दिया होगा, लेकिन रहम के उन फाहों का स्पर्श भी तो मिलता है जब बद्दी के युवाओं ने जम्मू निवासी की मौत को अपने कर्त्तव्य के कंधे देते हुए अंतिम संस्कार कर दिया। दवा निर्माता संघ 13 लाख के आक्सीजन सिलेंडर और 225 बिस्तर उपलब्ध कराता है, तो कराहती व्यवस्था की पीठ सीधी हो जाती है। ये नए खतरे, नए अभाव हैं-इस बस्ती के बदलते प्रभाव में कहीं तो दीया जलाना पड़ेगा। हम व्यथित हो सकते हैं, खबरें आहत कर सकती हैं। विपक्ष के लिए सूचनाओं के विद्रोह में खड़े होने का अवसर है या इस तूफान में एक लौ जलाने की कोई भूमिका तराशी जा सकती है। कहना न होगा कि कांग्रेस को भी इस वक्त की संवेदना में देखा जाएगा और हर योगदान की तहरीर होगी, चाहे सुधीर शर्मा जैसे किसी नेता के घर में कोविड सहायता के इंतजाम हों या पार्टी के माध्यम से राज्य के बंदोबस्त में भूमिका हो। ऐसे में कांग्रेस की कोरोना रिलीफ वर्क कमेटी सिर्फ एक घोषणा नहीं, दायित्व की मचान हो सकती है।

2.सुस्त टीकाकरण की हकीकत

अमरीकी राष्ट्रपति के चिकित्सा सलाहकार एवं विश्व विख्यात महामारी विशेषज्ञ डा. एंथनी फाउची और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बयान एक साथ सार्वजनिक हुए हैं। डा. फाउची का कहना है कि भारत दुनिया में सबसे बड़ा टीका-निर्माता देश है। उसे न केवल अपने टीकाकरण अभियान की गति बढ़ानी चाहिए, बल्कि उन देशों की मदद भी करनी चाहिए, जो कोविड टीके बनाने में अक्षम हैं। डा. फाउची ने भारत में राष्ट्रीय लॉकडाउन की पैरवी एक बार फिर की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत के सुस्त टीकाकरण कार्यक्रम पर टिप्पणी की है और सरोकार जताया है कि दुनिया के देश इस स्थिति पर चिंतित हैं। बहरहाल हमारे देश में कोरोना टीकाकरण की गति यह है कि 16 जनवरी से 11 मई तक 17 करोड़ से कुछ अधिक खुराकें दी जा सकी हैं। सिर्फ  3.57 करोड़ नागरिकों को ही दोनों खुराकें दी गई हैं। सही मायनों में यही संपूर्ण टीकाकरण है। क्या 139 करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में इतना टीकाकरण कोई सकारात्मक संकेत देता है? क्या सरकार इन्हीं आंकड़ों से संतुष्ट है? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि भारत के लगभग आधे जिलों में स्थितियां बेहद बदतर और कुरूप हैं।

 एक विश्लेषात्मक रपट सामने आई है कि 306 जिले ऐसे हैं, जहां कोरोना वायरस की संक्रमण दर 20 फीसदी से ज्यादा है। उनमें से 142 जिलों में टीकाकरण 20 से 50 फीसदी तक घटा है। करीब 62 जिले ऐसे हैं, जहां टीकाकरण 20 फीसदी से भी कम हुआ है। दरअसल ये आंकड़े देश का आम आदमी नहीं जानता और न ही किसी विपक्षी दल ने ऐसा खुलासा किया है। भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में 200 पन्नों से अधिक का जो हलफनामा  दिया है, उसमें टीकाकरण नीति को ‘उचित’ करार दिया है और दावा किया है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत सभी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा रही है। दरअसल यह दावा भी बुनियादी तौर पर गलत और खोखला है। एक ही वाक्य में कहा जा सकता है कि भारत में नागरिकों को जन-स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं। कोविड मरीज लावारिसों की तरह मर रहे हैं। अस्पताल संवेदनहीन दुकानें हैं। यदि जन-स्वास्थ्य का अधिकार सुरक्षित होता, तो ऑक्सीजन के अभाव में ही ‘नरसंहार’ सामने न आते। यह शब्द इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने इस्तेमाल किया था, लिहाजा उससे बदतर और बदहाल स्थितियां परिभाषित होती हैं। बेशक कोरोना के खिलाफ हमारा टीकाकरण कार्यक्रम दुनिया में सबसे बड़ा और व्यापक है। तो सरकार को उसकी ठोस नीति तय करनी चाहिए थी। भारत सरकार को एहसास होना चाहिए था कि सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बॉयोटेक दोनों कंपनियां ही भारत में टीकाकरण के लिए पर्याप्त खुराकों का उत्पादन नहीं कर सकतीं। दावे कुछ भी किए जाएं, लेकिन यह शुरू से ही स्पष्ट था कि टीकाकरण अभियान अवरुद्ध हो सकता है। कोरोना की मौजूदा लहर का बहाना भी बनाना छोड़ दें, क्योंकि हर स्थिति में टीकाकरण तो किया ही जाना था।

ये आकलन भी दिए गए थे कि कमोबेश करीब 90-100 करोड़ आबादी को टीका देना लाजिमी है, ताकि ‘हर्ड इम्युनिटी’ तक पहुंचा जा सके, लेकिन मोदी सरकार और भाजपा के प्रवक्ता सिर्फ  यही गिनवाते रहते हैं कि 18 करोड़ टीके मुफ्त दे चुके हैं। राज्यों के पास 84 लाख टीके जमा हैं और 53 लाख खुराकें तीन दिन में पहुंच जाएंगी। सवाल है कि टीकाकरण अवरुद्ध क्यों है? लंबी-लंबी कतारें टीकाकरण केंद्रों के बाहर क्यों लगी हैं? बूढ़े और जवान नागरिक बिना टीका लगवाए ही लौट क्यों रहे हैं? बेशक यह सियासत भी हो सकती है। सियासत आम आदमी की जिंदगी से भी खेल सकती है, लेकिन डा. फाउची और दुनिया के कई देश भारत के टीकाकरण और कोविड के नए विस्तार से चिंतित क्यों हैं? शायद वे आंक रहे हैं कि कल भारत दुनिया के लिए संक्रमण का नया खतरा पैदा कर सकता है! इससे भी बड़ी चिंता यह है कि कोविड की तीसरी लहर की संभावनाओं के मद्देनजर बच्चों के लिए टीके का परीक्षण तक हमारे देश में शुरू नहीं किया गया है। 6-17 साल के बच्चों की आबादी भी करीब 45 करोड़ है। चूंकि तीसरी लहर को बच्चों के लिए गंभीर खतरा आंका गया है, लिहाजा बच्चों के टीकाकरण का सवाल भी स्वाभाविक है। क्या सरकार विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर विदेशी टीकों को भी भारत में मान्यता देने का काम करेगी?

3.वैक्सीन की कमी

कोरोना की मौजूदा लहर में जो अनेक समस्याएं सामने आ रही हैं, उनमें से एक है टीके की कमी। अगर इस समस्या के समाधान के लिए तुरंत युद्ध स्तर पर उपाय नहीं किए गए, तो यह समस्या आने वाले वक्त में और गंभीर होती जाएगी। भले ही यह लहर खत्म हो जाए, लेकिन कोरोना पर स्थाई नियंत्रण के लिए जरूरी है कि देश की कम से कम 50-60 प्रतिशत जनसंख्या को जल्दी से जल्दी वैक्सीन लगाया जाए। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर इस समस्या की ओर ध्यान दिलाया है। केजरीवाल ने यह सुझाव भी दिया है कि केंद्र सरकार वैक्सीन का फॉर्मूला दो कंपनियों से लेकर ज्यादा कंपनियों को दे, ताकि वैक्सीन का उत्पादन बढ़ सके। इन दो कंपनियों को अन्य कंपनियां इसके लिए कुछ रॉयल्टी दे सकती हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि ये दोनों कंपनियां अभी तकरीबन छह-सात करोड़ खुराक ही हर महीने बना पा रही हैं और इस तरह पूरे देश के टीकाकरण में बरसों लग जाएंगे।
केजरीवाल की फिक्र जायज है, और हो सकता है कि आने वाले वक्त में और भी मुख्यमंत्री इस विषय पर कुछ बोलें। इसकी वजह यह है कि वैक्सीन की कमी का सबसे बड़ा खामियाजा राज्य सरकारों को भुगतना पड़ रहा है। केंद्र सरकार ने वैक्सीन के बंटवारे का जो फॉर्मूला तैयार किया है, उसके मुताबिक, राज्य सरकारों को कुल उत्पादन का पच्चीस प्रतिशत ही मिलेगा, जबकि 18 से 44 की उम्र के सभी लोगों को वैक्सीन लगाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की ही है। फिर अलग-अलग राज्यों से मांग के मुताबिक वैक्सीन न दिए जाने की शिकायतें भी मिल रही हैं। एक दिन पहले ही केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच इस मुद्दे पर विवाद हो चुका है। हो सकता है कि माहौल को कुछ सौहार्दपूर्ण बनाने के लिए ही केजरीवाल ने यह चिट्ठी लिखी हो। बहरहाल, वैक्सीन की कमी की शिकायतें लगभग हरेक जगह से मिल रही हैं और 18 से 44 आयुवर्ग के लोगों के लिए टीके लगवाना तकरीबन असंभव हो रहा है। यह स्थिति अभी बनी रहेगी, क्योंकि वैक्सीन की मांग बहुत है और आपूर्ति उसके मुकाबले काफी कम। केंद्र सरकार ने वैक्सीन निर्माताओं को पहले क्या सोचकर ऑर्डर दिए थे, यह नहीं मालूम, मगर उसके जो भी पूर्वानुमान थे, इस दूसरी लहर ने उसे तहस-नहस कर दिया है। अचानक संक्रमण के बढ़ने से लोग डर गए और टीका लगवाने दौड़ पड़े। बढ़ते दबाव में सरकार ने 18 से 44 की उम्र के लोगों को भी टीका लगाने की घोषणा कर दी, जबकि इसके लिए जमीनी तैयारी नहीं थी। नतीजतन, एक किस्म की अफरातफरी का माहौल बन गया है। हालात ऐसे हैं कि 45 से ज्यादा उम्र के लोगों को भी टीका लगाने में दिक्कत आ रही है और अब तक देश की सिर्फ दो प्रतिशत जनसंख्या को दोनों खुराकें मिल पाई हैं। वैक्सीन का उत्पादन कंपनियां बढ़ाती हैं। उनका फॉर्मूला ज्यादा कंपनियों को मिल जाता है और एकाध नई वैक्सीन भी आती है, तब भी इसकी कमी दूर होने में दो-तीन महीने तो लग ही जाएंगे। ऐसे में, सरकार को चाहिए कि वह स्थिति का सही आकलन करे और उसके मुताबिक जनता को सही स्थिति बताते हुए टीकाकरण की योजना बनाए। यदि ऐसा न हुआ, तो अनिश्चय, अराजकता और संदेह का माहौल स्थिति को और खराब करेगा। इससे बचने की जरूरत है।

4.सच सामने आये

चीनी मंसूबों को बेनकाब करे दुनिया

यूं तो दुनिया में बीते साल कोरोना संक्रमण की शुरुआत से ही यह बहस शुरू हो गई थी कि चीन से निकल कर दुनिया को लील रहा कोरोना वायरस प्राकृतिक है या फिर जैविक हथियार बनाने के मकसद से लैब में तैयार किया गया है। हर मौसम, हर जलवायु और हर भू-भाग में एक जैसा व्यवहार करने वाले विषाणु को कृत्रिम मानने वाले वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग भी रहा है। जिस तरह शुरुआत से ही चीन अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को अपने यहां जांच कराने में ना-नुकुर करता रहा, उसने इस शक को और गहरा किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम को भी जिस तरह लंबे समय से रोका जाता रहा है, उसने विश्व बिरादरी की शंकाओं को विस्तार ही दिया है। अमेरिका भी लंबे समय तक ऐसे आरोप लगाता रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अक्सर सार्वजनिक सभाओं में कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहते रहे हैं। हाल ही में आस्ट्रेलियाई मीडिया के हाथ लगे चीनी सेना के कुछ खुफिया दस्तावेजों ने इन आशंकाओं को बल दिया है। रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2015 से ही चीनी सेना कोरोना वायरस को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की दिशा में काम करती रही है, जिसके पीछे धारणा यह रही है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध होगा तो वायरस युद्ध ज्यादा निर्णायक होगा। यहां सवाल यह भी उठता रहा है कि जिस चीन से यह कोरोना वायरस चला है, उसने इतनी जल्दी इससे कैसे मुक्ति पा ली। क्या उसने जैविक हमले की तर्ज पर इससे बचाव के लिये पहले से ही तैयारी कर रखी थी? आंकड़े बताते हैं कि कोरोना संकट के इस भयावह दौर में जब दुनिया की अर्थव्यवस्था तबाह हुई है, चीन की आर्थिक प्रगति ने पिछले सारे रिकॉर्ड ध्वस्त किये हैं, उसकी विकास दर अट्ठारह प्रतिशत तक पहुंची है। इस बीच उसका आर्थिक साम्राज्यवाद व महत्वाकांक्षी परियोजनाएं परवान चढ़ी हैं। ऐसे में पूरी दुनिया में इस बात को जानने की जिज्ञासा है कि वास्तविकता क्या है और यदि चीन दोषी है तो उसके खिलाफ क्या कार्रवाई होनी चाहिए।

निस्संदेह कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को तबाह कर दिया। इससे उबरने में लंबा वक्त लगेगा। अरबों-खरबों की क्षति के इतर पिछले डेढ़ साल में तैंतीस लाख लोग कोरोना महामारी के शिकार हुए हैं, जिनमें ढाई लाख के करीब भारत के लोग हैं। लेकिन अभी भी यही सवाल बाकी है कि क्या कोविड-19 मानव निर्मित जैविक हथियार है? क्या वायरस वुहान की लैब से मानवीय गलती से लीक हुआ है? लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं कि यह महज जानवरों से वायरस के मानव तक संचरण का मामला था। अमेरिकी विदेश विभाग ने कथित रूप से लीक हुए चीनी दस्तावेज के मीडिया में प्रकाशित होने के बाद इसकी संभावना पर रोशनी डाली है। आस्ट्रेलिया व ब्रिटिश मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के दस्तावेजों में कहा गया है कि ‘कोरोना जैसे जैविक हमले में दुश्मन देश की चिकित्सा प्रणाली ध्वस्त हो सकती है।’ हालांकि चीनी शासन द्वारा संचालित ग्लोबल टाइम्स अखबार इन आकलनों को खारिज करता है। लेकिन इस मामले ने पूरी दुनिया के लोगों को उद्वेलित किया है। विडंबना यह है कि इस महामारी से मुकाबले की अगुवाई करने वाली संयुक्त राष्ट्र की नोडल एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका सच्चाई से पर्दा हटाने में संदिग्ध रही है। इसके प्रमुख के चीन के प्रति झुकाव को लेकर सवाल अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया में उठते रहते हैं। इस बाबत जांच के लिये वुहान गई डब्ल्यूएचओ के विशेषज्ञों की टीम ने चीन को क्लीन चिट दी कि वुहान से फैला वायरस लैब से लीक नहीं हुआ था। जांच में कई महत्वपूर्ण सवालों को छोड़ दिया गया। बहरहाल विश्व स्वास्थ्य संगठन को नये सिरे से जांच सुनिश्चित करनी चाहिए और चीन सरकार को जांच को पारदर्शी बनाये रखने के लिये बाध्य किया जाना चाहिए। डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड की कमान संभालने वाले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के माध्यम से भारत को इस मंच का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने की जरूरत है।

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