इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.किसान आंदोलन में हिंसा
अंततः वही हुआ, जिसकी आशंका थी। बल्कि उससे भी ज्यादा हुआ, जिसका अनुमान न तो खुफिया एजेंसियों को था और न ही दिल्ली पुलिस को रहा होगा! यदि किसानों के स्वयंभू नेता इन आशंकाओं की रणनीति में शामिल थे, तो उसे भी ‘देशद्रोह’ करार दिया जाना चाहिए। अचानक सामने आई उपद्रवी, हिंसक और देशद्रोही भीड़ में कौन शामिल थे? अचानक ऐसे दृश्य सामने क्यों आए? कथित आंदोलित किसान सुबह 8 बजे ही टै्रक्टर परेड निकालने पर आमादा क्यों हुए? क्या किसान आंदोलन नेताहीन, नेतृत्वहीन और निरंकुश है? उपद्रवियों के हाथों में तलवारें, भाले, लाठियां, डंडे और रॉड कहां से आए? पत्थर और शराब की बोतलें ट्रॉलियों में कैसे रखी गईं और किसने इजाज़त दी? ऐसे ढेरों सवालों की जांच होगी, यह हमारा विश्वास है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में ऐसा खूनी उत्पात हमने कभी नहीं देखा। कमोबेश 15 अगस्त और 26 जनवरी की पवित्रता और गरिमा बरकरार रखी गई। 1984 के सिख-विरोधी दंगों की उत्तेजना और उन्माद भिन्न थे
इस बार दंगई भीड़ ने मानो ठान रखा था कि सुरक्षाकर्मियों समेत मीडिया को भी ध्वस्त करना है और इंडिया गेट तथा राजपथ तक पहुंच कर ‘विनाशकारी जीत’ दर्ज करनी है! राजपथ, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास, संसद भवन आदि अतिविशिष्ट स्थल और राष्ट्रीय प्रतीक सिर्फ डेढ़-दो किलोमीटर दूर ही रह गए थे। उपद्रवी, उत्पाती भीड़ आईटीओ तक तो पहुंच चुकी थी। पुलिस लाठीचार्ज, आंसू गैस और दूसरे उपाय भीड़ को रोक नहीं पाए, बल्कि कुछ जगह पुलिसवालों को ‘मेमना’ बनकर जिंदगी की भीख मांगनी पड़ी। इस उपद्रव में 300 से अधिक पुलिसवाले घायल हुए और करोड़ों की सार्वजनिक संपत्तियां नष्ट कर दी गईं। क्या इसीलिए किसान गणतंत्र परेड का आयोजन किया गया था? यदि दंगई भीड़ पर गोलियां बरसाई जातीं, तो यकीनन कुछ हताहत जरूर होते और पूरा प्रकरण ‘जलियांवाला बाग-2’ में परिणत हो जाता और वह कलंक भावी 50 साल तक मिटने वाला नहीं था। सारी अराजकता, हिंसा, अवांछित और अक्षम्य हरकतें तब की जा रही थीं, जब राजपथ पर राष्ट्रपति परेड की सलामी ले रहे थे और देश भारत के शौर्य, सम्मान, प्रगति और सांस्कृतिक विविधता पर इतरा रहा था। देश बहुत बड़ी त्रासदी से बाल-बाल बचा है। यह कल्पना कभी नहीं की थी कि कोई उन्मादी भीड़, अपने ही देश के बिगड़ैल, बेलगाम नागरिक लालकिले की प्राचीर तक पहुंच जाएंगे और भारत की आन-बान-शान के प्रतीक लालकिले पर घंटों उत्पात मचाएंगे। जिस प्राचीर पर स्वतंत्रता दिवस को देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ फहराते हैं, उसी स्तंभ पर खालसा पंथ और किसान यूनियन के झंडे लहराए गए। न तो भीड़ का मुकाबला किया गया और न ही देश की पहचान को सुरक्षित रखा जा सका, जबकि पुलिस बल वहीं मौजूद मूकदर्शक बना रहा। शायद आदेश का इंतज़ार था! यकीनन गणतंत्र का गौरव कलंकित किया गया, लोकतंत्र पर बट्टा लगा, सुरक्षा-व्यवस्था की दरारें और अक्षमताएं बेनकाब हुईं और देशवासियों की ही एक गुस्सैल, उत्तेजित भीड़ ने भारत की सत्ता और संप्रभुता पर हमला किया है।
बेशक किसान ऐसा नहीं कर सकते, यह हमारा संचित भरोसा है। ये उपद्रवी, हिंसक हमलावर ‘देशद्रोही’ हैं, क्योंकि उन्होंने देश के खिलाफ जंग छेड़ी है। बेशक उनके पीछे कोई भी संगठन या आतंकिस्तान की भूमिका हो! साजि़शें रची गई थीं कि इंडिया गेट पर खालिस्तान का झंडा फहराया जाए, तो 2.5 लाख डॉलर का इनाम दिया जाएगा। अंततः लालकिले पर कब्जा तो कर लिया गया था और झंडे भी फहरा दिए गए। यह भारत के अस्तित्व के खिलाफ पराकाष्ठा की स्थिति है। चेहरे चिह्नित हैं, तो उन्हें काल-कोठरी में कैद किया जाए। केस चलते रहेंगे। यदि मूकदर्शक बने लोकतंत्र का प्रलाप करना है, तो अभी संसद भवन तक पहुंचने का ऐलान भी साकार होना शेष है। बहरहाल यह कांड भारत के इतिहास में शर्मनाक और विदू्रप अध्याय के तौर पर दर्ज हो गया है। हम औने-बौने कथित किसान नेताओं की अनुपस्थिति और भूमिका की चिंता नहीं करते, लेकिन यह तय है कि किसान आंदोलन पर गंभीर सवाल और संदेह चस्पा हुए हैं। अब सरकार किन किसान संगठनों से विवादास्पद कानूनों को लेकर बातचीत करेगी? सतनाम सिंह पन्नू, सरवन सिंह आदि के संगठनों पर हिंसक और उपद्रवी हमले के आरोप लगाए गए हैं। आंदोलन की वैधता भी सवालिया है, तो संवाद बेमानी रहेगा। ऐसे निर्णय सरकार को करने हैं, लेकिन हमारा मानना है कि अब सरकार को इन किसान नेताओं के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ये किसी भी फैसले को लागू कराने में नाकाम साबित होंगे।
- किसान परेड के अंधे मोड़
जमीन पर आफत, देश की मिट्टी खराब हुई। किस मिट्टी का गुनाह चुने, यहां तो किसान की पौध में शैतान घुसे हैं। जो गणतंत्र दिवस पर हुआ, उससे आहत देश की अस्मिता और हर नागरिक यह सोचने पर विवश कि अधिकारों की यह मिसाल आंदोलन की रूह को भी भयभीत करती होगी। लाल किले के प्राचीर तक पहुंचा कोई भी आंदोलन महज आंदोलन नहीं हो सकता और यही हुआ तो इस अपमान का बदला क्या होगा। क्या किसान आंदोलन ने अपने बासठ दिनों को महज एक घटनाक्रम में बर्बाद कर दिया या जो हुआ, उसे रोका ही नहीं जा सकता था। आरोपों से घिरी किसान संसद आखिर अफरा-तफरी के मंजर तक कैसे पहुंची और दिल्ली उन्हें रोकने में अक्षम क्यों हो गई। हम इस घटनाक्रमों को न तो अतीत के क्रम के बिना समझ पाएंगे और न ही भविष्य की चुनौतियों को खारिज करके देख पाएंगे।
यहां मसला अगर किसानों को कोस कर हल होना होता, तो हो चुका होता और सरकार की पैरवी में संतुलन बना कर देखा होता, तो भी ऐसी परिस्थितियों तक न पहुंचता। बहरहाल यह तो समझा जा सकता है कि किसानों के भीतर और तमाम प्रस्तावों के अंदर सुलगती हुई साजिशें थीं। इसके ये मायने भी हो सकते हैं कि किसान से बड़े से बड़े आंदोलन की प्रतीक्षा में देश को परीक्षा में डाल दिया गया। मंगल के अमंगल में देश कई मोर्चों पर हारा। लोकतंत्र अपनी मर्यादा की परीक्षा में तत्पर और देश राष्ट्रीय एकता के प्रतीकात्मक क्षणों के भीतर जो दिखा रहा था, उससे भिन्न लाल किले ने पहली बार खुद को एक बड़ी आफत में देखा। बासठ दिनों बाद अपने आंदोलन के संबोधन को सीधे लोकतांत्रिक परेड से जोड़ने वाले किसान आखिर अंधे मोड़ पर क्यों बिखर गए, इस प्रश्न का उत्तर अब देश को खोजना है। न तो सारी ट्रैक्टर रैली के सिर पर दोष मढ़ा जा सकता है और न ही अब किसान आंदोलन खुद को पूरी तरह निर्दोष साबित कर पाएगा।
बेशक अपने विरोध की पराकाष्ठा पर निकला किसान देश की जागृति में अपनी हाजिरी लगा रहा था या उसका मूल उद्देश्य अपने पक्ष में जनमत को परिभाषित करना रहा होगा, लेकिन एक अवांछित-निर्लज्ज करतूत ने आंदोलन के सारे तंबू उखाड़ दिए। लाल किले पर धार्मिक ध्वज फहराने से लोकतंत्र कितना अपवित्र हुआ, लेकिन इस उन्माद ने जमीन की आत्मा को रौंदा जरूर है। जाहिर है इससे किसान आंदोलन कमजोर होगा और वास्तविक मुद्दे से भटक कर देश अपने भीतर दुश्मन सरीखे बर्ताव की मांद पैदा कर लेगा। नीतियों के कान पकड़ते-पकड़ते किसान आज आक्रोशित है, लेकिन इनके आंदोलन पर मिट्टी डालने से यह गर्म राख में बदली है, तो कसूरवार वे राहें भी हैं जिन्होंने हताशा के कांटे पैदा किए। जाहिर तौर पर मंगलवार तक पहुंचते-पहुंचते आंदोलन इतना बड़ा हो गया कि कहीं किसान पीछे छूट गया। ऐसे में मामले की संवेदनशीलता का जिक्र होगा, लेकिन चाक चौबंद पहरे के बीच दिल्ली पुलिस की विफलता भी कई अर्थ गढ़ लेती है। यह किसान आंदोलन को एक बड़ा झटका है, लेकिन कानून-व्यवस्था के प्रश्नों से केंद्र सरकार भी खुद को अलहदा नहीं कर सकती। हम चाहें तो इसे लोकतंत्र पर हुए हमले की तरह ले सकते हैं, लेकिन गंभीरता से सोचें कि बासठ दिन पहले शुरू हुआ किसान आंदोलन इतना विकराल हुआ तो इसके अनेक पहलुओं में बारूद किसने भरा। क्या विपक्ष को कोस कर सत्ता के सम्मुख यह प्रश्न छोटा पड़ गया या राष्ट्रीय पर्व के कानों में जो गूंजा, उस संघर्ष की दास्तान बदलने के लिए फिर से कोई सार्थक प्रयास होगा। कई सबक सामने हैं, देखते हैं इनसे किसान, सरकार और विपक्ष कितना सीख पाते हैं।
- न्याय की उम्मीद
न्याय केवल वही नहीं है, जो सुना दिया जाए, न्याय वह है, जो स्वाभाविक ही महसूस हो। सुप्रीम कोर्ट में भी एक विशेष मामला आया है, जिसमें न्याय की कमी महसूस होती है। दरअसल, महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने त्वचा से त्वचा स्पर्श के अभाव में एक यौन हमले को मानने से मना कर दिया है। 12 वर्षीया नाबालिग को गलत ढंग से छुआ गया था और चूंकि त्वचा से त्वचा का स्पर्श नहीं हुआ था, इसलिए पॉक्सो के तहत अपराध मानने से इनकार कर दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी है। यह एक ऐसा मामला है, जिस पर विस्तार से चर्चा और सुनवाई की जरूरत है। खास यह है कि यूथ बार एसोसिएशन ने इसे लेकर याचिका दाखिल की है। क्या यह सही है कि किसी नाबालिग को छूना केवल इसलिए वैध या सही मान लिया जाएगा, क्योंकि त्वचा से त्वचा का स्पर्श नहीं हुआ है? पूरे वस्त्र में क्या किसी का शोषण नहीं किया जा सकता? क्या किसी को कपड़े के ऊपर से छूना पॉक्सो के तहत यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता? महाराष्ट्र हाईकोर्ट के फैसले से ऐसे बहुत से संवेदनशील सवाल खड़े हो गए हैं, जिनका जवाब सुप्रीम कोर्ट को मानवीयता के साथ खोजना होगा। महाराष्ट्र उच्च न्यायालय की नागपुर बेंच की एक जज ने अपने 19 जनवरी को दिए गए आदेश में कहा था कि किसी भी छेड़छाड़ की घटना को यौन शोषण की श्रेणी में रखने के लिए घटना में यौन इरादे से किया गया त्वचा से त्वचा स्पर्श होना चाहिए। लगे हाथ उन्होंने यह भी कह दिया है कि नाबालिग को टटोलना यौन शोषण की श्रेणी में नहीं आएगा। यह जान लेना जरूरी है कि एक सत्र न्यायालय ने 39 साल के व्यक्ति को 12 साल की बच्ची का यौन शोषण करने के अपराध में तीन साल की सजा सुनाई थी, पर उच्च न्यायालय ने सजा में संशोधन करते हुए कह दिया कि महज छूना भर यौन हमले की परिभाषा में नहीं आता। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत महिला का शील भंग करना अपराध है। धारा 354 के तहत जहां न्यूनतम सजा एक साल की कैद है, वहीं पॉक्सो कानून के तहत यौन हमले की न्यूनतम सजा तीन साल की कैद है। इस पूरे मामले को सभ्यता, मानवता और ममता के चरम पर पहुंचकर देखना चाहिए। अदालतें लोगों की उम्मीद हैं। केवल बालिगों ही नहीं, नाबालिगों के लिए भी अदालतों को विशेष रूप से संवेदनशील रहने की जरूरत है। यौन शोषण के मामले में दी गई थोड़ी भी रियायत समाज को शर्मसार करने की दिशा में ले जाएगी। जरूरी है कि हमारे लोकतंत्र के स्तंभ यौन शोषण के बारे में किसी भी तरह की उदारता या विचार को शरण न दें। हमारी सभ्य परंपरा में भाव हिंसा को भी अपराध माना गया है, मतलब किसी को नुकसान पहुंचाने के बारे में सोचने की भी मनाही है। आज आधुनिक समय में हम भाव हिंसा रोकने की वकालत भले नहीं कर सकते, लेकिन शारीरिक हिंसा के तमाम स्वरूपों पर ताले तो अवश्य ही लगा सकते हैं। इस मामले में अदालतों की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। देश देख रहा है। सुप्रीम कोर्ट को अब एक ऐसा आदर्श फैसला सुनाना चाहिए, ताकि सबको महसूस हो कि न्याय हुआ। सही और सच्चा न्याय होगा, तभी हमारा और हमारे समाज का भविष्य सुरक्षित होगा।
4.अप्रिय व अशोभनीय
अब संयम से राह तलाशी जाये
लगभग दो माह से दिल्ली की सीमाओं पर शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे किसान आंदोलन के क्रम में मंगलवार को निकाली गई ट्रैक्टर रैली का हिंसक रूप लेना दुखद घटना ही है। राष्ट्रीय पर्व पर इस घटनाक्रम ने देशवासियों को व्यथित किया है। सवाल उठ रहे हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा आंदोलन अराजक तत्वों के हाथों में कैसे चला गया, जिसने राष्ट्रीय पर्व व राष्ट्रीय प्रतीकों की गरिमा को ठेस पहुंचाई। यह साल महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का शताब्दी वर्ष है, जो मालाबार में हिंसा के खिलाफ उभरा था। कालांतर फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा की घटना 22 भारतीय पुलिसकर्मियों की हत्या की वजह बनी, जिसके चलते महात्मा गांधी को यह आंदोलन खत्म करने के लिये बाध्य होना पड़ा। इस आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला था। इसके बावजूद भारतीयों के खिलाफ भारतीयों की हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा न मिले, आंदोलन को स्थागित कर दिया गया था। निस्संदेह देश में कोई भी लोकप्रिय आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब यह देशवासियों के प्रति दुर्भावना और हिंसा में तबदील न हो। अब चाहे यह प्रतिक्रिया आम आदमी के खिलाफ हो या वर्दी पहने लोगों के खिलाफ। हमने मंगलवार को गणतंत्र दिवस पर दिल्ली की सड़कों पर हिंसा, झड़पों व अराजकता का जो मंजर देखा, उसने किसान आंदोलन की शांतिपूर्ण मुहिम को क्षति ही पहुंचाई है। निस्संदेह इसने आंदोलन के मकसद की शुचिता को दागदार ही किया है। सही मायनो में तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन ने देश में व्यापक जनसमर्थन हासिल किया था। उस हासिल पर इस घटनाक्रम से नकारात्मक असर ही पड़ा है। इससे किसान नेताओं की छवि पर आंच आई है। सवाल है कि जब बड़ी मशक्कत से ट्रैक्टर रैली के आयोजन को मंजूरी मिली थी तो यह आंदोलन अपने उद्देश्य से कैसे भटक गया। निस्संदेह यह किसानों और पुलिस के बीच हुए समझौते का उल्लंघन ही है। दो माह से किसान जिस धैर्य व संयम से अपना आंदोलन सफलतापूर्वक चला रहे थे, उस छवि को मंगलवार के घटनाक्रम से नुकसान ही पहुंचेगा।
निस्संदेह, लालकिले में हुए उपद्रव ने किसान आंदोलन और इसके नेताओं की छवि को खराब ही किया है। आंदोलन में जिन सिद्धांतों का अनुपालन किया जाता रहा है, यह उससे भटकने की ही स्थिति है। यदि प्रदर्शनकारियों ने अनुकरणीय संयम दिखाया होता और दिल्ली पुलिस से निर्धारित रूट पर ही ट्रैक्टर रैली आयोजित करने के वचन का पालन किया होता तो निश्चित ही अप्रिय घटनाक्रम को टाला जा सकता था। सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर बड़े किसान नेता नयी पीढ़ी को काबू रखने में विफल क्यों रहे। आखिर ट्रैक्टर रैली उनके हाथ से कैसे निकल गई। सवाल पुलिस और खुफिया एजेंसियों की कार्यशैली और क्षमताओं पर भी उठे हैं कि क्यों उन्हें इतने बड़े उपद्रव की जानकारी समय रहते नहीं मिली। कैसे उपद्रवकारी पुलिस का चक्रव्यूह तोड़कर लालकिले में राष्ट्रीय प्रतीकों से खिलवाड़ करने के खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने में सफल रहे, जिससे हर स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने वाली प्राचीर की पवित्रता भंग हुई। आखिर असामाजिक तत्व लालकिले पर सुरक्षा चक्र को भेद कर अपने मंसूबे हासिल करने में कैसे सफल हो गये? ऐसे तमाम सवालों को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। यह भी कि ये तत्व कौन थे, इन्हें किसने उकसाया? किसान नेताओं और सुरक्षा एजेंसियों को इनके मंसूबों की भनक क्यों नहीं लगी। ऐसे तमाम सवाल परेशान करते हैं। ऐसे हालात में किसान नेताओं को सरकार द्वारा कृषि सुधार कानूनों को निर्धारित अवधि तक स्थगित करने के प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए, जिससे तल्खी कम की जा सके। अब भी किसान लंबे समय तक कानूनों के निलंबन की मांग कर सकते हैं। अगर फिर भी सरकार अपनी बात से हटती है तो किसान फिर से आंदोलन करने के लिये स्वतंत्र हैं। जरूरत इस बात की भी है कि आंदोलन को लेकर उपजी कटुता व उत्तेजना को शांत करने का प्रयास किया जाये, जिससे अराजक तत्वों को फिर से शह न मिल सके।