इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.सजग मानवीय सभ्यता
सजगता का यह दौर मानवीय सभ्यता के लिए कितना कारगर सिद्ध होगा, इसकी छोटी से छोटी पहल हर घर से ही शुरू होगी। हमीरपुर के धमरोल पंचायत में पांचवीं का छात्र कुनाल धीमान अगर अपनी गुल्लक तोड़कर कुल जमा दस हजार रुपए दान कर देता है, तो यह बदल रहे जमाने को प्रमाणित करता है। वहां घर के संस्कार और मां-बाप की परवरिश में सद्भावना का उजाला उस सारी तू तू, मैं मैं से बड़ा है, जिसे हम अमूमन सत्ता और विपक्ष के बीच फैलते हुए देखते हैं। होम आइसोलेशन की सफलता दरअसल सामाजिक मूल्यों की फेहरिस्त भी तैयार कर रही है, जहां शिष्टाचार का आत्मबल अपनी परीक्षा देगा। कुछ दिनों के लिए आइसोलेशन तक पहुंचे परिवारों या व्यक्तियों को पूजा का जरिया मान लें, तो प्रदेश भर के करीब 35 हजार लोगों को हम सब मिलकर स्वस्थ कर सकते हैं, लेकिन एक दूसरी तस्वीर हमारी खुदगर्जी को बयां कर रही है। रानीताल में कोरोना पीडि़त मां के शव को ढोते वीर सिंह की व्यथा में हम समाज की कितनी ही अर्थियां उठा सकते हैं। दूसरी ओर वैक्सीनेशन अभियान अगर सामाजिक मारधाड़ का परिदृश्य उत्पन्न कर रहा है, तो न यह संगत और न ही लोरियां काम आएंगी।
नगरोटा सूरियां, रे, जवाली और चलवाड़ा में गुरुवार का अनुभव बताता है कि किस तरह वैक्सीन सौगात के बजाय आपसी होड़ का मुजरा बन जाती है। इन चारों केंद्रों में अपार भीड़ और सामाजिक बर्ताव के साथ-साथ वैक्सीनेशन प्रबंधन की मुठभेड़ भी हुई। यही अफरातफरी का आलम अगर बढ़ गया, तो कल ‘कोरोना दंगों’ की शक्ल भी अख्तियार कर सकता है। सामाजिक उदासीनता कब नफरत में बदल जाए, पता नहीं चलता। इसलिए वैक्सीनेशन को सामाजिक सौहार्द में बदलने की जरूरत है और यहां पूरी प्रक्रिया को प्रदर्शन के बजाय पारदर्शी बनाने की अनिवार्यता है। एक बच्चा गुल्लक तोड़कर दस हजार दान कर सकता है या कोई नर्स या डाक्टर अपने बच्चे को पड़ोसियों के हवाले करके भी अगर कोविड ड्यूटी को अधिमान देती है, तो हम सामाजिक पंक्तियों का बिखंडन न करें। हमारे अपने घरों में कोरोना तनाव की जद में आए बच्चों की मानसिकता का उपचार स्वयं करना होगा और यह सामाजिक उच्च आदर्शों की बानगी में ही संभव होगा। चंडीगढ़ में पढ़ रहा एक हिमाचली बच्चा अगर ऑनलाइन शिक्षा के दबाव में खुदकुशी कर लेता है, तो यह घटना मात्र नहीं, बल्कि इस मौत के लिए भी सामाजिक बदलाव ही जिम्मेदार है। आश्चर्य यह कि तमाम कोविड बंदिशों के बीच हमारे बीच का अभिभावक इतना खुदगर्ज कैसे हो सकता है कि मोहाली में नॉन मेडिकल विषय की कोचिंग के लिए हम उसे तन्हा छोड़ देते हैं।
क्या यह काल करियर की ऊंचाइयों में हमारे बच्चों को पढ़ाई की नुमाइश में सजा सकता है। जो अभिभावक बच्चों की करियर तफतीश करते- करते आज भी बाहरी राज्यों की खाक छान रहे हैं, वे संभल जाएं। समाज के भीतर रुतबा व तमगा ढूंढने के बजाय आपसी भाईचारा ढूंढेंगे, तो एक दूसरे को गिरने से बचा पाएंगे। बेशक अब सरकारी नजरिए में भी सामाजिक योगदान की अहमियत बढ़ी है और इसलिए मुख्यमंत्री स्वयं भी अपील कर रहे हैं, लेकिन सभी को सियासी चोला उतारकर खुद में इनसान ढूंढना होगा। सफाई कर्मियों को हर माह दो हजार रुपए की प्रोत्साहन राशि देकर हिमाचल सरकार ने इस वर्ग को सामाजिक धुरी के सामने एक आदर्श के रूप में पेश किया है। ऐसे फैसलों की सामाजिक दृष्टिकोण से भी प्रशंसा होनी चाहिए और साथ ही हमें यह भावना प्रदर्शित करनी होगी कि इस तरह के फ्रंट लाइन वर्कर वास्तव में हमारे द्वार पर आकर ही हमें बचा रहे हैं। कोरोना काल में घर-घर से कूड़ा उठाने की ड्यूटी महज एक पगार नहीं, बल्कि ऐसा सेवा भाव भी है जो हमारे द्वारा पैदा की गई गंदगी तक से नफरत नहीं करता। एक सफाई कर्मी अगर हमारी गंदगी से नफरत नहीं कर रहा, तो हम आपस में वैमनस्य की जमीन क्यों पैदा कर रहे हैं।
2.216 करोड़ खुराकों की उम्मीद
हम शुरुआत कुछ सवालों से करते हैं। आज टीकाकरण का जो संकट सामने है, उसका भी अतीत है और हमारे नौकरशाहों की अदूरदर्शिता के कारण वह संकट पैदा हुआ है। बीते साल 2020 में कोरोना वायरस का फैलाव जब सतह पर आने लगा था, तब भारत सरकार की एक उच्चस्तरीय समिति के प्रमुख ने बाकायदा प्रेस ब्रीफ में यह दावा किया था कि 16 मई, 2020 के बाद कोरोना का कोई भी मामला नहीं आएगा। यानी कोरोना समाप्त…! कोविड का मौजूदा यथार्थ देश के सामने है। इसी विशेषज्ञ ने सरकार को सलाह दी थी कि कुल 15 करोड़ कोरोना टीके ही खरीदने चाहिए, लिहाजा 14 करोड़ टीके जनवरी-मार्च के दौरान खरीदे गए। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने भी बयान दिया था-हम उसे ही टीका देंगे, जिसे जरूरत होगी। क्या ये सलाहकार-अधिकारी जवाब देंगे कि अब 216.6 करोड़ खुराकें खरीदने का बंदोबस्त क्यों किया जा रहा है? क्या समूचे देश के टीकाकरण का लक्ष्य नहीं था? देश में करीब 18 करोड़ खुराकें तो दी जा चुकी हैं। इन सलाहकार-विशेषज्ञों का 15 करोड़ टीकों का गणित क्या था? सवाल यह भी है कि कोरोना सरीखी वैश्विक महामारी के दौरान भारत सरकार की अधिकार प्राप्त विशेषज्ञ और सलाहकार समितियों का प्रमुख बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर ही क्यों नियुक्त किया गया? बार-बार गलतियां करने के बावजूद वह अति संवेदनशील पद पर आसीन क्यों है?
सवाल यह भी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि अमरीका के फाइज़र और रूस के स्पूतनिक-वी टीकों के लिए बातचीत भी चली, स्पूतनिक को खारिज कर दिया गया और फाइज़र ने यह कहकर आवेदन वापस ले लिया कि वह भारत सरकार के साथ सौदा ही नहीं करेगी और अब हार कर इन दोनों टीकों को आपात मंजूरी देनी पड़ी है। ये संवाद किनकी सलाह पर चलते रहे और अंततः नाकाम रहे? भारत में सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम जारी है। उसमें दर्जन भर गंभीर बीमारियों को कवर किया गया है। देश भर में उसके केंद्र मौजूद हैं। कोरोना टीकाकरण के लिए उन केंद्रों और बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? एक और गंभीर विरोधाभास सामने आया है कि टीकाकरण पर सलाहकार समिति का फैसला आया है कि कोवीशील्ड टीके की एक खुराक लेने के 12-16 सप्ताह के बाद दूसरी खुराक लेनी चाहिए। पहले यही मानक 6-8 सप्ताह का था। स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण कहते थे कि कोवीशील्ड टीका 8 सप्ताह के बाद लगाया जाएगा, तो उसका असर नहीं होगा। अब दावा किया जा रहा है कि खुराक की अवधि में बदलाव वैज्ञानिक आधार पर किया गया है, जबकि कोरोना विशेषज्ञ-सलाहकार समूह के ही एक सदस्य का मानना है कि खुराक की अवधि 12-16 सप्ताह करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह विरोधाभास क्यों सार्वजनिक हुआ और आम आदमी किस थ्योरी पर विश्वास करे?
जिन्होंने कोवीशील्ड की खुराकें 6-8 सप्ताह की अवधि के आधार पर ली हैं, क्या वे बेकार और बेअसर साबित होंगी? सवाल यह भी है कि दिसंबर-मार्च के दौरान सरकार ने टीकों के संदर्भ में कोई गंभीर प्रयास क्यों नहीं किए? यदि ऐसे ही प्रयास जनवरी-फरवरी में किए जाते, तो जून-जुलाई, 2021 तक एक बड़े स्तर पर टीकाकरण किया जा सकता था, लेकिन आज तो कई राज्यों में टीकाकरण बूथ बंद करने पड़े हैं। पूरी तरह सियासत भी नहीं कह सकते, क्योंकि टीका उपलब्ध ही नहीं है। क्या इसकी कोई पूर्व योजना और राष्ट्रीय नीति की सलाह 15 करोड़ टीके वाले विशेषज्ञों ने नहीं दी थी? यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय में भी उठा था। अब टीकाकरण का भविष्य उन उम्मीदों और आश्वासनों पर टिका है, जो 216.6 करोड़ खुराकों से जुड़े हैं। फाइज़र, मॉडर्ना, जॉनसन, जिनोवा आदि के टीके हमारी झोली में नहीं हैं। कई औपचारिकताएं शेष हैं। कई पेचीदगियां हैं। विदेशी टीके भारत में कितने महंगे पड़ेंगे, इस आयाम पर भी सोचना है। फिलहाल लक्ष्य जुलाई तक 20-25 करोड़ भारतीयों के टीकाकरण का है। हमारी समझ कहती है कि टीके उपलब्ध नहीं थे, लिहाजा कोवीशील्ड की अवधि बढ़ाई गई। कोवैक्सीन के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। भारत सरकार ने उन टीकों को हरी झंडी दे दी है, जिन्हें अमरीका के एफडीए और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंजूरी दे रखी है। इन टीकों के मानवीय परीक्षण भारत में नहीं किए गए हैं। क्या ये परीक्षण कराए जाएंगे और क्या विदेशी कंपनियां उसके लिए सहमत होंगी? ये सवाल भविष्य के हवाले छोड़ देते हैं।
3. अनाथों की सुध
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने फैसला किया है कि वह कोविड से अनाथ हुए बच्चों की शिक्षा और जीवन-यापन का खर्च उठाएगी। कई बच्चों ने कोरोना संक्रमण से अपने मां-बाप, दोनों को खो दिया है। जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उनसे यही आशंका होती है कि ऐसे बच्चों की संख्या काफी होगी। किसी भी संवेदनशील सरकार और समाज की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे बच्चों को आर्थिक संकट और असुरक्षा से बचाए। अगर दिल्ली सरकार ऐसा करती है, तो वह अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाएगी। इसके अलावा, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह भी घोषणा की है कि जिन बुजुर्गों ने अपने बच्चों को खोया है, जो उनके आर्थिक संबल थे, उन्हें भी सरकार की ओर से सहायता दी जाएगी। अच्छा होगा, अगर अन्य राज्य सरकारें भी ऐसी पहल करें। अभी तो कोरोना की लहर चल ही रही है और इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत इस लहर को नियंत्रित करने और इससे होने वाले नुकसान को यथासंभव सीमित करने की है। लेकिन जब यह तूफान गुजर जाएगा, तब सबसे बड़ी जरूरत तबाही का जायजा लेने और उससे प्रभावित लोगों को अपना जीवन फिर से पटरी पर लाने में मदद करने की होगी। देश की अर्थव्यवस्था कोरोना की मार के पहले भी कुछ धीमी रफ्तार से चल रही थी और अब महामारी ने तो इसकी गति बहुत ही कम कर दी है। भविष्य में सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद भी शायद अर्थव्यवस्था के ठीक-ठाक हालत में आने में काफी वक्त लग जाए। ऐसे में, जो भी लोग अपना आर्थिक सहारा खो चुके हैं, उनके लिए बहुत कठिन हालात होंगे। इनमें बेसहारा बुजुर्ग और अनाथ बच्चे शामिल हैं। इसलिए उन पर विशेष ध्यान देने की और उन्हें सहायता देने की जरूरत होगी। दिल्ली राज्य में यह काम करना अपेक्षाकृत आसान होगा। इसकी एक वजह तो यह है कि दिल्ली एक छोटा, मुख्यत: शहरी राज्य है और यहां कोविड के आंकड़े भी काफी सही-सही उपलब्ध हैं। लेकिन कई सारे राज्यों, खासकर बड़े राज्यों में कोविड के मरीजों और उससे मरने वालों के बारे में आंकड़ों व जानकारी में इतनी हेराफेरी है कि उनके सहारे मदद की कोई योजना बनाना बेकार होगा। कोविड-19 की इस लहर ने ग्रामीण इलाकों में भी मार की है, जहां न जांच की सुविधा है, न इलाज की और जहां कोविड से मरे लोग सरकारी गिनती में आएंगे ही नहीं। दिल्ली तुलनात्मक रूप से एक सुविधा-संपन्न राज्य भी है, जहां सरकारी स्कूल व अन्य सुविधाएं बेहतर हैं और अगर सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कौशल दिखाए, तो ऐसी योजनाएं सफल भी हो सकती हैं। आखिरकार तमाम सरकारी योजनाओं की असली कसौटी तो यही होती है कि घोषणाओं और उनके जमीनी रूप में कितना कम फर्क है। देश के अन्य राज्य भी अपने स्तर पर ऐसी लोक-कल्याणकारी योजनाओं पर काम कर सकते हैं। ऐसी योजनाएं सरकारों को उनके तंत्र की शक्तियों और कमजोरियों को पहचानने व बेहतर तंत्र बनाने में मदद कर सकती हैं। कोविड-19 ने हमें यह बता दिया है कि आखिरकार यही काम आता है कि किसी राज्य में सार्वजनिक सेवाएं कितनी चुस्त हैं। बहुत अमीर राज्य में भी अगर सरकारी व्यवस्थाएं चुस्त-दुरुस्त नहीं हैं, तो वह किसी संकट का सामना नहीं कर सकता। कोविड संकट ने कभी न भुलाने वाला यह सबक हमें सिखाया है।
4.टीका रणनीति स्पष्ट हो
केंद्र के जरिये ही हो वैक्सीन की खरीद
ऐसे वक्त पर जब देश कोरोना संकट की दूसरी भयावह लहर से जूझ रहा है, संकट में उम्मीद की किरण बने टीके को लेकर उठते विवाद परेशान करने वाले हैं। दिल्ली समेत कई राज्यों में टीकाकरण केंद्र बंद करने की बातें, पर्याप्त वैक्सीन न मिलने पर युवाओं के लिये समय से टीकाकरण शुरू न होने की खबरें बता रही हैं कि शायद नया चरण बिना तैयारी के ही शुरू कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि अपनी वैक्सीन खोज लेने और कोविशील्ड का भारत में समय रहते उत्पादन शुरू करने के बावजूद हम इस अभियान में अदूरदर्शिता के चलते पिछड़ गये हैं। कोविशील्ड की दूसरी डोज के समय में दूसरी बार बदलाव बता रहा है कि हमारे पास पर्याप्त वैक्सीन का अभाव है। इससे न केवल देश में टीकाकरण अभियान में बाधा पहुंचेगी बल्कि हम विश्व बाजार में पिछड़ जायेंगे। निस्संदेह देश के कई राज्य टीके की कमी से जूझ रहे हैं। दरअसल, 18 से 44 आयु वर्ग की बड़ी तादाद को हम टीका उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। कहीं न कहीं ये कमी हमारी दूसरी लहर के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर करती है। यह भी हकीकत है कि दूसरी लहर में संक्रमितों की आधी आबादी देश की कर्मशील व युवा आबादी ही है, जिसके लिये टीकाकरण अभियान तेज करना वक्त की जरूरत है। ऐसे में टीके की कमी को पूरा करने के लिये जरूरी है कि स्वदेशी कंपनियों के साथ ही विदेशों से दूसरे टीकों का आयात किया जाए ताकि टीकाकरण अभियान में गति आये। इसके चलते कई राज्य अपने यहां टीका लगाने के लिये ग्लोबल टेंडर दे रहे हैं। किसी राष्ट्र पर आयी ऐसी आपदा के मुकाबले के लिए किसी देश में वैक्सीन अलग-अलग राज्यों द्वारा मंगाये जाने के उदाहरण सामने नहीं आते। जाहिर -सी बात है कि जब राज्य किसी कंपनी से अलग-अलग बातचीत करेंगे तो उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यदि एक साथ वैक्सीन खरीदी जायेगी तो बड़ी मात्रा में खरीद से लागत को प्रभावित किया जा सकता है।
कुछ राज्य कह भी रहे हैं कि टीका खरीद केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। वहीं केंद्र की दलील है कि राज्यों ने वैक्सीन खरीद में स्वायत्तता की बात कही थी। ऐसे वक्त में जब देश बड़े संकट से गुजर रहा है, देशवासियों की सेहत की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार ने हाल में वैक्सीन को लेकर कुछ कदम उठाये हैं और नयी गाइड लाइन भी जारी की है। यदि केंद्र टीका आयात करने का फैसला लेता है तो इससे देश को आर्थिक रूप से भी लाभ होगा। जिसके चलते फिर फिलहाल वैक्सीन की कमी से जो टीकाकरण अभियान प्रभावित हो रहा है, उसमें गति आयेगी। युवा वर्ग हमारा बड़ा वर्ग तो है ही, साथ ही यह देश की कर्मशील आबादी भी है। इसकी सामाजिक सक्रियता भी ज्यादा है जो संक्रमण की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील भी है। इसे सुरक्षा कवच देना पूरे देश को सुरक्षा प्रदान करना है। तभी हम समय रहते टीकाकरण के लक्ष्यों को हासिल कर पायेंगे। केंद्र को भी शीर्ष अदालत को किये गये उस वायदे को पूरा करना चाहिए, जिसमें राज्यों को टीका देने की योजना में विषमता को दूर करने की बात कही गई थी। दरअसल, कोरोना संकट की दूसरी लहर के बाद लोगों को अहसास हो गया है कि कोरोना संक्रमण से बचाव के लिये टीका लगाना जरूरी है। इसलिये पहले चरण में जो लोग टीका लगाने में ना-नुकुर कर रहे थे, वे भी अब टीका लगाने को आगे आ रहे हैं। टीकाकरण अभियान की सफलता के लिये जागरूकता जरूरी है। जब तक हम देश की सत्तर-अस्सी फीसदी आबादी को टीका नहीं लगा लेते तब तक नयी-नयी लहरों का सामना करना हमारी नियति होगी। इस मायने में केंद्र सरकार को व्यावहारिक, उदार व संवेदनशील टीका नीति के साथ आगे आना चाहिए। इसमें टीके का उत्पादन बढ़ाने के लिये भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित करने और राज्य में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की जरूरत है।