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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.रिहायशी जरूरतों का निर्यात

सरकारी संस्थाओं के साथ हिमाचली उपभोक्ता का रिश्ता आज भी राज्य की बुनियाद की तरह है, इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र की इच्छाशक्ति को दाद देती खरीददारी संभव है। उपभोक्ता के गणित में राज्य का सामर्थ्य हमेशा दिखाई दिया और यही सही मायने में हिमाचल निर्माण की प्रक्रिया में साबित भी हुआ। सेब और सेब उत्पादों ने राज्य को यह शक्ति दी कि पूरे देश में हिमाचल अपनी छवि का बेहतर इस्तेमाल कर पाया। इसी तरह हिमाचल के अन्य उत्पाद बिके, तो शाल की चर्चा ने प्रदेश को नया मुकाम दिया। बेमौसमी सब्जियों, मटर, टमाटर, शिमला मिर्च, अदरक, शहद और मशरूम के अलावा ट्राउट मछली ने अपने लिए राष्ट्रीय उपभोक्ता बाजार खड़ा किया, तो यह कामयाब चेहरा सरकारों की इच्छाशक्ति से जुड़ता गया। यह दीगर है कि अपनी मांग के तलवे चाटता हिमाचल आज भी दुग्ध उत्पादों की श्रेणी में इतना फिसड्डी है कि देश के कई राज्यों से इनका आयात करना पड़ रहा है।

 हिमाचली उपभोक्ता की मांग ने राष्ट्रीय उत्पादन के सूंचकांक में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से, तुलनात्मक मौजूदगी दर्ज की है। इतना ही नहीं नए शहर की तलाश में अपनी संपन्नता दर्ज कराते हुए, हिमाचली अब पड़ोसी राज्यों की आवासीय सुविधाओं का श्रेष्ठ खरीददार बन चुका है। चंडीगढ़ के आसपास पंजाब व हरियाणा में विकसित हो रही रियल एस्टेट का प्रमुख खरीददार हिमाचली बना, लेकिन इस क्षमता का दोहन राज्य में नहीं हुआ। हिमुडा ने एक दशक पूर्व सर्वे करके मांग का पता तो लगाया, लेकिन तब सामने आए करीब सत्तर हजार खरीददारों की मांग की भरपाई आज तक नहीं हुई। इस दौरान रोपड़, चंडीगढ़ या पंचकूला के आंतरिक गांव तक विकसित होकर हिमाचल की आवासीय व्यवस्था के केंद्र बन गए, लेकिन राज्य इस क्षमता का तिरस्कार करता रहा। हिमुडा के पास आज अगर दस सालों बाद भी आवासीय मांग का समाधान नहीं है, तो यह इसलिए कि राजनीतिक इच्छाशक्ति गौण रही, वरना चंडीगढ़ के साथ लगते हिमाचली क्षेत्रों में आज एक आधुनिक शहर बस गया होता। हैरानी यह कि बीबीएन की औद्योगिक जरूरतों ने जो मानव संसाधन पैदा किया, वह भी पड़ोस के शहरों की आर्थिक क्षमता बढ़ाता रहा।

कायदे से सोलन व ऊना की परिधि में हिमाचल को दो सबसे बड़े शहर विकसित करते हुए, इन्हें आवासीय, शिक्षा व चिकित्सा के केंद्र बनाना चाहिए था। आवासीय व्यवस्था की दो अहम इकाइयां जाठिया  देवी तथा धर्मशाला के करीब प्रस्तावित हैं, लेकिन परियोजनाओं के घूंघट अभी नहीं हटे हैं। ऐसा क्यों है कि हिमुडा अपने ही ढांचे के भीतर प्रदेश की आवासीय जरूरतों को पढ़ नहीं पा रहा या जो संपत्तियां विकसित हुईं, उनकी उपयोगिता पर उपभोक्ता को संदेह रहा। बहरहाल कोविड काल में हिमुडा अपने 49 यूनिट बेचने में सफल हुआ। चंबा, नालागढ़, हमीरपुर, देहरा, रामपुर, सोलन, कुल्लू, ऊना व परवाणू में 17 करोड़ की संपत्तियां बेची गईं, जबकि कुछ अन्य पर कार्रवाई चल रही है। हिमुडा की दो प्रतिष्ठित परियोजनाओं में से एक जाठिया देवी और दूसरी धर्मशाला में अपने परिणामों की मिट्टी से दूर हैं, तो इसलिए कि हिमाचल में राजनीति हमेशा विकास की शौहर बनकर चलना चाहती है। यहां सत्ता के फैसले दरअसल ऐसे नकली मूंछ उगाते हैं कि पांच साल का लंगर बाद में मुंह छुपाते घूमता है। हिमाचल की उपभोक्ता मांगों में निरंतर इजाफे का फायदा अगर प्रदेश उठाए, तो आर्थिकी का एक आंतरिक-क्रम विकसित हो सकता है। हम फल राज्य हैं, लेकिन प्रदेश के उपभोक्ता के लिए नहीं। हम चाय उगाते हैं,लेकिन प्रदेश के उपभोक्ता की जरूरतें पूरी नहीं कर पाते। इसी तरह दुग्ध उत्पादन से मिनरल वाटर तक सभी आयातित हैं। आश्चर्य तो यह कि प्रदेश ने अपनी रिहायशी जरूरतों का भी निर्यात करके पड़ोसी राज्यों की आर्थिकी से जोड़ दिया।

2.त्रासदी की पांच रातें

लगातार पांच काली स्याह और त्रासद रातें और 83 मौतें…! उन्हें मौत के बजाय हत्या करार दें, तो कुछ गलत या अनैतिक नहीं होगा। मौतों का वक्त भी एक जैसा-रात्रि 2 बजे से भोर में 6 बजे के बीच…! यह कैसे संभव हो सकता है? क्या कोई साजि़श थी या उसी वक्त में लाशें बाहर की जाती थीं? सभी मौतें ऑक्सीजन की किल्लत या प्राण-वायु के बाधित होने से हुईं। यह अस्पताल ने नहीं, बल्कि अनौपचारिक तौर पर खुलासा किया गया है। यह भी ख़बर सामने आई है कि गोवा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के 13 वार्डों में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित हुई। सबसे ज्यादा 90 मिनट तक, वार्ड 143 में, मरीजों को ऑक्सीजन नसीब नहीं हुई। क्या इतनी देर तक किसी ने प्राण-वायु को अवरुद्ध किया था? ऐसे में मरीजों की उखड़ती सांसों के बाद मौत न होती, तो क्या होता? बहरहाल सरकारी अस्पताल के अधिकारी, मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं कि मौतें ऑक्सीजन की किल्लत की वजह से हुईं। बीती 11 मई को 26, 12 मई को 21, 13 मई को 15, 14 मई को 13 और 15 मई को 8 मौतें सिलसिलेवार हुईं। यह गोवा के सरकारी अस्पताल के कोरोना वार्ड का वीभत्स यथार्थ है। 21वीं सदी का भारत, विश्व की 5-6वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का गुरूर, विश्व-गुरू होने का अहंकार और अंतरिक्ष तक की सफल उड़ानों के इतिहास रचने वाले देश में स्वास्थ्य सेवाओं और ढांचे का सच इतना कुरूप है! बेशक कोरोना वायरस की दूसरी लहर बेहद प्रहारक और जानलेवा रही है, लिहाजा संसाधनों की कमी होना स्वाभाविक है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली के बाद उप्र, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, मप्र, तिरुपति और अब गोवा में त्रासदियों के ये हालात तमाम उपलब्धियों और दावों को खंडित करते हैं। मन चीत्कार करने लगता है! व्यवस्थाएं खंडहर और जंगल लगती हैं। सरकारें नकारा प्रतीत होती हैं।

 संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 बेमानी लगते हैं। इन त्रासद रातों में किसी का पिता चल बसा होगा, किसी के भाई-बेटे की असमय मौत हुई होगी, किसी की मां, पत्नी, बेटी, भाभी और बहिन ऐसे कुशासन का शिकार हुई होंगी! कमोबेश सरकार और प्रशासन स्वीकार तो करें कि मौतें कोरोना महामारी के कारण हुईं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक उच्चस्तरीय बैठक में निर्देश दिए हैं कि कोरोना की मौतों को पारदर्शी बनाया जाए। मौतों का सच और आंकड़े छिपाए न जाएं, लेकिन 83 मौतों के बावजूद गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे के राजनीतिक विरोधाभास सामने आए हैं। दोनों में अनबोला ठना है और मुंह फुलाए बैठे हैं। एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं। एक पुराना भाजपाई है, तो दूसरा कांग्रेस से आयातित है। लोग मर गए, तो क्या हुआ? आम आदमी मरने के लिए ही तो पैदा हुआ है। मौतों का यथार्थ क्यों स्वीकार करें? अब मुख्यमंत्री ने ट्वीट किया है कि निजी अस्पतालों का अधिग्रहण किया जाएगा। सवाल है कि सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था का क्या होगा? चूंकि 18 लाख की आबादी वाले गोवा में ये त्रासदियां सामने आई हैं और उस हसीन सूबे में भाजपा सरकार है, लिहाजा मौतों की जांच भी नहीं होगी। यह तय समझना चाहिए।

 संभव है कि वहां का उच्च न्यायालय कोई संज्ञान ले और सरकार को जांच के लिए विवश करे, क्योंकि ये सामान्य मौतें नहीं हैं। पांच दिन का आंकड़ा बेहद भयावह है। कोरोना संक्रमण से या किसी अन्य रोग के कारण मौतें हुई हैं, तो उनका बुलेटिन देश को कौन देगा? जो बुलेटिन जारी किया है, उसमें अर्द्धसत्य निहित है। गोवा बुनियादी तौर पर पर्यटन-राज्य है। कुछ दिन पहले तक वहां फिल्मों और धारावाहिकों की शूटिंग चल रही थी। समंदर के बीच पर देशी-विदेशी सैलानियों की भीड़ थी। जब 30 अप्रैल तक संक्रमण दर 50 फीसदी को भी लांघ गई और कोविड का विस्तार होने लगा और लगातार पांच रातों में त्रासदियां घटीं, तो गोवा सरकार की आंखें फटी की फटी रह गईं। संक्रमण दर अब भी 35 फीसदी से ज्यादा है, जो खतरनाक है। गोवा में कोरोना से मौतों का कुल आंकड़ा 2000 को पार कर चुका है और डॉक्टर मान रहे हैं कि कमोबेश गोवा में कोरोना का ‘पीक’ अभी नहीं आया है। इन त्रासदियों के बाद कोरोना के 350 मरीजों को सुपर स्पेशलिटी ब्लॉक में शिफ्ट किया गया है, क्योंकि वहां ऑक्सीजन का स्वतंत्र प्लांट है, लेकिन जो मौतें हुई हैं, उनकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा?

3.ब्लैक फंगस की चिंता

कोरोना से उबरे कई लोगों को एक बहुत गंभीर बीमारी ब्लैक फंगस होने की खबरें देश के कई राज्यों से आ रही हैं। यह फंगस या फफूंद प्रकृति में काफी पाया जाता है, लेकिन यह बीमारी बहुत आम नहीं है, क्योंकि इसकी प्रवृत्ति ज्यादा संक्रामक नहीं है। पर अगर हो जाए, तो इसका इलाज बहुत आसान नहीं होता और बिना इलाज के यह संक्रमण घातक हो सकता है। भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं पहले ही कोरोना के बोझ तले चरमराई हुई हैं, ऐसे में यह एक अतिरिक्त बोझ है। हम कह सकते हैं कि देश की चरमराई हुई स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से यह नई मुसीबत आई है। यह संक्रमण आम तौर पर उन लोगों को होता है, जिनका प्रतिरोधक तंत्र किसी वजह से कमजोर हो। डायबिटीज के मरीज भी इसके शिकार हो सकते हैं, क्योंकि उनका शरीर भी नए संक्रमणों का मुकाबला करने में अपेक्षाकृत कमजोर साबित होता है। हालांकि, अभी इस संक्रमण के फैलने की वजह यह दिखाई देती है कि कोरोना के इलाज में शरीर के रोग प्रतिरोधक तंत्र को कमजोर करने वाली कॉर्टिकोस्टेराइड या कुछ अन्य दवाएं दी जा रही हैं। कोरोना के इलाज में कुछ हद तक ये ही दवाएं कारगर साबित हुई हैं। कोरोना की अपेक्षाकृत गंभीर स्थिति में वायरस के खिलाफ रोग प्रतिरोधक तंत्र की प्रतिक्रिया ज्यादा उग्र होती है, जिससे वायरस के साथ-साथ शरीर की अपनी कोशिकाएं भी नष्ट होने लगती हैं। रोग प्रतिरोधक तंत्र को दबाने वाली दवाएं इस प्रतिक्रिया की उग्रता कम करके नुकसान व पीड़ा कम करती हैं।
जाहिर है, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम करने के अपने खतरे हैं और उनके गंभीर दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसीलिए इन्हें किसी डॉक्टर की लगातार निगरानी में सावधानी के साथ लिया जाना चाहिए और जैसे ही उनकी जरूरत खत्म हो, उन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए। कोरोना में तो अपेक्षाकृत गंभीर मरीजों को ही ये दवाएं दी जानी चाहिए, नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मरीजों को इनकी जरूरत नहीं होती। हमारे देश में हुआ यह है कि कोरोना विस्फोट के चलते बड़ी तादाद में मरीजों को डॉक्टरों की निगरानी नहीं मिल पाई। ऐसे में, लोग एक-दूसरे की देखा-देखी या सोशल मीडिया पर प्रचारित नुस्खों को देखकर दवाएं लेने लगे। सोशल मीडिया पर यह प्रचारित हो गया कि कॉर्टिकोस्टेराइड डेक्सामेथासॉन कोरोना की सस्ती व कारगर दवा है, और लोग अपने मन से इसे लेने लगे। डॉक्टर भी काम के बोझ के नीचे ऐसे दबे हुए हैं कि एक-एक मरीज पर व्यक्तिगत ध्यान देना या उनकी निगरानी करना उनके लिए नामुमकिन है। वे भी कई बार यह ध्यान नहीं दे पाए कि किस मरीज को इन दवाओं की कितनी जरूरत है और किसे बिल्कुल नहीं। ऐसे में, ब्लैक फंगस जैसे संक्रमण के फैलने के लिए उर्वर जमीन पैदा हो गई। एक और खतरे की ओर कुछ डॉक्टरों ने ध्यान दिलाया है। कुछ लोग हमारे यहां यह प्रचारित कर रहे हैं कि शरीर पर गाय का गोबर लगाने से कोरोना से निजात मिलती है। ध्यान देने की बात यह है कि गोशालाओं, खासकर गोबर में ऐसे फंगस के फलने-फूलने के लिए उपयुक्त परिस्थितियां होती हैं। कई लोगों को ब्लैक फंगस इस वजह से भी हुआ हो, ऐसी आशंका है। बेहतर यही है कि लोग जहां तक हो सके, डॉक्टरों की सलाह से ही दवाएं लें और अगर ब्लैक फंगस का शक हो, तो  किसी भी सूरत में तुरंत इलाज कराएं।

  1. अनाथों के नाथ

पीड़ितों के लिए सामाजिक सुरक्षा की दरकार

देश में कोरोना संकट का कहर भयावह है। मानवीय स्तर पर भी और आर्थिक स्तर पर भी। कहीं बच्चे अनाथ हो गये हैं तो कहीं परिवार का कमाऊ व्यक्ति असमय काल-कवलित हो गया है। एक बड़ा मानवीय संकट है, जिसको लेकर सत्ताधीशों से संवेदनशील व्यवहार की दरकार है। विडंबना यह है कि राज्य सरकारों द्वारा कोरोना के वास्तविक आंकड़ों से खिलवाड़ किया जा रहा है। सही आंकड़ों से अकर्मण्यता की पोल खुलती है। देशी-विदेशी एजेंसियां कह रही हैं कि मरने वालों और दर्ज आंकड़ों में फर्क है। राज्यों के विभिन्न दूर-दराज के इलाकों से उपचार के लिये आने वाले मरीजों को महानगरों के मृतकों के आंकड़ों में दर्ज नहीं किया जाता। हाल ये है कि प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा है कि राज्य सच्चाई के साथ आंकड़े सामने रखें। बहरहाल, इस निर्मम समय में दो मुख्यमंत्रियों के उम्मीद जगाने वाले बयान सामने आये। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि कोविड महामारी में माता-पिता की मौत के बाद अनाथ हो गये बच्चों को हर माह पांच हजार रुपये की पेंशन दी जायेगी। सरकार ऐसे बच्चों की मुफ्त शिक्षा व मुफ्त राशन की व्यवस्था भी करेगी। वहीं केजरीवाल सरकार ने भी अनाथ हुए बच्चों की शिक्षा व जीवन-यापन का खर्चा उठाने की घोषणा की है। निस्संदेह ऐसे बच्चों को सामने लाना समाज व सरकारों की जिम्मेदारी भी है।

उम्मीद है कि सरकारें ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाएंगी। साथ ही सही आंकड़े सामने आयें। हालांकि, अभी कोरोना की दूसरी लहर का कहर जारी है और सही संख्या का पता महामारी के खात्मे के बाद ही चल पायेगा। फिलहाल तो सरकारों का ध्यान लोगों की जान बचाने पर होना चाहिए। सिर्फ बच्चे ही नहीं, ऐसे परिवारों की संख्या भी कम नहीं होगी, जिनके परिवार का कमाऊ सदस्य चला गया। ऐसी स्थिति बुजुर्गों के बेटे-बेटियों की भी हो सकती है। उन्हें भी सहायता कार्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। कोरोना संकट से तहस-नहस हुई अर्थव्यवस्था ने लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये, उनके बारे में भी सोचा जाना चाहिए। उन्हें जीवन-यापन के लिये अवसर कैसे दिया जा सकता है। केंद्र सरकार को भी इसमें सहयोग करना चाहिए क्योंकि राज्यों की अर्थव्यवस्था पहले ही कोविड संकट में चरमरा गई है। इसके लिये जहां सत्ताधीशों में इच्छाशक्ति की जरूरत है, वहीं प्रशासन के स्तर पर भी कोशिश हो कि सहायता की बंदरबांट न हो। पात्र लोगों को ही इसका लाभ मिले। ये घोषणाएं सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने और सस्ती लोकप्रियता पाने का हथकंडा बनकर न रह जाएं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी कहर बरपा रही है तो वहां भी मुसीबत के मारों की सुध ली जाये। कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता उनके पारदर्शी क्रियान्वयन में ही है। बेहतर होगा कि केंद्रीय स्तर पर ऐसी योजनाएं बनें और राज्यों के साथ बेहतर तालमेल के साथ उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाये। हालांकि, इस संकट का सबसे बड़ा सबक यही है कि हमारा तंत्र हर मोर्चे पर विफल रहा है।

 

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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.रिहायशी जरूरतों का निर्यात

सरकारी संस्थाओं के साथ हिमाचली उपभोक्ता का रिश्ता आज भी राज्य की बुनियाद की तरह है, इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र की इच्छाशक्ति को दाद देती खरीददारी संभव है। उपभोक्ता के गणित में राज्य का सामर्थ्य हमेशा दिखाई दिया और यही सही मायने में हिमाचल निर्माण की प्रक्रिया में साबित भी हुआ। सेब और सेब उत्पादों ने राज्य को यह शक्ति दी कि पूरे देश में हिमाचल अपनी छवि का बेहतर इस्तेमाल कर पाया। इसी तरह हिमाचल के अन्य उत्पाद बिके, तो शाल की चर्चा ने प्रदेश को नया मुकाम दिया। बेमौसमी सब्जियों, मटर, टमाटर, शिमला मिर्च, अदरक, शहद और मशरूम के अलावा ट्राउट मछली ने अपने लिए राष्ट्रीय उपभोक्ता बाजार खड़ा किया, तो यह कामयाब चेहरा सरकारों की इच्छाशक्ति से जुड़ता गया। यह दीगर है कि अपनी मांग के तलवे चाटता हिमाचल आज भी दुग्ध उत्पादों की श्रेणी में इतना फिसड्डी है कि देश के कई राज्यों से इनका आयात करना पड़ रहा है।

 हिमाचली उपभोक्ता की मांग ने राष्ट्रीय उत्पादन के सूंचकांक में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से, तुलनात्मक मौजूदगी दर्ज की है। इतना ही नहीं नए शहर की तलाश में अपनी संपन्नता दर्ज कराते हुए, हिमाचली अब पड़ोसी राज्यों की आवासीय सुविधाओं का श्रेष्ठ खरीददार बन चुका है। चंडीगढ़ के आसपास पंजाब व हरियाणा में विकसित हो रही रियल एस्टेट का प्रमुख खरीददार हिमाचली बना, लेकिन इस क्षमता का दोहन राज्य में नहीं हुआ। हिमुडा ने एक दशक पूर्व सर्वे करके मांग का पता तो लगाया, लेकिन तब सामने आए करीब सत्तर हजार खरीददारों की मांग की भरपाई आज तक नहीं हुई। इस दौरान रोपड़, चंडीगढ़ या पंचकूला के आंतरिक गांव तक विकसित होकर हिमाचल की आवासीय व्यवस्था के केंद्र बन गए, लेकिन राज्य इस क्षमता का तिरस्कार करता रहा। हिमुडा के पास आज अगर दस सालों बाद भी आवासीय मांग का समाधान नहीं है, तो यह इसलिए कि राजनीतिक इच्छाशक्ति गौण रही, वरना चंडीगढ़ के साथ लगते हिमाचली क्षेत्रों में आज एक आधुनिक शहर बस गया होता। हैरानी यह कि बीबीएन की औद्योगिक जरूरतों ने जो मानव संसाधन पैदा किया, वह भी पड़ोस के शहरों की आर्थिक क्षमता बढ़ाता रहा।

कायदे से सोलन व ऊना की परिधि में हिमाचल को दो सबसे बड़े शहर विकसित करते हुए, इन्हें आवासीय, शिक्षा व चिकित्सा के केंद्र बनाना चाहिए था। आवासीय व्यवस्था की दो अहम इकाइयां जाठिया  देवी तथा धर्मशाला के करीब प्रस्तावित हैं, लेकिन परियोजनाओं के घूंघट अभी नहीं हटे हैं। ऐसा क्यों है कि हिमुडा अपने ही ढांचे के भीतर प्रदेश की आवासीय जरूरतों को पढ़ नहीं पा रहा या जो संपत्तियां विकसित हुईं, उनकी उपयोगिता पर उपभोक्ता को संदेह रहा। बहरहाल कोविड काल में हिमुडा अपने 49 यूनिट बेचने में सफल हुआ। चंबा, नालागढ़, हमीरपुर, देहरा, रामपुर, सोलन, कुल्लू, ऊना व परवाणू में 17 करोड़ की संपत्तियां बेची गईं, जबकि कुछ अन्य पर कार्रवाई चल रही है। हिमुडा की दो प्रतिष्ठित परियोजनाओं में से एक जाठिया देवी और दूसरी धर्मशाला में अपने परिणामों की मिट्टी से दूर हैं, तो इसलिए कि हिमाचल में राजनीति हमेशा विकास की शौहर बनकर चलना चाहती है। यहां सत्ता के फैसले दरअसल ऐसे नकली मूंछ उगाते हैं कि पांच साल का लंगर बाद में मुंह छुपाते घूमता है। हिमाचल की उपभोक्ता मांगों में निरंतर इजाफे का फायदा अगर प्रदेश उठाए, तो आर्थिकी का एक आंतरिक-क्रम विकसित हो सकता है। हम फल राज्य हैं, लेकिन प्रदेश के उपभोक्ता के लिए नहीं। हम चाय उगाते हैं,लेकिन प्रदेश के उपभोक्ता की जरूरतें पूरी नहीं कर पाते। इसी तरह दुग्ध उत्पादन से मिनरल वाटर तक सभी आयातित हैं। आश्चर्य तो यह कि प्रदेश ने अपनी रिहायशी जरूरतों का भी निर्यात करके पड़ोसी राज्यों की आर्थिकी से जोड़ दिया।

2.त्रासदी की पांच रातें

लगातार पांच काली स्याह और त्रासद रातें और 83 मौतें…! उन्हें मौत के बजाय हत्या करार दें, तो कुछ गलत या अनैतिक नहीं होगा। मौतों का वक्त भी एक जैसा-रात्रि 2 बजे से भोर में 6 बजे के बीच…! यह कैसे संभव हो सकता है? क्या कोई साजि़श थी या उसी वक्त में लाशें बाहर की जाती थीं? सभी मौतें ऑक्सीजन की किल्लत या प्राण-वायु के बाधित होने से हुईं। यह अस्पताल ने नहीं, बल्कि अनौपचारिक तौर पर खुलासा किया गया है। यह भी ख़बर सामने आई है कि गोवा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के 13 वार्डों में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित हुई। सबसे ज्यादा 90 मिनट तक, वार्ड 143 में, मरीजों को ऑक्सीजन नसीब नहीं हुई। क्या इतनी देर तक किसी ने प्राण-वायु को अवरुद्ध किया था? ऐसे में मरीजों की उखड़ती सांसों के बाद मौत न होती, तो क्या होता? बहरहाल सरकारी अस्पताल के अधिकारी, मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं कि मौतें ऑक्सीजन की किल्लत की वजह से हुईं। बीती 11 मई को 26, 12 मई को 21, 13 मई को 15, 14 मई को 13 और 15 मई को 8 मौतें सिलसिलेवार हुईं। यह गोवा के सरकारी अस्पताल के कोरोना वार्ड का वीभत्स यथार्थ है। 21वीं सदी का भारत, विश्व की 5-6वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का गुरूर, विश्व-गुरू होने का अहंकार और अंतरिक्ष तक की सफल उड़ानों के इतिहास रचने वाले देश में स्वास्थ्य सेवाओं और ढांचे का सच इतना कुरूप है! बेशक कोरोना वायरस की दूसरी लहर बेहद प्रहारक और जानलेवा रही है, लिहाजा संसाधनों की कमी होना स्वाभाविक है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली के बाद उप्र, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, मप्र, तिरुपति और अब गोवा में त्रासदियों के ये हालात तमाम उपलब्धियों और दावों को खंडित करते हैं। मन चीत्कार करने लगता है! व्यवस्थाएं खंडहर और जंगल लगती हैं। सरकारें नकारा प्रतीत होती हैं।

 संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 बेमानी लगते हैं। इन त्रासद रातों में किसी का पिता चल बसा होगा, किसी के भाई-बेटे की असमय मौत हुई होगी, किसी की मां, पत्नी, बेटी, भाभी और बहिन ऐसे कुशासन का शिकार हुई होंगी! कमोबेश सरकार और प्रशासन स्वीकार तो करें कि मौतें कोरोना महामारी के कारण हुईं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक उच्चस्तरीय बैठक में निर्देश दिए हैं कि कोरोना की मौतों को पारदर्शी बनाया जाए। मौतों का सच और आंकड़े छिपाए न जाएं, लेकिन 83 मौतों के बावजूद गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे के राजनीतिक विरोधाभास सामने आए हैं। दोनों में अनबोला ठना है और मुंह फुलाए बैठे हैं। एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं। एक पुराना भाजपाई है, तो दूसरा कांग्रेस से आयातित है। लोग मर गए, तो क्या हुआ? आम आदमी मरने के लिए ही तो पैदा हुआ है। मौतों का यथार्थ क्यों स्वीकार करें? अब मुख्यमंत्री ने ट्वीट किया है कि निजी अस्पतालों का अधिग्रहण किया जाएगा। सवाल है कि सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था का क्या होगा? चूंकि 18 लाख की आबादी वाले गोवा में ये त्रासदियां सामने आई हैं और उस हसीन सूबे में भाजपा सरकार है, लिहाजा मौतों की जांच भी नहीं होगी। यह तय समझना चाहिए।

 संभव है कि वहां का उच्च न्यायालय कोई संज्ञान ले और सरकार को जांच के लिए विवश करे, क्योंकि ये सामान्य मौतें नहीं हैं। पांच दिन का आंकड़ा बेहद भयावह है। कोरोना संक्रमण से या किसी अन्य रोग के कारण मौतें हुई हैं, तो उनका बुलेटिन देश को कौन देगा? जो बुलेटिन जारी किया है, उसमें अर्द्धसत्य निहित है। गोवा बुनियादी तौर पर पर्यटन-राज्य है। कुछ दिन पहले तक वहां फिल्मों और धारावाहिकों की शूटिंग चल रही थी। समंदर के बीच पर देशी-विदेशी सैलानियों की भीड़ थी। जब 30 अप्रैल तक संक्रमण दर 50 फीसदी को भी लांघ गई और कोविड का विस्तार होने लगा और लगातार पांच रातों में त्रासदियां घटीं, तो गोवा सरकार की आंखें फटी की फटी रह गईं। संक्रमण दर अब भी 35 फीसदी से ज्यादा है, जो खतरनाक है। गोवा में कोरोना से मौतों का कुल आंकड़ा 2000 को पार कर चुका है और डॉक्टर मान रहे हैं कि कमोबेश गोवा में कोरोना का ‘पीक’ अभी नहीं आया है। इन त्रासदियों के बाद कोरोना के 350 मरीजों को सुपर स्पेशलिटी ब्लॉक में शिफ्ट किया गया है, क्योंकि वहां ऑक्सीजन का स्वतंत्र प्लांट है, लेकिन जो मौतें हुई हैं, उनकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा?

3.ब्लैक फंगस की चिंता

कोरोना से उबरे कई लोगों को एक बहुत गंभीर बीमारी ब्लैक फंगस होने की खबरें देश के कई राज्यों से आ रही हैं। यह फंगस या फफूंद प्रकृति में काफी पाया जाता है, लेकिन यह बीमारी बहुत आम नहीं है, क्योंकि इसकी प्रवृत्ति ज्यादा संक्रामक नहीं है। पर अगर हो जाए, तो इसका इलाज बहुत आसान नहीं होता और बिना इलाज के यह संक्रमण घातक हो सकता है। भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं पहले ही कोरोना के बोझ तले चरमराई हुई हैं, ऐसे में यह एक अतिरिक्त बोझ है। हम कह सकते हैं कि देश की चरमराई हुई स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से यह नई मुसीबत आई है। यह संक्रमण आम तौर पर उन लोगों को होता है, जिनका प्रतिरोधक तंत्र किसी वजह से कमजोर हो। डायबिटीज के मरीज भी इसके शिकार हो सकते हैं, क्योंकि उनका शरीर भी नए संक्रमणों का मुकाबला करने में अपेक्षाकृत कमजोर साबित होता है। हालांकि, अभी इस संक्रमण के फैलने की वजह यह दिखाई देती है कि कोरोना के इलाज में शरीर के रोग प्रतिरोधक तंत्र को कमजोर करने वाली कॉर्टिकोस्टेराइड या कुछ अन्य दवाएं दी जा रही हैं। कोरोना के इलाज में कुछ हद तक ये ही दवाएं कारगर साबित हुई हैं। कोरोना की अपेक्षाकृत गंभीर स्थिति में वायरस के खिलाफ रोग प्रतिरोधक तंत्र की प्रतिक्रिया ज्यादा उग्र होती है, जिससे वायरस के साथ-साथ शरीर की अपनी कोशिकाएं भी नष्ट होने लगती हैं। रोग प्रतिरोधक तंत्र को दबाने वाली दवाएं इस प्रतिक्रिया की उग्रता कम करके नुकसान व पीड़ा कम करती हैं।
जाहिर है, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम करने के अपने खतरे हैं और उनके गंभीर दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसीलिए इन्हें किसी डॉक्टर की लगातार निगरानी में सावधानी के साथ लिया जाना चाहिए और जैसे ही उनकी जरूरत खत्म हो, उन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए। कोरोना में तो अपेक्षाकृत गंभीर मरीजों को ही ये दवाएं दी जानी चाहिए, नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मरीजों को इनकी जरूरत नहीं होती। हमारे देश में हुआ यह है कि कोरोना विस्फोट के चलते बड़ी तादाद में मरीजों को डॉक्टरों की निगरानी नहीं मिल पाई। ऐसे में, लोग एक-दूसरे की देखा-देखी या सोशल मीडिया पर प्रचारित नुस्खों को देखकर दवाएं लेने लगे। सोशल मीडिया पर यह प्रचारित हो गया कि कॉर्टिकोस्टेराइड डेक्सामेथासॉन कोरोना की सस्ती व कारगर दवा है, और लोग अपने मन से इसे लेने लगे। डॉक्टर भी काम के बोझ के नीचे ऐसे दबे हुए हैं कि एक-एक मरीज पर व्यक्तिगत ध्यान देना या उनकी निगरानी करना उनके लिए नामुमकिन है। वे भी कई बार यह ध्यान नहीं दे पाए कि किस मरीज को इन दवाओं की कितनी जरूरत है और किसे बिल्कुल नहीं। ऐसे में, ब्लैक फंगस जैसे संक्रमण के फैलने के लिए उर्वर जमीन पैदा हो गई। एक और खतरे की ओर कुछ डॉक्टरों ने ध्यान दिलाया है। कुछ लोग हमारे यहां यह प्रचारित कर रहे हैं कि शरीर पर गाय का गोबर लगाने से कोरोना से निजात मिलती है। ध्यान देने की बात यह है कि गोशालाओं, खासकर गोबर में ऐसे फंगस के फलने-फूलने के लिए उपयुक्त परिस्थितियां होती हैं। कई लोगों को ब्लैक फंगस इस वजह से भी हुआ हो, ऐसी आशंका है। बेहतर यही है कि लोग जहां तक हो सके, डॉक्टरों की सलाह से ही दवाएं लें और अगर ब्लैक फंगस का शक हो, तो  किसी भी सूरत में तुरंत इलाज कराएं।

  1. अनाथों के नाथ

पीड़ितों के लिए सामाजिक सुरक्षा की दरकार

देश में कोरोना संकट का कहर भयावह है। मानवीय स्तर पर भी और आर्थिक स्तर पर भी। कहीं बच्चे अनाथ हो गये हैं तो कहीं परिवार का कमाऊ व्यक्ति असमय काल-कवलित हो गया है। एक बड़ा मानवीय संकट है, जिसको लेकर सत्ताधीशों से संवेदनशील व्यवहार की दरकार है। विडंबना यह है कि राज्य सरकारों द्वारा कोरोना के वास्तविक आंकड़ों से खिलवाड़ किया जा रहा है। सही आंकड़ों से अकर्मण्यता की पोल खुलती है। देशी-विदेशी एजेंसियां कह रही हैं कि मरने वालों और दर्ज आंकड़ों में फर्क है। राज्यों के विभिन्न दूर-दराज के इलाकों से उपचार के लिये आने वाले मरीजों को महानगरों के मृतकों के आंकड़ों में दर्ज नहीं किया जाता। हाल ये है कि प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा है कि राज्य सच्चाई के साथ आंकड़े सामने रखें। बहरहाल, इस निर्मम समय में दो मुख्यमंत्रियों के उम्मीद जगाने वाले बयान सामने आये। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि कोविड महामारी में माता-पिता की मौत के बाद अनाथ हो गये बच्चों को हर माह पांच हजार रुपये की पेंशन दी जायेगी। सरकार ऐसे बच्चों की मुफ्त शिक्षा व मुफ्त राशन की व्यवस्था भी करेगी। वहीं केजरीवाल सरकार ने भी अनाथ हुए बच्चों की शिक्षा व जीवन-यापन का खर्चा उठाने की घोषणा की है। निस्संदेह ऐसे बच्चों को सामने लाना समाज व सरकारों की जिम्मेदारी भी है।

उम्मीद है कि सरकारें ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाएंगी। साथ ही सही आंकड़े सामने आयें। हालांकि, अभी कोरोना की दूसरी लहर का कहर जारी है और सही संख्या का पता महामारी के खात्मे के बाद ही चल पायेगा। फिलहाल तो सरकारों का ध्यान लोगों की जान बचाने पर होना चाहिए। सिर्फ बच्चे ही नहीं, ऐसे परिवारों की संख्या भी कम नहीं होगी, जिनके परिवार का कमाऊ सदस्य चला गया। ऐसी स्थिति बुजुर्गों के बेटे-बेटियों की भी हो सकती है। उन्हें भी सहायता कार्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। कोरोना संकट से तहस-नहस हुई अर्थव्यवस्था ने लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये, उनके बारे में भी सोचा जाना चाहिए। उन्हें जीवन-यापन के लिये अवसर कैसे दिया जा सकता है। केंद्र सरकार को भी इसमें सहयोग करना चाहिए क्योंकि राज्यों की अर्थव्यवस्था पहले ही कोविड संकट में चरमरा गई है। इसके लिये जहां सत्ताधीशों में इच्छाशक्ति की जरूरत है, वहीं प्रशासन के स्तर पर भी कोशिश हो कि सहायता की बंदरबांट न हो। पात्र लोगों को ही इसका लाभ मिले। ये घोषणाएं सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने और सस्ती लोकप्रियता पाने का हथकंडा बनकर न रह जाएं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी कहर बरपा रही है तो वहां भी मुसीबत के मारों की सुध ली जाये। कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता उनके पारदर्शी क्रियान्वयन में ही है। बेहतर होगा कि केंद्रीय स्तर पर ऐसी योजनाएं बनें और राज्यों के साथ बेहतर तालमेल के साथ उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाये। हालांकि, इस संकट का सबसे बड़ा सबक यही है कि हमारा तंत्र हर मोर्चे पर विफल रहा है।

 

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