इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!
1.चिकित्सकीय संवेदना हारी
पिछले पंद्र्रह महीनों से ठहर सी गई जिंदगी और टोह लेने का सबब फिर से जिंदा है। अंततः बड़े अस्पतालों ने ही पोत दीं अपनी दीवारें और लिख दिए कई खतरों के संकेत, क्योंकि जलती लाशों से उतरते हैं वही पैबंद, जो हमने मेडिकल कालेजों की संख्या बढ़ाते हुए पैदा किए। हिमाचल के असफल होते चिकित्सा ढांचे की इस वक्त खोदी जा रहीं कब्रें इन्हीं मेडिकल कालेजों के करीब खड़ी हैं, तो सवाल खोया और पाया के बीच इतना तो बता देता है कि गलितयों के तजुर्बे नहीं होते, बल्कि इसे आगे दौड़-पीछे चौड़ कहते हैं। हिमाचल में हर नए मेडिकल कालेज ने अपने आसपास के कई चिकित्सा प्रतिष्ठानों की हत्या करते हुए कम से कम ग्रामीण व्यवस्था को सबसे अधिक नुकसान तो पहुंचाया ही है। राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि गांव की ओर फैलते कोरोना के हिसाब से हिमाचल प्रथम पांच राज्यों में केवल छत्तीसगढ़ से पीछे खड़ा है। प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों में 79 फीसदी गांव से हैं, तो यह ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के बेदम होते हाल का वर्णन भी है। पिछले कुछ दिनों में कोरोना संक्रमण से मौत की संख्या में हुआ इजाफा उस ढोल की पोल खोलता है जिसे पीट-पीट कर तमाम नेताओं ने मेडिकल कालेजों को सिर्फ ऊंची इमारतों का जखीरा बना दिया। ये तमाम मौतें दरअसल चिकित्सा ढांचे के गुनाह की तरह हैं और जहां चिकित्सकीय संवेदना और इंतजाम दोनों ढह रहे हैं। आश्चर्य यह कि वेंटिलेटर या आक्सीजन के सिलेंडर को चलानेतक के प्रशिक्षण में प्रदेश की खानाखराबी जाहिर हो रही है। कहीं तो श्मशान की सिसकियां चिकित्सा के लचर प्रबंध को कोस रही हैं, फिर भी मुगालता यह कि हिमाचल ने अपनी हेकड़ी में मेडिकल यूनिवर्सिटी का तमगा पहन रखा है।
टांडा मेडिकल कालेज के अर्थहीन वजूद में मरीज तो बढ़ सकते हैं, लेकिन कौन पूछेगा कि करीब डेढ़ सौ करोड़ से निर्मित सुपर स्पेशियलिटी ब्लॉक को बंद करने की मंशा या सौहार्द क्या है। क्या इस दौरान हार्ट, कैंसर या न्यूरो संबंधित मरीजों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। इस दौरान प्रशासन को अगर निजी अस्पतालों की शरण लेनी पड़ रही है, तो यही है हिमाचल का भविष्य और योजनाओं का कचूमर। पिछले एक साल से सामान्य रोगों की सबसे अधिक ओपीडी निजी अस्पतालों में देखी गई, तो क्या सरकारी अस्पताल सिर्फ कोरोना की आड़ में छिप गए हैं कहीं। हिमाचल की व्यवस्था में पठानकोट तक के निजी अस्पतालों से अनुबंध करके कोरोना के जालिम पंजों से मुक्त होने की तरकीबें सोची जा रही हैं, लेकिन जब सामान्य परिस्थितियों में भी हिमाचली मरीज पड़ोसी राज्यों या प्रदेश के निजी अस्पतालों पर निर्भर थे, तो क्या स्वास्थ्य विभाग ने कभी अपने गिरेबां में झांका। कभी हिमाचल के एकमात्र मेडिकल कालेज (आईजीएमसी) का रिकार्ड बताता था कि प्रदेश को एक बेहतर संस्थान मिला है, लेकिन मेडिकल कालेजों के विस्तार ने इसकी बखिया भी उधेड़ दी। इस दौरान वरिष्ठता के नाम पर डाक्टरों की एक ऐसी सूची बनती गई जो आईजीएमसी, टीएमसी से होते हुए नेरचौक, हमीरपुर, नाहन तथा चंबा मेडिकल कालेज ही नहीं पहुंची, बल्कि बिलासपुर एम्स की सुविधाओं और लाभ के साथ जुड़ गई।
पिछले दिनों 85 डाक्टर एम्स पहुंच गए, तो क्या चिकित्सा विभाग नए घंघरू पहनकर नाचेगा। दूसरी ओर पपरोला आयुर्वेदिक कालेज की स्थिति भी परिसर की जर्जर इमारतोें के भीतर देखी जा सकती है। अब कोविड अस्पताल बनने की जद्दोजहद में यह संस्थान कहां पहुंचेगा, कोई नहीं जानता। बहरहाल कोरोना महामारी ने यह तो बता दिया कि बड़े चिकित्सा संस्थान भीतर से कितने खोखले व असमर्थ हैं, जबकि यह भी साबित हो चुका है कि मेडिकल कालेजों में मौत सिर्फ एक गिनती है-सबक नहीं। गांव तक पहुंचा कोरोना यह बता रहा है कि चिकित्सा की ग्रामीण व परंपरागत ढांचा किस तरह अक्षम व उपेक्षित है। ऐसे में मेडिकल कालेजों को सजावटी बना देने की खुशफहमी में प्रदेश ने कितनी ही डिस्पेंसरी, सीएचसी, पीएचसी, सिविल, क्षेत्रीय व जोनल अस्पतालों की व्यवस्था को धूल पर बिछा दिया है। वक्त चेतावनी दे रहा है कि मेडिकल कालेजों से निगाह हटा कर फिर से डिस्पेंसरी तक को प्रासंगिक बनाना पड़ेगा।
2.कोरोना पर ‘खेला’ करो
अब पश्चिम बंगाल में एक बार फिर ‘खेला’ शुरू हुआ है। इस बार ममता बनर्जी के सामने सीबीआई है। यानी परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोदी बनाम मुख्यमंत्री ममता बनर्जी..! यह ‘खेला’ फिलहाल रोका जा सकता था। सीबीआई तब शिकंजा कस सकती थी, जब कोरोना वायरस निर्णायक तौर पर शांत हो जाता। महामारी आज भी मौजूद है। संक्रमण के कुछ आंकड़े घटने लगे हैं, तो क्या हुआ? अब भी एक दिन में 2.63 लाख से अधिक लोग संक्रमित हुए हैं। मौतें 4329 हुई हैं। कुल मौतें 2.78 लाख से ज्यादा हो चुकी हैं। मौत के आंकड़े भयावह लग रहे हैं। इस बीच बंगाल की संक्रमण-दर करीब 30 फीसदी है। कर्नाटक के बाद बंगाल का स्थान ही है। बेहद खतरनाक हकीकत है। बिहार और उप्र से भी ज्यादा संक्रमण है। बंगाल में टेस्टिंग 10 लाख आबादी पर सिर्फ 700 की जा रही है। इस संदर्भ में भी बिहार और उप्र सरीखे बड़े राज्य बंगाल की अपेक्षा बेहतर हैं। ऐसे में ‘खेला’ कोविड के खिलाफ, संयुक्त रूप से, खेला जाना चाहिए था।
चुनाव खत्म हुए अंतराल बीत गया, सरकार और विपक्ष भी तय हो गए, कोसना-आरोप लगाना भी खत्म होना चाहिए, तो फिर इस नए ‘खेला’ की ज़रूरत क्या थी? राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति सीबीआई को दी थी, लेकिन ममता कैबिनेट के दो मंत्रियों-फिरहाद हाकिम और सुब्रत मुखर्जी-तथा तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेताओं-मदन मित्रा और सोवन चटर्जी-की गिरफ्तारी का वक्त स्थगित किया जा सकता था। नारद पोर्टल ने 2014 में स्टिंग ऑपरेशन किया था, जिसमें ममता सरकार के तत्कालीन 12 मंत्री आरोपित बनाए गए थे, जिन्होंने घूस ली थी। स्टिंग वीडियो में नेतागण मोटी, नकदी रकम लेते हुए दिखाई दे रहे थे। तृणमूल ने स्टिंग का खंडन किया था और वीडियो को संपादित करार दिया था। बहरहाल सीबीआई जांच का आदेश कलकत्ता उच्च न्यायालय ने दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उस पर मुहर लगाई थी, लिहाजा मामले को ‘विशुद्ध राजनीतिक’ करार नहीं दिया जा सकता। नारद स्टिंग के दो पक्ष हैं-कानूनी और भ्रष्टाचार संबंधी। दोनों की जांच देशहित में बेहद जरूरी है, लेकिन कोरोना की तुलना में उसे पीछे रखा जा सकता है। सीबीआई ने 2017 में जांच शुरू की थी, जबकि 2016 में स्टिंग ऑपरेशन सार्वजनिक होने के बावजूद जनादेश ममता बनर्जी को मिला था। ये निष्कर्ष 17 मई को ही सामने नहीं आए थे कि आरोपित नेताओं और मंत्रियों को गिरफ्तार करने की नौबत आ गई। अलबत्ता यह विशेषाधिकार सीबीआई को है, जिस पर अदालत का फैसला अंतिम होता है। इस मामले में भी अदालत ने चारों नेताओं को जमानत दे दी है, फिर भी उन्हें प्रेसीडेंसी जेल में रखा गया है, क्योंकि सीबीआई ने जमानत को चुनौती दी है। बहरहाल देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई को भी यह एहसास होगा कि यह कोरोना संक्रमण का ‘चरमकाल’ है, आपदकाल है, देश के सामने गंभीर मुश्किलें हैं। बंगाल में संपूर्ण लॉकडाउन की स्थिति है। सीबीआई ने गिरफ्तारियां कीं, तो उसकी सामूहिक जन-प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी। हजारों की भीड़ सड़कों पर उतर आई। बंगाल के कई इलाकों में आगजनी, तोड़-फोड़ की गई।
कोलकाता में उग्र और उन्मादी भीड़ ने सीबीआई दफ्तर पर पथराव किया, डंडे-लाठियां फेंकी और पानी की बोतलें उछाली गईं। टकराव और तनाव का माहौल कई घंटों तक कायम रहा। खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी करीब 6 घंटों तक सीबीआई दफ्तर में धरने की मुद्रा में बैठी रहीं। मुख्यमंत्री को ऐसे धरनों का विशेषाधिकार नहीं होता। ममता का आग्रह था कि सीबीआई उन्हें भी गिरफ्तार करे। सरकारी काम में हस्तक्षेप भी कानूनी अपराध है। बीती 2 मई को ही ममता बनर्जी को लगातार तीसरी बार जनादेश हासिल हुआ है, लिहाजा उनके प्रति एक उबलता जन-समर्थन स्वाभाविक था, लेकिन यह राष्ट्र-हित में नहीं था। न जाने किनसे संक्रमण फैला होगा और कौन संक्रमित हुए होंगे, अंततः झेलना तो देश को ही पड़ेगा। बंगाल पहले से ही कोविड के डाटा को छिपाता रहा है। वहां संक्रमण के असली आंकड़े सवालिया हैं। सीबीआई को इन परिस्थितियों का भी आकलन करना चाहिए था। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री धरने पर बैठी रहीं और कानून-व्यवस्था को बेलगाम छोड़ दिया गया। आखिर किसकी संवैधानिक जवाबदेही है? मुख्यमंत्री सिर्फ आंदोलनकारी नहीं हो सकता, लिहाजा राज्यपाल को कुछ कड़ी टिप्पणियां करनी पड़ीं, तो केंद्र बनाम बंगाल की व्याख्याएं की जाने लगीं। इस घूसकांड में कई और नाम भी हैं। उन्हें भी कटघरे तक लाना चाहिए। सीबीआई की जवाबदेही और तटस्थता अपेक्षित है, ताकि वह ‘तोते’ वाली छवि को खंडित कर सके।
3. प्लाज्मा थेरेपी पर फैसला
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्लाज्मा थेरेपी को कोविड-19 के लिए स्वीकृत इलाज की सूची से हटाने का फैसला किया है। पिछले साल भारत में हुए एक बडे़ अध्ययन में पाया गया था कि प्लाज्मा थेरेपी से कोविड-मरीजों को कोई फायदा नहीं होता। इसके बावजूद आईसीएमआर के दिशा-निर्देशों में इलाज का यह तरीका बना रहा। इसके बाद भी कई अध्ययनों से यही निष्कर्ष निकला कि इससे न तो कोविड संक्रमण की गंभीरता कम होती है, और न ही मरीज के जल्दी स्वस्थ होने की कोई उम्मीद होती है। पिछले दिनों ब्रिटेन में पांच हजार मरीजों पर एक बड़ा अध्ययन किया गया, जिसके नतीजे 14 मई को प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका लैन्सेट में छपे हैं। ये नतीजे भी यही बताते हैं कि कोविड-19 के इलाज में प्लाज्मा थेरेपी की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ समय पहले भारत के कई प्रमुख डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने केंद्र सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार डॉक्टर के विजय राघवन को चिट्ठी लिखकर प्लाज्मा थेरेपी को मान्यता प्राप्त इलाज की सूची से हटाने की मांग की थी। इन वैज्ञानिकों का कहना था कि प्लाज्मा थेरेपी अतार्किक व अवैज्ञानिक है और इसका कोई लाभ नहीं है। इसके अलावा, कोरोना के दौर में प्लाज्मा हासिल करना भी मुश्किल काम है। मरीजों के परिजनों को इसके लिए बेवजह ही भटकना पड़ता है। इन वैज्ञानिकों ने एक और गंभीर खतरे की ओर इशारा किया है। उनका कहना है कि प्लाज्मा थेरेपी के अनियंत्रित इस्तेमाल से हो सकता है कि वायरस के कहीं ज्यादा खतरनाक नए रूप पैदा हो जाएं। इन सब प्रमाणों और चेतावनियों के मद्देनजर आईसीएमआर ने प्लाज्मा थेरेपी को हटाने का फैसला किया है। हालांकि, हम नहीं कह सकते कि प्लाज्मा थेरेपी का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद हो जाएगा, क्योंकि कोविड के इलाज के लिए डॉक्टर और मरीजों के परिजन अक्सर जो भी इलाज संभव होता है, वह करते हैं, चाहे उसका असर प्रमाणित हो या न हो। लेकिन समझदार डॉक्टर इसका इस्तेमाल करने से बचेंगे और मरीज के परिजन प्लाज्मा हासिल करने की जद्दोजहद से।
जब प्लाज्मा थेरेपी को मान्यता दी गई थी, तब भी इसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध नहीं थी। तब कोरोना की पहली लहर तबाही मचा रही थी और इसके इलाज के बारे में बहुत कम जानकारी थी। लोग हर उस इलाज को आजमाने को तैयार थे, जिससे कुछ भी उम्मीद हो। प्लाज्मा थेरेपी के पीछे तर्क यही था कि जो लोग कोरोना से उबर जाते हैं, उनके रक्त में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी बन जाती हैं, जो उनकी कोरोना से रक्षा करती हैं। यदि कोरोना से उबरे हुए व्यक्ति के रक्त का प्लाज्मा किसी मरीज को चढ़ाया जाए, तो ये एंटीबॉडी वहां कोरोना के खिलाफ लड़ने में कारगर हो सकती हैं। यह तर्क सुनने में जितना जायज लगता है, व्यवहार में उतना कारगर साबित नहीं हुआ। वैसे भी, आईसीएमआर ने इसे ‘ऑफ लेबल’ इलाज के तौर पर मान्यता दी थी, जिसका तकनीकी मतलब जो भी हो, व्यावहारिक मतलब यही था कि इसके असर के बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। कोरोना का बहुत विश्वसनीय इलाज ढूंढ़ने की जद्दोजहद अब भी जारी है, इस बीच चिकित्सा विज्ञान भी बहुत कुछ सीख रहा है, अपनी कामयाबियों से, और कुछ अपनी गलतियों से। यह भी एक ऐसा ही उदाहरण है।
4.तबाही का ताउते
चुनौतियों से मुकाबले को स्थायी तंत्र बने
ऐसे वक्त में जब देश पहले ही कोरोना महामारी की दूसरी लहर से हलकान है, भीषण चक्रवाती तूफान ताउते का आना कोढ़ में खाज सरीखा कष्ट दे गया। महाराष्ट्र, केरल व कर्नाटक जैसे समुद्र तटीय राज्यों में कहर बरपाता तूफान गुजरात में तांडव मचाने पहुंचा। मौसम विज्ञान की उन्नति के चलते तूफान की सूचना समय रहते मिलने और पिछली तबाहियों से सबक लेते हुए शासन-प्रशासन के स्तर पर जो सुरक्षा के उपाय किये गये, उससे किसी हद तक जन-धन की हानि को टाला जा सका है। दरअसल, अतीत के अनुभवों से सबक लेते हुए हमने विकसित देशों की तरह चक्रवातों से जूझने का कौशल किसी हद तक हासिल भी किया है। मौसम विभाग का सटीक पूर्वानुमान इसमें सहायक बना है। इसमें राष्ट्रीय आपदा मोचन बल तथा राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल की मदद से तटीय आबादी को सतर्क करना मददगार साबित हुआ है। साथ ही खतरे की जद में आने वाले इलाकों के लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजने से जन-धन की हानि को कम किया जा सका है। गुजरात में निचले तटीय क्षेत्रों से करीब डेढ़ लाख से अधिक लोगों को निकालकर सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया था। इतना ही नहीं, काफी संख्या में कोविड-19 के मरीजों को भी सुरक्षा कारणों से अन्य स्थानों पर स्थानांतरित किया गया। ये वे मरीज थे जो वेंटिलेटर सपोर्ट पर थे। बाम्बे हाई के निकट तेल क्षेत्र में एक जहाज के डूबने और नौसेना के युद्धपोतों के प्रयास से बड़ी संख्या में लोगों को तो बचा लिया गया लेकिन कुछ इतने भाग्यवान नहीं थे। बहरहाल, अरब सागर से उठा यह चक्रवाती तूफान दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में निजी व सार्वजनिक संपत्तियों को काफी नुकसान पहुंचा गया। सड़कों पर पेड़ गिरने, बिजली की लाइनों को नुकसान पहुंचाने तथा कच्चे मकानों को ध्वस्त करने के साथ ही कुछ जिंदगियों को भी तूफान लील गया। कई इलाकों में तेज बारिश और जलभराव से सामान्य जीवन बाधित हुआ है। बहरहाल, कुल कितनी जन-धन की हानि हुई है, इसका आकलन करने में जरूर कुछ वक्त लगेगा।
बहरहाल, इस मुश्किल वक्त में इस तूफान का आना राज्यों की मुसीबतों को कई गुना करने जैसा रहा। जाहिरा तौर पर कोरोना के खिलाफ जारी राज्यों की मुहिम पर भी इसका प्रभाव बेहद प्रतिकूल पड़ा है। महाराष्ट्र व गुजरात पहले ही सर्वाधिक कोरोना संक्रमण प्रभावित राज्यों में शुमार हैं। वे अपनी पूरी ऊर्जा व संसाधन कोरोना संकट से जूझने में लगा रहे थे, ऊपर से यह नया संकट खड़ा हो गया। इस भीषण चक्रवाती तूफान की वजह से कई इलाकों में टीकाकरण कार्यक्रम को भी रोका गया। जाहिर सी बात है कि यह व्यवधान कोरोना संक्रमण के खिलाफ हमारी मुहिम को प्रभावित करेगा। लेकिन ये चक्रवाती तूफान हमें कई सबक भी देकर गया है। यह भी कि हम महसूस करें कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन का संकट हमारे जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा। भारत ही नहीं, अमेरिका समेत कई समुद्र तटीय देश इस जलवायु परिवर्तन के संकट को महसूस कर रहे हैं। निस्संदेह ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से चक्रवाती तूफानों की आवृत्ति में लगातार वृद्धि हुई है। दरअसल, यह स्थिति समुद्रों की सतह के तापमान में वृद्धि होने से पैदा हो रही है जो कालांतर समुद्री तूफानों की संख्या में वृद्धि करता है। हमें आने वाले समय में ऐसे तूफानों को अपनी नियति मानकर इनसे बचाव के लिये स्थायी तंत्र विकसित करना होगा। साथ ही आधुनिक तकनीक व सूचना माध्यमों से निगरानी तंत्र को समृद्ध करने की जरूरत है। वर्ष 1999 में ओडिशा में आये तूफान से हुई भारी तबाही के बाद इस राज्य ने ऐसा तंत्र विकसित किया है, जिससे जन-धन की हानि को कम किया जा सके। देश के अन्य समुद्र तटीय राज्यों को ओडिशा से सबक लेना चाहिए और अपना कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। यह जानते हुए कि जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट में लगातार वृद्धि हो रही है, संरचनात्मक विकास का ढांचा इसी के अनुरूप विकसित करने की जरूरत है। तभी जन-धन की हानि को कम किया जा सकेगा।