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Editorial Today (Hindi)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है!

1.कोई महाबली नहीं

कोरोना काल को विज्ञान नई परिभाषाओं में परख और समझ रहा है, लेकिन भारतीय समाज भी आज के दौर का ऐसा चश्मदीद गवाह है जो कल के संबोधन बदल सकता है। कोरोना बचाव के दायरे में नागरिक अनुभव की खरी खोटी जब लिखी जाएगी, तो राजनीति के काफिले तक खारिज होंगे या बदल जाएंगे नेताओं के तौर तरीके। फिलहाल आलोचना का ऐसा गठबंधन भी दिखाई दे रहा है, जो बिखरा तथा बहका-बहका सा है। कोरोना काल के चौदह महीनों ने एक साथ कई भूमिकाओं में सरकारों, दुकानदारों, शाहूकारों, राजनीतिक अवतारों और सरकारी सेवाओं के कर्मकारों का विश्लेषण भी करना शुरू किया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने का सौम्य सुझाव देते हैं, तो विषय सियासत की कलई उतार देता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अति साहस में, कितनी बार केंद्र बनाम राज्य की सीमारेखा पर पहुंच गए या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन की बोलियां लगाते कई मुख्यमंत्रियों के पास हिफाजत का यह भी एक मानदंड बन रहा है। लॉकडाउन से अनलॉक और अनलॉक से नई तरह की बंदिशों का कर्फ्यू आंख मूंद कर सोच रहा है कि बला टल जाए। कोविड काल के सर्वेक्षण में सत्ता की चाबियां और चाबुक गुम हो जाने का अंदेशा बढ़ रहा है, तो ऐसे में अमरीकी संस्था का आकलन जिन निष्कर्षों पर पहुंचा है वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शोहरत का गुलदस्ता 22 अंकों से लुढ़क रहा है, फिर भी 59 फीसदी लोग मानते हैं कि केंद्र सरकार कोरोना के हालात से जूझने में काफी या कुछ हद तक काम कर रही है।

 यही वजह है कि हर मुख्यमंत्री को एक्शन मोड में आना पड़ रहा है और जो आज भी संतुष्ट रहेंगे, उन्हें वक्त की कठोर सजा मिलेगी। यह समय सरकार के अलावा विपक्ष और बाजार से लेकर नागरिक अधिकार तक की पड़ताल कर रहा है। हिमाचल में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री द्वारा अपने प्रदेश विशेष तौर पर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में किए जा रहे योगदान हर अंश में एक प्रदर्शन है। पहली बार नेताओं का मूल्यांकन अवसरवादिता से हटकर इस वजह से हो रहा है कि वह अपने दायित्व का प्रदर्शन किस तरह करते हैं। यह विश्लेषण निचले स्तर तक और वार्ड पंच तक सिमटी राजनीति की जवाबदेही तय कर रहा है। यही वजह है कि सरकारों के संबोधन छोटी से छोटी गली तक पहुंचना चाहते हैं या यही दस्तूर कोविड के भयावह दृश्य में उम्मीद के सरोकार पैदा करेगा।

 हिमाचल में कांग्रेस के लिए विपक्ष में होते हुए भी अपनी भूमिका का प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती है। विपक्षी मिट्टी पर अखाड़े हो सकते हैं और एक हद तक जनता में विपक्ष की आवाज व तर्क ढूंढना सियासी जरूरत रहेगी, लेकिन जनसंपर्क के नए आह्वान पर पूरी पार्टी को एकजुटता के साथ कार्यक्रम चलाने चाहिएं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई नेताओं ने निजी तौर पर भी सत्ता पक्ष के सामने अपने योगदान व सहयोग के उदाहरण पेश किए, लेकिन एक समन्वित कार्यक्रम की कमी है। ये समय जमीन पर योगदान टटोल रहा है, इसलिए तमाम नेता अपने-अपने राजनीतिक बंधनों से हट कर यह सोचें या समाज के भीतर अपने कर्म की ऐसी जगह बनाएं ताकि हम सब मिलकर राज्य और राष्ट्र को फिर से पटरी पर ला सकें। भले ही टूल किट पर खड़े विवाद को भाजपा अपने आक्रमण की तोप पर रखे या कांग्रेस भी अपने गोले बरसा दे, लेकिन इस बार इतिहास, पक्ष-विपक्ष के बजाय उन चीखों को सुन रहा है, जहां सारे ताम झाम असफल और व्यवस्था असमर्थ हो रही है। राजनीति की दिहाड़ी में न यह वक्त कुछ अर्जित करेगा और न ही राष्ट्र के लिए यह किसी ऐसे मुहूर्त की घड़ी है जो बाद में कुछ बटोर पाएगी।

2.ममता कितनी सही

ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार बंगाल की मुख्यमंत्री चुनी गई हैं। वह सात बार लोकसभा सांसद भी निर्वाचित हुईं और केंद्रीय मंत्री भी बनीं, लिहाजा अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि वह संघीय ढांचे और प्रोटोकॉल को बखूबी समझती होंगी। देश का प्रधानमंत्री उनके लिए ऐसा चेहरा नहीं हो सकता, जिसके प्रति वह अमर्यादित और अशोभनीय आचरण करें। लोकतंत्र में भी कोई पदासीन व्यक्ति इतना अराजक नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री किसी भी दल का नेता हो, उसके प्रति अपशब्दों का प्रयोग अश्लील भी है और असामाजिक भी है। बेशक ममता बनर्जी ने बंगाल में लगातार तीन बड़े चुनाव जीते हैं, वामदलों और कांग्रेस को ‘अवशेष’ में तबदील किया है, वह विपक्ष की सामूहिकता का ‘प्रथम चेहरा’ हो सकती हैं, बशर्ते विपक्ष आम सहमति से तय करे, लेकिन इन तमाम हासिलों के मायने ये नहीं हैं कि ममता प्रधानमंत्री के प्रति सभी प्रोटोकॉल तोड़ें और संवैधानिक शिष्टाचार भी भूल जाएं। देश में उनके अलावा भी मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल हैं। यकीनन देश के संघीय ढांचे में कोई भी मुख्यमंत्री ‘कठपुतली’ नहीं है और न ही उसे बनाया जा सकता है। संविधान में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के अधिकार और दायित्व स्पष्टतः परिभाषित हैं। यह भी प्रावधान है कि प्रधानमंत्री देश के किसी भी अधिकारी से संवाद कर सकते हैं।

 वैसे भी सभी आईएएस और आईपीएस बगैरह अधिकारी केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय के तहत नियुक्त किए जाते हैं और यह मंत्रालय सीधा प्रधानमंत्री के अधीन है। लिहाजा अधिकारियों की आड़ में संघीय ढांचे के उल्लंघन को मुद्दा नहीं बनाया जा सकता। बहरहाल कोई मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री और डीएम (जिला मजिस्टे्रट) के संवादों में रोड़े बिछाए, तो यह मुख्यमंत्री की अपरिपक्वता और असंवैधानिकता ही है। बेशक ऐसे व्यवहार पर प्रधानमंत्री कोई कार्रवाई करना चाहें अथवा अबोध समझ कर ऐसे मुख्यमंत्री को नजरअंदाज़ कर दें, लेकिन मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर या किसी अन्य माध्यम से गुहार प्रधानमंत्री को ही करनी पड़ती है। ममता बनर्जी ने भी प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर सरकारी कर्मियों के टीकाकरण के लिए 20 लाख खुराकों की मांग की है। बीते गुरुवार को प्रधानमंत्री ने 10 राज्यों के 54 डीएम को संवाद का आमंत्रण दिया था, ताकि कोरोना वायरस के फैलते संक्रमण, उसे रोकने की रणनीति, ज़मीनी प्रयासों और स्वास्थ्य सेवाओं आदि पर विमर्श किया जा सके। डीएम के साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी मौजूद रहने को कहा गया था। इससे पहले भी पीएम 9 राज्यों के 46 डीएम के साथ विमर्श कर चुके थे। इस वर्ष यह पहला अवसर था कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी संवाद के दौरान मौजूद रहीं। वैसे पीएम विभिन्न मुख्यमंत्रियों के साथ आधा दर्जन वर्चुअल बैठकें कर चुके हैं, लेकिन ‘दीदी’ का अघोषित बहिष्कार ही जारी रहा है। क्या यह रवैया संघीय ढांचे और प्रोटोकॉल के पक्ष में माना जा सकता है? बैठकों में कोरोना संक्रमण से जुड़े पहलुओं की रणनीति पर व्यापक चर्चा होती रही और बुनियादी तौर पर फैसले भी लिए गए।

 वंचित कौन रहा? क्या ममता की जवाबदेही की व्याख्या की जाएगी? ‘दीदी’ ने नीति आयोग, भूमि सुधार कानून, एक देश एक चुनाव और 2020 से कोविड संबंधी ज्यादातर बैठकों का बहिष्कार किया। क्या ‘दीदी’ का प्रोटोकॉल कुछ और है? चूंकि अब पीएम-डीएम संवाद ही बैठक का एजेंडा था, लेकिन ‘दीदी’ ने उस पर भी बवाल मचा दिया कि मुख्यमंत्री बैठक में ‘कठपुतली’ की तरह बैठे रहे। उन्हें बोलने नहीं दिया गया। सिर्फ  भाजपा शासित राज्यों के डीएम ही बोल सके। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यहीं तथ्यात्मक रूप से बड़ी गलती कर दी, क्योंकि महाराष्ट्र, केरल, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आदि राज्यों के डीएम ने अपने-अपने पक्ष रखे। कमोबेश वे गैर-भाजपा शासित राज्यों के अधिकारी थे। दरअसल ‘दीदी’ से सवाल किया जाना चाहिए कि उन्होंने बंगाल के 9 जिला अधिकारियों को बैठक में आने से क्यों रोका? चूंकि उन जिलों में कोरोना संक्रमण का विस्तार भयावह स्तर पर हो रहा है, लिहाजा पीएम ज़मीनी यथार्थ को जानना चाहते थे। क्या ‘दीदी’ नहीं चाहती कि बंगाल से भी महामारी का संक्रमण खत्म होना चाहिए? यह तो देश-विरोधी प्रोटोकॉल माना जाना चाहिए। बैठक में मौजूद किसी भी मुख्यमंत्री ने संघीय ढांचे और प्रोटोकॉल का सवाल नहीं उठाया। दरअसल यह कोरोना महामारी का भयावह आपद्काल है। इस दौर में जि़ंदा रहना और एक-एक जिं़दगी को बचाना ही मकसद होना चाहिए। यह काली छाया भी छंट जाएगी, तो खूब सियासत कीजिए।

3. जरूरी युद्ध विराम

पिछले ग्यारह दिनों से चल रहे जिस फलस्तीन-इजरायल युद्ध ने सारी दुनिया को सांसत में डाल रखा था, उसमें आखिरकार युद्धविराम की घोषणा हो गई। वर्ष 1967 के अरब-इजरायल युद्ध के बाद यह फलस्तीन और इजरायल के बीच सबसे बड़ा संघर्ष था। अब तक के सभी अरब-इजरायल युद्धों की तरह यह भी निर्णायक नहीं हुआ और दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत का दावा किया। हमास का कहना है, उसने इजरायली हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया और इजरायल ने कहा कि उसने हमास के सैकड़ों लड़ाकों को मार गिराया। जीत के दावे अपनी जगह, लेकिन वास्तविकता यही है कि इस लड़ाई के असली शिकार भी दोनों पक्षों के आम नागरिक ही हैं। हमास का कहना है कि इस जंग में 253 फलस्तीनी मारे गए, जिनमें 65 बच्चे हैं। करीब 2,000 नागरिक इस लड़ाई में जख्मी हुए हैं। उधर इजरायल के 12 नागरिक मारे गए हैं, जिनमें एक सैनिक और एक बच्चा है। फलस्तीन में इस युद्ध से जो इमारतें गिरी हैं और बुनियादी सुविधाओं को नुकसान पहुंचा है, वह फलस्तीनियों के पहले से ही कठिन जीवन को और कठिन बना देगा। दूसरी ओर, इजरायल को पता चल गया है कि तमाम सैनिक वर्चस्व के बावजूद हमास पर निर्णायक जीत निकट भविष्य में संभव नहीं है और तमाम आयरन डोम सुरक्षा के उसके नागरिक पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं।

यह बहुत स्पष्ट है कि फलस्तीन-इजरायल विवाद का कोई निर्णायक हल युद्ध से नहीं निकल सकता। आखिरकार यह विवाद भी आपसी बातचीत और समझदारी से ही सुलझना है, लेकिन अभी दोनों पक्षों के पास ऐसा प्रभावी नेतृत्व नहीं है, जो शांति के लिए पहल कर सके, न अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में ऐसा कोई तटस्थ मध्यस्थ है, जिसकी ऐसी विश्वसनीयता हो। ऐसे विवादों में जो अक्सर होता है, वही यहां भी हुआ है कि दोनों तरफ के अतिवादियों ने मध्यमार्गी और शांतिप्रिय शक्तियों को हाशिये पर धकेल दिया है। लंबी खिंचती शांति-प्रक्रिया में धीरे-धीरे मध्यमार्गी फलस्तीनी मुक्ति संगठन और फलस्तीन के अधिकृत नेता महमूद अब्बास को अप्रासंगिक बना दिया है। उग्रवादी संगठन हमास के हाथों में असली ताकत है। हमास को इजरायल, अमेरिका और अन्य कई देश आतंकी संगठन मानते हैं। दूसरी तरफ, इजरायल में कट्टर दक्षिणपंथी ताकतें राजनीति में वर्चस्व बनाए हुए हैं। अगर इस लड़ाई से वास्तव में किसी को फायदा हुआ है, तो वह इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हैं। अगर यह लड़ाई न होती, तो नेतन्याहू के हाथ से गद्दी खिसक जाना तय था, क्योंकि वह बहुमत खो चुके थे। अब वह अगले चुनाव तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे। वैसे भी, पिछले लंबे दौर से नेतन्याहू राजनीतिक उथल-पुथल व भ्रष्टाचार के आरोपों से निपटने के लिए उग्र राष्ट्रवाद का सहारा ले रहे हैं। यह जंग अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहली अंतरराष्ट्रीय परीक्षा थी और वह भी इसमें उत्तीर्ण नहीं हुए। उनका ढुलमुल रवैया और जंग को रोक पाने में उनकी विफलता से अमेरिका के प्रगतिशील और उदार तबके में उनकी छवि को नुकसान पहुंचा है। अगर मध्य-पूर्व में कोई शांति की पहल कर सकता है, तो वह अमेरिका ही है और इसके लिए उसे अपने फौरी स्वार्थों को कुछ देर किनारे करना पड़ेगा। देखना यह है कि कौन अमेरिकी राष्ट्रपति यह हिम्मत दिखा पाता है।

 

 

4.धूर्त कोरोना

ब्लैक-व्हाइट फंगस की नयी चुनौती

सवा साल से तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को भय व अवसाद से भर दिया है। पहली लहर, दूसरी का भयावह कहर और तीसरी की आशंकाओं के बीच नित नयी सूचनाएं असमंजस व डर का वातावरण बना रही हैं। यही वजह है कि देश के विभिन्न राज्यों के जिलाधिकारियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा भी कि नित नये वेरिएंट सामने और घातकता में बदलाव लाने वाला यह वायरस बहुरूपिया है और धूर्त भी है। उन्होंने अब बच्चों और युवाओं को ग्रास बनाने वाले वायरस के खिलाफ नयी रणनीति बनाने और नये समाधान पर बल दिया। इस बीच केंद्र सरकार ने प्रदेश सरकारों को महामारी बनते ब्लैक फंगस को ‘महामारी कानून’ के तहत अधिसूचित करने को कहा है। इसके साथ ही जो नये शोध सामने आये हैं, उसके हिसाब से नयी एडवायजरी जारी की है। इसमें कहा गया है कि खांसने और छींकने से कोविड संक्रमण हवा में दस मीटर की परिधि तक चपेट में ले सकता है। इससे बचाव के लिये जारी दिशा-निर्देशों में डबल मास्क लगाने की सलाह भी दी गई है और कमरों में हवा का प्रवाह तेज करने को कहा गया है ताकि बंद कमरों में वायरस की अधिकता को कम किया जा सके। इसका निष्कर्ष यह है कि अब तक जिस बात पर वैज्ञानिक बल देते रहे थे, उसमें बदलाव की जरूरत है। आरंभ में वैज्ञानिकों का कहना था कि खांसने और छींकने में जो बूंदें सतह पर गिरती हैं, उससे संक्रमण फैलता है और यह हवा से नहीं फैलता। इसी क्रम में दो गज की दूरी और सतह को संक्रमण-रहित बनाने पर जोर दिया गया था। लेकिन नयी एडवायजरी से स्थिति बदलती नजर आ रही है। दरअसल, यह एक नयी महामारी है और इसके खिलाफ व्यापक शोध व अनुसंधान का वक्त नहीं मिल पाया है। संभव है धीरे-धीरे कई दूसरी मान्यताओं में भी समय के साथ बदलाव आये।

बहरहाल, कालांतर वैज्ञानिक शोध से यह ठीक-ठीक कहा जा सकेगा कि कोरोना वायरस वास्तव में हवा के जरिये कितनी दूर तक फैलता है। वह संक्रमण करने में कितने समय तक सक्रिय रह सकता है। लेकिन एक बात तो तय है कि कोरोना वायरस का संक्रमण हवा के जरिये फैलता है। इसके लिये जरूरी है कि कमरों में ताजा हवा की अधिकता हो। कमरे हवादार न होने पर वायरस के देर तक टिके रहने की स्थिति बन सकती है। ऐसे में वातानुकूलित कमरों में ताजा हवा का लगातार प्रवाह जरूरी है, जिससे संक्रमण की आशंका को टाला जा सकता है। दूसरे, देश में ब्लैक व व्हाइट फंगस के प्रकोप से फिर चिंताएं बढ़ गई हैं। इस बाबत एम्स दिल्ली के विशेषज्ञों द्वारा जारी गाइड लाइन में म्यूको माइकोसिस यानी ब्लैक फंगस का समय रहते पता लगाने तथा उसकी रोकथाम के उपाय बताये गये हैं। इसके जरिये डॉक्टरों व मरीज तथा उसके तीमारदारों को सलाह दी गई है कि समय रहते जोखिम वाले मरीजों की पहचान करके ब्लैक फंगस की शुरुआती जांच की जाये। इसमें इसके शुरुआती लक्षणों के बारे में भी बताया गया है। बताया जा रहा है कि म्यूको माइकोसिस के मामले उन रोगियों में देखे जा रहे हैं, जिन्हें स्टेरॉयड दिया गया। विशेषकर उन मरीजों में जो मधुमेह व कैंसर से ग्रस्त रहे हैं। लेकिन एक बात तय है कि मधुमेह और ब्लैक फंगस के बीच मजबूत संबंध हैं। एम्स ने आंखों के डॉक्टरों को ऐसे सभी जोखिम वाले मरीजों की ब्लैक फंगस के लिये बेसिक जांच करने की सलाह दी है। फिर लगातार ऐसे मरीजों की निगरानी कई हफ्तों तक की जानी चाहिए। बहरहाल, नित नये संकट पैदा करते कोरोना वायरस के मुकाबले के लिये जरूरी है कि बचाव की परंपरागत सावधानियों का पालन किया जाये। अब जब पता चला है कि वायरस हवा के जरिये भी फैलता है तो अतिरिक्त सावधानी जरूरी है। टीकाकरण इसका अंतिम समाधान है और वह फिलहाल लक्ष्य हासिल करता नजर नहीं आता तो बचाव ही उपचार है। मास्क के उचित प्रयोग, शारीरिक दूरी तथा खुली हवा की व्यवस्था बचाव के साधन ही हैं।

 

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